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रहिमन धागा प्रेम का

मालती जोशी

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3369
आईएसबीएन :81-88121-27-4

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यह मध्यवर्गीय परिवार में रहने वाली एक नारी की कहानी का वर्णन है....

Rahiman dhaga prem ka

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘‘पापा, अगर आप सोच रहे हैं कि जल्दी ही मुझसे पीछा छुड़ा लेंगे तो आप गलत सोच रहे हैं। मैं अभी दस-बीस साल शादी करने के मूड में नहीं हूँ। मैं आपके साथ आपके घर में रहूँगी। इसलिए यह घर हमारे लिए बहुत छोटा है प्लीज़, कोई दूसरा बड़ा-सा देखिए।’’

‘‘तुम शादी भी करोगी और मेरे घर में भी रहोगी, उसके लिए मैं आजकल एक बड़ा-सा घर और एक अच्छा-सा घर-जमाई खोज रहा हूँ। रही इस घर की तो यह तुम्हारी माँ के लिए है। वह जब चाहे यहाँ शिफ्ट हो सकती है। शर्त एक ही है-कविराज इस घर में नहीं आएँगें और तुम्हारी माँ के बाद इस घर पर तुम्हारा अधिकार होगा।’’

अंजू का मन कृतज्ञता से भर उठा। उसने पुलकित स्वर से पूछा, ‘पापा, आपने माँ को माफ कर दिया ?’’
‘‘इसमें माफ करने का सवाल कहाँ आता है ? अग्नि को साक्षी मानकर चार भले आदमियों के सामने मैंने उसका हाथ थामा था, उसके दुःख का जिम्मा लिया था। जब उसने अपना सुख बाहर तलाशना चाहा, मैंने उसे मनचाही आजादी दे दी। अब तुम कह रही हो कि वह दुखी है तो उसके लौटने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया। उसके भरण-पोषण का भार मुझ पर था। गुजारा-भत्ता तो दे ही रहा हूँ, अब सिर पर यह छत भी दे दी।’’

इसी पुस्तक से

अपनी बात


आम तौर पर लेखक दो प्रकार के होते हैं। एक वे, जो आम आदमी की बात तो बहुत करते हैं, पर उनका कथ्य इतना जटिल, शैली इतनी क्लिष्ट और भाषा इतनी दुर्बोध होती है कि आम आदमी उनकी रचनाएँ पढ़कर सिर धुनने लगता है; पर अगम्य होने के कारण ही उनकी रचनाएँ श्रेष्ठ साहित्य की श्रेणी में आती हैं। समीक्षक भी उन्हें सिर-माथे लेते हैं।
दूसरी श्रेणी के लेखक जनसाधारण की बात जनसाधारण की भाषा में कहते हैं। इसीलिए उनके पाठकों की संख्या बहुत होती है। पर पाठकों का प्यार उन्हें महँगा पड़ता है, क्योंकि समीक्षक लोग उन्हें घास नहीं डालते।
दुर्भाग्य से मैं दूसरी श्रेणी में आती हूँ। दुर्भाग्य शब्द का प्रयोग इसलिए कर रही हूँ कि हमारे यहाँ लोकप्रियता को घटियापन का पर्याय मान लिया गया है। जिस साहित्य को ज़्यादा लोग पढ़ते हैं उसे श्रेष्ठी जन चालू मानते हैं। इसी के चलते समीक्षक मुझ जैसे रचनकारों को उल्लेख के योग्य भी नहीं समझते।

समीक्षकों की उपेक्षा से मन मारकर बैठ गई होती तो मेरा साहित्यिक जीवन कब का समाप्त हो गया होता, पर जिस तरह दुकानदार ग्राहक को अपना भगवान् मानता है, मैं पाठकों को अपना भगवान् मानती हूँ। जब तक उनकी कृपादृष्टि रहेगी, मुझे लिखने से कोई नहीं रोक सकता।
पिछले तीस-चालीस वर्षों से अनवरत लिख रही हूँ। सारी कहानियों को अगर एक शीर्षक में बाँधना हो तो कहना पड़ेगा कि ये मध्यवर्गीय जीवन का दस्तावेज हैं। मैं स्वयं इसी वर्ग से हूँ इसलिए मध्यवर्ग के सुख-दुःख, राग-द्वेष, आशा-आकांक्षा से अच्छी तरह परिचित हूँ। मध्यम वर्गीय परिवार या मध्यवर्गीय नारी मेरी कहानियों का केंद्रबिंदु रहे हैं।

मेरी कहानियाँ मेरी तरह ही घरेलू हैं, घर-आँगन में सिमटी हुई हैं। उनका यह घरेलूपन उनकी कमज़ोरी भी है और शक्ति भी। इसी कारण वे आलोचना का शिकार भी होती हैं, समीक्षक उन्हें खारिज कर देते हैं और इसी घरेलूपन के कारण वे लोकप्रिय भी हैं। पाठक इन कहानियों में अपने जीवन का प्रतिबिंब देखते हैं।

