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श्रंगार - प्रेम >> कुछ न कहो

कुछ न कहो

समीर

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :287
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3500
आईएसबीएन :000

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एक नया उपन्यास...

Kucha Na Kaho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


अचानक बादल के एक टुकड़े ने उन दोनों को अपनी चपेट में ले लिया साथ ही चीख गूँजी—‘‘अंकित..तुम कहाँ हो ?’’
‘‘अनीशा, मैं यहां हूं।’’ दूसरे ही क्षण अनीशा अंकित की आवाज के सहारे दौड़कर आई और उसके सीने से लिपट गई...अंकित ने उसे बांहों में भर लिया और बड़े प्यार से कहा—
‘‘अनीशा, आई लव यू।’’
‘‘आई लव टू यू अंकित।’’ अनीशा और भी जोर से लिपटती हुई बोली।..
फिर अनीशा ने अंकित के सीने से सिर हटाकर चेहरा ऊपर उठाया और उसके होंठ अंकित के होंठों की तरफ बढ़े—ठंडे बादल के बीच दोनों की गरमागरम सांसें एक-दूसरे से टकराने लगीं—दोनों और निकट आए और भी निकट, मानों दोनों एक-दूसरे में समा जाएँगे।
अचानक ही अंकित के कानों में आवाज आई—
हैलो, क्या बैठे-बैठे सो रहे हो ?’’

अंकित अनायास उठ खड़ा हुआ—उसका दिल बहुत जोर-जोर से धड़क उठा और साँसे तेज हो गईं..ऐसा लगा जैसे वह एक सुन्दर सपना देखते-देखते जाग गया हो। सामने खड़े महेश को देखकर उसके होंठों पर विशेष बच्चे जैसी मासूम, खामोश-सी मुसकान फैल गई और वह बोला—
‘‘ओह...! तुम...!’’
‘‘तुम किसी और को एक्सपैक्ट कर रहे थे ?’’ महेश ने उसके पास बैठते हुए कहा।
‘‘तुम्हारे सिवा और किसे एक्सपैक्ट करूंगा।’’
‘‘अनीशा को भूल गए ? अरे, हम तीनों की दोस्ती पर तो सारा कॉलेज जल उठता है।’’
हम तीन होकर भी एक हैं...इसलिए हम तीनों में कोई किसी को अलग क्यों रखे ?’’
‘‘ऐनी वे...यह नोट्स शायद अनीशा के लिए बना रहे होगे ?’’
‘‘बन गए हैं...अब तो इनीशियल का काम कर रहा हूं।’’
‘‘अरे ! तू कोई आदमी है या सोशल वर्कर...कॉलेज के सारे स्टूडेंट्स का दर्द तेरे ही जिगर में है ? किस-किसका भला करेगा।’’
‘‘किसको इंकार कर दूं ? अरे, जो कुछ भी कोई कहता है, कोई आस लेकर ही तो कहता है..किसी की आस तोड़ना अपने दिल पर दाग लगाने के समान है।’’
‘‘यार ! तू अपने दिल के दाग मिटाकर सबको अपना मोहताज बना लेगा।’’

‘‘कोई किसी का मोहताज नहीं होता दोस्त..जब सारी जिम्मेदारी किसी पर आन पड़ती है तो हर कोई अपनी शक्ति अनुसार निभाता है।’’ फिर मुस्कराकर बोला—‘‘बस, एक तू ही जिसने कभी मुझसे कुछ नहीं मांगा।’’
‘‘ऐसी बात है ? अगर मैं मांगू तो तू देगा ?’’
‘‘जान...मांगकर देख।’’
‘‘तुम्हारी जान तो मेरी और अनीशा की है...हम अपनी चीज क्या मांगे ? मगर जिन्दगी में एक बार तुझसे कुछ न कुछ मांगना अवश्य है, वचन दे...इंकार नहीं करेगा।’’
‘‘क्या जरूरत है कि मैं कहूं कि वचन दिया।’’
‘‘नहीं—बस इतना ही काफी है।’’
इतने में एक नौजवान आया और बोला—‘‘अंकित भाई...अपना काम हो गया। ?’’
‘‘हां...यह रहा।’’
अंकित ने अपनी फाइल से एक कापी निकालकर उसकी तरफ बढ़ा दी। नौजवान ने कापी लेते हुए कहा—‘‘थैंक्यू अंकित भाई...मैनी मैनी थैंक्स !’’
‘‘इट इज ऑल राइट।’’
लड़के के जाने के बाद महेश ने कहा—‘‘तो हजरत भी लाइन में थे।’’

