लोगों की राय

उपन्यास >> गोधूलि

गोधूलि

भैरप्पा

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :311
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3378
आईएसबीएन :9788189982546

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

419 पाठक हैं

गोधूलि जीवन के प्रति आस्था और मूल्यों के संघ्रर्ष का संकेत है

Godhuli

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘वंशवृक्ष’ ‘उल्लंघन’ तथा ‘पर्व’ जैसे महान उपन्यासों के यशस्वी कृतिकार श्री भैरप्पा के श्रेष्ठतम उपन्यसों में है-‘गोधूलि’। कर्नाटक के ग्रामीण अंचल के माध्यम से भैरप्पा ने भारतीय अस्मिता की पहचान को ‘गोधूलि’ में सांस्कारिक गौरव के साथ उभारा है।
प्रमाणिकता के साथ निर्लिप्तता भैरप्पा के लेखन की विशेषता है जो ‘गोधूलि’ में उभरकर सामने आयी है। ‘गोधूलि’ के कई संस्करण कन्नड में निकल चुके हैं। कन्नड तथा हिन्दी में यह उपन्यास फ़िल्माया भी जा चुका है ।
‘गोधूलि’ जीवन के प्रति आस्था और मूल्यों के संघर्ष का संकेत है।
विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच पारस्परिक साहित्यिक आदान-प्रदान श्रंखला की एक कड़ी के रूप में कन्नड के इस महान उपन्यास ‘गोधूलि’ का दूसरा हिन्दी संस्करण प्रस्तुत है।


भूमंडल के मध्य में,
शोभित है कर्नाटक देश
उसके कालिंग ग्वाले की, कथा मैं कैसे बतलाऊ  ?

यह कविता स्कूल के बच्चों की पाठ्य-पुस्तक की एक कहानी का एक अंश है। इसे गांव की पाठशालाओं और सरकारी स्कूल के बच्चे जिस तरह बयान करते हैं और जिस, प्रकार कालिंग गौड़ा इसे सुनाता है, उन दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है। स्कूलों के बच्चों के लिए तो यह एक पाठ्य- पुस्तक में शामिल गौ की कथा मात्र है, पर गौड़ा के लिए यह उसके वंश में घटी एक सच्ची घटना है। कहानी इस प्रकार है

पुण्यकोटि नाम की गाय अपने बछड़े को याद करती घर लौट रही थी।
  आज मिल गया मुझे शिकार,
सोचकर दुष्ट व्याघ्र ने
आकर घेर लिया, उस लाचार पशु को।
तब वह गाय उस शेर से बोलीः
है प्रार्थना एक मेरी, सुनो सिंहराज,
घर में है एक नन्हा बछड़ा सुकुमार,
पल-भर को उसे दूध पिलाकर,
आ जाऊँगी स्वयं तुम्हारे द्वार।

यह कहकर गाय घर गई और उसने बछड़े को दूध पिलाया। जब वह लौटने लगी तो उसका बछड़ा बोलाः माँ, क्यों जाती हो यूं ही मरने, मुझे अनाथ क्यों बनाती हो ?

रहो यहीं पर चुपचाप।
तब माँ बोलीः
सत्य ही है हमारा पितु-मात,
सत्य ही है बन्धु-भ्रात,
सत्य ही से यदि टले हम,
 तो मानेगा क्या राम इसे, तात !

अपने बछड़े को यह उपदेश देकर वह वहां से चल दी और उस घने जंगल के बीच स्थित गुफा में बसे सिंह के सम्मुख जाकर बोलीः

ले, मेरे शरीर के खंड-खंड को,
खा ले मेरे माँस को,
पीकर मेरी छाती का गर्म रक्त,
ले भू पर सुख की साँस।
उसके सत्य से प्रभावित होकर सिंह बोलाः
क्या पाऊँगा तुझको खाकर,
ऐ मेरी सहोदरा !

