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10 प्रतिनिधि कहानियाँ (रांगेय राघव)

रांगेय राघव

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3473
आईएसबीएन :81-7016-777-9

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प्रस्तुत संकलन में जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है वे हैं :‘पंच परमेश्वर’, ‘नारी का विक्षोभ’,‘देवदासी’, ‘तबेले का धुँधलका’,‘ऊँट की करवट’, ‘भय’, ‘जाति और पेशा’,‘गदल’, ‘बिल और दाना’ तथा ‘कुत्ते की दुम और शैतान : नए टेकनीक्स’।

10 Pratinidhi Kahaniyan - A collection of stories by Rangey Raghav - 10 प्रतिनिधि कहानियाँ - रांगेय राघव

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक महत्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिंदी कथा-जगत् के सभी शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस सीरीज़ में सम्मिलित दिवंगत कथाकारों की कहानियों के लिए उनके प्रतिनिधि एवं अधिकारी विद्वानों तथा मर्मज्ञों को अमंत्रित किया गया है। यह हर्ष का विषय है कि उन्होंने अपने प्रिय कथाकार की दस प्रतिनिधि कहानियों को चुनने का दायित्व गंभीरता से निबाहा है।

किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए अग्रज कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ के अत्यंत महत्त्वपूर्ण कथाकार रांगेय राघव के प्रस्तुत संकलन में अशोक शास्त्री ने जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है वे हैं : ‘पंच परमेश्वर’, ‘नारी का विक्षोभ’, ‘देवदासी’, ‘तबेले का धुँधलका’, ‘ऊँट की करवट’, ‘भय’, ‘जाति और पेशा’, ‘गदल’, ‘बिल और दाना’ तथा ‘कुत्ते की दुम और शैतान : नए टेकनीक्स’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखक रांगेय राघव की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।

प्राक्कथन


अपनी सृजन-यात्रा के बारे में रांगेय राघव ने स्वयं कोई खास ब्योरा नहीं छोड़ा है—खास कर अपने प्रारंभिक रचनाकाल के बारे में। लेकिन एक जगह उन्होंने लिखा है, ‘‘...चित्रकला का अभ्यास कुछ छूट गया था। 1938 ई॰ की बात है, तब ही मैंने कविता लिखना शुरू किया। सांध्या-भ्रमण का व्यसन था। एक दिन रंगीन आकाश को देखकर कुछ लिखा था-वह सब खो गया है—और तब से संकोच से मन ने स्वीकार किया कि मैं कविता कर सकता हूँ। ‘प्रेरणा कैसे हुई’ पृष्ठ लिखना अत्यंत दुरुह है। इतना ही कह सकता हूं कि चित्रों से ही कविता प्रारंभ हुई थी और एक प्रकार की बेचैनी उसके मूल में थी’’ (साहित्य संदेश, जनवरी-फरवरी, 1954)।

कहानी लिखना वे इससे पहले शुरू कर चुके थे—1936 से, जब वे सिर्फ तेरह वर्ष के थे। हालाँकि उनकी उस उम्र की कहानियों और दूसरी रचनाओं के संबंध में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना मुश्किल है। मुमकिन है, उनमें से कुछ बाद के वर्षों में नष्ट कर दी गई हों, क्योंकि उनके मित्र परिजनों के मुताबिक न जँचने पर वे अपनी रचनाओं के साथ यही सलूक करते थे। फिर भी इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ रचनाएँ बाद में दोबारा लिखी या दुरुस्त न की गईं या बतौर लेखक स्थापित होने के बाद दस्तावेजीकरण की दृष्टि से छपाई न गई होगीं। मसलन अंधेरे की भूख और बोलते खँडहर जो क्रमशः 1954-55 में प्रकाश में आई, जिन पर लेखक ने किशोरावस्था में पढ़े रोमांचक विदेशी उपन्यासों का स्पष्ट प्रभाव स्वीकार किया है।