अंकित मुस्कराकर रह गया—महेश ने भी कुछ मुस्कराकर कहा—
‘‘तुम्हें इन हजरत का रिकार्ड मालूम है ?’’
‘‘मैं किसी की जासूसी नहीं करता।’’
‘‘मालदार बाप का बेटा है—फ्रेंड्स सर्कल में लड़कियों की संख्या ज्यादा है...इम्पोर्टेड एयर कंडीशंड कार में एक साथ तीन-तीन, चार-चार को लेकर घूमता है।’’
‘‘यह उसका अपना कैरेक्टर है।’’
‘‘दो साल फेल हो चुका है—हाफ ईयरली टैस्ट में अबकी बार अच्छे नम्बर आए थे—जानने वाले हैरान थे—मालूम हुआ कि वह सब तुम्हारी वजह से हुआ है।’’
‘‘मेरे कारण किसी को कुछ मिल जाता है तो उसमें मेरा क्या जाता है ?’’
‘‘यार ! तू क्या हातिमताई का दूसरा जन्म है..कभी अपने लिए भी कुछ सोचा है ?’’
‘‘क्या सोचूं ? किस चीज की कमी है मुझे ? एक स्नेहशील मां, अनीशा और तुम्हारे रूप में दो अच्छे दोस्त..इससे बड़ी दौलत और कौन-सी होती है जिसके लिए मैं सपने देखूँ।’’

‘‘पगले ! एक मां और दो दोस्तों के गिर्द जिन्दगी नहीं घूमती...हमारा दोस्ती का साथ कॉलेज की दीवारों तक है—बाद में प्रैक्टिकल जिन्दगी में आकर, कब, कितना समय एक-दूसरे के लिए मिलता है, यह तो ऊपर वाला ही जानता है—मगर...तुम्हें अपनी मां के बुढ़ापे के लिए एक अच्छी नौकरी देखनी है...अपना घर बसाने के लिए एक अच्छे साथी की भी जरूरत होगी..अगर तू ऐसी सोशल सर्विस में ही लगे रहे तो अपने लिए क्या कर सकोगे।’’
‘‘पास हो जाऊंगा..नौकरी ढूंढ़ूंगा..ईश्वर जरूर नौकरी देगा।’’
‘‘और छोकरी ?’’
अंकित हंसकर रह गया तो महेश ने कहा—‘‘सच-सच बता यार ! कभी किसी लड़की के बारे में तूने सोचा है ?’’
अंकित के दिल पर धक्का-सा लगा और कल्पना में अनीशा घूम गयी..वह धीरे से बोला—‘तलाश में भटकने से कभी कुछ नहीं होता..संयोग में जिसका भी साथ हो, वह अपने आप मिल जाएगी।’’
‘‘यार ! अपने आप तो किसी को एक प्याली चाय भी नहीं मिलती।’’
‘‘मिल जाती है कभी-कभी ! अगर नीयत सच्ची हो तो।’’
इतने में किसी लड़की की आवाज सुनाई दी—‘‘हाय महेश..हाय अंकित।’’