तेरे पाँव पर शीश नवाकर, छोड़ दूँगा प्राणों को अपने। और उसके बाद उस सिंह ने

आठ दिशाओं पर दृष्टि डाल,
उछल कर आकाश की ओर,
छोड़ दिए प्राण तत्काल।

उस पुण्यकोटि गौ ने लौटकर जब यह कहा कि शिव ने उसे सिंह के मुंह से बचाया और उस सिंह को मोक्ष दिया तो गौशाला का स्वामी गौड़ा उसके चरणों में गिर पड़ा। तब उस गौ ने कहाः

तेरे वंश की गौऔं में,
तेरे वंश के ग्वालों में,
हर वर्ष संक्रांति के पर्व पर,
हो कृष्ण-भजन।
तब ग्वाला बोला
हमारे वंश में, साल में एक बार,
 जब संक्रान्ति का पर्व आएगा,
दूध, खीर की ज्योनार करेंगे,
ऐसे त्योहार मनाया जाएगा।

कालेनहल्लि का कालिंग गौड़ा ही उस पुण्यकोटि गौ की गौशाला के मालिक कालिंग गौड़ा का वंशज था। इस बात के लिए पर्याप्त प्रमाण भी हैं। उस कालिंग गौड़ा के नाम पर ही इस गाँव का नाम कालेनहल्लि पड़ा। यह बात उस जिले के भौगोलिक इतिहास लिखने वाले एक अँग्रेज ने संशोधन करके निष्कर्ष रुप में लिखी है। कालेनहल्लि गाँव का अब भी कालिंग गौड़ा ही मुखिया है। उसके वंश में सदा से अगली पीढ़ी के बड़े बेटे का नाम कालिंग गौड़ा ही रखा जाता है। उसके वंश में प्राप्त वंश-वृक्ष से यह बात और भी पुष्ट हो जाती है। इस गौड़ा के दादा का नाम भी यही था, उसके दादा का नाम भी यही था। इस गौड़ा के पोते का भी, जो अब एक साल का है, कालिंग ही नाम रखा गया है। यह बच्चा गौड़ा तब कहलाएगा जब यह बड़ा होकर गौशाला की जिम्मेदारी संभालेगा।

हमारा यह गौड़ा भी पुराने कालिंग ग्वालों का वंशज है और कालेनहल्लि से ही पुण्यकोटि गौ की कहानी का संबंध है। इसके लिए और भी असंदिग्ध आधार है।

पुण्यकोटि गौ की कथा का कालेनहल्लि, अरूणाद्रि पर्वत की तलहटी में है। आपके मन में यह शंका उठ सकती है कि वह पर्वत कोई सामान्य पर्वत रहा होगा और किसी ने अरुणाद्रि नाम दे दिया होगा, पर बात ऐसी नहीं है। इस बात को सिद्ध करने के लिए कालेनहल्लि प्रदेश में अनेक निश्चित प्रमाण हैं।

इस पहाण के आसपास दस-बारह कोस के विस्तार में अलग-अलग सात पर्वतश्रेणियाँ हैं। दोपहर को जब आकाश में बादल न हों तो अरूणाद्रि पर्वत पर चढकर चारों ओर नजर दौड़ाकर ये सातों पर्वत अच्छी तरह देखे जा सकते हैं। पुराने जमाने में ये पर्वतश्रेणियाँ घने जंगलों से आच्छादित थीं, और यह सिद्ध करने के लिए अधिक प्रमाणों की आवश्यकता नहीं। हमारे कालिंग गौड़ा की उम्र वाले जब जवान थे तब तो  वहाँ भयंकर जंगल था।

