धर्म एवं दर्शन >> रामायण की कथाएँ रामायण की कथाएँमीना अग्रवाल
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रामायण की कथाओं पर आधारित पुस्तक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समस्त भारतीय साहित्य में रामायण भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन का आधार ग्रंथ है जिन्हें प्रत्येक भारतीय बार-बार पढ़ना चाहता है। रामायण में गृहस्थ जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पतिव्रत धर्म, आदर्श स्त्री-पुरुष, बालक, वृद्ध और युवा-सबके लिए समान उपयोगी एवं सर्वोपरि शिक्षा को प्रस्तुत किया गया है। रामायण की इसी विशेषता के कारण हिंदी साहित्य जगत् में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। रामायण की शिक्षा को जीवन में उतार कर व्यक्ति मात्र का ही नहीं, वरन् राष्ट्र का भी कायाकल्प संभव है।
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत पुस्तक में रामायण धर्म ग्रंथ को कथाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ये कथाएं रोचक और ज्ञानवर्धक तो हैं ही, रामायण ग्रंथ को भी सरल ढंग से समझाने में सक्षम हैं।
प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रंथों में वाल्मीकि कृत रामायण का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें भगवान राम के जीवन चरित्र को सहज, सरल और आदर्श ढंग से प्रस्तुत किया गया है। भगवान राम के जीवन चरित्र के अलावा इस ग्रंथ में गृहस्थ जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पतिव्रत धर्म आदि सभी का वर्णन है।
प्रस्तुत पुस्तक में रामायण को कथाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ये कथाएँ रोचक और ज्ञानवर्धक तो हैं ही, रामायण ग्रंथ को भी सरल ढंग से समझाने में सक्षम है।
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत पुस्तक में रामायण धर्म ग्रंथ को कथाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ये कथाएं रोचक और ज्ञानवर्धक तो हैं ही, रामायण ग्रंथ को भी सरल ढंग से समझाने में सक्षम हैं।
प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रंथों में वाल्मीकि कृत रामायण का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें भगवान राम के जीवन चरित्र को सहज, सरल और आदर्श ढंग से प्रस्तुत किया गया है। भगवान राम के जीवन चरित्र के अलावा इस ग्रंथ में गृहस्थ जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पतिव्रत धर्म आदि सभी का वर्णन है।
प्रस्तुत पुस्तक में रामायण को कथाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ये कथाएँ रोचक और ज्ञानवर्धक तो हैं ही, रामायण ग्रंथ को भी सरल ढंग से समझाने में सक्षम है।
अपनी बात
हिन्दू संस्कृति के प्राचीन धर्म ग्रंथ वेद की भाँति रामायण भी एक परम पुनीत धर्म ग्रंथ है। इसमें भगवान् राम के जीवन चरित्र को सहज, सरल और आदर्श ढंग से प्रस्तुत किया गया है। भगवान् होते हुए भी श्रीराम ने मनुष्य जीवन में-जीवन के सभी उतार चढ़ावों को सहज ढंग से जिया। रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने भगवान् श्रीराम के विशाल व्यक्तित्व को प्रस्तुत कर जनसाधारण को उसके अनुरूप चलने की प्रेरणा दी है।
इस ग्रंथ में गृहस्थ जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पतिव्रत धर्म, आदर्श स्त्री पुरुष, बालक वृद्ध और युवा सबके लिए समान उपयोगी एवं सर्वोपरि शिक्षा को प्रस्तुत किया गया है।