दोनों ने चौंककर देखा और अंकित का दिल जोर-जोर से धड़क उठा। हल्के प्याजी सूट में अनीशा मुस्कराती हुई उसकी ओर बढ़ रही थी। उसके हाथों में फाइल और बॉस्केट थी।’’
‘‘हाय अनीशा !’’ महेश ने कहा—‘‘यह गृहस्थी कहां लादे फिर रही हो ?’’
‘‘तुम दोनों को ही ढूँड़ती फिर रही थी—यहां कोने में छिपे बैठे हो।’’ उसने अपने गोरे-गोरे नाजुक पैरों में से चप्पलें उतार कर घास पर बैठते हुए फाइल रखकर कहा—‘‘मम्मी ने आलू के परांठे और शामी कबाब बनाए थे..मैंने सोचा अकेले खाने में क्या मजा आएगा...साथ में मम्मी के हाथ की वह गरम-गरम चाय भी है जिसे पीकर अंकित को नशा भी हो जाता है।’’
अचानक महेश ने जोरदार ठहाका लगाया तो अनीशा ने एक चौकोर प्लास्टिक टेबल क्लॉथ बिछाते हुए कहा—
‘‘किसका मजाक उड़ा रहे हो ?’’
‘‘अपनी बेवकूफी का।’’
‘‘क्या आज पता चला है तुम्हें सच्चाई का ?’’

‘‘मैं अभी-अभी अंकित से यही कह रहा था कि बिना कोशिश के तो किसी को एक प्याली चाय भी नहीं मिलती..और जानती हो, इसने क्या उत्तर दिया ?’’
अनीशा हंस पड़ी और बोली—‘‘जवाब अंकित ने नहीं ईश्वर ने दे दिया होगा, जो कुछ नसीब में होता है खुद ही चलकर आ जाता है...जिस तरह इस वक्त मेरे हाथों बनाई अंकित को उसकी पसंदीदा चाय मिल गई।’’
अनीशा ने कपड़े के ऊपर खाने का सामान लगा दिया—तीन गिलास, एक पानी का फ्लास्क, एक हॉट पॉट में चाय।
वे लोग खाने लगे—खाने के बीच अनीशा ने अंकित से कहा—‘‘आज क्या फिर मौन व्रत रखा हुआ है ?’’
‘‘आं... नहीं तो...!’’ अंकित ने जबरदस्ती मुस्कराने की कोशिश की।
महेश ने परांठा खाते हुए कहा—‘‘इस आदमी को समझना बड़ा मुश्किल है। एक बार समुद्र की गहराई को नापा जा सकता है, मगर इसकी खामोशी की थाह नापना असंभव है।’’
‘‘तु लोग व्यर्थ ही मुझे इतनी रहस्यमयी बना देते हो कि मुझे खुद अपने ऊपर आश्चर्य होने लगता है।’’ अंकित ने कहा—अरे ! कैसा समुद्र ? कैसी गहराई...मैं तो एक –साधारण-सा आदमी हूं—जैसा हूं वैसा ही तुम लोगों के सामने बैठा हूं।’’
‘‘सच कहते हो।’’ महेश ने कहा—‘‘बहुत साधारण हो...तभी तुम्हें लोग क्रॉस वर्ड कहते हैं—
इक मुहमा है समझने का न समझाने का

जिन्दगी काहे की है ख्वाब है दीवाने का।’’
इतने में एक लड़की चंचल, अल्हड़, एकदम अल्ट्रा मॉडर्न उसके पास आई और घुटनों के बल बैठती हुई बड़ी घनिष्ठता से बैठती हुई बोली—
 ‘‘हाय फ्रेंड्स, इफ यू डोंट माइंड।’’ और एक परांठा उठाकर मुंह में डालती हुई अंकित से बोली—‘‘हैव यू डन माई वर्क ?’’
अंकित ने जवाब में फाइल में से एक कापी निकालकर सामने रख दी—लड़की ने ग्रास निगलते हुए कहा—‘‘आज की शाम मैं फ्री हूं—तुम चाहो तो मेरे साथ शाम गुजार सकते हो’—फिर वह कापी उठाकर अंकित को अर्थपूर्ण दृष्टि से देखती आंख मार कर चली गई। अंकित वैसे ही शांत भाव से बैठा रहा।
महेश ने कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन अनीशा चुप न रह सकी। वह अंकित से बोली—‘‘तुम ऐसी लड़कियों का काम ले ही क्यों लेते हो ?’’
‘‘अरे...यह...!’’ महेश ने मुस्कराकर कहा—‘‘इसके पास जबान है जो मना कर सकेगा ?’’
‘‘महेश ! अंकित को समझाओ !’’ अनीशा ने कहा—‘‘संगीता बदनाम हो चुकी लड़की है...इसका कैरेक्टर कोई ढंका-छिपा नहीं है—जानने वाले से ‘बडी’ के गलत नाम से याद करते हैं जो जबान पर लाते ही मुझे शर्म आती है।’’
‘‘इस मामले में मैं तुमसे सहमत हूं अनीशा।’’ महेश ने कहा।
‘‘वह क्यों ?’’

