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धर्म एवं दर्शन >> लिंगाष्टकम्

लिंगाष्टकम्

किरीट भाई जी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :229
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3438
आईएसबीएन :81-288-0858-3

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लिंगाष्टकम्...

Lingashtakam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


भारत की पवित्र भूमि पर जिन-जिन महापुरुष प्रकट हुए हैं उन महापुरुषों ने, ऋषियों ने, विद्वानों ने अपनी सद्बुद्धि के माध्यम से ये जीवन के कल्याण के हेतु एक नहीं अनेकानेक मार्ग बताए हैं। जिनसे ऊपर आरूढ़ होकर जीवात्मा अपनी श्रद्धा को परिपक्कव करने के बाद अपना परम कल्याण अपना परम श्रेय कैसे निर्माण कर सकते हैं।

मंगलाचरण


ॐ नमः शिवाय
स्वस्ती श्री गणेशाय नमः
श्री सरस्वती नमः
श्री गुरुभ्यो नमः

वंदे देवऽमापति सुरगुरुं वंदे जगत्कारणम्
वंदे पन्नगभूषणं मृगधरं वंदे पशूनां पतिम्।
वंदे सूर्यशशांकवह्विनयनं वंदे मुकुंदप्रियम्,
वंदे भक्तजनाश्रृयं च वरदं वंदे शिवं शंकरम्।

यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापागा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराद।
सोऽयं भूमिविभूषण: सुरवरः सर्वाधिप: सर्वदा
शर्व: सर्वगत: शिव: शशिनिभ: श्री शंकर: पातुमाम्।

बोलीये उमापति महादेव की जय...
हर-हर महा देव शंभु...काशी विश्वनाथ गंगे...
काशी विश्वनाथगंगे...काशी विश्वनाथ गंगे...

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्री शैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालेलमोङकारममलेश्वरम्।
परलयां वैद्यानाथं च डाकिन्यां भीमशंक्करम्।
सेतुबन्धे तू रामेशं नागेशं दारुकावने।।2।।
वारणस्यां तू विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमी तटे।
हिमालये तू केदार धुश्मेश च शिवालये।।3।।
एतानि ज्योतिर्लिगंगानि सायं प्रातः पठेन्नर:।
सप्तन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति।।4।।


अथ लिग्गांष्टकम्



ब्रह्ममुरारि-सुरार्चितलिंग निर्मल-भासित-शोभिन-लिंगंम्।
जन्मज-दुःखविनाशक- लिंगतत्प्रणमामि सदाशिव लिंगम्।।1।।
देवमुनि-प्रवरार्चित लिंगं कामदडं करुणाकरलिंगम्।
रावणदर्प-विनाशन लिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।2।।
सर्वसुगन्धि- सुलेपितलिंगं बुद्धि-विवर्धन-कारणलिंगम्।
सिद्ध-सुरा-सुर-वन्दितलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।3।।
कनक-महामणि भूषितलिंगं फणिपति-वेष्टित-शोभितलिंगम्।
दक्षसुयज्ञ-विनाशकलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम।।4।।
कुमकुम-चंदन लेपितलिंगं पंकजजहार-सुशोभित लिंगम्।
सञ्चित-पाप विनाशन लिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।5।।
देवगणर्चित-सेवितलिंगं भावैर्भक्तिर्भिरेव च लिंगम्।
दिनकरकोटि-प्रभाकर लिंगं तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगम्।।6।।
अष्टदलोपरि वेष्टितलिंगं सर्वसमुद्भव कारणलिंगम्।
अष्टदरिद्र-विनाशितलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।7।।
सुरगुरु-सुरवर पूजतलिंगं सुरवनपुष्प-सदार्चितलिंगम्।।
परात्परं परमात्मक लिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।8।।
लिंगंमृकमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते।।9।।
इति श्रीलिंगाष्टकम् स्त्रोत्रं समाप्तम्।।


प्रथम अध्याय



ॐ नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च
मयस्काराय च नम: शिवाय च शिवतराय च।।
हरिॐ तत्पुरुषाय विह्महे महादेवाय धीमहि।
तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।।
असितगिरिसमं स्यात कज्जलं सिन्धुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारंन याति।


अखिल ब्रह्मांड के नायक क्षीरसिन्धु दयासिन्धु करुणासिन्धु भक्तवत्सल विघ्नहर्त्ता मनोकामना सिद्ध करने वाले जिनका नाम केवल उच्चारण मात्र से या केवल संकल्प मात्र से जीवात्मा न केवल यह जन्म की ही नहीं अपितु जन्म-जन्म का जो कलमष है उसका त्राण कर, उनका क्षालन कर की इस जगत् अभीष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर वह जन्म-मरण से मुक्ति प्राप्त कर भगवान सदाशिव शंकर के चरणारबिंद में अपना अनुराग को प्रस्थापित करने में संपूर्ण तरह से सफल हो सकता है। जिस तत्त्व को आज विश्वभर में भी न केवल आराधना उपासना के रूप में विविध प्रकार की पूजा-अर्चना भजन-कीर्तन और भक्ति ज्ञानमार्ग से उनको आश्रित कर सदियों से जिसकी अर्चना करते आ रहे हैं वो ही जगत् का कारण-कर्त्ता अभीरक्षकता परम तत्त्व वेदांकियों का जो निर्गुण निराकार है।