बहरहाल, इन पंक्तियों के लेखक ने जब कोई बीस बरस पहले रांगेय राघव की कहानियों को एक जगह जमा करने के लिए खोजबीन की शुरुआत की थी तो उनकी सबसे पहली छपी कहानी अभिमान मिली (हंस, दिसंबर 1944) लिहाजा रांगेय राघव की संपूर्ण कहानियाँ (1988; दो भाग) में उसे ही स्वभावतः उनकी प्रथम प्रकाशित कहानी के रूप में शामिल किया गया। मगर, इसी वक्त लेखक की तरुणाई के परममित्र मनमोहन ठाकौर, जिन्होंने बाद में रांगेय राघव और उनके दौर को लेकर अद्भुत संस्मणात्मक कृति पप्पू लिखी, ने सूचित किया कि इससे पहले प्रकाशित कहानी-देवोत्थान थी- जो उनके विद्यार्थी जीवन में सेंट जॉन्स कालेज की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।

अब तक ज्ञात रचनाओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि रांगेय राघव ने अधिकांश कहानियाँ 1942-43 से 1950-51 के बीच लिखीं। कोई एक दशक के इस अंतराल में उनकी करीब इकहत्तर कहानियाँ प्रकाश में आईं। बाद के ग्यारह-बारह बरसों के दौरान उन्होंने कुल अठारह कहानियाँ लिखीं। कारणों की तह में न जाएँ तो इन कहानियों के भाषा-शिल्प को देखते हुए इनमें से अनेक का रचनाकाल संपादक को उनके प्रकाशन से बरसों पहले का मालूम पड़ता है।
जो हो, लेखक के चयन मेरी प्रिय कहानियाँ सहित 1947 से 1963 के बीच रांगेय राघव के कुल ग्यारह कथा-संकलन प्रकाशित हुए। काफी मशक्कत के बावजूद सभी कहानियों का ठीक रचनाकाल पता लगाना संभव नहीं हुआ। नतीजन, जिन कहानियों (लगभग आधी) का रचनाकाल खोजा जा सका, उन्हें छोड़कर बाकी कहानियों का सृजनकाल उनके प्रकाशन काल के आसपास का मान लिया गया है। इसके पीछे सबसे बड़ा आधार यह था कि लेखन ही आजीविका का मूल स्रोत होने की वजह से रांगेय राघव अमूमन रचना पूरी होने के तुरंत बाद ही उसे प्रकाशनार्थ भेज देते थे; जैसे ही कहानियाँ संग्रह लायक संख्या में हो जातीं, वे पुस्तक रूप में छपने चली जातीं। ऐसे में, युवावस्था के बाद उनकी ज्यादातर रचनाओं के लेखन और प्रकाशन काल के बीच बहुत अंतराल नहीं होता था—अपवादों की बात दूसरी है मगर जाहिर है, अपवादों से नियम नहीं बनते।

मई, 1947 में रांगेय राघव का पहला कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ : साम्राज्य का वैभव। इसी वर्ष उनके दो और संकलन समुद्र के फेन और देवदासी छपे। 1949 में आए जीवन के दाने और अधूरी मूरत। अंगारे न बुझे 1951 में प्रकाशित हुआ और 1953 में ऐयाश मुर्दे। ऐयाश मुर्दे दरअसल देवदासी, जीवन के दाने और अधूरी मूरत का सम्मिलित संग्रह है। इंसान पैदा हुआ 1954 में और पाँच गधे 1960 में प्रकाशित हुए। आखिरी संग्रह एक छोड़ एक लेखक मृत्युपरांत (1963) प्रकाश में आया, जो उनकी नई-पुरानी कहानियों का चयन है।