‘‘इसलिए कि अगर लोग संगीता के कैरेक्टर को जानते हैं तो वह अंकित को भी तो अच्छी तरह जानते हैं।’’
‘‘महेश ! तुम किसका पक्ष ले रहे हो ?’’
‘‘ओ गॉड ! सिर्फ अंकित का। तुम क्या समझने लगी थी भला ?’’
‘‘समझा कुछ भी जा सकता है।’’
‘‘एकदम गधी हो तुम।’’
‘‘अब दो गधों के बीच रहने वाली भला हो भी क्या सकती है ?’’
अंकित बस मुसकराकर रह गया..अनीशा कप निकालकर उनमें गरम-गरम चाय उंड़ेलने लगी।
चाय का पहला घूंट ही अंकित ने इस तरह लिया जैसे किसी आदी शराबी को कई दिनों बाद पैग नसीब हुआ हो। महेश ने उसकी तरफ देखा और बोला—‘‘देखा इसे...कम्बख्त चाय को भी शराब की तरह पीकर शराब की इंसल्ट कर रहा है।’’
‘‘और तुम चाय की इंसल्ट कर रहे हो।’’ अनीशा ने कहा—‘‘ड्रिंक का एक अपना रंग, नशा होता है...अंकित के लिए ऐसी चाय को ही तुम्हारी ‘ह्वाइट हॉर्स’ ह्विस्की से ज्यादा कीमती समझता है।’’ फिर उसने अंकित से कहा—एम आई रांग अंकित ?’’
‘‘नॉट एट ऑल।’’

‘‘ओह याद आया।’’ महेश ने कलाई की घड़ी देखकर कहा—‘‘मुझे एक प्रोग्राम देखना है, अनीशा, अंकित, मैंने दो पास एक्सट्रा ले रखे हैं।’’
‘‘आई एम सॉरी !’’ अंकित ने कहा—‘‘मैं तो नहीं जा सकूँगा।’’
‘‘मुझे मालूम था, एक पास का एहसान बेकार ही लाद रहा हूं, अनीशा, क्या तुम्हारे पास का एहसान भी...?’’
‘‘अरे...नहीं...मैं चल रही हूं, मुझे कौन-सा सोशल सर्विस में समय खराब करना है।’’
फिर वह सामान समेटने लगी—अंकित उसका हाथ बंटाने लगा। महेश उठकर खड़ा हो गया था...उसने अनीशा से अचानक कहा—
‘‘अरे हाँ अनीशा..तुम्हारे बर्थडे का क्या हुआ ?’’
‘‘शायद आगे खिसक गई।’’ अनीशा ने आराम से कहा।
‘‘ऐसा मत कहो...मैं तो कई दिनों से आधे पेट खाना खा रहा हूं।’’
‘‘तुम भी तो बेअक्लमंदी के सवाल करते हो...बर्थडे होनी है तो होगी ही।’’

