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नमक का कैदी

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : क्रिएटिव बुक कम्पनी प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3347
आईएसबीएन :81-86798-16-1

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अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक चर्चित कहानीकार की चुनी हुई कुछ कहानियों का संग्रह...

Namak Ka Kaidi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


1967-68 में लिखी गई इन कहानियों की पृष्ठभूमि दूसरी संतान का जन्म हो चुका था। इस बार जुड़वां बच्चे थे- एक लड़का और एक लड़की। लड़की चौबीस दिनों की होकर गुजर गई थी। पर इन कहानियों में इन घटनाओं की प्रत्यक्ष चर्चा नहीं है। हाँ पिछले दो वर्षों के अनुभवों की कटुता के कारण विनोद की वक्रता, यथार्थ की कटुता में बदलनी अवश्य लग रही थी। उसका आभास ‘हिंदुस्तानी’ में मिलता है।

स्वयं पिता बनकर अपने पिता को मैंने और निकट से जाना। शायद इसलिए वृ्दावस्था के प्रति संवेदना और सहानुभूति जागी। ‘खर्चा, डायरी और अस्पताल’ तथा ‘नमक का कैदी’ तो पिता जी से प्रायः संबंधित कहानियाँ है ही; ‘पारदान के जंगल’ भी उन्हीं के जीवन में घटित एक घटना पर आधृत कहानी है।
‘बला’ मेरे अपने संतान-मोह की रचना है।


शालिग्राम


हम दोनों-मैं और रीमा-अभी-अभी मिसेज़ शर्मा से मिलकर लौटे थे।
जब हम गए थे तो वह अकेली नहीं थीं। बाहर लॉन में ही चारपाई बिछाकर बैठी हुई थीं। उनके आस-पास ऊन की गुच्छियां, कुछ बुने-अधबुने स्वेटर, कुछ पैटर्न बुक्स और दूसरी पत्रिकाएं बिखरी पड़ी थीं।
तीन कुरसियों पर तीन सम्भ्रान्त महिलाएं बैठी थीं। उनके मध्य में एक गोल तिपाई पड़ी थी, जिस पर चाय के खाली कप पड़े हुए थे। साथ में एक फुल-प्लेट थी जिसमें थोड़ा सा चिउड़ा और मूंगफली के दानों का मिक्सचर पड़ा हुआ था। वह पूरी प्लेट में इस प्रकार बिखरा हुआ था जैसे खाने वाले हाथों में से छूट-छूटकर गिरा हो। शुरू में प्लेट अवश्य भरी हुई होगी। पर अब वही बचा था जो अंगुलियों से उठाया न जा सका हो।

दूसरी ओर एक छोटी मेज पर स्वेटर बुनने की जापानी मशीन पर एक लड़की काम कर रही थी और सारे लॉन में बिखरे बिखरे कुछ बच्चे खेल रहे थे। मिसेज़ शर्मा की छोटी लड़की पल्लव भी उनमें थी। शेष बच्चे या तो वहां बैठी हुई उन सम्भ्रान्त महिलाओं के थे, या आस-पड़ोस से आए हुए होंगे।
यह दृश्य हमारे लिए नया नहीं था। मेरी कल्पना में तो ये दृश्य मिसेज़ शर्मा के साथ इस प्रकार गुंथे हुए हैं कि उनसे पृथक् कर उन्हें देखा भी नहीं जा सकता।

सर्दियों के दिनों में धूप निकलने के पश्चात् से वह बहुधा इसी प्रकार चारपाई निकलवाकर बाहर बैठा करती हैं। उनके साथ-साथ उनकी बुनाई की मशीन, ऊन के विभिन्न रंगों के गोले और पत्रिकाएं अवश्य होती हैं। यदि उनकी छोटी लड़की स्कूल न गई, पल्लव हो तो वह भी आसपास ही होती है। उसके खिलौने चारपाई पर बिखरे होते हैं और वह हर पांच मिनट बाद कोई न कोई फरमाईश लेकर आती है, अम्मी !....’