रांगेय राघव की कहानियों को लेकर जैसा कि पहले भी संपादक रेखांकित कर चुका है : उनके कहानी-लेखन का मुख्य दौर भारतीय इतिहास की दृष्टि से बहुत हलचल-भरा, विरल कालखंड है। कम मौकों पर भारतीय जनता ने इतने स्वप्न-दुःस्वप्न, आशा-हताशा इस तरह अड़ोस-पडो़स में खड़े देखे थे—स्वतंत्रता आंदोलन, विश्वयुद्ध की सर्वव्यापी छाया, बंगाल का भीषण अकाल, भारत छोड़ो आंदोलन, भारत-पाक विभाजन, हिंदू-मुस्लिम दंगे, स्वतंत्र भारत में साँस लेने का सुख, साम्यवादी दलों पर पाबंदी, महात्मा गांधी की हत्या, कांग्रेस विभाजन, नेहरू युग की शुरुआत और जल्द ही नई व्यवस्था से आम जन के मोहभंग का प्रारंभ...। गौरतलब है कि उस समय की शायद ही कोई बड़ी घटना हो जिसकी गूँज-अनुगूँजे रांगेय राघव की कहानियों में सुनी और खरोंचें देखी, खुरंड टटोले न जा सकें।

रांगेय राघव के बाकी कथा-साहित्य की तरह उनकी कहानियों में भी अनगिन जीवंत, विशिष्ट पात्र और उनकी मनःस्थितियों का चित्रण भी गौर करने लायक है। कस्बे-शहरों के निम्न और मध्य से लेकर प्रभु वर्ग—गुंडे-लफंडरों से लगाकर गाँव देहात के पीड़ित-दलित चरित्रों की जैसी वैविध्यपूर्ण छवियाँ और वातावरण के जैसे बिंब यहाँ हैं, वे लेखक को अपने समय के उन गिनती के कथा-शिल्पियों में सहज ही शुमार कर देते हैं, जिन्होंने हिंदी कहानी की कथा-परिपाटी के चौखटे को इसलिए तोड़ा, ताकि वह बदलते, जटिल यथार्थ और संवेदन को अपने आँगन में जगह दे सकें।

संपादक ने प्रस्तुत संकलन को यथासंभव लेखक का प्रतिनिधि संग्रह बनाने की कोशिश की है। मसलन, कहानियों का चयन इस प्रकार किया गया है कि उसकी रचना-यात्रा की शुरू से आखिर तक की कृतियों का किसी न किसी रुप में प्रतिनिधित्व हो जाए। उम्मीद है, इससे लेखक के बदलते भावबोध की एक झलक पाठक को मिल सकेगी। अलावा इसके, प्रयत्न किया गया है कि विषयवस्तु, पृष्ठभूमि, भाषा-शिल्प आदि की दृष्टि से भी यहाँ लेखक के रचनाकर्म की थाह पाठक-समाज को प्राप्त हो सके। लेकिन आखिरकार हर संपादक के नजरिए की अपनी सीमाँए होती हैं। सो प्रस्तुत दस कहानियों से कहानीकार रांगेय राघव की रचना-यात्रा का एक समूचा चित्र उभर पाना असंभव नहीं तो सरल भी नहीं, समझा जा सकता है।
किसी लेखक का ऐसा संग्रह पढ़कर यदि पाठक उसकी अन्य रचनाओं के प्रति आकर्षित होता है तभी ऐसे संकलन को सार्थक कहा जाना चाहिए। यहाँ ऐसा हो सका है कि नहीं, यह तो सुधी पाठक-समाज ही बता सकेगा !

अशोक शास्त्री

पंच परमेश्वर


चंदा ने दालान में खड़े होकर आवाज देने के लिए मुँह खोला, पर एकाएक साहस नहीं हुआ। कोठे के भीतर खाँसने की आवाज आई। आभी अँधेरा ही था। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। गधे भी भीतर की तरफ टाट बाँधकर बनाई हुई छत के नीचे कान खड़े किए बिलकुल नीरव खड़े थे। खपरैल पर लाल-सी झलक थी। देखकर ही लगता था, जैसे सब कुछ बहुत ठंड़ा हो गया था, जैसे स्वयं बर्फ हो। गली की दूसरी तरफ मस्जिद में मुल्ला ने अजान की बाँग दी। चंदा कुछ देर खड़ा रहा, फिर उसने धीरे से कहा, ‘‘भैया !’’

