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नाव दुर्घटना

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3454
आईएसबीएन :81-7182-981-3

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एक रोचक उपन्यास...

Nav Durghatna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


रवीन्द्रनाथ एक गीत हैं, रंग हैं और हैं एक असमाप्त कहानी। बांग्ला में लिखने पर भी वे किसी प्रांत और भाषा के रचनाकार नहीं हैं, बल्कि समय की चिंता में मनुष्य को केन्द्र में रखकर विचार करने वाले विचारक भी हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ उनके लिए नारा नहीं आदर्श था। केवल ‘गीतांजलि’ से यह भ्रम भी हुआ कि वे केवल भक्त हैं, जबकि ऐसा है नहीं। दरअसल, ह्विटमैन की तरह उन्होंने ‘आत्म साक्ष्य’ से ही अपनी रचनाधर्मिता को जोड़े रखा। इसीलिए वे मानते रहे कविता की दुनिया में दृष्टा ही सृष्टा है ‘अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापति।’ हालांकि वे पारंपरिक दर्शन की बांसुरी के चितेरे हैं, फिर भी इसमें सुर सिर्फ रवीन्द्र के हैं। अपनी आस्था और शोध के सुर। कला उनके लिए शाश्वत मूल्यों का संसार था।

आकाश में बिना मेघ के न जाने कहां से गर्जन की आवाज सुनाई दी। पीछे आकाश की ओर देखने से दिखाई दिया कि टूटी-फूटी डाल और पत्तों के साथ धूल-बालू को आकाश में उड़ाते हुए प्रचंड वायु बड़े वेग से चली आ रही है। बांधो-बांधो, संभालो संभालो करते-करते क्षण भर में क्या से क्या हो गया। कोई नहीं कह सकता। एक बवंडर संकरी राह से बड़े वेग के साथ सब उखाड़ता और चौपट करता हुआ कई नावों को कहां से कहां ले गया।

दो शब्द


दो-दो राष्ट्रगानों के रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद के पारंपरिक ढांचे के लेखक नहीं थे। वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्म समाजी होने के बावजूद उनका दर्शन एक अकेले व्यक्ति को समर्पित रहा। चाहे उनकी ज्यादा रचनाएं बांग्ला में लिखी हुई हों, मगर उन्हें इस आधार पर किसी भाषिक चौखटे में बांधकर नहीं देखा जा सकता। न ही प्रांतवाद की चुन्नट में कसा जाना चाहिए। वह एक ऐसे लोक कवि थे जिनका केन्द्रीय तत्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना था। वह मनुष्य मात्र के स्पन्दन के कवि थे। एक ऐसे कलाकार जिसके रंगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिनकी रंगमंच पर सिर्फ ‘ट्रेजडी’ ही जिंदा नहीं है, मनुष्य की गहरी जिजीविषा भी है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आस-पास से कथालोक चुनता है, बुनता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा को आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत्त करे, बल्कि उस कथालोक में वह आदमी के अंतिम गंतव्य की तलाश भी करता है। वर्तमान की गवेषणा, तर्क और स्थितियों के प्रति रवीन्द्रनाथ सदैव सजग रहे हैं।

 इसी वजह से वह मानते रहे कि सिर्फ आर्थिक उपलब्धियां और जैविक जरूरतें मनुष्य को ठीक स्पंदन नहीं देते। मौलिक सुविधाओं के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह सोचे कि इसके बाद क्या है। उत्पादन उत्पाद और उपभोग की निस्संगता के बाद भी ‘कुछ है जो पहुंच के पार है’ ? यही कारण है कि रवीन्द्र क्षितिज आकांक्षा के लेखक है।

इन तमाम-आधारों से रवीन्द्र, कीट्स और कालीदास के समकक्ष ठहरते हैं। उनके वर्षा गीत इस बात के समर्थन में खड़े हैं। ‘प्रक्रिया’ और ‘व्यक्तिवाद’ में आस्था के कारण वह पांरपरिक सिलसिलों में परम्परावादी नहीं हैं। अपने निबंध कला और परंपरा में वह कहते हैं-

