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कहानी संग्रह >> राजा निरबंसिया

राजा निरबंसिया

कमलेश्वर

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :110
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3481
आईएसबीएन :000

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कहानी संग्रह...

Raja nirbansiya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बहुचर्चित कहानीकार कमलेश्वर का प्रथम कहानी-संग्रह ‘राजा निरबंसिया’ के प्रकाशन के तुरन्त बाद ही कमलेश्वर ने हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में अपनी पहचान स्थापित की थी। ‘राजा निरबंसिया’ को हिन्दी-कहानी में नया आयाम देने वाली अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहानी के रूप में स्वीकार किया गया था और आज भी इसका महत्त्व उसी तरह कायम है। इस संग्रह की सभी कहानियाँ न केवल कमलेश्वर के बल्कि हिन्दी कथा साहित्य के महत्त्वपूर्ण अंकन है। यह ‘राजा निरबंसिया’ का नया संस्करण आपके हाथ में है।

भूमिका


कभी आपने ज्वालामुखी के शिखर पर बैठे हुए व्यक्तियों की कल्पना की हो, उनके अन्तर्द्वन्द्व और मानसिक स्थितियों के अध्ययन की चेष्टा की हो, और ऐसा सोचा हो कि इन्हें किस प्रकार विस्फोटों की वह्वि से बचाकर जीवन का मन्त्र दिया जाये जो ‘नयी कहानी’ का धरातल और नये कहानीकारों की प्रवृक्तियाँ सहज ही आपके सामने स्पष्ट हो उठेंगी। कथानक शैली और शिल्प को चुनने की अभिरुचि में, उनमें चाहे कितना भी वैभिन्य हो (और वह है) किन्तु मानवीय मूल्यों के संरक्षण, जीवनी शक्ति के परिप्रषण एवं सामाजिक नव निर्माण की जितनी उत्कट प्यास इस पीढ़ी के कहानीकारों में है वह पिछले दौर में नहीं थी। आज के हर कहानीकार में कुछ कहने के लिए एक अजब सी अकुलाहट और बेबसी है, जो निश्चय ही इस संक्रान्तिकाल की देन है जिसने एक ओर यदि हमारी संवेद्य शक्तियों पर दबाव डाला है तो दूसरी ओर हमारी चेतना को भी जागरित किया है।

 इसलिए हम देखते हैं कि आज की कहानियाँ कल्पना के पंखों पर नहीं उड़ती बल्कि दुनिया की व्यावहारिक और वास्तविक जिन्दगी से उनका सीधा सम्बन्ध है। धरती के हर कण के प्रति लगाव, हर मोड़ के प्रति जिज्ञासु भाव और हर गड्ढे को पाट देने की सहानुभूतिपूर्ण विह्ललता उनमें है। आज की कहानियों का रूप बहुत बदल गया है। इसलिए उनका मापदण्ड भी बदलना पड़ेगा। उनकी सफलता या असफलता की कसौटी यह नहीं हो सकती कि वे किस हद तक किसका मनोरंजन करती हैं बल्कि यह होगी कि वे मनुष्य की शील संवेदनाओं को कहाँ तक झँझोड़ती, छूती और उकसाती हैं। केवल सोद्देश्यता की पृष्ठभूमि में ही आज के लेखक की कहानियों का अध्ययन किया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार वह स्वयं आत्म ग्रन्थियों का चित्रण या विश्लेषण सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में करता है।

मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं कि हिन्दी आलोचकों ने आज के कहानी साहित्य का समुचित अध्ययन नहीं किया, अतः नयी कहानी के वैशिष्ट्य और नयेपन को पकड पाने में वे असफल रहे हैं। इसीलिए कहानियों की आलोचना करते हुए आज भी बहुत से आलोचकों के मुँह से सुन पड़ता है कि कहानी अभी प्रेमचन्द्र और जैनेन्द्र से आगे नहीं गयी। मेरा विनम्र निवेदन इसी सम्बन्ध में है कि आज की कहानियाँ चाहे अपनी परिभाषा में उतनी ‘सम्पूर्ण’ न हों किन्तु कलात्मक अभिव्यक्ति, शिल्प-कौशल और भाषा की व्यंजना-शक्ति का उनमें निश्चित विकास हुआ है। इसके अतिरिक्त नयी कहानी की एक और भी उपलब्धि है-नयी भावभूतियों का सृजन !