बिस्तर में कन्हाई कुलबुलाया, अपनी अच्छी वाली आँख को मींड़ा। उसे क्या मालूम न था ? फिर भी भारी गले से पड़ा-पड़ा बोला, ‘‘कौन है ?’’ और कहते में वह स्वयं रुक गया। नहीं जानता तो क्या रात को दरवाजा खुले छोड़कर सोता ? उसे खूब पता था कि कल सूरज नारायण चढ़े न चढ़े, मगर चंदा लगी भोर आकर बिसूरेगा।
दोनों भाई असमंजस में थे। इसी समय चौधरी मुरली की बूढ़ी खाँसी सड़क पर सुनाई दी। चंदा की जान में जान आई। चौधरी को बहुत सुबह ही उठ जाने की टेव थी। वास्तव में टेव-फेव कुछ नहीं, दिन में हुक्का गुड़गुड़ाने से रात को ठसका सताता था और फिर उल्लू की तरह रात को जागकर वह सुबह ही बुलबुल की तरह जग जाते और लठिया ठनकाते सड़क से गली, गली से सड़क पर चक्कर मारते रहते।

इतनी भोर को जो कन्हाई का द्वार खुला देखा, और फिर एक आदमी भी, तो पुकार कर कहा, ‘‘को है रे?’’
चंदा को डूबते में सहारा मिला। लपककर पैर पकड़ लिए।
‘‘क्यों ? रोता क्यों है ?’’ चौधरी ने अचकचाकर पूछा, ‘‘रम्पी कैसी है ?’’
‘‘कहाँ हैं, चौधरी दादा,’’ चंदा ने रोते-रोते हिचकी लेकर कहा, ‘‘रात को ही चल बसी।’’
‘‘और तूने किसी को बुलाया भी नहीं ?’’

चंदा ने जवाब नहीं दिया। सिसकता रहा। गधे अपनी बेफिक्री से मस्ती के आलम में खड़े रहे। उनकी दृष्टि में आदमी ने ही अपना नाम उन पर थोप कर उनका असली नाम अपने पर लागू कर लिया था।
‘‘ओह ! कहाँ है रे कन्हाई !’’ चौधरी पंच ने अधिकार से कहा, ‘‘सुना तूने ! अब काहे की दुसमनी ! दुसमन तो चला गया। मट्टी से बैर करना सुहाएगा ?’’
कन्हाई ने जल्दी-जल्दी धोती पर अपना रुई का पाजामा चढ़ाकर, रुई का अँगरखा पहना और बिगड़ी आँख पर हाथ धरकर बाहर निकल आया। चौधरी ने फिर कहा, ‘‘बिरादरी तो तब आएगी जब घर का अपना पहले लहास को छुएगा बावले ! चली गई बेचारी। अब काहे को अलगाव है बेटा ? देख, और क्या चाहिए ? तेरी माँ थी न ?’’
कन्हाई ने दो पग पीछे हटकर कहा, ‘‘दादा ! जे क्या कही, एक ही ? किसकी माँ थी ? मेरी महतारी सब कुछ थी, छिनाल नहीं थी, समझे ? अब आया है ? देखा ? कैसा लाड़ला है ? नहीं आऊँगा, समझे ? बीधों का छोरा हूँ तो नहीं आऊँगा।’’

चौधरी ने शांति लाने के लिए कहा, ‘‘हाँ-हाँ रे कन्हाई, तू तो बिरादरी की नाक बन गया। पंच मैं हूँ कि तू ?’’
कन्हाई दबका। उसने कहा, ‘‘तो मैंने कुछ अलग बात कही है दादा ! उसने मेरे खिलाफ क्या नहीं किया ! मैंने हड्डी-हड्डी करके उसके चंदा को ज्वान बना दिया। ताऊ मरे थे तब मेरे बाप की आँख फूट गई थी। जो धरेजा किया तो भाभी से ही और अपनी ब्याहता को छोड़ दिया। रिसा-रिसाके मारा है मेरी माँ को। वह तो मैं कहूँ, मैंने फिर भी उसे अपनी माँ के बरोबर रखा। तुम तो सब अनजान बन गए ऐसे ! घर छोड़ दिया। अपनी मेहनत के बल पै यह घर नया बनाया है। अपना गधा है। जब सपूती का सुलच्छना बड़ा हुआ तो कैसी आँखें फेर गई। वह दिन मैं भूल जाऊँगा ?’’
चौधरी निरुत्तर हो गए। फिर भी कहा, ‘‘पर बेटा, तेरे बाप की बहू थी। यह तेरे बाप का ही बेटा है, तेरा भइया है, दस आदमी नाम धरेंगे। गधा लाद के बाजार से दुकान के लिए सब्जी लाता है। आज वह न सही; अनजाना करके लगा दे कंधा, तेरा जस तेरे हाथ में है। कोई नहीं छूटता, अपनी-अपनी करनी सब भोगते हैं...’’