मुझसे कई बार कहा गया कि मालती जी, जरा अपनी चारदीवारी से बाहर निकलिए और देखिए कि दुनिया कहाँ जा रही है-कि और भी गम हैं जमाने में गृहस्थी के सिवा। मैं इस तथ्य को जानती हूँ और मानती भी हूँ; पर क्या करूँ, कथा बीजों के लिए बाहर भटकना मेरी फितरत में नहीं है। मैं यह स्वीकार करती हूँ कि मेरा अनुभव क्षेत्र सीमित है, पर मुझे है कि बाहर झाँकने की जरूरत ही नहीं पड़ती। केवल अपने को बहुश्रुत सिद्ध करने के लिए मैं नई-नई गढ़ नहीं सकती। और मैं मानती हूँ कि उधार के अनुभवों से किसी श्रेष्ठ रचना का निर्माण नहीं हो सकता।

एक और बात, अपना औरत होना मुझे कहीं से भी हीन नहीं करता। अपने स्त्रीत्व का मैं प्राणपण से जतन करती हूँ। मेरी कहानियों में एक सौम्य-शालीन परिवेश बना रहता है। न मेरा कथ्य कभी मर्यादा का अतिक्रमण करता है, न भाषा औचित्य की सीमा लाँघती है। और इसके लिए मुझे कोई प्रयास भी नहीं करना पड़ता। मैं तो इसी प्रकार के वातावरण में पली-बढ़ी हूँ। इस लिए मेरे लिए यह सब सहज और स्वाभाविक है।
असंख्य पाठकों के प्यार-दुलार ने मुझमें सतत ऊर्जा  का संचार किया है। उन्हें नमन।


मालती जोशी


रहिमन धागा प्रेम का



अचानक फोन पर योगिता की आवाज सुनकर वह चौंक गई, ‘‘कहाँ से बोल रही है मोटी !’’
‘‘यहीं से और कहाँ से !’’
‘‘कब आई ?’’
‘‘आज ही आई हूँ और कल चली जाऊँगी। बाकी जो पूछना हो, यहीं आकर पूछना। प्लीज़, जल्दी से आ जा। साथ ही खाना खाएँगे। बहुत सी बातें करनी हैं।’’

अंजू मन ही मन हँस दी। बातें तो करनी ही होंगी। मुझसे अच्छा श्रोता कहाँ मिलेगा ? वहाँ ससुराल में तो सिर नीचा करके और होंठ सीकर ही रहना पड़ा होगा। ‘हनीमून’ के सारे किस्से मन में खदबदा रहे होंगे या फिर पतिदेव के उसी दोस्त की सिफारिश करनी होगी, जिससे शादी में मिलवाया था।

अंजू को दोनों ही बातों में रुचि नहीं थी। दूसरों के ‘हनीमून’ के किस्से चटखारे लेकर सुनने वालों में से वह नहीं है, न ही उसे उन मित्र महोदय में ही कोई रुचि थी। अपनी शादी के बारे में तो उसने सोचना ही छोड़ दिया है। पापा को अकेले छोड़ जाने की कल्पना भी वह नहीं कर सकती। इसीलिए तो उसने पी.एच.डी. की है। कम से कम थीसिस पूरी होने तक तो शादी की बात टाली ही जा सकती है।
फिर भी योगिता से मिलने की उत्सुकता तो थी ही। एक बार बंगलौर चली जाएगी तो फिर पता नहीं कब मिलना होगा। कह तो रही थी-अब अपनी मर्ज़ी से आना जाना थोड़े ही हो सकता है। एक दिन की ब्रेक जर्नी करनी थी, उसके लिए भी हाईकमान से परमिशन लेनी पड़ी। बेचारी योगिता !

तैयार होकर बाहर निकली तो पापा हमेशा की तरह बरामदे में बैठे पेपर पढ़ रहे थे।
‘‘पापा ! मैं कॉलेज से सीधे योगिता के घर निकल जाऊँगी। आप लंच पर वेट न कीजिएगा।’’
‘‘ठीक है।’’ पापा ने कहा। वह सीढ़ियाँ उतरी ही थी कि उन्होंने आवाज़ दी, ‘‘तुमने अभी क्या कहा ? योगिता के घर जाओगी ? लेकिन वह तो ससुराल में है न !’’
‘‘ससुराल में थी। अब पति के साथ बंगलौर जा रही है। एक रात के लिए ब्रेक जर्नी की है।’’
‘‘ओ.के.।’’ पापा ने कहा और फिर अखबार में डूब गए। बेचारे पापा ! दुनिया जहान की खबरें पढ़ते रहते हैं, पर अपना घर कब खबर बन गया, उन्हें पता ही नहीं चला।

योगिता दरवाज़े पर ही प्रतीक्षा करती मिली। अंजू को देखते ही गले लग गई। अंजू ने महसूस किया कि इन तीन चार हफ्तों में उसका वज़न कम से कम तीन किलो बढ़ गया है। शादी के लिए बड़ी मुश्किल से दुबली हुई थी, अब जैसे सारी बाधाएँ हट गई थीं।
‘‘मोटी ! तू फिर अपनी पुरानी लाइन पर जा रही है-बी केयरफुल !’’
‘‘चुप कर ! मम्मी तो ऐसा कह रही थीं कि आधी रह गई हूँ।’’
‘‘मम्मी तो ऐसा कहेंगी ही। मां को तो अपना बच्चा हमेशा दुबला-पतला ही नज़र आता है। पर तुम्हारे यहाँ आईना भी तो होगा ?’’