बस। अपनी इन कहानियों के विषय में तो केवल इतना ही कहूँगा कि इनके लिए मैं उस छोटे से कस्बे मैनपुरी का आभारी हूँ, जहाँ जनमा और पलकर बड़ा हुआ और जहाँ का धूल-धक्कड़ और जिन्दगी के कोलाहल से भरापूरा, उदास किन्तु मोहक वातावरण मेरी अनुभूतियों को नये-नये रंगों में रँगता रहता है।


इलाहाबाद फरवरी ’57

कमलेश्वर


देवी की माँ



उसकी माँ दरियाँ बुनती थी और वह बेकार था। दरियाँ बुनने का भी कोई ऐसा बँधा हुआ सिलसिला नहीं था, जिसे काम कहा जा सके। कभी कोई अपनी ज़रूत से बुनवा लेता और कभी बेजरूरत भी-उसे काम देने की नीयत से दे देता, या बरसों का कोई गद्दा- लिहाफ़ जब जवाब दे जाता, उपल्ला और अस्तर फट जाता और बदरंग नामा भीतर से झाँकने लगता, तो उसे काम में ले आने का एक यही तरीका था कि उसे देवा की माँ को दे दिया जाये और वह महीने दो महीने में दरी बुनकर दे जाये। मेहनत मजूरी का दाम धीरे-धीरे पटता रहता, क्योंकि कोई धन्धा तो था नहीं कि इस हाथ ले उस हाथ दे। यही क्या कम था कि जरूरत पड़ने पर उसे कहीं-न-कहीं से पैसे मिल ही जाते।

यहाँ के ये सारे परिवार एक-दूसरे से बेतरह जलते थे, कुढ़ते थे; पर वक़्त की मार ने उनकी जबानों को कुन्द कर रखा था, हर एक की बेबसी ने एक अनदेखे धागे में बड़े ही आश्चर्यजनक रूप में उन्हें बाँध रखा था। जिसका कोई सिरा नज़र नहीं आता था। यही वजह थी कि जवान होते हुए भी देवा के बेकार रहने को, लोगों ने बड़ी निस्संग स्वाभाविकता से स्वीकार कर लिया था।

देवा जब अपने चारों ओर नज़र घुमाता तो उसे यह सब खलता। खुद अपनी माँ की बेईमानी चुभती, जो दरियों के लिए रुहड़ लेते वक्त पन्सेरी पर आधा सेर ज्यादा लेने की नीयत से, मैले के एवज में साढ़े पाँच सेर के लिए झगड़ती, और इस तरह आधा सेर रुई बचा-बचाकर आठ-दस दरियों के बाद, एक अपनी निजी दरी बनाकर बेच लेती। वह अपने चारों तरफ जब लोगों को देखता तो उसे लगता कि उनके चेहरे एकदम एक-से हैं, जिन पर नफ़रत प्यार, प्रशंसा या निन्दा कुछ भी तो नहीं उभरती। अजीब एकरसता थी, जैसे सब शंकर-से योगी हैं, जो विष पी-पीकर स्थिर से बैठे हैं, आँखें मूँदे।

इसीलिए वह घर से भागा-भागा रहता। मौलवी साहब के अस्तबल में लगे शास्त्री के छापाखाने में बैठा रहता, वहाँ की एकरस आवाज से जब मन ऊबता तो ठाकुर की इमली के नीचे वाले चबूतरे की महफिल में पहुँच जाता। कस्बे भर की सनसनीपूर्ण खबरें उसे शास्त्री के छापाखाने में मिलती रहती और सरकार के कारनामों की सूचनाएँ ठाकुर की महफिल में जमा होने वाले बेसिक और नॉर्मल स्कूल के अध्यापकों और पण्डितों से मिलतीं। इन दोनों ही जगह उसे ऐसे आदमी दिखाई पड़ते थे जो अपनी बातों और अपने स्वार्थों से अलग से होकर आस-पास और दूर-दूर के सुख-दुख और संघर्ष के प्रति जिन्दा दिखाई पड़ते थे...यहाँ आकर जैसे वह अपने को भुला बैठता और बहुतों की पाँत में शामिल हो जाता।