कन्हाई निरुत्तर हो गया। चंदा ने उसके पैर पकड़कर पाँवों पर सिर रख दिया और रोने लगा।
‘‘मेरी लाज तो तुम्हारे हाथ है भैया ! पार लगाओ, डूबा दो। घर तोऽ तुम्हारा, मैं तोऽ तुम्हारा गधा। कान पकड़ के चाहे इधर कर दो चाहे उधर, पर वह तो बेचारी मर गई...’’
और उसकी आँखों का पानी कन्हाई के पैरों पर गर्म-गर्म टपक गया। कन्हाई का हृदय एक बार भीतर ही भीतर घुमड़ आया।

दोनों ने बगल के घर में घुसकर देखा-रम्पी निर्जीव पड़ी थी। हलकी चादर से उसका शरीर ढका हुआ था। न उसे ठंड लग रही थी, न भूख, न प्यास। कन्हाई का हृदय एक बार रो उठा। इससे क्या बदला लेना ! एक दिन सबका यही हाल होना है, उस दिन न घर है, न बार, बस मिट्टी में मिट्टी है...

और वह उसके पैरों पर सिर रख कर रो उठा—‘‘अम्मा...’’
रम्पी फुँक गई। कन्हाई ने अपने हाथ से आग दी। उसके पेट का जाया न सही, बाप का बड़ा बेटा तो वही था। बिरादरी के लोगों के मुँह से ‘वाह-वाह’ की आवाज निकल गई। कारज ऐसा किया कि कुम्हारों में काहे को होता होगा ! स्वयं चंदा को भेजकर फूल गंगा में डलवा दिया। पाप कौन नहीं करता ? मगर हम तो उसकी गत सुधार दें। बाहर बामन हो गए। और जब कन्हाई लौटकर तेरहवें दिन अपने घर आया तो ऐसा लगा, जैसे अब कुछ नहीं रहा। चंदा गधा लेकर मिट्टी डालने गया था। यही आमदनी थी आजकल। कुछ बढ़-चढ़कर ग्यारह आने रोज, सो मिट्टी के मोल पैसा आने पर मिट्टी के ही मोल चला जाता। गेहूँ की जगह बाजरा-चना सस्ता था। सब वही खाते थे और यही सबसे अधिक सुलभ था। चंदा के पास वास्तव में कुछ नहीं था। रम्पी ने अपना पति मरने पर देवर किया। देवर की पुरानी गिरस्ती तोड़ दी, क्योंकि वह चटोरी थी और जलन से सदा उसकी छाती फटती रहती। वह किसी के क्या काम आती ? छोड़ा तो है चंदा, उसके पास बस दो साठ-साठ रुपयों की गधे ही तो हैं। पुराना अपना घर गिरवी रखा है और अब शायद छूट भी नहीं सकता। किराए का मकान लेके रह रही थी छल्लो !

