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उपासना एवं आरती >> विष्णु उपासना

विष्णु उपासना

राधाकृष्ण श्रीमाली

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3446
आईएसबीएन :81-288-0843-5

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विष्णु उपासना....

Vishnu upasna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वैदिक साहित्य में उपासना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म के सभी मतावलम्बी-वैष्णव, शैव, शाक्त सनातन धर्मावलम्बी-उपासना का ही आश्रय ग्रहण करते हैं। यह अनुभूत सत्य है कि मन्त्रों में शक्ति होती है। परन्तु मन्त्रों की क्रमबद्धता; शुद्ध उच्चारण और प्रयोग का ज्ञान भी परम आवश्यक है, जिस प्रकार कई सुप्त व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति के नाम का उच्चारण होता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है, अन्य सोते रहते हैं, उसी प्रकार शुद्ध उच्चारण से ही मन्त्र प्रभावशाली होते हैं और देवों को जाग्रत करते हैं।

क्रमबद्धता भी उपासना की महत्त्वपूर्ण भाग है। दैनिक जीवन में हमारी दिनचर्या में यदि कहीं व्यतिक्रम हो जाता है तो कितनी कठिनाई होती है, उसी प्रकार उपासना में भी व्यतिक्रम कठिनाई उत्पन्न कर सकता है।
अतः उपासना पद्धति में मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्ट्य की प्राप्ति कर परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है-विष्णु उपासना।

प्राक्कथन


भगवान् श्री विष्णु हिन्दुओं के सबसे बड़े, प्रमुख देवताओं में माने जाते हैं। ब्रह्मा जनक, विष्णु पालक और शिव संहारक। आज करोड़ों हिन्दू विविध देव अवतारों के रूप में उनकी पूजा एवं भक्ति करके अपने जीवन को कृतार्थ मानते हैं। विष्णु भगवान का उल्लेख वेद, पुराण, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, स्मृति आदि-इत्यादि समस्त धार्मिक ग्रन्थों में मिलता है और उन्हें सृष्टि जगत का पालनकर्ता, पालनहार बतलाया गया है। वैष्णव धर्म के पुराणों में तो उनको सर्वोच्च स्थान दिया गया है। भारतीय जन-जीवन के बहुत बड़े भाग पर विष्णु छाये हुए हैं और मात्र इतना ही नहीं प्राचीन भारतीय साहित्य के प्रसार के फलस्वरूप वे जावा, सुमात्रा, श्याम, बाली, कम्बोडिया, नेपाल, लंका, तिब्बत आदि अनेक देशों में भी पूजनीय स्थान प्राप्त कर चुके हैं। जिनके चिह्न विशालतम् मन्दिरों, गुहाओं, कलापूर्ण मूर्तियों और वहां की भाषाओं में लिखे धर्म ग्रन्थों के रूप में आज भी विद्यमान हैं।

मैंने इस पुस्तक में विष्णु संबंधित सम्पूर्ण जानकारी संक्षेप में एकत्र करने का प्रयास किया है। कथा, स्तोत्र यंत्र, प्रार्थना, इतिहास, स्वरूप, अलंकरण आदि को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। पाठक पसंद करेंगे ऐसा विश्वास है।
मैं डायमंड बुक्स के निर्देशक श्री नरेन्द्र वर्मा का आभारी हूं जिन्होंने उपासना क्रम में शिव उपासना, देवी उपासना, गणेश उपासना, हनुमान उपासना, भैरव उपासना, गायत्री उपासना क्रम में निरन्तर सामग्री पाठकों तक पहुंचाने में सहयोग दिया।

ज्योति अनुसंधान केन्द्र
19/20 ए, हाई कोर्ट कॉलोनी
जोधपुर (राज.)