‘‘अरे ! तुमने कहा था कि इस बर्थडे पर तुम्हारे डैडी कोई सरप्राइज देने वाले हैं।’’
‘‘ऑफकोर्स।’’
‘‘मैं उसी के बारे में पूछ रहा था।’’
‘‘अब यह तो मुझे मालूम नहीं—तुम लोग तो वहां होगे ही—सुन लेना।’’
फिर अनीशा ने फाइल उठाई और बास्केट महेश ने लेकर अंकित से कहा—
‘‘ओ.के. अंकित...सी.यू....।’’
‘‘ओ.के...।’’
‘‘अंकित !’’ अनीशा ने कहा—‘‘मुझे मालूम है कि तुम्हारी याददाश्त बहुत अच्छी है फिर भी कह रही हूं भूल मत जाना।’’
अंकित के होंठों पर मद्धिम-सी मुस्कराहट फैल गई, उसने कहा—‘‘भला भूलने की बात है।’’
फिर वे दोनों चले गए और अंकित उन दोनों को जाते देखता रहा....जैसे वह बादलों के पंखों पर सवार होकर उड़ी जा रही हो।

फिर उसे ऐसा लगा जैसे उसके अपने दो पंख निकल आए हो...और वह अनीशा के पीछे-पीछे हवा में उड़ता साथ ही फुदकता जा रहा हो—
‘अनीशा...अनीशा...!’’
फिर किसी हॉर्न की आवाज ने उसे चौंका दिया।
अनीशा कार ड्राइव कर रही थी—महेश उसके बराबर बैठा हुआ था—बास्केट वगैरा पिछली सीट पर रखे थे—कुछ देर तक खामोशी रही, फिर अनीशा ने महेश की तरफ देखा और मुस्कराती हुई बोली—
‘‘क्या तुम्हारे ऊपर भी अंकित का प्रभाव पड़ गया ?’’
‘‘आं..!’’ महेश ने थोड़ा चौंककर कहा—‘‘नहीं तो...बिल्कुल नहीं।’’
अनीशा ने हल्का-सा ठहाका लगाया और बोली—‘‘हो गया है...जरूर तुम पर भी हो गया है अंकित का असर।’’
‘‘ओहो...तुमने यह कहा था ?’’
‘‘तुमने क्या समझा था ?’’

‘‘मैं समझ रहा था कि तुम कह रही हो कि मैं तुम्हें किश करने के मूड में हूं या नहीं।’’
‘‘शटअप !’’ अनीशा  ने कहा—‘‘आई डोंट लाइक लूज टाक।’’
‘‘ऐ...ऐ...मिस यूनिवर्स की रनर अप।’’ महेश ने उसकी कमर में हाथ डालकर उसके पास सरकते हुए कहा—‘‘बताऊं, लूज टाक और लूज एक्शन में क्या फर्क पड़ता है ?’’
‘‘अरे...अरे...क्या करते हो...एक्सीडेंट हो जाएगा।’’
‘‘अच्छा है हो जाए तो—अगर हम दोनों मर गए तो शहीद कहलाएंगे...अमर हो जाएंगे....लैला मजनूं की तरह...शीरी फरहाद की तरह...हम पर फिल्में बनेंगी...और जिन्दा बच गए तो....!’’
‘‘टूटे-फूटे बचेंगे...हमारे बच्चे भी टूटे-फूटे पैदा होंगे..किसी की एक आंख बंद—किसी का एक हाथ, किसी का एक पंख।’’
‘‘क्या बकवास है ? मेरे बच्चे पैदा होने से पहले ही मारे दे रहे हो।’’
‘‘वापस ले लूंगा...कार साइड में लेकर रोको।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘श्राप वापस लेने की फीस लूंगा—सिर्फ एक गरमा-गर्म किस।’’
‘‘नहीं...हर्गिज नहीं।’’
‘‘तो मैं फिर बच्चों को लंगड़ा-लूला कहता हूं।’’ महेश और भी ज्यादा सरक गया तो अनीशा ने झुंझलाकर कहा--‘‘नॉनसेंस—तुम तो बहुत बदमाश होते जा रहे हो।’’
‘‘तुम भी तो कंजूसी की सीमा बढ़ाती ही जा रही हो।’’
‘‘तुम्हारे हाथ गुस्ताखी पर उतर आए हैं।’’


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