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विभिन्न रामायण एवं गीता >> रामगीता

रामगीता

किरीट भाई जी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3444
आईएसबीएन :81-288-0855-9

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प्रस्तुत है रामगीता....

Ramgeeta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रामगीता
श्री गुरुवर के मुखारबिन्द से


।ॐ श्री रामाय नमः,श्री गणेशाय नमः, श्री सरस्वतै नमः।
।श्री गुरुभयो नमः।

लोकाभिरामं रणरंगधीरं, राजीव नेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपधे।।
मनोजवं मारुततुल्यवेगं, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं, श्रीरामदूतं शरणं प्रपधे।

 
श्री रामचन्द्र भगवान श्री जय, श्री बाल कृष्ण लाल की जय सदगुरु देव की जय, ॐ नमः पार्वती पतयै हर हर महादेव की जय।


श्री हनुमान चालीसा



दोहा


श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुरू सुधारि।
बरनऊँ रघुवर बिमल जस, जो दायकु फल चारि।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरों पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देऊ मोहि, हरहु क्लेश विकार।।

चौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहु लोक उजागर।
रामदूत अतुलित बल धामा। अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।
महावीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी।
कंचन बरन विराज सुबेसा। कानन कुण्डल कुंचित केसा।।
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै। कांधो मूंज जनेऊ साजै।  
शंकर सुवन केसरी नन्दन। तेज प्रताप महा जग वन्दन।।
विद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया।।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। विकट रूप धारि लंक जरावा।।
भीम रूप धरि असुर संहारे। रामचन्द्र के काज संवारे।
लाय सजीवन लखन जियाये। श्री रघुबीर हरषि उस लाये।।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावै। अस कहि श्रीपति कंठ लगावै।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीशा। नारद सारद सहित अहीसा।।
जम कुबेर दिगपाल जहां ते। कवि कोबिद कहि सके कहां ते।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा।।
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना। लंकेश्वर भय सब जग जाना।।
जुग सहस्र योजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लांधि गए अचरज नाहीं।।
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे।
 सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रक्षक काहू को डरना।।  
आपन तज सम्हारो आपै। तीनों लोक हांक ते कांपै।
भूत पिशाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै।
नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरन्तर हनुमत् बीरा।।
संकट ते हनुमान छुड़ावै। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।
सब पर राम तपस्वी राजा। तिनके काज सकल तुम साजा।।
और मनोरथ जो कोई लावै। सोई अमित जीवन फल पावै।।
चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा।।
साधु सन्त के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता।
राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा।।
तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै।।
अन्त काल रघुबर पुर जाई। जहां जन्म हरि भक्त कहाई।।
और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्व सुख करई।।
संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत् बलबीरा।।
जै जै जै हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरु देव की नाईं।।
यह सत बार पाठ कर जोई। छूटहि बंदिमहा सुख होई।
जो यह पढ़ै हुनमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय मँह डेरा।।


दोहा।


पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।

सीयावर रामचन्द्र की जय। रघुवीर रामचन्द्र की जय, उमापति महादेव की जय, पवन सुत हनुमान की जय बोलो भई सब संतन की जय।


एक बार प्रभु सुख आसीना, लक्ष्मण बचन कहे छलहीना
सुर नर मुनी सचराचर साँईं, मै पूछऊँ निज प्रभु की नाईं।

(अरण्यकांड-14-5, 6)

परमात्मा श्रीराम निःसाधन जीव को भवसागर से तरने का जो सरल, सुगम, श्रेष्ठ उपाय बताया है। इनका निरूपण ये साक्षात जो धर्मावतार हैं ये पवित्र पंचवटी जो है। थोड़े में ही परमात्मा ने समझाया है। रामगीता में परमात्मा पुरुषोत्तम श्री राम जी को साक्षात् धर्म का स्वरूप कहा गया है। आदि कवि बाल्मिकी जी ने ‘‘रामो: विग्रवान धर्म:’’ को साक्षात धर्म का स्वरूप कहा है और मनु महाराज के अनुसार धर्म वही है जिसको धारण किया जाए। धारयति इति धर्म। भगवान पुष्टि पुरुषोत्तम श्री नन्द नन्दन की गीता तो कर्म योगियों के लिए है। जिसमें परमात्मा ने अधिकतर जीवात्मा को निष्काम कर्म करके ये भव सागर को तरने का जो उपाय बताया है। उसका निरुपण कुरुक्षेत्र में किया और मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अपने जीवन की लीला में जो योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा सो किया है।

 भगवान श्री कृष्ण की गीता यानी Pure Science रामगीता यानी (अपलाइड)। अर्थ इतना ही है। भगवान श्री कृष्ण की गीता यानी कन्हैया ने कहकर समझाया है और श्रीराम ने करकर समझाया है। एक योग में मानने वाला है तो दूसरे प्रयोग में मानने वाला है। भगवान राम की गीता, जीव मात्र के जीवन में उनका विशेष स्थान। न केवल स्थान अपितु चौरासी लाख योनि में भटकता, भटकता जीवात्मा शेष जो कर्म भाग्य के रूप में आया है। उसको क्षीण करके जीवात्मा में मुमुक्षत्व जब प्रकट होगा तो उस मुमुक्षत्व की फलश्रुती कहीं न कहीं ज्ञान की उपलब्धि होती है। विष्णु पुराण में भी यही बताया गया ‘‘या विधा सा विमुक्ते’’ मुमुक्षत्व का कारण ज्ञान है।)