कालिंग गौड़ा ने बड़े-बड़े पेड़ों से भरे जंगल भी देखे थे। जब वह केवल बीस वर्ष का ही था यानी अब से तीस वर्ष पहले जंगल का कटना शुरू हुआ और वे ख़त्म भी होते जा रहे थे सागौन के बड़े-बड़े पेड़ बड़े-बड़े शहरों में घर बनवाने के लिए प्रयोग में लाए भी गए। आम, जामुन, शीशम, कीकर आदि के पेड़ शहरी लोगों की रसोईं का ईंधन बन गए। चंदन के पेड़ कारखानों में जाकर चंदन का तेल और साबुन का रूप धारण करके विदेश जा पहुँचे। जब बड़े नर वृक्ष ही न रहे तो, नाग चंपा, बिल्व, सेमल आदि नाजुक पेड़ कैसे बचते। पीपल ही जब न रहा तो उसकी उसकी पत्नीं नीम कैसे रहती ? पर इधर-उधर दो-चार वट वृक्ष-भर बचे हैं।

हमारा कालिंग गौड़ा अब पचास का है, फिर भी वह प्रातः उठकर नदी में स्नान करता है। माथे पर तिलक धारण करके अपनी शिखा बाँधता है। धोती और कुर्ता पहनता है। ज़रीदार पगड़ी बाँधे उँगलियों में छापे की अँगूठी पहनता है। तीज त्योहारों पर विशेष प्रकार का कुर्ता और पगड़ी पहने हल्के पीले रंग का दुपट्टा ओढ़े शोभायमान होता है।

कालेनहल्लि के मुहाने पर ही कालिंग गौड़ा का घर है और घर के पिछवाड़े गौशाला। वैसे देखें तो उसका पूरा घर ही गौशाला है। रास्ते की ओर खुलने वाले दरवाजे की तरफ उसके परिवार का निवास है, वह भी केवल रसोई बनाने-भर को। उसकी पत्नी, बेटा, बहू और एक साल का पोता सब लोग सारा समय गौशाला में ही बिताते हैं। सौ पशुओं की गोठ को साफ़ करना कोई हँसी-खेल है ?

गौशाला के पिछले हिस्से में अब भी आम का पेड़ है। उसके नीचे बैठकर गौड़ा चरागाह से लौटती गायों को बांसुरी बजाकर बुलाता है। उसकी गौशाला के तीन भाग हैं- एक हल और गाड़ी खींचने वाले बैलों का, दूसरा बछड़े-बछियों का और तीसरा केवल गायों का। कालिंग गौड़ा प्रत्येक गाय का नाम जानता है। जब गौड़ा किसी गाय का नाम लेकर पुकारता है तब उस नाम वाली गाय उसकी ओर गरदन उठाकर देखती है। उसके हाथ के इशारे से बुलाने पर वही गाय पास आकर उसके हाथ और शरीर को सूँघती है और उसके शरीर के खुले हिस्सों को अपनी खुरदरी जबान से चाटती है। चराने के लिए जब वह उन्हें चरागाह ले जाता है तब पता नहीं कितनी बार उनका नाम लेकर पुकारता है- ‘ओ पारोती’ खेत की तरफ़ मत जा’, अरी लक्ष्मी आ, आ’, गंगा आ’, अरी गौरी क्यों नाच रही है ? चर्बी चढ़ गई है क्या ?’ कहकर चिल्लाता है। गंगा, गौरी, तुगभद्रा, पारवती, सरस्वती, धर्मदेवी, रंगनायकी, सीता, कामधेनु आदि सभी देवी-देवताओं के नाम उसकी गौओं के हैं। एक-एक को यदि वह दिन में दस बार भी पुकारे तो दिन में कितनी बार उसकी जबान पर देवताओं का नाम आता है। उसका विश्वास है कि रोज इतना पुण्य कमाने से उसका मरकर नरक जाना तो सम्भव है ही नहीं।