‘कला कोई भड़कीला मकवरा नहीं, विगत के एकाकी वैभव पर गहन चिंतनशील-जीवन के जुलूस को निवेदित, यथार्थ-चेतना है, भविष्य की तीर्थयात्रा पर निकली यथार्थ चेतना, भविष्य जो अतीत से उतना ही अलग है जितना बीज से पेड़। तीर्थों के तमाम बिखरे संदार्भों के बावजूद रवीन्द्र साहित्य पुनरुत्थानवादी नहीं है। वे किसी खांचे में फिट नहीं बैठते। जैसे-

भीड़ से अलग
अपना भाव जगत
टोहा है मैंने
चौराहे पर... ।’

चौराहे पर यूं भी मनुष्य मुक्त भाव से रहता है। जिसे शापेनहावर व्यक्तिवाद का संत्रास कहता है। इसके परिष्कार का रवीन्द्रनाथ का तरीका अलग रहा है। वह मानते थे कि व्यक्तियों की अभिव्यक्तियां अलग हो सकती हैं, पर उनकी नियति अलग नहीं हो सकती, उन्हें चाहिए कि वे अपनी हर कृति में उसी शाश्वत की गवेषणा करे, उसका स्पर्श अनुभव करे जो सबका नियति नियंता है। टायनबी इसे रेशीरियलाइजेशन कहते हैं। समझा जा सकता है कि मार्क्य यदि ‘अतिरिक्त’ का भौतिक स्वरूप व्यक्त करते हैं तो रवीन्द्र आधिभौतिक। राबर्ट फ्रास्ट की तरह वह भी मानते हैं कि देवी अतिरेक के स्पर्श से मनुष्य लौकिक यथार्थ के पार चला जाता है।

रवीन्द्र साहित्य पर, उनके मूल्यांकन पर और उनकी मनुष्य की अवधारणा पर काफी काम होना है। संभवतया इसलिए भी कि वैश्विक चेतना का इससे बड़ा कवि और कहीं है नहीं। डायमंड पॉकेट बुक्स और उसके निदेशक श्री नरेन्द्र कुमार सदैव ही हिन्दी के आम पाठकों तक भारतीय भाषा के रचनाकारों को पहुंचाने में सक्रिय रहे हैं। यह सब भी इसी की कड़ी है।

प्रदीप पंडित


1


कानून-परीक्षा में रमेश के पास होने पर सभी निश्चिंत थे। वह हमेशा अव्वल आता रहा है। वह हमेशा स्कॉलर शिप भी लेता है। परीक्षा पास करके वह अपने घर जाना चाहता है लेकिन अभी तक उसमें अपना सामान सजाने का कोई उत्साह दिखाई न दिया; उसके पिता का पत्र भी आया कि वह जल्दी घर पहुंच जाए। रमेश ने जवाब दिया कि परीक्षा-परिणाम निकलते ही वह घर आ जाएगा।
अन्नदा बाबू का लड़का योगेन्द्र रमेश का सहपाठी है। साथ के मकान में ही रहता है। अन्नदा बाबू ब्राह्मण हैं। उनकी लड़की हेमनलिनी ने इस बार एम. ए. की परीक्षा दी है। रमेश अन्नदा बाबू के घर अमूमन आते जाते रहते।
हेमनलिनी नहाने के बाद बाल सुखाती हुई छत पर बैठकर पाठ याद किया करती। रमेश भी तभी अपनी छत की मुंडेंर पर किताब थामे होता। यूं पढ़ने के लिए ऐसी जगहें उचित होती हैं; मगर वहां दिक्कतें भी कम नहीं होतीं।
अब तक विवाह के बारे में किसी तरफ से कोई प्रस्ताव नहीं हुआ। अन्नदा बाबू की ओर से प्रस्ताव न होने की एक वजह थी। एक लड़का बैरिस्टरी करने विलायत गया है। अन्नदा बाबू का दुलार उसकी तरफ ज्यादा है।