‘‘धर्म ते विरती जोग ते ग्याना, ज्ञान मोक्ष प्रद वैद बखाना।’’

वेदों और पुराणों में कहा गया है कि मुक्ति का कारण ज्ञान होता है और ज्ञान की मुमुक्षत्व उसका प्राकट्य। जब तक ईश कृपा न करें, ठाकुर की कृपा न हो तब तक ये भावना मानव की बुद्धि में प्रवेश ही नहीं करती। कलियुग में मानव का जीवन राग और रोग में खत्म हो रहा है। कलियुग का मानव काम और अर्थ प्रधान हो गया है। धर्म गया, मोक्ष गया। दोनों ही पुरुषार्थ चले गए। जीव इन्द्रियाशनि हो गया है। रामगीताका प्राकट्य न अयोध्या में हुआ, न लंका में हुआ, न किष्किन्धा में हुआ न ही नीलगीरी पर्वत पर हुआ है। रामगीता का प्रकाट्य पंचवटी में हुआ है। गोस्वामी जी के रहस्य का उद्घाटन वनवास में से हुआ है। गीता जीवात्मा को त्याग की ओर ले जाने वाले तत्त्व हैं। महापुरुष तो कहते हैं कि गीता को बार-बार रटन करते रहो तो गीता, गीता, गीता कहते कहते क्या हो जाएगा। वैराग्य परिवक्व होता है और वैराग्य के सिंहासन पर ज्ञान विराजमान होता है। ज्ञान आया तो जीव मुक्त हो गया। जन्म-जन्म की यात्रा करते-करते ये मनुष्य देह मानव को जो मिली है। इसका अर्थ मुक्ति का दरवाजा बताया गया है। जन्म से पहले यहाँ हमारा कोई नहीं था और मृत्यु के बाद हमारे कोई होने वाले नहीं हैं। सम्बन्ध केवल बीच में है। ये सम्बन्ध न शरीर का है न आत्मा का है। केवल मन का है और मन को ही समझाना पड़ेगा, बोध देना पड़ेगा कि यहाँ तेरा कोई नहीं है। और जितनी जल्दी तू कल्याण का मार्ग या श्रेय के मार्ग पर चलेगा इसी में तेरी मनुष्य देह सार्थक बनेगी। अन्यथा शंकराचार्य महाराज ने कह दिया-

‘‘यावत जीवों निवसती देहे श्री राम जय राम जय जय रामा, कुशलम, तावत पूछती गेहे श्री राम जय राम जय जय रामा गतमति वायो देहा पाए श्री राम जय राम जय जय रामा भार्या विधती तस्मीन कार्य श्री राम जय राम जय जय रामा।’’

ऋषि कह रहा है जब तक शरीर में प्राण हैं। तब तक परिवार जन पड़ोसी मित्र आपको पूछेंगे भई कुशल तो है। आप कुशल मंगल तो हो। बाकी एक बार शरीर में से प्राण चला गया तो आपकी धर्मपत्नी भी जिनका जिन्दगी भर का साथ है। वो भी कहेगी ये तो भूत है। इनको श्मशान में ले जाओ और जला दो। गतमती वायो, वायो यानी प्राणवायु इसमें से जब चला गया भार्या यानी पत्नी, विध्यति यानी डरेगी अब इनको निकालो इसीलिए है जीव तस्मात जाग्रही, जाग्रही पत्नी किसकी, किसका भाई। गीता चाहे राम की हो, चाहे अष्टावक्र की हो और चाहे भगवान श्रीकृष्ण की हो। तेरे जीवन का कैसे कल्याण हो। आइए मैं आपको रामगीता की और ले जाऊँ। रामगीता का उद्गम स्थान अरण्यकांड है। पंचवटी में हुआ। अरण्य यानी वन। गोस्वामी जी ही जाने वास्तव में तो। बाकी विचारधारा तो ये है।

 बिना वनवास वासना का नाश नहीं होता। वनवास का अर्थ होता है कि विषयों से ऊपर उठना है। प्रभु श्रीराम को, सीताजी को और लक्ष्मणजी को जो जवानी में वनवास मिला था वो तो एक रूपक है। बाकी हरेक जीवात्मा को जवानी में वनवास में जाना बहुत जरूरी है। अपने शहर को छोड़कर परिवार को छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। वनवास मन का वनवास होना चाहिए और वन यानी मन में जबरदस्ती से संयम नियम क्योंकि वन में तो सुविधा मिलेगी नहीं। आपको वहाँ एयरकंडिशन कहाँ मिलेगा। आपको वहां रेफरिजरेटर का जल कहाँ मिलेगा ? आपको वहाँ सुन्दर बिछौना, सुन्दर कपड़ा कहाँ मिलेगा सूखी भाजी भी खानी पड़ेगी। प्रभु यानी मन को नियंत्रित करना पड़ेगा। बिना वनवास जीवन में सुवास नहीं आएगी। शरीर को विषयों में यदि ढीला कर दिया तो आज नहीं तो कल। वो ही रोग हो जायेगा यानी बदबू आएगी।

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