बुनाई की मशीन पर काम करती हुई इस लड़की को भी मैं बहुत दिनों से देखता आ रहा हूं। पहले-जब मिसेज़ शर्मा के पास यह मशीन नहीं थी-तब भी वह उनके आस-पास ही कहीं बैठी हुई सिलाइयों पर कुछ न कुछ बुन रही होती थी।
वह होस्टल के पिछवाड़े में बने हुए नौकर-घरों में से किसी एक में रहती है। किसकी बेटी है-मैं नहीं जानता। जानने की कभी चेष्टा ही नहीं की। पर उसे मैंने हमेशा मिसेज़ शर्मा के पास ही देखा है।

पहले वह उनके पास बैठी स्वेटर बुनना इत्यादि सीखा करती थी। घर का छोटा-मोटा काम कर दिया करती थी। और फिर धीरे धीरे मिसेज़ शर्मा के माध्यम से उसे स्वेटर बुनने का काम मिलने लगा था। घर का काम उसने छोड़ दिया था। स्वेटर बुनने का ही ढेरों काम उसे मिल जाता था। शायद छह आने औंस के हिसाब से वह स्वेटर बुना करती थी तब।
फिर मिसेज़ शर्मा ने यह जापानी मशीन मंगवाई थी। पहले वह उस पर स्वयं सीखती रही थीं और वह लड़की उनको कभी ऊन पकड़ाती कभी पैटर्न बुक, कभी किरोशिया और कभी...

धीरे धीरे वह स्वयं मशीन पर काम करना सीखने लगी और मिसेज़ शर्मा उसे सिखाती रहीं। अब मशीन पर वह काम करती थी। मिसेज़ शर्मा कभी-कभी ही मशीन पर बैठती थीं।
उनके पास कुरसियों पर बैठी सम्भ्रान्त महिलाओं को मैं नहीं जानता था। पास पहुंचने पर, हमारा स्वागत करने के पश्चात् मिसेज़ शर्मा ने उनसे हमारा परिचय करवाया था-यह हैं-हमारे बेटे वीरेन्द्र पहले यहां पढ़ते थे, अब पढ़ाते हैं। फिर उन्होंने रीमा को अपनी बांहों में लेकर उसका परिचय दिया-यह है रीमा। हमारी बेटी भी है और बहू भी। यह भी पढ़ाती हैं।
उन्होंने रीमा का परिचय थोड़ा बदल दिया था।

मुझे अच्छी तरह याद है कि वह कहा करती थीं-यह हैं हमारे बेटे-वीरेन्द्र। और यह है हमारी बेटी रीमा।
एकबार मैंने ही हँसते हुए आपत्ति की थी-यदि मैं आपका बेटा हूँ तो रीमा आपकी बहू होगी। अगर यह आपकी बेटी है तो हम भाई-बहन बन जाएंगे और मुझे यह स्वीकार नहीं है।
यह बात शायद मैंने अपनी शादी से पहले कही थी-तभी  तो रीमा झेंप गई थी।
रीमा का परिचय उन्होंने बदल लिया था। पर मेरा वही था।

मैंने पहले दिन से ही उन्हें मिसेज़ शर्मा के रूप में जाना था। आज भी उनके लिए मैं और किसी सम्बोधन को अपना नहीं सका हूं। इसलिए या तो सम्बोधन से ही कतरा जाता हूं या फिर मिसेज़ शर्मा कहने की ही लाचारी को स्वीकार कर लेता हूं।
रीमा ने पहले ही दिन उन्हें आंटी कहना शुरू कर दिया था और आज भी मजे से कहे जाती है।
उन्होंने उन तीन महिलाओं का भी परिचय कराया, पर मैंने उन्हें जानने की चेष्टा ही नहीं की। इस प्रकार बहुत से लोगों के साथ मिसेज़ शर्मा के यहां भेंट हो जाती है। बाद में कोई मिलता नहीं। किस किसको कोई याद रखे।
और फिर मैं उनसे मिलने तो आया नहीं था। इस प्रकार मिलनेवालों को बहुधा मैं भूल जाया करता हूं।