रामायण की इसी विशेषता के कारण हिन्दू साहित्य जगत् में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। अमीर-गरीब वृद्ध-युवा- स्त्री पुरुष सभी इसे बड़ी श्रद्धा के साथ पढ़ते हैं। रामायण की शिक्षा को जीवन में उतारकर व्यक्तिमात्र का ही नहीं, वरन राष्ट्र का भी कायाकल्प संभव है। यही कारण है कि आज भी अच्छे राष्ट्र को राम राज्य की संज्ञा दी जाती है।
प्रस्तुत पुस्तक में रामायण धर्म ग्रंथ को कथाओं के रूप में प्रस्तुत किया है। ये कथाएँ रोचक और ज्ञानवर्द्धक तो हैं ही; रामायण ग्रंथ को भी सरल ढंग से समझाने में सक्षम हैं। सरल शब्दों में प्रस्तुत ये कथाएँ पाठकों को अवश्य रुचिकर लगेंगी।
इस ग्रंथ में गृहस्थ जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पतिव्रत धर्म, आदर्श स्त्री पुरुष, बालक वृद्ध और युवा सबके लिए समान उपयोगी एवं सर्वोपरि शिक्षा को प्रस्तुत किया गया है।
रामायण की इसी विशेषता के कारण हिन्दू साहित्य जगत् में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। अमीर-गरीब वृद्ध-युवा- स्त्री पुरुष सभी इसे बड़ी श्रद्धा के साथ पढ़ते हैं। रामायण की शिक्षा को जीवन में उतारकर व्यक्तिमात्र का ही नहीं, वरन राष्ट्र का भी कायाकल्प संभव है। यही कारण है कि आज भी अच्छे राष्ट्र को राम राज्य की संज्ञा दी जाती है।
प्रस्तुत पुस्तक में रामायण धर्म ग्रंथ को कथाओं के रूप में प्रस्तुत किया है। ये कथाएँ रोचक और ज्ञानवर्द्धक तो हैं ही; रामायण ग्रंथ को भी सरल ढंग से समझाने में सक्षम हैं। सरल शब्दों में प्रस्तुत ये कथाएँ पाठकों को अवश्य रुचिकर लगेंगी।
- मीना अग्रवाल
1
सती
दक्ष प्रजापति ब्रह्माजी के मानस-पुत्र थे। वे उनके अँगूठे से उत्पन्न हुए थे। ब्रह्माजी ने दक्ष प्रजापति को प्रजापतियों का अध्यक्ष नियुक्त किया था। उनकी पुत्री सती का विवाह भगवान् शिव से हुआ था।
त्रेतायुग में भ्रमण करते हुए भगवान् शिव पृथ्वी पर महर्षि अगस्त्य के आश्रम में आए। उनके साथ देवी सती भी थीं। महर्षि ने उनका आदर सत्कार कर उन्हें रामकथा सुनाई, जिसे सुनकर शिवजी आत्म विभोर गए। इस प्रकार कुछ दिनों तक महर्षि के पास रहकर शिवजी देवी सती के साथ वापस कैलाश की ओर चल पड़े।
उन्हीं दिनों पापियों का संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने श्रीराम के रूप में अवतार लिया था। वे पिता के वचन से राज्य त्यागकर; तपस्वी वेष धारण कर दंडकवन में विचरण कर रहे थे।
शिवजी यह सोच रहे थे कि वे भगवान् राम के दर्शन किस प्रकार करें ? तभी दंडकवन से निकलते समय उनकी दृष्टि श्रीराम और लक्ष्मण पर पड़ी। रावण ने मारीच की सहायता से सीता का हरण कर लिया था। और श्रीराम सीता को ढूँढते हुए भटक रहे थे। शिवजी ने उनके स्वरूप के भरपूर दर्शन किए, परंतु अवसर न जानकर अपना परिचय नहीं दिया। तदंतर वे उनकी जय-जयकार करते हुए पुनः कैलाश की ओर चल पड़े।
सती ने जब शिवजी की यह दशा देखी तो उनके मन में संदेह उत्पन्न हो गया। वे मन ही मन सोचने लगीं कि ‘सारा संसार उनकी वंदना करता है; वे जगत् के ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, मुनि-सभी उनके समक्ष शीश झुकाते हैं। उन्होंने एक साधारण मनुष्य को सच्चिदानंद कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर प्रेममग्न हो गए। जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित अजन्मा और भेदरहित है, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है ? यदि यह मनुष्य भगवान विष्णु हैं तो क्या वे अज्ञानियों की भाँति अपनी स्त्री को ढूँढ़ेंगे ?’