स्वरूप जगत् के सामने उनकी वास्तविकता क्या है ? भगवान शिवजी महाराज की कृपा से ही हम इस पवित्र भूंडल के ऊपर जो आज तीर्थ रूप में मोरेशियम बन गया है। इसी के ऊपर वो ही भगवान सदाशिव का गुणगान करने के लिए हम सर्व लोगों को एक श्रवण और कथन करने का जो मौका मिला है वो भगवान शिवजी की ही कृपा है। जन्मान्तरे भवेत्पुण्यं शास्त्र में जैसा कहा गया है कि एक जन्म का नहीं जन्म-जन्म बीत जाए तब कोई-कोई व्यक्ति के ऊपर वो ही भगवान रुद्र कृपाकर उनका कथन और उनका श्रवण करने का परम सौभाग्य उनको प्रदान करते हैं। जीवात्मा जन्म-जन्म की श्रृंखला में से ही अपना शेष कर्मों को क्षीण कर-कर नया प्रारब्ध का निर्माण न हो जाए वो ही भाग्य को क्षीण कर-कर भोग से निवृत्त होकर तनसे मनःशिवसंकल्पमस्तु वो ही परम शिव तत्त्व जो है वहां की प्राप्ति कैसे की जाती है ?

उसी को ही आप और हम भगवान भोलेनाथ की कृपा से जिनकी दयामय में से जिनकी अभीमय दृष्टि से हम उसी के ऊपर हम कुछ विचार विमर्श एक सत्संग के रूप में करने के लिए यहां हम एकत्रित हुए हैं। यहां कोई भी व्यक्ति अधिक ज्ञानी अनजान लोगों के ऊपर कुछ समझाने को आया हो या बताने के लिए आया हो ऐसा हमारा कोई आशय नहीं है। मैं भी आप लोगों के साथ नीचे बैठा हूं। मैं भी एक श्रोता के रूप में हूं। बोलने वाले तो वक्ताओं का परम वक्ता भगवान शंकर महाराज ही स्वयं होते हैं।

जीव तो एक केवल निमित्त है। निमित्त ही उनको होना चाहिए भगवान शिवजी महाराज जब कृपा करते हैं तो जीवात्मा तमाम दुर्गुणों से मुक्त होकर सद्गुणों की वृद्धि करता है। मेरे में अहंकार ही नहीं है ये भी एक का अहंकार है, इसीलिए जीवात्मा को यही समझना चाहिए कि प्रभु आपकी कृपा से आपके अनुग्रह से और मैं यदि मिल रहा हूं तो जिन-जिन लोगों ने शिवजी का स्तवन किया है स्तुती की है, वंदना की है, पूजा-पाठ की है। उनकी अर्चना किया है वे सबके सब लोगों के हृदय में भगवान शिवजी की कृपा से ये द्रवीभूत आर्तनाद ही प्रकट हुआ है। यदि गंधर्वराज पुष्पदंत महाराज शिव महिम्नस्तोत्र की यदि उद्गार करने के लिए समर्थ हुए हैं तो हमें ये समझना चाहिए कि भगवान शिवजी महाराज ही उनके मुखारबिंद से जगत् के सामने अपना असली स्वरूप को प्रकट करने के लिए उनके मुखारबिंद में से ये शब्द प्रस्फुटित किए हैं। अन्यथा जीव जो मृत्यु के अधीन है जिसका खान-पान का ठिकाना नहीं है, काल कब थप्पड़ मारे और ये कोठी कब खाली करनी पड़े उसमें सामर्थ्य ही क्या है ?

 कि वो ही रुद्र के ऊपर वो बोल सके। हमारा एक सुभग हमारा यह पवित्र विचारधारा वो ही भगवान् शिवजी को समझने की, दर्शन करने की, उनका मनन चिंतन करने की ओर हमारी चेष्टा है। भगवान शिवजी महाराज दयालु हैं, कृपालु है, हमारी धृष्टता को क्षमा करें। यदि हमारे में कोई त्रुटि रह जाए, नव दिनों में तो ये तो सदाशिव हैं। भोलेनाथ हैं। भगवान आशुतोष हैं। वो जीव का दोष देखते ही नहीं। मां पार्वती जगदंबा पराम्बां, भक्तवत्सला भवतारिणि सप्तऋषियों के सन्मुख जब बैठी थी। विराजमान थी तपोमय उनकी जो स्वरूप थी उनके सामने देखकर जब सप्तऋषियों ने उनकी परीक्षा करने की एक चेष्टा की थी। उसी वक्त मां भगवती ने भी यही कह दिया था हे ऋषियों ! महादेव अवगुन भवन विष्णु सकल गुन धाम।



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