कन्हाई का हृदय विक्षोभ से भर गया। भीतर कोठे में घुसकर एक आँख से ढूँढ़कर आँखों पर हरा चश्मा लगा लिया, ताकि आँखों की खोट बाजार वाले न परख लें। पूछने पर कन्हाई कहता—‘दुख रही हैं, दुख’—और जवानों से कहता—‘स्कूल की लौंडियाँ देखने को पर्दा डाला है, पर्दा।’—सब सुनते और हँसते। उसके बारे में कई कहानियाँ थी कि वह एक प्रोफेसर के यहाँ नौकर था, जिसकी बीवी जवान थी और काम से जी चुराती थी। उसने कन्हाई से खाना पकाने को कहा तो कन्हाई ने अपनी नीची जाति का फायदा उठाने को धर्म दुहाई दी। बीवी अंग्रेजी पढ़ी-लिखी थी। उसने एक नहीं मानी। तब वह नौकरी छोड़ आया। उसके बाद भटक-भटकाकर सब्जी की दुकान की और वह चल निकली कि कन्हाई शौकिया ही एक-दो गधे रखने लगा, बस्ती में लादने के लिए किराए पर चलाने लगा।
कन्हाई ऊबकर दुकान पर जा बैठा। दिन-भर उसका जी नहीं लगा। आज उसे फिर से घर भरने की याद आने लगी। चंदा बाईस वर्ष का हो गया। अचानक कहीं उसे उस पर दया भाव उत्पन्न होता हुआ दिखाई दिया। अब तो सचमुच बीच की फाँस हट गई थी। कन्हाई ने अपने पैसे से कारज किया था। हृदय की उद्वेलित अवस्था भीतर के संतोष पर तैर उठी। कन्हाई दुकान बंद करके घर लौट आया।

चंदा के ब्याह के लिए कन्हाई ने आकाश-पाताल एक कर दिया। दिल बल्लियों उछलता था। चौधरी पंच मुरली के घर जाकर जब उसने किस्सा सुनाया तो पंच उछल-उछल पड़े, खाँसी का ढेर लगा दिया। उनकी बहू ने बूढ़ी पलकें उठा कर देखा और गीत गाने के लिए तैयारी करने का वचन दे दिया। आज जैसे घर-घर में हर एक वस्तु में आनंद ही आनंद था। चंदा का घर साफ हो गया। एक ओर मटके सजा कर रख दिए गए। अब चंदा के बच्चे होंगे, वे दिवाली पर दीये बेचेंगे, बड़े होंगे तो चंदा मिट्टी लादने का काम छोड़कर चाक सँभालेगा और फिर हर थिरकन पर झटका खाकर कुल्हड़ पर कुल्हड़ उतर आएगा। चौधरी के पीछे जो बाड़ा है, उसी में भट्ट लग जाएगा...।
चंदा मस्त होकर गा रहा था। फागुन का सुलगता मास था। बारात बाहर गली में बैठकर जीम रही थी। भीतर औरतें गालियाँ गा रही थीं—

मेरौ गरमी कौ मार खसमौ देखिकै रह-रह पलटा खाया...
नैकु लहँगा नीची कर लै...
कन्हाई ने रंगीन फेंटा बाँधा था। आज उसके पगों में स्फूर्ति थी; दौड़-दौड़कर इंतजाम कर रहा था। चारों ओर कोलाहल पर प्रकाश की धुँधली किरणें तैर रही थीं। बारातियों के खच्चर, जिन पर वे चढ़कर आए थे, एक ओर मूर्खों-से चुपचाप खड़े थे, जैसे उन्हें मनुष्य की इस उन्मदिष्णु तृष्णा से कुछ मतलब न था।
और इसी तरह एक दिन बहू ने आकर घूँघट की दो तहों में से देखते हुए कन्हाई के पैर छुए। चंदा की गिरस्ती बस गई और कन्हाई बगल में अपने घर में लौट गया।

