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मेरा जीवन ए-वन

काका हाथरसी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :197
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3464
आईएसबीएन :81-288-1015-4

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काका हाथरसी की आत्मकथा.....

Mera jeevan -a-one

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मैं प्रभूलाल गर्ग उर्फ काका हाथरसी अपने जीवन के 88वें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ। जो कुछ कहूँगा, सच-सच कहूँगा। सच के अतिरिक्त कुछ नहीं कहूँगा। अपनी प्रसिद्धि छलांग लगाते-लगाते भगवान तक पहुँच गई है, इसलिए उधर से भी कवि सम्मेलन का आमंत्रण आने वाला है। न मालूम कब, प्रभु जी अपने प्रभूलाल को हंसने-हंसाने के लिए अपने दरबार में बुला लें। किन्तु जाने से पूर्व भगवान से अपना पारिश्रमिक जरूर तय करेंगे, तब स्वीकृति देंगे।

आज हिन्दी साहित्य में काका हाथरसी को कौन नहीं जानता। काका का बचपन कष्टमय जरूर था, पर इन्होंने किसी को महसूस होने नहीं दिया। बाद में चलकर इनकी हास्य एवं मार्मिक कविताएं सामान्य-जन तक प्रचलित हुईं। आज इनके हजारों शिष्य हिन्दी के उच्च साहित्यकार हैं। जगह-जगह साहित्यिक मंचों से इनकी कविताएं बड़ी रोचकता से पढ़ी व सुनी जाती हैं। काका कहने मात्र से आज इन्हीं का बोध होता है।

दिन अट्ठारह सितंबर, अग्रवाल परिवार।
उन्निस सौ छ: में लिया, काका ने अवतार।

मैं प्रभूदयाल गर्ग उर्फ़ काका हांथरसी अपने जीवन के 88 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ। जो कुछ कहूँगा, सच-सच कहूँगा। सच के अतिरिक्त कुछ नहीं कहूँगा।

अपनी प्रसिद्धि छलांग लगाते-लगाते भगवान तक पहुँच गई है, इसलिए उधर से भी कविसम्मेलन का आमंत्रण आने वाला है। न मालूम कब, प्रभु जी अपने प्रभूदयाल को हँसने-हँसाने के लिए अपने दरबार में बुला लें। किन्तु जाने से पूर्व भगवान् से अपना पारिश्रमिक ज़रूर तय करेंगे, तब स्वीकृति देंगे।


हँसते-हँसते पैदा हुए :


हाथरस की रसीली हास्यमयी धरती पर हमारा अवतरण शुभ मिती आश्विन कृष्णा 15 सं. 1963 दिनांक 18 सितंबर सन् 1906 ई. की मध्यरात्रि को हुआ। यदि 12 बजे से पूर्व हुआ होता तो 18 तारीख और 12 बजकर 1 सेकेंड पर हुआ होता तो 19 सितंबर। ग़रीबी के कारण घर में घड़ी तो थी नहीं। हमारे पड़ोसी पं. दिवाकर जी शास्त्री ने 18 तारीख की शुभघड़ी कायम करके हमारी जन्मकुंडली इस प्रकार बना डाली। इसे प्रसिद्ध ज्योतिर्विद श्री नारायणदत्त श्रीमाली ने अपनी पुस्तक में भी प्रकाशित किया गया है :

उन दिनों जन्म-मरण की सूचना नगरपालिका (म्यूनिसिपेलिटी) में घर की महतरानी दिया करती थी। अत: 19 सितंबर 1906 को ही नगरपालिका में यह शब्द अंकित हुए। ‘शिब्बो के लड़का हुआ है।’ मेरे पिताजी का नाम शिवपाल था, जिनको कुछ लोग शिब्बो जी कहा करते थे। जन्मदात्री माताजी का नाम बर्फीदेवी। इतनी मीठी मैया की कोख से जन्म लेनेवाला बालक मधुरस या हास्यरस से ओतप्रोत हुआ तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? हल्ला हो गया मोहल्ला में कि शिवलाल के जो लल्ला हुआ है, वह पैदा होते ही हँस रहा है। किन्तु बाद में जब इस मामले की जाँच पड़ताल हुई तो असलियत यही सामने आई कि शिशु की मुद्रा-क्षण-क्षण में न कुछ ऐसी बनती थी कि रोने या हँसने का निर्णय करना कठिन हो जाता था। यह रहस्य हमारे बड़े होने पर कुछ बड़ी-बूढ़ियों ने हमें बताया था।