उस दिन चाय की टेबल पर एक बहस छिड़ गई। अक्षय ज्यादा पढ़ा-लिखा न था; लेकिन इस बेचारे के शौक पढ़े़ लिखों से कुछ कम न थे। इसलिए हेमनलिनी की चाय की टेबल पर कभी-कभी वह भी दिखाई दे जाता था। उसने बहस छेड़ी कि पुरुषों की बुद्धि तलवार जैसी तेज है; अधिक धार न रखने पर भी अनेक काम कर सकती है; औरतों की बुद्धि जरा-सा दाब देने पर भी अनेक काम नहीं कर सकती है; औरतों की बुद्धि कलम तराश छुरी जैसी है; उससे कोई बड़ा काम लिया नहीं जा सकता। हेमनलिनी अक्षय की इस बहस की उपेक्षा करना चाहती थी। लेकिन उसका भाई योगेन्द्र भी इसमें कूद पड़ा। वह भी कुछ-कुछ तर्क देने लगा। इस पर रमेश को बर्दाश्त न हुआ। वह उत्तेजित होकर स्त्रियों का गुणगान करने लगा।

इस तरह रमेश जब नारी-भक्ति के लहराते हुए उत्साहों में और दिनों से दो प्याले अधिक चाय पी गया, उसी समय बैरे ने उसके हाथ में एक चिट्ठी दी। चिट्ठी की बाहरी ओर उसके पिता के हाथ से उसका नाम लिखा था। चिट्ठी पढ़ते ही बहस को अधूरी ही छोड़ रमेश खड़ा हो गया। सबने पूछा-‘क्या बात है ?’ रमेश ने कहा-‘घर से पिताजी आए हैं; हमेनलिनी ने योगेन्द्र से कहा-‘भैया, रमेश बाबू के पिता को यहाँ ही क्यों नहीं बुला लेते, यहां चाय आदि सब तैयार है।’
रमेश जल्दी से बोल उठा-‘नहीं, आज रहने दो, मैं जाता हूँ’
अक्षय मन-ही-मन खुश होकर बोल उठा-‘शायद यहां उन्हें कुछ आपत्ति हो सकती है।’

रमेश के घर आने पर उसके पिता बृजमोहन बाबू ने रमेश से कहा, ‘कल सवेरे की गाड़ी से ही तुम्हें घर चलना होगा।’
रमेश ने सिर सहलाते हुए पूछा, ‘क्या कोई विशेष काम है ?’
बृजमोहन बाबू ने कहा, ‘ऐसा कोई जरूरी नहीं।’
तब इतना आग्रह क्यों, यह जानने के लिए रमेश अपने पिता के मुंह की ओर देखता रहा; किन्तु उन्होंने उसके कौतूहल को दूर करने की कोई जरूरत न समझी।
शाम को जब बृजमोहन बाबू कलकत्ते के अपने मित्रों से मिलने के लिए बाहर निकले, तब रमेश उनके लिए एक पत्र लिखने बैठा। ‘श्रीचरण-कमलों में प्रणाम’ लिखने के बाद वह आगे कुछ न लिख सका। रमेश मन-ही-मन कहने लगा, ‘मैं हेमनलिनी के बारे में बिना उसे वचन दिए सत्य से आबद्ध हो चुका हूं, अब उसे पिताजी से छिपाना किसी तरह भी उचित नहीं।’ उसने कई पत्र कई प्रकार से लिखे लेकिन सबको फाड़कर फेंक दिया।