परिचय तथा अन्य औपचारिक बातों के पश्चात् हम दोनों बैठ गए थे। हमारे लिए भी कुर्सियाँ मँगवा दी गई थीं। मैं अपनी कुरसी एक ओर कर, अमरूद के पेड़ के तने के साथ लगकर बैठ गया था।
अमरूद का यह पेड़ काफी पुराना है-इतना पुराना, जितना पुराना इस घर में मैं हूं। बल्कि मुझसे कुछ अधिक पुराना ही। क्योंकि जब मैं पहली बार यहां आया था, तब यह पेड़ एक ऐसा पौधा था जो पेड़ों के देश के दरवाजे तक पहुंच चुका था। तब तक कोई फल नहीं लगा था। इसमें पहली बार फल मेरे आने के बाद ही लगे थे।
वैसे मिसेज़ शर्मा के लॉन में यह पेड़ बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है।

जब कभी सर्दियों में वह बाहर धूप में बैठतीं और धूप कुछ तेज लगने लगती तो वह सूर्य की ओर पीठ कर लेती थीं। धूप तपाने ही लगे तो सिर पर साड़ी के पल्लू की ओट कर लेती।  और जब धूप बर्छियों-सी तीखी चुभन देने लगती तो इस पेड़ की ओट हो जाया करतीं।

मुझे याद है, जब पल्लव का जन्मदिन मनाया गया था तो भी खाने के लिए मेजें इसी पेड़ के चारों ओर लगी थीं। जितनी देर लोग आते जाते रहे थे, इस पेड़ की परिक्रमा होती रही थी। उस दिन इस पेड़ को सजाया भी तो बहुत गया था।
होली के हुड़दंग के पश्चात् भी तो हम इसी पेड़ की छाया में बैठ जाया करते थे-और जब तक शर्मा साहब हमें कोई अच्छी चीज़ खाने को नहीं देते थे तब तक हम जमकर बैठे रहते थे। उन दिनों मेरा कोई महत्त्व नहीं था निरीह-सा अनजान-अनचीन्हा मैं पीछे होकर बैठा रहता। पर ऐसे अवसरों पर भी शर्मा साहब के घर जाता जरूर था। सोचता होस्टल में रहना है तो होली के मौके पर और लड़कों के समान वार्डन साहब के घर जरूर जाना चाहिए। न गया और वह बुरा मान गए, तो ?

एक बार और भी अमरूद का पेड़ महत्त्वपूर्ण हो उठा था। तब हमने वेदान्त के भक्त विशाल जैन का मजाक उड़ाने के लिए, उसके सामने स्वामी विवेकानन्द का बर्थ-डे मनाने का विचार रखा था। और वह तुरन्त मान भी गया था। हमने सुझाया था कि विशाल के कमरे में ही यह बर्थ-डे मनाएंगे। कमरे को गुब्बारों से सजाएंगे। स्वामीजी का बर्थ-डे केक काटेंगे और गाएंगे-हैपी बर्थ-डे टू यू स्वामी विवेकानन्द..और यह सब होगा श्री विशाल जैन के खर्चे पर।
पर विशाल जैन-शायद सारा खर्च करने को तैयार नहीं हुआ था। हमें लगा कि कहीं सारा तमाशा ही ठप्प न हो जाए। इसलिए सबने थोड़े पैसे देने स्वीकार कर लिये थे।

फिर तो बड़ा समारोह हुआ। मैं और विशाल रामकृष्ण मिशन गए। वहां से स्वामी विवेकानन्द की एक तसवीर खरीदी। मोमबत्तियां खरीदीं। और शाम को थक-हारकर होस्टल लौटे।
कुछ लोगों ने यह भी कहा कि होस्टल में ऐसा फंक्शन हो, वार्डन साहब उसमें न आएं- यह तो बुरी बात है।
यह बात मुझे भी जंची थी।
मैं और विशाल दोनों ही गए थे शर्मा साहब को सपरिवार आमन्त्रित करने।
शर्मा साहब अनमने ढंग से यह तो मान गए कि वह आ जाएंगे, पर मिसेज़ शर्मा को होस्टल में जाने की अनुमति वह कैसे दे सकते थे, जबकि होस्टल में स्त्रियों का प्रवेश ही निषिद्ध था।
पर हम इसे कैसे स्वीकार करते। मैं तो उसके लिए बिल्कुल ही तैयार नहीं था।