पं. राधाकृष्ण श्रीमाली एवं
कमल श्रीमाली

विष्णु- वंश का वर्णन


सूतजी बोले हे ऋषियों ! सात्वतराज की रूपवती स्त्री कौशल्या ने भजिन भजवान, राजा देवावृध, अन्धक, महोभोभ तथा यदुनन्दु वृष्णि इत्यादि पुत्रों को उत्पन्न किया, इन सभी के चार वंशों का वर्णन सुनिए। राजा भजमान ने अपनी श्रज्जयी नाग की स्त्री से बाह्यक और अपरिवाह्य नाम के दो पुत्र पैदा किए तथा श्रज्ज्य के दो कन्याएं थीं, जिनका विवाह वाह्यक के साथ हुआ था। उन राजा वाह्यक ने उन दोनों स्त्रियों से बहुत से पुत्र पैदा किए, इन बहुत पुत्रों में निमि प्रणव और वृष्णि मुख्य माने जाते थे। भजमान के पुत्र वाह्यक ने अपनी बड़ी रानी से इन पुत्रों को पैदा किया था, इसके बाद इसी प्रकार छोटी रानी से अयुंतायुतजित, सहस्रजित, शतजित और वायक नाम के पुत्रों को पैदा किया। इन सबों में राजा देवावृध ने कठिन तपस्या की थी। उन्होंने सर्वगुण सम्पन्न पुत्र के कामना से ही इतनी कठोर तपस्या की।

 इस प्रकार तपस्या करते समय राजा ने अपने योगबल से पर्णाशा नदी के जल का स्पर्श किया। नदी के जल को स्पर्श करते ही नदी के राजा सर्वगुण सम्पन्न पुत्र पैदा कर सकें। अत: नदी ने सोचा कि मैं ही राजा को स्त्रीरूप में ग्रहण करूंगी। जिस प्रकार राजा ने भावना की थी, उसी भावना के अनुसार नदी से स्वयं उसके हाथ प्रकट हुए, फिर सावित्री कुमारी होकर नदी स्त्री रूप में हो गई, तब राजा देवावृध ने उसकी इच्छा पूर्ण करते हुए उस कुमारी में एक तेजस्वी पुत्र का गर्भादान किया। सभी नदियों में श्रेष्ठ, पर्णाशा नदी ने राजा की रानी बनकर नवें मास में सर्वगुण सम्पन्न एक पुत्र को पैदा किया। विद्वान मनुष्य राजा के गुणों और वंशों का वर्णन करते हुए कहते थे, राजा देवावृध इसी प्रकार से गुणशाली था। वभु अपने सभी समाज में श्रेष्ठ थे। इस वंश के पैंसठ हजार सत्तर मनुष्यों को अमृत प्राप्त हुआ था। वभु का ऐश्वर्य देवावृध से भी बढ़ा हुआ था। उसके वंश में भोजवंशीय और आर्तिकाबलों की उत्पत्ति हुई थी। गान्धारी और माद्री दोनों वृष्णिवंश की स्त्रियाँ थीं। इनमें से गन्धारी ने सुमित्र, मित्रनन्दन और माद्री ने युधाजित, देवभीदुष और अनमित्र नाम के पुत्रों को पैदा किया। अनमित्र का निघ्न नाम का पुत्र हुआ था। निघ्न के प्रसेनजित् और शुक्रजित् नाम के पुत्र पैदा हुए। शुक्रजित् के सूर्यदेव परम मित्र थे।

एक बार प्रातःकाल के समय शुक्रजित् अपने रथ पर सवार होकर सूर्य की उपासना करने के लिए एक जलाशय के जल का स्पर्श करने गया। जिस समय वह उपासना कर रहा था। उस समय अस्पष्ट रूप रखकर अपने तेजोमण्डल से समन्वित होकर भगवान सूर्यदेव उनके आगे खड़े हो गये। सूर्यदेव को सामने खड़ा देखकर राजा ने कहा-हे आदित्य ! मैं आपको तेजस्वी आकाश में देखता हूँ वैसे ही अब भी देख रहा हूं। हे भगवान् ! फिर आप बतलाइए, आपके मित्र होने की विशेष बात क्या रही ? शुक्रजित् की यह बात सुनकर सूर्यनारायण ने अपने गले से स्वमन्तक नाम की मणि को उताकर शुक्रजित् को पहना दिया, तब राजा ने सूर्य को शरीर धारण किये हुए देखा और एक मुहूर्त तक एकटक देखता रहा। फिर उन्हें जाने को तैयार देखकर शुक्रजित् ने कहा कि हे भगवान् ! आप अग्नि के समान तेजस्वी हो।