दूसरे दिन सवेरे की गाड़ी़ से रमेश को रवाना होना पड़ा। बृजमोहन बाबू की सावधानी से गाड़ी छूट जाने का कोई अवसर न था।
घर जाने पर रमेश को पता लगा कि उसके विवाह के लिए लड़की और दिन तय हो चुका है। लड़की के पिता बृजमोहन के बालमित्र ईशान जब वकालत करते थे, उस समय बृजमोहन की हालत ठीक नहीं थी-ईशान की सहायता से ही उन्होंने कुछ हैसियत हासिल की थी। वही ईशान जब असमय मर गए तो पता चला कि उनके पास सिवा कर्ज के कुछ नहीं था। विधवा स्त्री एक बालिका कन्या के सहित दरिद्रता में थी। वही कन्या आज विवाह के योग्य हुई है। बृजमोहन ने उसी के साथ रमेश का विवाह ठहराया है। रमेश के मित्रों में किसी-किसी ने आपत्ति करके कहा था, ‘सुनते हैं कि लड़की वैसी अच्छी नहीं है। बृजमोहन ने कहा, ‘यह सब बातें मैं अच्छी नहीं समझता-मनुष्य फूल या तितली तो है नहीं, जिसके लिए देखने में अच्छी होने का विचार सबसे पहले उठाया जाय। लड़की की मां जैसी सती-साध्वी है, यदि वैसी ही लड़की भी हो तो उसे अपना सौभाग्य समझना चाहिए।’

विवाह की चर्चा से रमेश का मुंह सूख गया। वह उदास होकर इधर-उधर घूमने लगा। छुटकारा पाने के लिए अनेक प्रकार के उपाय सोचकर भी उसे कोई उपाय जंचा नहीं। अन्त में बड़े दुःख से संकोच दूर करके उसने पिता से कहा, ‘पिताजी, यह विवाह करना मेरे लिए मुश्किल है। मैं दूसरी जगह वचन दे चुका हूं।’
बृजमोहन-‘ यह क्या कहते हो ! पानपात्र तक तो हो चुका है ? अब...’
रमेश-‘नहीं ठीक तरह से पानपात्र नहीं हुआ किन्तु...’
बृजमोहन, ‘कन्या की ओर से सब बाचचीत पक्की हो चुकी है ?’

रमेश, ‘नहीं, जिसे बातचीत कहते हैं, वह नहीं हुई।’
बृजमोहन-‘जब बातचीत नहीं हुई, तब जैसे इतने दिन चुप थे, वैसे ही और कई दिन चुप रहना ठीक है।’
रमेश ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा ‘और किसी कन्या को पत्नी के रूप में ग्रहण करना मेरे लिए अन्याय होगा।’
बृजमोहन, ‘न करने से तुम्हारे लिए और भी अन्याय होगा’
रमेश और कुछ न कह सका। उसके विवाह के लिए जो दिन मुकर्रर था, उसके बाद एक वर्ष तक दूसरी कोई लगन तिथि थी ही नहीं। वह सोचता था, किसी तरह यह दिन बीत जाए तो उसके लिए एक वर्ष की अवधि बढ़ जाएगी।
नदी पार कर वधु के घर जाना होता है। छोटी-बड़ी दो-तीन नदियों को पार करने में तीन-चार दिन लगते हैं। बृजमोहन ने दो-एक सप्ताह पहले ही एक शुभ दिन में उस तरफ की यात्रा शुरू की। हवा अनुकूल थी। शीमुल घाट पहुंचने में तीन दिन भी नहीं लगे। विवाह में अब भी चार दिन थे।

बृजमोहन बाबू की इच्छा थी कि दो-चार दिन पहले ही पहुंचें। शीमुल घाट में उनकी समधिन निर्धन अवस्था में रहती थी। बृजमोहन बाबू की इच्छा बहुत दिनों से थी कि इनके परिवार को वे अपने गांव ले जाएं जिससे उन्हें आराम से रखकर अपने मित्र का कर्ज चुका सकें। लेकिन किसी तरह का संबंध न होने से उन्होंने एकाएक इस प्रस्ताव को रखना उचित न समझा। इस बार विवाह के अवसर पर उन्होंने अपनी समधिन को यहां से गृहस्थी उठाने पर राजी कर लिया है। संसार में समधिन की केवल एक लड़की है, उनके पास वह रह सकती है। उन्होंने कहा भी कि-‘कोई जो जी चाहे कहे, जहां मेरी कन्या और दामाद रहेंगे, वहीं मैं भी रहूंगी।’
विवाह से कई दिन पहले आकर बृजमोहन बाबू अपनी समधिन की गृहस्थी उठा ले जाने की व्यवस्था करने लगे। उनकी इच्छा थी कि विवाह के बाद सब लोग एक साथ ही यात्रा करेंगे। इसीलिए वे अपने रिश्तेदारों के साथ आए थे।
विवाह के समय रमेश ने ठीक प्रकार से मन्त्र का उच्चारण नहीं किया, शुभ दृष्टि के समय उसने आंखें मूंद लीं, फूलशय्या की हंसी-मज़ाक को वह चुपचाप सिर झुकाकर सहन कर गया, रात को शय्या पर मुंह फेरकर सोया, सवेरे जल्दी ही बाहर चला गया।