अपने वचन को निभाने के लिए सिंह की माँद में जाने वाली और शिव की कृपा से जीवित लौट आने वाली उस पुण्यकोटि गौ की नस्ल की गायें आज भी उसकी गौशाला में हैं। वे ऊँची और औसत शरीर वाली, शुभ्र-सफ़ेद रंग की होती हैं। उनके सींग लम्बे होनेपर भी कुछ मुड़े हुए होते हैं; मारने पर भी किसी को चोट नहीं लगती है। खुर ऐसे होते हैं कि चलने पर धरती पर स्पष्ट छाप छोड़ जाते हैं। सुन्दर सुमंगली सुहागिन की लंबी चोटी जैसी उसकी पूँछ होती है। उसका शरीर थोड़ा भारी होता है। पीछे से भी देखें तो दोनों टाँगों के बीच भरे-भरे थन, चौड़ी छाती और लम्बी गरदन के तले का कोमल भाग अति सुन्दर होता है। पुण्यकोटि नस्ल के बच्चे भी ऐसे ही होते हैं। कोई सामने आये तो सींग न मारना, पीछे आये तो लात न मारना, कोई बच्चा भी आकर थन में मुँह लगाये तो दूध न रोकना, उस नस्ल की गायों का स्वभाव है। उसके बछड़े भी ऐसे ही हैं। काम में सदा आगे रहते हैं, कभी सींग नहीं मारते, कभी खूँखार नहीं होते, सदा आराम से जुगाली किया करते हैं।
कालिंग गौड़ा जब कभी गुस्से में आकर दूसरी गायों को डाँटता, ‘तेरी अक्ल खराब हो गई क्या, मार खायेगी देख, ’ आदि  सख्त बातें उसके मुंह से निकल जातीं, पर वह पुण्यकोटि को कभी डाँट न पाता। उसी की नस्ल की गाय थी न, जो अपने वचन को निभाने के लिए शेर के मुँह में चली गई थी। आज भी संक्रांति के पर्व पर खीर बनाते समय वह पहले पुण्यकोटि की पूजा करता।

कालिंग गौड़ा जाति का ग्वाला था। उसके कहने के अनुसार, केवल वही ग्वाल जाति का नहीं बल्कि हर मर्द ग्वाला ही होता है और हर औरत ग्वालिन। गौ की पूजा करने वाली ही ग्वालिन होती है और गौपालन करने वाला भी ग्वाला होता है। बड़े-बड़े ऋषि भी गौ पालते थे और ऋषि पत्नियाँ गौ की पूजा किया करती थीं। वे ग्वाले नहीं थे क्या ? गंगड़िकार, दास गौड़ा, नोणब, बणजिग, हारुव आदि ग्वालों की सैकड़ों जातियाँ हैं। यह सब ग्वालों के ही भेद हैं। चाहे वे तिलक लगाए या विभूति धारण करें, कौन है जो गौ-पूजा नहीं करता ?

कालिंग गौड़ा एकदम निरक्षर नहीं है। गौ से संबंधित कथा जबानी सुनाकर उसका अर्थ बताता है। जैमिनी पुराण के भी कुछ सर्ग उसे कंठस्थ हैं। गदग (कन्नड़ महाभारत) नहीं जानता है, पर कोई उसे पढ़कर सुनाये तो उसका अर्थ निकाल सकता है। कालेनहल्लि से दो मील दूर स्थित उग्रहार में ब्राह्मण जोइस हैं। वे ही आसपास के सभी गाँवों के पुरोहित हैं। दूर-दूर के गाँवों के लोगों का कहना है कि कालिंग से पाँच वर्ष छोटे नरसिंह जोइस केवल संस्कृत ही नहीं जानते, बल्कि वेद-पुराणों के भी ज्ञाता हैं। जब कभी भी नरसिंह जोइस कालेनहल्लि आते हैं या कालिंग गौड़ा ही उनके अग्रहार जाता है तो वह जोइस से ऐसे प्रश्न अवश्य पूछता है, ‘नर-सप्पा, आपने जो वेद पढ़े हैं न, आप ही बताइये ऋषि-मुनि सब ग्वाले नहीं थे क्या ?’