शर्मा साहब वा्र्डन थे। वैसे भी हमारे अध्यापक थे। स्थान, पद और आयु से हमारे अभिभावक या पिता के स्थान पर थे। मिसेज़ शर्मा हमारी मां के समान थीं। फिर यह कैसे हो सकता था कि वह हमारे फंक्शन में न आएं-केवल एक सामान्य नियम के कारण।
हम अड़ गए कि मिसेज़ शर्मा के बिना यह फंक्शन ही नहीं होगा। यदि वह विशाल के कमरे में नहीं आएंगी तो हम फंक्शन को ही उनके घर पर ले आएंगे।
शर्मा साहब को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। और हम अपना सारा सामान उठाकर शर्मा साहब के घर पर आ गए थे।
पर बातों का रुख बदल गया था।
शर्मा साहब और मिसेज़ शर्मा फंक्शन में सम्मिलित हो गए थे। फिर उनके सामने न तो हम स्वामीजी का मजाक उड़ा सकते थे, न विशाल जैन का।

फिर हर चीज़ बड़े गरिमायुक्त ढंग से हुई। मोमबत्तियों की जगह मिसेज़ शर्मा ने पीतल के दीपक जलाए। हैप्पी बर्ड डे...’ के स्थान पर संस्कृत के श्लोक पढ़े गए और कुछेक व्याख्यान भी हुए। फंक्शन की भी प्रशंसा हुई-उसकी व्यवस्था करने वालों की भी और स्पिरिट की भी।...और होस्टल में वेदान्त समिति बनते-बनते रह गई। बन जाती तो विशाल उसका प्रधान बनता और मैं सचिव...
मेरे एलबम के अन्तिम पृष्ठ पर एक समूह-चित्र भी लगा हुआ है, जो इसी लॉन में खींचा गया है। उस चित्र की पृष्ठभूमि में वही अमरूद का पेड़ दिखाई पड़ रहा है।

मेरे एलबम के अन्तिम पृष्ठ पर है, इसका अर्थ है कि वह बहुत पुराना नहीं है। यह तब का है, जब मैं एम.ए. के अन्तिम वर्ष में था सन् 1962 या सन् 1963 के आरम्भ का। पूरी तरह से कुछ याद नहीं है। 1962 में भारत की उत्तरी और पूर्वी सीमा पर चीनियों का आक्रमण हुआ था। असम की सीमा तक आ गए थे चीनी। हमारे होस्टल के असमी लड़के बहुत घबरा गए थे। कुछ एक की तबीयत भी खराब हो गई थी। वे लोग असम के संसद सदस्यों से भी मिलने गए थे। शायद प्रधानमंत्री से भी मिले थे।

तब प्रधानमंत्री का अर्थ था केवल जवाहरलाल नेहरू ! क्योंकि भारत के इतिहास में दूसरा कोई प्रधानमंत्री हुआ ही नहीं था। उन लड़कों ने आकर बताया था कि प्रधानमंत्री ने कहा है कि हमें खेद है कि हम असम को नहीं बचा सकेंगे। पता नहीं उन्होंने सच कहा था या....
दिल्ली में आए इन असमी लड़कों की बात मुझे बिलकुल पसन्द नहीं थी। जरा सी बात हुई और उठकर चल दिए, अपने संसद सदस्यों से मिलने...
तो भी एक नाटक हुआ था हमारे कॉलेज में-राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए !

नाटक तो वैसे भी हमारे कॉलेज में होते रहते थे। हर कॉलेज में होते हैं। और मैं नाटकों में अकसर भाग लेता था। हर नाटक करने के बाद सोचता नाटक में बहुत समय नष्ट होता है। इसलिए अगली बार नाटक नहीं करूंगा। पर अगले नाटक की बात होती, तो फिर तैयार हो जाता।

परन्तु इस बार मैं एम.ए. के अन्तिम वर्ष में था। यह तो सारे जीवन का प्रश्न था। एम.ए. में प्रथम श्रेणी आ गई, तो आप अच्छे विद्यार्थी माने जाएंगे। नौकरी मिलेगी। विद्वान कहलाएंगे और माने जाएंगे। जीवनभर की निश्चिंतता। अच्छी जगह शादी। सुन्दर पत्नी और फिर उचित समय में सुन्दर बच्चे....और यदि श्रेणी न आई, तो निकम्मा विद्यार्थी निकम्मा आदमी। न अच्छी नौकरी न अच्छी पत्नी...
शर्मा साहब हमारे वार्डन थे। हमारा परीक्षाफल होस्टल का यश बढ़ाता था और वार्डन की प्रशंसा होती थी।
पर वह ही कॉलेज के नाटकों के डायरेक्टर भी थे। फिर वह नाटक के लिए मुझे कैसे कहते, जब वर्ष के आरम्भ में मुझे सब काम छोड़कर केवल पढ़ाई करने के लिए कह चुके थे।

पर शर्मा साहब को अपनी पसंद का नायक नहीं मिल रहा था। बात मुझ तक पहुंच चुकी थी। कॉलेज में नाटक हो और शर्मा साहब उसमें मुझे न लें-मेरा रक्त उफन रहा था। अच्छा हुआ उन्हें नायक नहीं मिला। न मिले-नाटक न हो।
पर शर्मा साहब ने मुझसे नहीं कहा।

बातों के सिलसिले में उन्होंने मुझे बताया था कि कॉलेज में राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए नाटक करवा रहे हैं। और यह भी बताया था कि उन्हें नायक के उपयुक्त कोई लड़का नहीं मिल रहा है। पर आगे...आगे उन्होंने कुछ नहीं कहा। और मैंने भी अपनी ओर से कुछ नहीं कहा।
मैं अपनी ओर से कुछ भी कहने में संकोच कर रहा था और शर्मा साहब अपनी ओर से।

अन्त में बात माथुर साहब ने की थी। माथुर साहब अंग्रेजी के लैक्चरर थे और होस्टल में रहते थे। हमसे एक आध साल सीनियर थे। पिछले साल विद्यार्थी थे, इस साल अध्यापक हो गए थे। जैसे अगले ही साल मैं हो गया था।
माथुर साहब थे तो लैक्चरर, पर उनसे हमारी दोस्ती ही थी। पहले कम कम, फिर बहुत सारी। ऐसी कि कॉलेज के लड़कों के सामने हम उन्हें पुकारते थे-‘‘सर...’’
और माथुर साहब जल भुनकर कार्बन हो जाते।
वह जानते थे हम उन्हें ‘सर’ कहकर चिढ़ा रहे हैं।

नाटकों के मामले में माथुर साहब शर्मा साहब के सहायक थे। आखिर उन्होंने मुझसे कहा। मैं तो पहले से ही तैयार था।
तो वह नाटक हुआ था। उसी के साथ अंग्रेजी का एक नाटक भी हुआ था। और दोनों नाटकों के लोगों को मिलाकर एक समूह-चित्र लिया गया था। वही चित्र मेरे एलबम के अंतिम पृष्ठ पर लगा हुआ है और उसकी पृष्ठभूमि में यही अमरूद का पेड़ आया हुआ है।
उस चित्र में शर्मा साहब और माथुर साहब बैठे हुए हैं। साथ में एक ओर सरोजजी बैठे हैं-हमारे विभाग के अध्यक्ष। और दूसरी ओर देवदत्त हैं। नाटक में प्रॉम्पटर का काम किया था उसने।

पीछे हम खड़े हैं-मैं और नाटक की नायिका। अब वह मिसेज़ देवतत्त बन गई है। दोनों का विवाह हो गया था बाद में। फिर शायद शर्मिला है। अंग्रेजी के नाटक में थी वह। वह जब शर्मा साहब के घर पर होती तो होस्टल से राजन किसी न किसी बहाने से जरूर वहां आ जाता था।