विवाह की रस्में पूरी होने पर औरतें एक नाव में, बूढ़े एक नाव में तथा वह और उसके साथियों ने एक अलग नाव से यात्रा की। एक दूसरी नाव पर रौशनचौकी का दल समय-समय पर जैसे-तैसे राग अलापने लगा।
सारे दिन असहनीय गर्मी थी। आकाश में बादल नहीं थे फिर भी आकाश बदरंग हो रहा था-किनारे के वृक्षों के पीले पत्ते हिलते भी न थे। मल्लाह पसीने में तर। शाम को अन्धेरा होने से पहले ही मल्लाहों ने कहा, ‘बाबू, अब नाव घाट लगाता हूं। आगे बहुत दूर तक नाव बांधने की जगह नहीं है।’ बृजमोहन बाबू राह में देर नहीं होने देना चाहते थे। उन्होंने कहा, ‘यहां बांधना ठीक न होगा। आज पहली रात चांदनी रहेगी, आज बालूहाटा में पहुंच कर नाव बांधों। तुम लोगों को बहुत-सा इनाम मिलेगा।’

नाव गांव छोड़कर आगे बढ़ी। एक ओर रेती का मैदान था, दूसरी ओर टूटे-फूटे कगारे। आकाश में चांद निकला; किन्तु वह शराबी की आंखों की तरह गंदला दिखाई दे रहा था। ऐसे समय आकाश में बिना मेघ के न जाने कहां से गर्जन की आवाज सुनाई दी। पीछे आकाश की ओर देखने से दिखाई दिया कि टूटी-फूटी डाल और पत्तों के साथ धूल-बालू को आकाश में उड़ाती हुई प्रचण्ड वायु बड़े वेग से चली आ रही है। ‘बांधो-बांधों, सम्भालो-सम्भालो’ करते-करते क्षणभर में क्या-से-क्या हो गया, कोई कह नहीं सकता। एक बवण्डर संकरी राह से बड़े वेग के साथ सब उखाड़ता और चौपट करता हुआ कई नावों को कहां-से-कहां ले गया; इसका कोई पता नहीं चला।


2


तूफान समाप्त हो गया है। बहुत दूर तक फैली हुई रेतीली भूमि को निर्मल चांदनी विधवा के सफेद वस्त्र की तरह ढके हुए हैं। नदी में नाव नहीं, लहरें नहीं सब कुछ शांत और नीरव था।
रमेश ने होश में आने पर देखा वह नदी किनारे पड़ा है। क्या हुआ ? समझने में उसे कुछ समय लगा, इसके बाद सब घटनाएं उसके मन में जाग उठीं। यह पता लगाने को वह उठ बैठा कि उसके पिता और अन्यान्य जाति-भाइयों की क्या दशा हुई। चारों ओर उसने निगाह फेरकर देखा, कहीं किसी का कोई नाम-निशान भी नहीं था। तब वह नदी के किनारे-किनारे ढूंढ़ता हुआ चल पड़ा।
पद्मा की दो शाखाओं के बीच किसी चीज का आभास हुआ। रमेश जब एक शाखा के किनारे घूमकर दूसरी शाखा के किनारे पहुंचा तब उसे कुछ दिखाई दिया। बढ़कर रमेश ने पास पहुंचकर देखा कि लाल चुनरी पहने नववधू मुर्दे की तरह चित्त पड़ी है।