‘हाँ-हाँ कहकर जोइस ने केवल उसकी बात का समर्थन किया करते बल्कि मंत्रों के उद्धरण देकर, जैसे-मात रुद्राणां दुहिता  वसूनां स्वसाऽऽदित्यानाममृतस्य नाभिः-गौ रुद्र की माता है, बसू  की पुत्री है, अमृत का भंडार है और तेंतीस करोड़ देवता उसमें निवास करते हैं। चाहे किसी भी देवता की पूजा करो, गौ-पूजा होगी। इसलिए जो भी देवताओं की पूजा करते हैं वे सब ग्वाले ही हुए।

कालिंग गौड़ा ने अब तक दूध के लिए गायें नहीं पालीं। कोई दूध के लालच में भला मां को पालता है ? इस बारे में उनका अपना ही तर्क हैः हम माँ से जन्में हैं, पैदा होने के बाद उनके दूध से हमारा मोह बढ़ता है। पर दूध के लालच से मां को प्राप्त करना सम्भव है क्या ? और इस तरह प्राप्त करने से माँ जैसी वस्तु मिलती भी है क्या ? गौ की भी यही बात है। गौमाता, भूमाता, और जन्म देने वाली माँ-इन तीनों को कौन प्राप्त कर सकता है या किसी को दे सकता है ?

वह यह बात मानने को तैयार न था कि गौ केवल मनुष्य को दूध देने भर की चीज है। हमें जन्म देने वाली माँ गाय के बछड़े को दूध क्यों नहीं पिलाती ? इसी प्रकार गाय का दूध अपने बछड़े के लिए ही पैदा होता है। लेकिन मानव-माता से गौमाता अधिक पुण्यवान है। उसके थन और भी बड़े हैं। इसलिए उसके थन में इतना दूध आता है जो उसके अपने बच्चे के बाद मानव के लिए भी बचा रहता है। पर इस बारे में भी उसका एक और तर्क था कि बछड़े के पी लेने के बाद बचने वाला दूध ही हमारा होता है। उसकी गौशाला में जब किसी भी गाय का दूध निकाला जाता तो बछड़े को अलग नहीं बाँधा जाता था। एक ओर के दो थनों को बछड़ा चूसता रहता और बाक़ी दो थनों से गौड़ा की पत्नी या बहू दूध दुहा करती।
गौशाला में गाय बाँधने के लिए एक अलग जगह थी। प्रत्येक गाय की अलग खोर और नाँद थी। लेकिन उनके बछड़ों को वह अपने रहने के स्थान में ही एक वाड़ा-सा बनाकर रखता। उनमें भी नवजात बछड़ों को गौड़ा, उसकी पत्नी, उसका बेटा और बहू अपने-अपने कंबल के बिस्तर पर सुलाते हैं। यदि बछड़े कभी-कभार बिस्तर में मूत भी देते तो भी उन्हें बुरा नहीं लगता। उनका विचार था कि हमारे बच्चे बिस्तर गीला नहीं करते ? वैसे ही बछड़े भी करते  हैं। मनुष्य के बच्चों के पेशाब की अपेक्षा बछड़ों का मूत्र अच्छा होता है। वह तो पंचगव्य होता है। बछड़ा या गाय से गौड़ा जब तक अपनी पीठ चटवा नहीं लेता तब तक उसे नींद न आती। आधी रात में करवट बदलते हुए जब नींद उचटती तो पास सोये बछडे़ पर हाथ फेरकर उससे दो बातें करके वह फिर से खर्राटे लेने लगता है ।

सुबह उठते ही लोटे में रखे पानी से मुँह धोकर पूर्व दिशा के स्वामी को हाथ जोड़कर नमस्कार करता। दूध दुहने के लिए बछड़ों को गौओं के पास छोड़ता तो हर बछड़ा सीधा अपनी माँ के पास जाकर दूध पीना शुरु कर देता। कालिंग गौड़ा का कहना था कि वह उन मनुष्यों में से थोड़े ही है जो जन्म देने वाली माँ को भूल जाये !