 जिस प्रकाशमान मणि देने की कृपा करें। राजा की इस याचना पर स्यमन्तक मणि को उसे दे दिया, उस मणि को बांधकर राजा अपने नगर में आया। लोग उसको सूर्य जानकर उसके पीछे भागने लगे। पुर और अंत:पुर के पास पहुंचा और बड़े प्रेमपूर्वक उस दिव्यमणि को प्रदान किया। इस स्यमन्तक मणि के विषय में यह बात प्रसिद्ध है कि वह जिस राष्ट्र में रहेगी, वहां मेघ समय पर वर्षा करेंगे और व्याधियों का डर नहीं रहेगा। गोविन्द कृष्ण के मन में उस मणि को लेने की इच्छा थी, किन्तु सामर्थ्यवान होने पर भी उन्होंने प्रसेनजित् से नहीं छीना।

 एक बार राजा प्रसेनजित् स्यमन्तक मणि के कारण उन्हें एक सिंह ने मार डाला। रीछराज जाम्बवान् ने उस सिंह को मार डाला और उस मणि को लेकर अपनी गुफा में चले गये। वृष्णि और अन्धक वंश के लोगों ने इस हत्या की शंका भगवान कृष्ण पर ही स्यमन्तक मणि के लोभ से कृष्ण ने ऐसा किया है। ऐसी शंका सबको होने लगी। यह सुनकर कृष्ण भगवान को लोगों की शंका करना सहन नहीं हुआ और उस रहस्य का पता लगाने के लिए जंगल की तरफ चले गये और जहां प्रसेनजित् शिकार खेलने के लिए गये थे, उसी ओर उनके पद-चिह्नों को देखते-देखते आगे बढ़े। वहां विंध्याचल और ऋक्षवान पर्वत पर घूमते-घूमते श्रीकृष्ण ने घोड़े सहित प्रसेनजित् को मरा हुआ देखा, परन्तु मणि को नहीं देखा, थोड़ी दूर पर एक सिंह को मरा हुआ देखा। वहां पर रीछ के पैर के निशान से यह साफ मालूम हो रहा था कि सिंह को किसी रीछ ने मारा है। उसी रीछ के पद चिह्नों के द्वारा रीछ की गुफा का पता लगाया। श्रीकृष्ण ने उस विशाल गुफा में स्त्री की आवाज सुनी। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! उस गुफा में जाम्बवान् के लड़के को धाय बड़े प्रेम से स्यमन्तक मणि को दिखलाकर ‘बेटा रोओ मत’ इस प्रकार कहकर खिला रही थी।

धाय बोली-‘‘प्रसेनजित् को सिंह ने मारा, सिंह को जाम्बवान ने मारा। हे मेरे सुकुमार बेटे ! तुम रोओ मत क्योंकि यह मणि तुम्हारी है।’’ धाय की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण ने उस गुफा में शीघ्रता से प्रवेश किया क्योंकि वे गुफा के पास ही प्रसेनजित् को मरा हुआ देख चुके थे। गुफा में पहुंचकर भगवान कृष्ण ने रीछ के राजा जाम्बवान को देखा, फिर उसी गुफा में ही जाम्बदेव और वासुदेव का युद्ध आरम्भ हो गया। गोविन्द ने इक्कीस दिनों तक बाहुओं से युद्ध किया। इधर श्रीकृष्ण के साथियों ने श्रीकृष्ण वे गुफा में पहुंच जाने के बाद बहुत समय होता देखा तो द्वारकापुरी का लौट आये और ‘श्रीकृष्ण तो मारे गये’ ऐसी प्रसिद्धि हो गयी। इसके बाद भगवान वासुदेव ने महाबलशाली रीछ को परास्त कर दिया, भगवान् के तेज से प्रभावित होकर जाम्बवान ने अपनी कन्या जाम्बवती को और स्यमन्तक मणि को भगवान श्रीकृष्ण को सौंप दिया।

इस प्रकार स्यमन्तक मणि को प्राप्त कर श्रीकृष्ण ने अपने पुरुषार्थ द्वारा अपना अपयश दूर किया और स्यमन्तक मणि को ले जाकर समस्त सात्वतवंशियों के सामने शक्रजित् को प्रदान किया और इसके बाद मधुसूदन भगवान् को अपने घर जाकर जाम्बवती के साथ विवाह किया। भगवान कृष्ण के ऊपर फैलाई गई झूठी अपकीर्ति के दूर करने का वर्णन जो पढ़ता है उसको भी इस प्रकार की अपकीर्ति का पात्र नहीं होना पड़ता है।


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