रमेश जानता था कि पानी में डूबे आदमी की श्वास-क्रिया को किस प्रकार लौटाया जाता है। बहुत देर तक रमेश बालिका के दोनों हाथों को एक बार सिर की ओर ले जाता और फिर उसके पेट तक लाता रहा। धीरे-धीरे बहू की सांस चली और उसने आंखें खोल दीं। थकावट होने से रमेश कुछ देर चुपचाप बैठा रहा। उसमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वह उस बालिका से कुछ पूछे।
बालिका अभी तक अच्छी तरह होश में नहीं आई थी। एक बार आंखें खोलने के बाद फिर उसकी आंखें मुंद गईं। रमेश ने देखा कि उसकी श्वास-क्रिया में अब कोई बाधा नहीं है। पीली चांदनी की रोशनी उस लड़की के चेहरे पर पड़ रही थी। सांस चलने से पेट गति कर रहा था। रमेश की आंखें उसके चेहरे पर अटक गईं।

कौन कहता है कि सुशील देखने में अच्छी नहीं है ? यह मुंदी आंखों का कमसिन मुखड़ा-इतने बड़े आकाश के बीच फैली हुई चांदनी में केवल यही चेहरा अपने सौन्दर्य के गौरव में खिला हुआ है। उर्जवसित और दीप्तिमान !
रमेश और सब बातें भूलकर सोचने लगा-‘अच्छा ही हुआ कि इसे मैं विवाह-मण्डप के कलरव में भीड़-भाड़ के बीच देख न सका। इसे मैं उस तरह कभी देख न सकता। इसमें सांस का संचार करके मैंने विवाह के मन्त्र पाठ से बढ़कर अपना लिया है। मन्त्र उच्चारण करके मैं इसे एक वस्तु जैसा हासिल करता किन्तु यहां मैंने इसे विधाता के प्रसाद के रूप में प्राप्त किया है।’
होश में आने पर वधु ने बैठकर अपने शिथिल वस्त्र को खिसकाकर माथे से घूंघट खींच लिया। रमेश ने पूछा, ‘तुम्हारी नाव के और सब लोग कहां गये; कुछ जानती हो ?’
उसने चुपचाप सिर हिला दिया। रमेश ने उससे पूछा, ‘‘तुम यहां थोड़ी देर बैठ सकोगी; मैं जरा चारों ओर घूमकर कुछ पता लगा आऊं ?’
बालिका ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन उसका सारा शरीर संकुचित हो गया-यहां मुझे अकेली छोड़कर मत जाओ।

रमेश समझ गया। उसने एक बार खड़े होकर चारों ओर देखा-सफेद रेत में कहीं कोई निशान तक नहीं। उसने अपने लोगों को खूब जोर लगाकर ऊंची आवाज में पुकारा; लेकिन कहीं से किसी का कोई उत्तर नहीं मिला।
रमेश बेवजह की कोशिश छोड़कर बैठ गया। उसने देखा-बहू मुंह पर दोनों हाथ रखकर रुलाई रोकने की चेष्टा कर रही है। उसकी छाती फूल-फूल उठती है। रमेश धीरज के कोई शब्द न कह बालिका के पास बैठ धीरे-धीरे उसके माथे और पीठ पर हाथ फेंरने लगा। अब उसकी रुलाई रोके न रुकी-वह बिना कुछ बोले सिसक उठी। रमेश की भी दोनों आंखों से आंसू की धारा बह पड़ी।
हदय के शान्त होने पर जब रोना बन्द हुआ, उस समय चन्द्रमा अस्त हो गया था। अन्धकार के बीच  यह निर्जन भूमि अद्भुत स्वप्न के जैसी जान पड़ने लगी। बालू के मैदान की सफेदी प्रेतलोक के जैसी मलिन हो गई थी। तारों की क्षीण रोशनी में नदी अजगर जैसे चिकने काले चमड़े की तरह झिलमिला रही थी।
तब रमेश ने बालिका के भय से शीतल कोमल छोटे-छोटे हाथों को अपने हाथ में लेकर उसे और भी अपनी ओर खींच लिया। भयभीत बालिका ने प्रतिकार नहीं किया। शायद उस समय वह मनुष्य के सामीप्य का अनुभव करने के लिए व्याकुल थी। अटल अन्धकार के बीच सांस से हिलती हुई रमेश की छाती का आश्रय पाकर उसे कुछ आराम मिला। उस समय उसके लज्जा करने का समय नहीं था। रमेश की दोनों भुजाओं के बीच उसने बड़े आग्रह के साथ  अपना स्थान बना लिया।