मुझे याद है-जब हम इस चित्र के लिए वहां इकट्ठे हुए थे, तो भी राजन सामने के गेट से वहां आ गया था। बिलकुल ऐसे-जैसे बहाना न पाकर और बहुत सारे लोगों को वहां देख-वह पिछवाड़े के दरवाजे से बाहर निकल गया था।
उसकी इस हरकत का कारण सब समझते थे। और यह भी जानते थे कि अब शर्मिला यहां से जल्दी-से-जल्दी भागेगी और राजन कम्पाउंड के बाहर उसकी प्रतीक्षा में खड़ा होगा, फिर दोनों किसी रेस्तरां में जा बैठेंगे।
बहुत दिनों से मैं उन लोगों से मिला नहीं हूं। नहीं जानता कि उनका अन्त में क्या हुआ है। उन्होंने शादी की या नहीं।
तो उस दिन हमारा समूह-चित्र खींचा गया जो मेरे एलबम के अन्तिम पृष्ठ पर लगा हुआ है। इस चित्र के पश्चात् हमें मिसेज़ शर्मा ने अच्छी-सी चाय पिलाई थी।

मैं उसी अमरूद के पेड़ के साथ अपनी कुरसी टिकाकर बैठा था।
हमारे आ जाने से शायद मिसेज़ शर्मा द्वारा दिए गए-बेटे बहू वाले परिचय से भी-उन तीन सम्भ्रान्त महिलाओं के मन में उठने का विचार आ गया था। हमने भी आपस में कोई बात न करके यही दिखाया था कि हम उनके उठने की प्रतीक्षा में हैं।
थोड़ी देर में वे उठकर चली गई थीं।
छोटी सी पल्लव दौड़ती आई थी और अपनी रीमा जीजी से लिपट गई थी। रीमा की उसके साथ बहुत दोस्ती है। पल्लव की शोख बातें रीमा को बहुत पसंद हैं। और पल्लव आयु से बहुत आगे की बातें करती है, संकोच एकदम नहीं है।
पर जब भी उसकी शोखी बदतमीजी को छूने लगती है, रीमा उसे एक आध चपत लगा देती है और पल्लव भाग जाती है।
पल्लव फिर भाग गई थी और रीमा तथा मिसेज़ शर्मा में दूसरों की बातें आरम्भ हो गई थीं।

मिसेज़ शर्मा ने शौकिया स्वेटरें बुननी आरम्भ की थीं। शौकिया ही उन्होंने मशीन खरीदी थी। पर अब पूरा कारखाना खुल गया था। कितने ही विभाग हो गए थे। एक विभाग पैटर्न बुक्स का था। वह विभिन्न स्थानों से पैटर्न बुक्स खरीदती थीं। महिलाओं की नई-से नई पत्रिकाएँ एकत्र करती थीं। उनसे नए नए ढंग सीखतीं। उन्हें अपनी मशीन पर ट्राई करतीं। बहुत सारे लोग उनसे पैटर्न सीखने आ जाया करते थे।
दूसरा विभाग ऊनों का था। कौन-सी ऊन कैसी है ? कौन सी नई है ? किस का स्टॉक कहां से आया है और किस दुकान से कितना कन्सेशन मिल सकता है ?
तीसरा विभाग बुनने वालों का था। कौन लड़की कैसा बुनती है ? उनके पास आस-पास की बहुत सारी लड़कियां आ जाया करती थीं और मिसेज़ शर्मा उन्हें विभिन्न आर्डर दे दिया करती थीं।

काम लोगों का होता था। बुनती बहुत सारी लड़कियां थीं। काम अच्छा हो गया तो और काम आ जाता और बुनने वाली लड़कियों की आय बढ़ती। काम खराब हो जाता तो बातें मिसेज़ शर्मा को सुननी पड़तीं...
‘‘क्या करूं, बेटा !’’ मिसेज़ शर्मा कह रही थीं, ‘‘पुलिस का सिपाही था कोई। जाने उसे कहां से पता लगा। ऊन दे गया-अपने मन से स्वेटर बनवा दें....न साइज ही दे गया, न पैटर्न ही। और आज बनी-बनाई जर्सी फेंक गया है कि उसे पसन्द नहीं है। अब बोलो, मैं क्या करूं ?’’
‘‘आंटी ! आप बीच में पड़ती ही क्यों हैं ?’’ रीमा ने कहा।