भगवान् शिव देवी सती के मन के भाव जान गए। वे मुस्कराते हुए बोले-‘‘देवी ! यदि तुम्हारे मन में कोई संदेह है तो उसके निवारण के लिए तुम उनकी परीक्षा ले लो। तब तक मैं यहीं तुम्हारी प्रतीक्षा करता हूँ।’’
ऐसा कहकर शिवजी वहीं बैठकर श्रीहरि का नाम जपने लगे और सती श्रीराम की परीक्षा लेने चल पड़ीं।
देवी सती ने सीता का रूप धारण कर लिया। सर्वज्ञ ज्ञाता भगवान् श्रीराम सती के वास्तविक स्वरूप को जान गए। उन्होंने उन्हें प्रणाम किया और विनम्र स्वर में बोले-‘‘माते ! आप वन में अकेले ? भगवान् शिव कहाँ हैं ?’’
श्रीराम के वचन सुनकर सती को बड़ी आत्मग्लानि हुई और वे वापस भगवान् शिव के पास चल पड़ीं। श्रीराम ने जान लिया था कि सती माता दुःखी हो गई हैं। उन्होंने उनके समक्ष अपना प्रभाव प्रकट किया।
सती ने देखा कि वे जिस मार्ग से जा रही हैं, उसके आगे श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के साथ खड़े हैं। उन्होंने आश्चर्यचकित होकर पीछे की ओर देखा तो वहाँ भी सीता और लक्ष्मण के साथ श्रीराम दिखाई दिए। अब तो वे जिधर देखतीं, वहीं उन्हें श्रीराम के दर्शन होते। उन्होंने शिव, ब्रह्मा, इंद्र सप्तर्षियों आदि को श्रीराम की चरण-वंदना करते देखा। यह दृश्य देखकर वे भयभीत हो गईं और वहीं नेत्र बंद करके बैठ गईं।
फिर जब उन्होंने नेत्र खोले तो सारी माया समाप्त हो चुकी थी। श्रीराम के प्रभाव को जानकर वे शिवजी के पास पहुँचीं। शिवजी ने पूछा कि उन्होंने किस प्रकार श्रीराम की परीक्षा ली ?
भयभीत सती ने झूठ बोल दिया कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली। बल्कि उन्हीं की तरह श्रीराम को प्रणाम करके लौट आईं।
भगवान् शिव ने ध्यान लगाकर सारी बात जान ली। उन्होंने भगवान् श्रीराम की माया को प्रणाम किया जिससे प्रेरित होकर सती के मुख से झूठ निकल गया था।
सती ने सीताजी का वेश धारण किया, यह जानकर शिवजी के मन में विषाद उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा कि ‘यदि अब वे सती से प्रेम करते हैं तो यह धर्म-विरुद्ध होगा क्योंकि सीताजी को वे माता के समान मानते थे।’ परंतु वे सती से बहुत प्रेम करते थे, इसलिए उन्हें त्याग भी नहीं सकते थे। तब उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि अब पति-पत्नी के रूप में उनका और सती का मिलन नहीं हो। परन्तु इस बारे में उन्होंने सती से प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहा। तत्पश्चात् वे कैलाश लौट आए।
त्रेतायुग में भ्रमण करते हुए भगवान् शिव पृथ्वी पर महर्षि अगस्त्य के आश्रम में आए। उनके साथ देवी सती भी थीं। महर्षि ने उनका आदर सत्कार कर उन्हें रामकथा सुनाई, जिसे सुनकर शिवजी आत्म विभोर गए। इस प्रकार कुछ दिनों तक महर्षि के पास रहकर शिवजी देवी सती के साथ वापस कैलाश की ओर चल पड़े।
उन्हीं दिनों पापियों का संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने श्रीराम के रूप में अवतार लिया था। वे पिता के वचन से राज्य त्यागकर; तपस्वी वेष धारण कर दंडकवन में विचरण कर रहे थे।
शिवजी यह सोच रहे थे कि वे भगवान् राम के दर्शन किस प्रकार करें ? तभी दंडकवन से निकलते समय उनकी दृष्टि श्रीराम और लक्ष्मण पर पड़ी। रावण ने मारीच की सहायता से सीता का हरण कर लिया था। और श्रीराम सीता को ढूँढते हुए भटक रहे थे। शिवजी ने उनके स्वरूप के भरपूर दर्शन किए, परंतु अवसर न जानकर अपना परिचय नहीं दिया। तदंतर वे उनकी जय-जयकार करते हुए पुनः कैलाश की ओर चल पड़े।
सती ने जब शिवजी की यह दशा देखी तो उनके मन में संदेह उत्पन्न हो गया। वे मन ही मन सोचने लगीं कि ‘सारा संसार उनकी वंदना करता है; वे जगत् के ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, मुनि-सभी उनके समक्ष शीश झुकाते हैं। उन्होंने एक साधारण मनुष्य को सच्चिदानंद कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर प्रेममग्न हो गए। जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित अजन्मा और भेदरहित है, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है ? यदि यह मनुष्य भगवान विष्णु हैं तो क्या वे अज्ञानियों की भाँति अपनी स्त्री को ढूँढ़ेंगे ?’