हाथरस=हास्यरस

यह हाथरस नगरी हास्य की गगरी है, ऐसा लगता है। मूलनाम मेरे शहर का हास्यरस रहा होगा। अँग्रेज शासकों से यह ठीक से न बोला गया तो हाठरस-हाठरस कहने लगे होंगे। इस प्रकार हाठरस से हाथरस नाम ही पक्का हो गया।
इसके उत्तर में भागीरथी गंगा, दक्षिण-पश्चिम में श्री यमुना एवं भगवान कृष्ण की लीलास्थली मथुरा-वृन्दावन, नंदगाँव, बरसाना, गोकुल, महानव हैं। दूर-दूर से इस ब्रजभूमि के दर्शन करने यात्रीगण आते रहते हैं। ब्रिटिश शासन में हाथरस के राजा थे दयाराम। उनकी तीसरी पीढ़ी में हुए राजा महेन्द्रप्रताप, जिन्होंने वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की थी। ब्रिटिश शासकों ने राजा महेन्द्रप्रताप पर राजद्रोह का दोष लगाकर देश-निकाला दे दिया। जब महात्मा गाँधी के आंदोलन ने अँग्रेजों को भारत से निकाल दिया तो राजा महेन्द्रप्रताप पुन: अपने देश में आ गए। मुझे याद है कि जब राजा साहब हाथरस आए थे तो उनके अभिनंदनार्थ सारा शहर दुल्हन की तरह सजा था। उसके कई वर्षों बाद राजा साहब मसूरी-स्थित अपने आश्रम में विश्व-प्रेम की भावना को लेकर हर रविवार को सत्संग-प्रवचन चलाया करते थे तो उनकी पुत्री भक्तिदेवी मुझे बुलाकर आश्रम में ले जाती थीं क्योंकि मैं गर्मियों में मसूरी रहता था, वहाँ पर उपस्थित श्रोताओं को वे मेरी कविताएँ सुनवाती थी। यह क्रम 2-3 वर्ष चला। बाद में ये विभूतियाँ इस असार संसार को छोड़कर विदा हो गईं।

काका परिवार :

मेरे प्रपितामह (पड़बाबा) गोकुल-महावन से आकर हाथरस में बस गए और यहाँ बर्तन-विक्रय का काम (व्यापार) किया। बर्तन के व्यापारी को उन दिनों कसेरे कहा जाता था। पितामह (बाबा) श्री सीताराम कसेरे ने अपने पिता के व्यवसाय को चालू रखा। उसके बाद बँटवारा होने पर बर्तन की दुकान परिवार की दूसरी शाखा पर चली गईं। परिणामत: मेरे पिताश्री को बर्तनों की एक दुकान पर मुनीमगीरी करनी पड़ी। फर्म का नाम था, धूमीमल कसेरे।

आठ रुपए मासिक से पलता परिवार :

इस परिवार में 1906 में मेरा जन्म ऐसे समय में हुआ जब प्लेग की भयंकर बीमारी ने हज़ारों घरों को उज़ाड़ दिया था। यह बीमारी देश के जिस भाग में फैलती, उसके गाँवों और शहरों को वीरान बनाती चली जाती थी। शहर से गाँवों और गाँवों से नगरों की ओर व्याकुलता से भागती हुई भीड़ हृदय को कंपित कर देती थी। कितने ही घर उजड़ गए, बच्चे अनाथ हो गए, महिलाएँ विधवा हो गईं। किसी-किसी घर में तो नन्हें-मुन्नों को पालने वाला तक न बचा। तब हमारे परिवार पर भी जैसे बिजली गिर गईं। हम अभी केवल 15 दिन के ही शिशु थे, कि हमारे पिताजी को प्लेग चाट गई। 20 वर्षीय माता बर्फीदेवी, जिन्होंने अभी संसारी जीवन जानने-समझने का प्रयत्न ही किया था, इस वज्रपात से व्याकुल हो उठीं। मानों सारा विश्व उनके लिए सूना और अंधकारमय हो गया। उन दिनों घर मे माताजी, हमारे बड़े भाई भजनलाल और एक बड़ी बहिन किरन देवी और हम, इस प्रकार कुल चार प्राणी साधन-विहीन रह गए।