इसीलिए कभी- कभी अनचाहे बिना सोचे उसे देर हो जाती। सुबह से आ जमता तो बातों में वक्त का अन्दाजा न रहता। दोपहर चढ़े जब घर पहुँचता तो दिल छोटा होने लगता, खयाल आता-इतना वक्त बैकार बरबाद कर दिया, इससे अच्छा होता कि अम्मा के काम में हाथ बँटाता, और कुछ न सही तो रूहड़ ही नोचता, जिससे धुनकने के लिए डाली जा सकती या सूत की लच्छियाँ ही बनाता, जिससे रँगने में आसानी होती। घर में घुसता, बरामदे में ही अड्डा सजा होता, सूत का जाल पुरा होता और रंगीन सूत की पिण्डियाँ इधर-उधर लुढ़कती होतीं, कसने वाला हत्था एक ओर पड़ा होता और अम्मा बैठी सूत कातती होती या रूहड़ नोचती होती। आहट सुनकर बिना उसकी ओर देखे उठती और कोठरी में घुस जाती। डिबिया में से लम्बी जंजीर वाली घड़ी निकालती, घड़ी हथेली पर रखती तो जंजीर हथेली के उस पास झूल जाती; उसे कुछ क्षण देखती...एकटक जैसे सुइयों की गिनती पढ़ने में उसे कुछ याद आता हो...

और कभी देवा का मन भर आता, अपनी बेपरवाही और उदासीनता पर पश्चात्ताप होता। सोचता, आखिर माँ भी तो घर में अकेली पड़ी रहती है, कहीं आती -जाती नहीं। क्या उसका दिल नहीं भटकता होगा ? फिर माँ पर कुछ झुँझलाहट भी होती कि ये कुछ बोलती क्यों, नहीं देर से आने पर डाँटती क्यों नहीं, कुछ पूछती क्यों नहीं ? पर वह नहीं पूछती। जैसे सब स्वीकार कर लिया हो। लेकिन तभी उसे लगता कि वह कितने पीड़ित मौन से सब कुछ पूछ लेती है। जब कोठरी में घड़ी देखने जाती है, तो शायद वह अपने से ही उत्तर माँगती है कि देवा अब तक कहाँ रहा ? और फिर उसके बाद सुइयों पर नजर गड़ाकर कुछ कहती है कि देखो, तुम्हारा देवा कैसा हो गया...मेरा कुछ ही खयाल नहीं रखता, क्या इसकी उम्मीद भी छोड़ दूँ ?

और तब देवा की आँखें नम हो जातीं, वह अपने को सारी बातों का जिम्मेदार पाता। उसे पिता की याद आती, जिसे उसने देखा तो था पर कभी महसूस नहीं किया।
माँ कोठरी से निकलती, आसन बिछाती और खाना परोसकर देवा को आवाजा देती, ‘‘आ देबू जरा पानी रख ले दो गिलास..’’
तब देवा को पता चलता कि माँ भी बिना खाये बैठी रही है, कहता, ‘‘अम्मा, तुम खा लेती न, मैं जरा मास्टरजी के पास गया था। उनके हाथ में पचास साठ की नौकरी तो रहती ही। शायद अब से स्कूल खुलने पर कुछ खयाल कर लें...’’ पर झूठ बोलते उसे कुछ न लगता, कह चुकने के बाद माँ के चेहरे की स्थिरता जैसे उसे धिक्कारती और वह अपने में सिमट जाता..माँ धीरे से मुसकरा देती और कहती, ‘‘रामलाल की एक दरी बनानी है, सूत तो तैयार है, तू कल रँगरेज से रँगवा दे, झट पट निबटा लूँ...’’


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