भगवान् शिव देवी सती के मन के भाव जान गए। वे मुस्कराते हुए बोले-‘‘देवी ! यदि तुम्हारे मन में कोई संदेह है तो उसके निवारण के लिए तुम उनकी परीक्षा ले लो। तब तक मैं यहीं तुम्हारी प्रतीक्षा करता हूँ।’’
ऐसा कहकर शिवजी वहीं बैठकर श्रीहरि का नाम जपने लगे और सती श्रीराम की परीक्षा लेने चल पड़ीं।
देवी सती ने सीता का रूप धारण कर लिया। सर्वज्ञ ज्ञाता भगवान् श्रीराम सती के वास्तविक स्वरूप को जान गए। उन्होंने उन्हें प्रणाम किया और विनम्र स्वर में बोले-‘‘माते ! आप वन में अकेले ? भगवान् शिव कहाँ हैं ?’’
श्रीराम के वचन सुनकर सती को बड़ी आत्मग्लानि हुई और वे वापस भगवान् शिव के पास चल पड़ीं। श्रीराम ने जान लिया था कि सती माता दुःखी हो गई हैं। उन्होंने उनके समक्ष अपना प्रभाव प्रकट किया।
सती ने देखा कि वे जिस मार्ग से जा रही हैं, उसके आगे श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के साथ खड़े हैं। उन्होंने आश्चर्यचकित होकर पीछे की ओर देखा तो वहाँ भी सीता और लक्ष्मण के साथ श्रीराम दिखाई दिए। अब तो वे जिधर देखतीं, वहीं उन्हें श्रीराम के दर्शन होते। उन्होंने शिव, ब्रह्मा, इंद्र सप्तर्षियों आदि को श्रीराम की चरण-वंदना करते देखा। यह दृश्य देखकर वे भयभीत हो गईं और वहीं नेत्र बंद करके बैठ गईं।
फिर जब उन्होंने नेत्र खोले तो सारी माया समाप्त हो चुकी थी। श्रीराम के प्रभाव को जानकर वे शिवजी के पास पहुँचीं। शिवजी ने पूछा कि उन्होंने किस प्रकार श्रीराम की परीक्षा ली ?
भयभीत सती ने झूठ बोल दिया कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली। बल्कि उन्हीं की तरह श्रीराम को प्रणाम करके लौट आईं।
भगवान् शिव ने ध्यान लगाकर सारी बात जान ली। उन्होंने भगवान् श्रीराम की माया को प्रणाम किया जिससे प्रेरित होकर सती के मुख से झूठ निकल गया था।
सती ने सीताजी का वेश धारण किया, यह जानकर शिवजी के मन में विषाद उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा कि ‘यदि अब वे सती से प्रेम करते हैं तो यह धर्म-विरुद्ध होगा क्योंकि सीताजी को वे माता के समान मानते थे।’ परंतु वे सती से बहुत प्रेम करते थे, इसलिए उन्हें त्याग भी नहीं सकते थे। तब उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि अब पति-पत्नी के रूप में उनका और सती का मिलन नहीं हो। परन्तु इस बारे में उन्होंने सती से प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहा। तत्पश्चात् वे कैलाश लौट आए।
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