‘‘बेटे ! मैं न पड़ूं तो इन लड़कियों को तो कोई आर्डर ही नहीं देगा न!’’
‘‘आप तो पूरा इस्टैब्लिशमेंट चला रही हैं।’’ मैंने कहा-‘‘आप अपने लिए कमीशन क्यों नहीं लेतीं ?’’
‘‘कई बार सोचती हूं, वीरेन्द्रजी !’’ वह अपनी कमजोर आवाज में हंसीं-‘‘पर वह काम अपने बस का है ही नहीं।’’
मैं उन्हें बहुत दिनों से एक स्कूल कम-सोशल सेंटर खोल लेने के लिए कह रहा हूं। उनमें जितना काम करना पड़ता है, उतना तो वह पहले ही कर रही हैं। पर वह हर बार हंसकर उड़ा देती हैं।
बहुत सारी पैटर्न बुक्स देखकर रीमा ने एक डिजाइन पसन्द कर लिया था। वह असल में आई इसी काम के लिए थी। ऊन वह पहले ही दे चुकी थी।

‘‘यह शारदा नहीं बुन पाएगी’’-मिसेज़ शर्मा ने कहा-‘‘इसे सावित्री को ही दूंगी। वह एक औंस पर दो आने ज्यादा जरूर लेती है। पर उसका हाथ साफ है..’’
‘‘यह शारदा नहीं बुन पाएगी’’-मिसेज़ शर्मा ने कहा-‘‘इसे सावित्री को ही दूंगी। वह एक औंस पर दो आने ज्यादा जरूर लेती है। पर उसका हाथ साफ है...’’
‘‘अच्छा, आंटी !’’ रीमा ने चलने का संकेत दिया।
‘‘अच्छा, बेटे !’’ वह हमें विदा करने उठीं।

पल्लव फिर लौट आई थी। रीमा ने उसकी पीठ को अपने साथ टिकाकर, उसके चेहरे को अपनी हेथेलियों में पकड़कर ऊपर उठा रखा था। और पल्लव उलटकर ऊपर देखती हुई पूछ रही थी-‘‘फिर कब आओगी, रीमा दीदी ?’’
‘‘तुम हमारे घर कब आओगे, बच्चे ?’’ रीमा उससे पूछ रही थी।
‘‘आप इस बार हमारे घर नहीं आईं।’’ मैं मिसेज़ शर्मा से शिकायत कर रहा था।
‘‘बेटे ! देखो, अब क्या करूं...’’ मिसेज़ शर्मा हंस पड़ीं, ‘‘हर बार वायदा करती हूं फिर नहीं आ पाती। कभी तो तबीयत खराब हो जाती है, कभी कोई आ जाता है। नीरव भी आजकल यहां नहीं है। मैं खुद बहुत शर्मिन्दा हूं।’’
‘‘अगले इतवार को जरूर आइएगा।’’ मैंने कहा।

‘‘कोशिश करूंगी।’’ वह बोलीं-‘‘तीन-चार दिनों में नीरव भी आनेवाली है। उसे लेकर आऊंगी।’’
‘जरूर आइएगा।’’ रीमा बोली।
पर घर से निकलते-निकलते ही मेरे मन में यह बहुत स्पष्ट हो चुका था कि मिसेज़ शर्मा ने वचन ही दिया है, वह आएंगी नहीं। और मेरे मन में एक प्रकार की तल्खी-सी उभर आई।
मैं कभी इस ओर आता हूं तो मेरे मन में होस्टल के बहुत सारे पुराने चित्र घूमने लगते हैं। एक-से-एक याद आई है। आदित्य मुझसे जूनियर था काफी। पर होस्टल में काफी लोकप्रिय था।

 

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