चंदा की गाड़ी जब चलने से इनकार करने लगी तभी उसने घर से बाहर कदम रखा। पड़ोस की औरतें लुगाई के इस गुलाम को देखकर कानाफूसी करतीं, राह चलते इशारे करके हँसती और जब मिलती तो यही चर्चा चलती। चंदा फूलो के समाने पराजित हो गया था। फूलो को देख कुम्हरिया कोई कह दे तो उसे आँखों में काजर लगाने का जरूरत है। वह तो पूरी जाटनी है। जवानी का किला है, लचकती जीभ है, फौरन तर हो जाए। चंदा की क्या बिसात ! ऐसा बस्ती में बहुत कम हुआ। दिन में चंदा और फूलो जोर-जोर से बोलते हैं, ठहाके और किलकारियों को सुनकर पड़ोस के लोग दाँतों तले उँगली दबाते हैं। कुंजी, जो प्रायः तीन ब्याहता जवान छोकरियों की मैया है (और तीनों लड़कियाँ गालियाँ गाने में उसका लोहा मानती हैं), वह तक चौंक जाती हैं कि सरम-हया का तो नामोनिशान ही उठ गया।
इधर चंदा सुबह जाता, सरे साँझ लौटता तो थका-माँदा और फूलो मुँह फुलाकर बैठ जाती। पति-पत्नी में अकसर पैसों के पीछे झगड़ा हो जाता। चंदा कहता, ‘तो मैं कोई राजा नहीं हूँ, समझी ! जो तू पाँय पसारकर बैठ और मैं दर-दर मारा फिरूँ ?’

कहते-कहते बीड़ी सुलगा लेता। फूलो कभी-कभी रो देती। कहती, ‘तो तुम मुझे ब्याहकर ही क्यों लाए थे ? जमाने की औरतों के तन पर बस्तर हैं, गहने हैं, यहाँ खाने के लाले हैं...’

चंदा काटकर कहता, ‘ओह हो ! रानी बहू ! बस्ती में सब ही ऐसे हैं। तू ही तो एक नहीं। भैया की तरह सब ही तो नहीं। उनका पैसा-धेली का हिसाब तो मिट्टी में गड़ता है, यहाँ पेट में गचकती है मेरी कमाई, राँड़।’
फूलो कह उठती, ‘चलो रहने दो। भाँजी भाँग के परबीन गाहक तुम ही तो हो। जग के नाम धरे, अपना भी देखा ? ब्याह तो मुफ्त हुआ था, नहीं तो तुम्हें कौन देता छोरी ? सेंत के चंदन, लाला, तू लगा ले, और घरवालों के लगा ले।’
चंदा विक्षुब्ध होकर बोला, ‘तो जा, बैठ भैया के घर ही। रोकता हूँ ? जमाने के मरद पड़े हैं। चली जा जहाँ जाना हो।’
फूलो लजाकर कहती, ‘अरे धीरे बोलो, धीरे, तुम्हें तो हया-सरम कुछ भी नहीं। कोई सुनेगा तो क्या कहेगा ?’’
चंदा हँस देता। और रोज-रोज की बात या तो रोने में समाप्त होती या हँसने में और दोनों काफी देर तक एक-दूसरे से बात नहीं करते, लेकिन बारह बजे रात को अपने आप फिर दोस्ती हो जाती। चंदा द्विविधा में पड़ रहा। फिर कन्हाई से एक भी बात नहीं कही। मन ही उसके वैभव को देखकर ईर्ष्या करता। कन्हाई ने एक और गधा खरीद लिया।

उस दिन जब वह सुबह चंदा को घर पर समझकर खबर देने आया, चंदा तो था नहीं, आँगन के कोने में पसीने से लथपथ, अस्त-व्यस्त कपड़ों में प्रायः खुली फूलो नाज पीस रही थी। कन्हाई ने देखा और देखता रह गया। फूलो ने मुड़कर देखा और अपना घूँघट काढ़ लिया। वक्षस्थल फिर भी जल्दी में अच्छी तरह नहीं ढक सकी।
कन्हाई पौरी में आ गया और फिर पूछकर लौट आया। चंदा ने गधा खरीदने की बात सुनी और अपनी परावशता के अवरोध में फूलो से फिर लड़ बैठा। फूलो देर तक रोती रही।