‘‘एक तो इतनी देर करके आई हो और आते ही भाषण शुरू ! यहाँ भूख के मारे बुरा हाल हो रहा है।’’
‘‘मेरा भी। तुम्हारा फोन आने के बाद तो मैंने नाश्ता भी नहीं किया। सोचा अपनी लाड़ली के लिए आंटी ने बढ़िया-बढ़िया पकबान बनाए होंगे, पेट में जगह रखनी चाहिए।’’
सचमुच योगिता की मम्मी ने खाने का लंबा-चौड़ा इंतजाम किया हुआ था। लगता था, उसकी सारी पसंदीदा चीजें बना डाली हैं। वे उसे ठूँस-ठूँसकर खिला रही थीं। आज अंजू की ओर उनका जरा भी ध्यान नहीं था। योगिता ही बीच-बीच में उसकी प्लेट में जबरदस्ती कुछ न कुछ डाल रही थी। खाने के साथ-साथ आंटी की कमेंट्री भी चल रही थी, ‘‘मम्मी से मनुहार करवाकर खाने की आदत है न, तभी तो वहाँ अधपेट उठ जाती होगी। वहाँ मनुहार करने के लिए कौन बैठा है ?’’
‘‘क्यों, मेरी सास नहीं है ? इतनी अफेक्शनेट है...’’

‘‘अरे, रहने दे। मैं क्या नहीं जानती, सास और वह भी यू.पी.की। अफेक्शनेट है तो इतना-सा मुँह क्यों निकल आया है ?’’
‘‘अब तुम्हारी बराबरी थोड़े ही कर सकती है।’’
अंजू को यह सब देख-सुनकर हँसी भी आ रही थी और ईर्ष्या भी हो रही थी। मन में टीस सी उठ रही थी-कल को अगर वह ससुराल से लौटेगी तो उसका इतना लाड़-दुलार कौन करेगा ? पापा तो शायद ठीक से कुशलक्षेम भी न पूछ पाएँ। वे अपने को ठीक से व्यक्त ही नहीं कर पाते। उनसे ज़्यादा मुखर तो बिहारी काका हैं। शायद वे ही उसे योगिता की मम्मी की तरह मनुहार करके खिलाएँगे, बेटी के दुबला होने को लेकर सास को कोसेंगे।

‘‘एक तो इतनी देर लगाकर आई है और अब मुँह में दही जमाकर बैठ गई है !’’ योगिता ने कहा तो अंजू चौंकी। सच तो यह है कहाँ तो उनकी बातें थमने का नाम ही नहीं लेती थीं और कहाँ अब उसे शब्द ढूँढने पड़ रहे हैं। खाना खाते समय भी वह गुमसुम बनी रही और अब कमरे में आकर भी चुप्पी साधे है। योगिता के कुरेदने पर चौंककर बोली, ‘‘इस कमरे की सज्जा थोड़ी बदल गई है न ?’’
‘‘थोड़ी क्या, एकदम कायापलट हो गई है। आजकल मनीष ने इसे हथिया लिया है। कहता है, कब तक बड़े के साथ लटका रहूँगा। कल को उनकी शादी हो जाएगी तो मुझे देश निकाला मिलना ही है।’’
‘‘चलो, अच्छा हुआ जो तुम्हारी शादी हो गई, नहीं तो बेचारे को बरामदे में गुजारा करना पड़ता। बाई द वे, तुम्हारे श्रीमान् जी कहाँ हैं ?’ नजर नहीं आ रहे हैं !’’

‘‘वाह ! बड़ी जल्दी याद आई तुम्हें !’’
‘‘अरे, याद तो तुम्हें देखते ही आ गई थी, पर मैंने सोचा कि मेरे डर से तुमने उन्हें कहीं छिपा दिया है। फिर सोचा कि मैं न सही, वे तो अपनी इकलौती साली से मिलने के लिए बेताब होंगे, अभी आ जाएँगे। पर जब नहीं आए तो पूछना ही पड़ा। तुम्हारे साथ आए तो हैं न ?’’
‘‘आए तो हैं, पर जरा बड़े भैया के साथ मंडीदीप गए हैं।’’
‘‘बाप रे, इतनी दूर भेज दिया। मुझसे इतना डरती हो ?’’ अंजू अब मूड में आ गई थी।
‘तुम्हारी वजह से नहीं, अपनी गरज से भेजा है। सोचा, अगर यहीं कोई अच्छा सा जॉब मिल जाए तो इतनी दूर न जाना पड़े।’’




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