बहिन का लाड़ और जलता तवा :

बहिन किरनदेवी हम पर बहुत लाड़-प्यार करती थी। एक दिन वह हमको गोद में खिलाते-खिलाते बाज़ार ले गईं। लौटकर वापस आईं तो एक भयंकर दुर्घटना हो गई। माताजी ने उसी समय रोटी बनाकर गरम तवा ज़मीन पर रखा था। बहिन को मालूम नहीं था कि तवा गरम है। गोद से हमको उतारकर कहने लगी-‘हमारो भैया गाड़ी में बैठैगौ’ इन शब्दों के साथ बहिन ने हमको जलते हुए तवे पर रखा दिया। चिल्लाने-चीखने पर सारे घर में कुहराम मच गया। हमारे बाएँ पैर का कुछ हिस्सा और एक नितम्ब बुरी तरह जल गए थे। हमको तो अब कुछ भी याद नहीं है क्योंकि उन दिनों हम एक वर्ष के बालक थे। माताजी बताया करती थीं, ‘बेटा तू छ: महीने तक औंधा पड़ा रहा था। डाक्टरों का इलाज कराने लायक पैसा नहीं था, अत: देशी दवाइयों का लेप करके ठीक किया था।’ अभी तक जलने के निशान हमारे अंगों से दूर नहीं। प्लास्टिक सर्जरी-द्वारा हम अन्य जगह से चमड़ी कटवाकर उन स्थलों पर लगवाने की मूर्खता भी नहीं करेंगे। एक आफ़त के बाद दूसरी मुसीबत क्यों मोल लें ?

हमारे बड़े भाई भजनलाल हमसे 2 वर्ष बड़े थे। उनका निधन 1983 की 6 अगस्त को 71 वर्ष की आयु में हो गया। अपने नाम के अनुरूप वे भजन, पूजा एवं साधु-महात्माओं में विशेष रुचि रखते थे। दो घंटे रोज़ाना धार्मिक ग्रन्थों का पठन-पाठन करते थे। कई वर्षों तक वे हाथरस के फर्म लालजीमल टीकाराम में हैड मुनीम के पद पर रहे। बाद में वे हमारे संगीत कार्यालय में साझीदार बन गए। संगीत कार्यालय की कहानी अभी कुछ बाद में कहेंगे।

हमारी बहिन किरनदेवी भी बाल्यावस्था में ही चल बसी। उन दिनों बुजुर्गों में हमारे सरपरस्त तीन मामा ला.रोशनलाल और ला. मुन्नीलाल इगलास में निवास करते थे। गाँव हाथरस से लगभग 12 किलोमीटर दूर है, जो ज़िला अलीगढ़ की तहसील है। छात्र जीवन के लगभग 4 वर्ष हमने इसी जगह बिताए हैं। पिताजी का साया हमारे ऊपर से उठ जाने के बाद हम साधन-विहीन हो गए, क्योंकि वे कोई संपत्ति नहीं छोड़ गए थे। उस समय में मामा जी हमारे काम आए। उन्होंने 8 रुपए माहवार हमारी माताजी को सहायता के रूप में देना आरंभ कर दिया था। इसी के सहारे हम तीनों प्राणी अपनी जीवन-नौका को धकेल रहे थे। जिस दिन माताजी द्वारा प्रेषित 8 रुपए का मनीआर्डर लेकर पोस्टमैन जी आते तो एक चवन्नी अर्थात् उन दिनों के 16 पैसे काटकर पौने आठ रुपए माताजी को दे जाते। हमारे पड़ोसी पं. दिवाकर जी को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने पोस्टमैन को डाँट पिलाई-‘भाई ! तुम कैसे निर्दयी हो ? विधवा के मनीआर्डर से पैसे काट लेते हो।’

        

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