सवेरे का शुक्र तारा अस्त हो चला, पूर्व की ओर से नील नदी की रेखा पर पहले आकाश जब पीलेपन से लाल-लाल हो उठा, तब दिखाई दिया कि निंद्रा-विह्वल रमेश बालू पर सो रहा है और उसकी छाती से सटी हुई अपने हाथ के ऊपर सिर रखे हुए नववधू गहरी नींद में निमग्न है। अन्त में सवेरे की मीठी धूप के कारण दोनों की आंखें खुल गईं और दोनों कुछ देर तक चारों ओर देखते रहे; इसके बाद एकाएक याद आई कि यह अपना घर नहीं है; याद आई कि हम लोग बहकर यहां पहुंचे हैं।
सवेरे के समय मछुओं की नाव के सफेद-सफेद पाल नदी में छा गए।
रमेश ने उन्हीं लोगों को आवाज दी। मछुओं की सहायता से एक बड़ी पन-सुइया किराये पर ली और खोए हुए आदमियों की खोज के लिए पुलिस नियुक्त कर वधू को साथ ले घर की ओर चल दिया।

गांव के घाट पर नाव पहुंचते ही रमेश को खबर लगी की पुलिस ने उसके पिता, सास और कई संबंधियों की लाश नदी से निकाली है। किसी को भी यह आशा न थी कि मल्लाहों के अतिरिक्त और भी कोई बचा है।
घर में रमेश की बूढ़ी दादी थीं, वह बहू के साथ रमेश को आया देख जोर-जोर से रोने लगीं। पड़ोस के लोग बारात में गए थे, उनके भी घर में रोना मच गया। न शंख बजा और न शुभ ध्वनि हुई, किसी ने भी बहू को पसन्द नहीं किया, किसी ने उसकी तरफ देखा भी नहीं।

रमेश ने तय किया था कि सारी रस्में होने के बाद ही बहू को लेकर कहीं और जाएगा-वैसे भी पैतृक सम्पत्ति की व्यवस्था किए बिना वह कहीं जा नहीं सकता था। परिवार की शोकातुर स्त्रियां तीर्थवास के लिए उसे घेरे हुए थीं; उनका भी कोई प्रबन्ध करना आवश्यक है।

इन सब काम-काजों से फुरसत के समय रमेश प्रेम-चर्चा से भी विरक्त नहीं था। हालांकि पहले जैसा सुना गया था, बहू, वैसे ही बच्ची न थी। गांव की औरतें उसकी अधिक उम्र पर धिक्कारा करती थीं; तथापि उससे कैसे प्रेम बढ़ाया जा सकता है, इसके बाद बी. ए. पास इस लड़के को अपनी किताबों में कोई उपाय सुझाई नहीं दिया। फिर भी किताबों की पढ़ाई की अभिज्ञता से समझ में कुछ न आने पर भी आश्चर्य की बात यह थी कि उसका उच्च शिक्षित मन भीतर-ही-भीतर एक अनुपम रस से उस छोटी-सी लड़की के आगे झुक जाता। उसने कल्पना द्वारा इस बालिका को अपने भविष्य की गृह-लक्ष्मी के रूप में सुशोभित कर रखा था। इससे उसकी स्त्री होकर भी वह बालिका बहू, युवती, प्रेमिका और संतानों की प्रतिभावती माता के रूप में उसके ध्यान-नेत्रों के सामने विचित्र भाव से विकसित हो उठी। जैसे चित्रकार अपने भावी चित्र की ओर, कवि अपनी भावी कविता के सुन्दर रूप में कल्पना कर हृदय के भीतर बड़े आदर के साथ पोषित करता है, वैसे ही रमेश ने इस छोटी-सी बालिका को केन्द्र बनाकर इसके आसपास कल्पना के सारे रंग भर डाले थे।


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