गौड़ा की पत्नी लक्कम्मा एक दिन सुबह गौशाला में दूध दुह रही थी। पास ही बैठी बहू तायव्वा ने अपने एक वर्ष के रोते बच्चे को दूध पिलाने के लिए अपनी कुरती सरकायी। माँ का स्तन मुँह में भरकर भी बच्चे ने रोना बंद नहीं किया। ‘सास की तरह से दूध पिला, यह क्या कर रही है ?’ लक्कम्मा ने कहा, पर तायव्वा उसकी बात समझ न पायी। वह और भौंचक्की हो उसकी ओर देखने लगी। तायव्वा बोल नहीं सकती थी, वह गूँगी थी।

‘वचन देकर मुकरना नहीं चाहिए।’ इसी परम्परा का निर्वाह करते हुए उसे बहू बनाकर लाया गया था। कालिंग गौड़ा की छोटी बहिन की बेटी तायव्वा जब तीन वर्ष की थी तब गौड़ा का एकलौता बेटा कृष्ण आठ वर्ष का था। सगे-सम्बन्धियों से रिश्ता करना हर प्रकार से अच्छा होता है। और यही सोचकर तीन वर्ष की भांजी को अपने बेटे के लिए बहू के रूप में लेने का वचन किसी प्रसंग में गौड़ा अपनी बहिन और बहनोई को दे बैठा था। तब उस बच्ची ने बोलना शुरु नहीं किया था। क्या गौड़ा यह न जानता था कि कई बच्चे तीन वर्ष में भी बोलना नहीं सीख पाते ? लेकिन उसके लिए इस पर गौर करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी। लेकिन जब आठ वर्ष की होने पर भी लड़की नहीं बोली तो देवताओं की मन्नतें मानी गयीं, साधु-सन्तों से मंत्र-तंत्र कराये गये, मलयालियों से झा़ड़-फूँक करायी गयी, पर सब व्यर्थ गया। सब जान गये की तायव्वा जन्मजात गूँगी है। यह बात नहीं कि गौड़ा भूल गया हो कि उसने उसे अपने बेटे के लिए मांगा था, पर इस ओर उसने विशेष ध्यान नहीं दिया। पर जब बहिन ने बेटी के ब्याह के बारे में बात चलायी तो उसने कहा, ‘बहिन, लड़की गूँगी है। उसे कैसे ले लूँ, तुम्हीं बताओ ?’

‘भैया जब ब्याह की बात चली थी तब किसे पता था कि वह गूँगी है या नहीं ? पर तुम्हारे बेटे के लिए वह पक्की हो गयी थी। तुम्हीं ने मान लिया था। अब गूँगी कहकर मुकर जाओगे ?’

कालिंग गौड़ा के लिए अपने वचन से मुकरना कैसे संभव था ? ‘सत्य ही माँ-बाप है, सत्य ही बन्धु-सखा है, सत्य से फिर जाने से क्या ईश्वर प्रसन्न होगा ?’ इस आदर्श में विश्वास रखने वाली गाय की नस्ल आज भी उसकी गौशाला में है। यह नस्ल उसे वंश-परम्परा से मिली है। वह अपना वचन निभाने के लिए शेर के मुँह में चली गई थी। दिये वचन से मुकर जाये तो उस गाय के सामने कैसे खड़ा हो पाएगा ? गाय का मतलब क्या है ? उसकी दोनों आँखों  में सूर्य और चन्द्र का वास है। कौन-सी चीज ऐसी है जो उनसे छुपी है ?
उसकी बहिन ने उसे असमंजस में डाल दिया। पर किया भी क्या जा सकता था ? उसने बहिन से कहा, ‘अच्छा बहिन, तुम्हारी बेटी को ही बहू बनाऊँगा। ज्योतिषी से पूछकर महूरत निकलवा लेंगे।’’