प्रायः एक सप्ताह बीत गया। चंदा का मकानदार उस दिन किराया वसूल करने आया था। चंदा ने उसे लाकर आँगन में खाट पर बिठाकर उसकी खुशामद में काफी समय लगा दिया। फूलो कुछ देर प्रतीक्षा करती रही। फिर ऊबकर बाहर सड़क के नल से डोल भरकर कन्हाई के घर में घुस गई। मालूम ही था कि कन्हाई उस समय दुकान पर रहता है, घर पर नहीं।
गरीबों के घर में गुसलखाने नहीं रहते। ऊपर छत पर नहाने से बाबू लोगों के लड़के छिपकर अपने ऊँचे-ऊँचे घरों से देख लेते थे, अतः वह आँगन के एक कोने में बैठकर नहाने लगी। जूँएँ तो फिर भी बीन लेगी। जब तक जेठ बाहर है, तब तक जल्दी-जल्दी नहा ले। इसी समय न जाने कहाँ से कन्हाई आ घुसा। देखा और आँखों के सामने से बिजली कौंध गई। फूलो घुटने में सिर छिपाकर बैठ गई। जब वह कपड़े पहनकर निकली, कन्हाई बाहर पौरी में प्रतीक्षा कर रहा था। फूलो ने देखा और बरबस ही उसके होंठों पर एक तरल मुस्कराहट फैल गई। पौरी में उजाला अधिक न था, तिस पर कन्हाई की आँखों पर चश्मा चढ़ा हुआ था। वह थोड़ा ही देख सका, किंतु पुराना आदमी थी, समझ काफी दूर ले गई। कहा, ‘‘बहू ! चंदा कहाँ है ?’’

उसके स्वर में बड़प्पन था, अधिकार था; डरने को कोई कारण शेष नहीं रहा। उसने सिर झुकाकर घूँघट खींच लिया और पाँव के अंगूठे से भूमि कुरेदते हुए कहा, ‘‘घर बैठे हैं।’’
कन्हाई ने फिर कहा, ‘‘तो ले ! लिए जा ! बना लेना !’’
दो ककड़ी भीतर से लाकर दे दीं हाथ में। फूलो ने घूँघट पकड़कर उठाने वाली उँगलियों के बीच से देखा और मुस्कराती हुई ककड़ियों को डोल में रखकर चली गई।
कन्हाई कुछ सोचता-सा खड़ा रहा। चंदा ने देखा और पूछा, ‘‘यह कहाँ से ले आई ?’’
कन्हाई ने भी अपने आँगन से वह संदेह भरा स्वर सुना। वह साँस रोककर प्रतीक्षा में खड़ा रहा, देखें, क्या कहती है ? फूलो ने तिनककर कहा, ‘‘परसों दो आने दिए थे। तुम्हारी तरह मैं क्या चाट उड़ती हूँ ? दारू पीती हूँ ? बच रहे थे सो कभी-कभार खाने को जी चाह ही आता है। सो ही ले आई।’’
‘‘कहाँ से ? भैया की दुकान से ?’’ चंदा ने फिर उपेक्षा से पूछा।

‘‘हाँ ! नहीं तो ?’’ फूलो ने धीरे से उत्तर दिया।
‘‘राम-राम,’’ चंदा का स्वर सुनाई दिया, ‘‘भइया हैं ये ? अकेले का खरच ही क्या है ? इसलिए जोड़-जोड़कर सखते हैं ? कौन है इनका ? न आगे हँसने को न पीछे रोने को। दो ककड़ी तक नहीं दे सके, जो फूटी आँख से देखकर दाम ले लिए ?’’
फूलो ने उत्तर नहीं दिया। कुछ बुरबुराई अवश्य, जिसे कन्हाई नहीं सुन सका। उसके दाँतो ने क्रोध से भीतर पड़ी जीभ को काट लिया। कैसी है यह दुनिया ? मतलब के साथी हैं सब। इनका पेट तो नरक की आग है। बराबर डाले जाओ, कभी भी न बुझेगी। हाथ फैलना सीखे हैं। कभी उलटा करना नहीं आया।
फिर मन एक अजीब उलझन में पड़ गया। ब्याह हुए अभी तीन महीने भी नहीं हुए, बहू ने यह क्या रंग कर दिए ! ठीक ही तो है। भूखा मारेगा तो क्यों मरेगी सो ? उसके तन-बदन में जोश है, तो दस जगह खाएगी। ऐसी क्या बात है लाला में जो सती हो जाए ? जैसा फैरा, वैसा धरेजना। बैयर तो राखे से रहेगी।
एक कुटिलता उसके होंठों पर झटका खा गई।


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