परन्तु अपनी पत्नी को मनाने का भार भी गौड़ा के सिर पर ही था। यह बात नहीं कि उसे यह बात मालूम न थी कि वचन देकर मुकरना नहीं चाहिए। सगे-संबंधियों में बचपन में ही इस प्रकार के वचन दिये जाने की बात कोई नई नहीं थी। इसमें किसी का दोष भी न था, पर यह सोचना भी स्वाभाविक ही था कि गूँगी के साथ ब्याह करके बेटे को कौन-सा सुख मिलेगा ‍?
इस प्रश्न का भी उत्तर गौड़ा ने ही दिया, ‘गूँगी हुई तो क्या हुआ ? लड़की अच्छी है, घर का सारा काम-काज बखूबी करती है। बस, बात ही तो नहीं कर सकती। क्या गौ माता को भला कोई गूँगी कहता है !’
‘वह कैसे गूँगी हो सकती है ? वह तो सब देवताओं की माँ है।’
‘तो फिर वह बात करती है ?’
‘नहीं।’

‘इसका मतलब यह हुआ कि जो बोल नहीं सकते वे सभी गूँगे नहीं।
यह लड़की भी ऐसी है। हमारी गौशाला की गौएँ भी बात कर सकती हैं। मेरे बुलाते ही पास आती हैं, मेरा शरीर चाटती हैं। आँख के इशारे से ही समझ जाती हैं। वे बोल सकती हैं, पर बोलती नहीं। बोलने की जरुरत भी क्या है उन्हें मनुष्यों की तरह ? देवताओं को बोलने की जरूरत पड़ती है क्या ?’
लक्कम्मा लाजवाब हो गयी। फिर गौड़ा ने पूछा, ‘‘बताओ, तुम्हारी सास कौन है ?’’
‘‘आपकी माँ, पर उन्हें तो मरे कितने साल हो गये।’

‘वह माँ नहीं मेरी माँ तो गौमाता है। उसी को तुम अपनी सास समझो। वह क्या तुम्हें तंग करती है ? मुझसे तुम्हारी शिकायत करती है ?’
‘‘नहीं !’’
‘‘ऐसी ही गौमाता जैसी बहू मिल जाये तो वह भी तुम्हारे बेटे से शिकायत नहीं करेगी, तुम्हें और दूसरे सभी को सुख मिलेगा, चुपचाप मान जाओ।’’

लक्कम्मा शादी के लिए राजी हो गयी। तेरह वर्ष के कृष्ण की शादी उसकी सगी बुआ की लड़की आठवर्षीय तायव्वा के साथ ग्वाल-पद्धति के अनुसार रात में ही सम्पन्न हो गयी। कृष्ण ने उस गूँगी को पत्नी बनाने पर आपत्ति नहीं की; करता भी कैसे, अभी उसकी आयु कितनी थी ! इसके अतिरिक्त उस जमाने में शादी-ब्याह की जिम्मेदारी पूरी तरह से माँ-बाप की थी। उसके बारे में बच्चों के बोलने का रिवाज भी नहीं था।

तायव्वा काम-काज में बड़ी होशियार थी। गूँगी होने पर भी दूसरे की कही बात समझ जाती थी। विवाह के छह वर्ष बाद ससुराल आयी। आने के तीन वर्ष बाद गर्भवती होकर पहलौटी का लड़का जना। ‘बहू गूगी हुई तो क्या हुआ ? इससे बढ़कर और क्या सौभाग्य चाहिए ?’ यह कहकर सास ने सन्तोष व्यक्त किया।

दाएं से बदलकर बाईं तरफ़ का स्तन देने पर भी बच्चे का रोना बंद न हुआ। उसने मुँह से स्तन को बाहर ठेल दिया। उधर लक्कम्मा ने एक गाय का दूध दुहकर दूसरी के थनों को एरंडी का तेल लगाकर दुहना शुरु किया तो सर्र-सर्र धार निकलने लगी। पोता रोये जा रहा था। एक मिनट को दुहना रोककर वह बहू की तरफ़ मुड़ी और बोली, ‘‘क्या है री, ठीक से दूध क्यों नहीं पिलाती ?’

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book