भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी कल आज और कल हिन्दी कल आज और कलप्रभाकर श्रोत्रिय
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राष्ट्रभाषा पर आधारित पुस्तक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह पुस्तक आजादी के बाद उत्पन्न राष्ट्रभाषा की बहुचर्चित समस्या को
निराले अंदाज में उठाती है। डॉ. श्रोत्रिय समस्या की तह तक गए हैं।
उन्होंने हिन्दी से संबंधित लगभग सभी पक्षों को छुआ है। आज जब भारत में
अंग्रेजी का दबदबा बढ़ता जा रहा है, यह पुस्तक हमें इससे उत्पन्न
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खतरों से सावधान करती है।
डॉ. श्रोत्रिय जब अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने के लिए धुर उत्तर के देश नार्वे में आमंत्रित हुए, तब वहाँ दिए गए वक्तव्य और सोच को लेकर लिखा उनका लेख अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी के स्वरूप और समस्या पर नई रोशनी डालता है।
‘वागर्थ’ और ‘ज्ञानोदय’ के संपादकीयों के रूप में उन्होंने हिन्दी के प्रश्न कई तरह से उठाए हैं, वे भी इस पुस्तक में शामिल हैं।
इस तरह यह पुस्तक एक लंबे समय से अब तक हिन्दी के संबंध में व्यक्त उनके विचारों की प्रतिनिधि पुस्तक है।
डॉ. श्रोत्रिय जब अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने के लिए धुर उत्तर के देश नार्वे में आमंत्रित हुए, तब वहाँ दिए गए वक्तव्य और सोच को लेकर लिखा उनका लेख अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी के स्वरूप और समस्या पर नई रोशनी डालता है।
‘वागर्थ’ और ‘ज्ञानोदय’ के संपादकीयों के रूप में उन्होंने हिन्दी के प्रश्न कई तरह से उठाए हैं, वे भी इस पुस्तक में शामिल हैं।
इस तरह यह पुस्तक एक लंबे समय से अब तक हिन्दी के संबंध में व्यक्त उनके विचारों की प्रतिनिधि पुस्तक है।
भूमिका
राष्ट्रभाषा के मामले को, जो इस देश में बेहद उलझ गया है और उस पर लिखना
या बात करना औसत दर्जे के प्रचारकों का काम समझा जाने लगा है, अगर मैं भी
टाल देता तो शायद मेरे हित में ही होता। आज अपनी भाषा में लिखने पर भी लोग
भाषा पर बात करना अवांछित समझते हैं; देश में रहकर देश पर बात करने में
शरमाने लगे हैं-उन्होंने कोई ऊँची बात ही सोची होगी, जो मैं नहीं सोच
पाया-शायद इसीलिए यह पुस्तक आ सकी है।
भाषा का प्रश्न मानवीय है, खासकर भारत में, जहाँ साम्राज्यवादी भाषा जनता को जनतंत्र से अलग कर रही है। हिन्दी और अंग्रेजी की स्पर्द्धा देशी भाषाओं और राष्ट्रभाषा के द्वंद्व में बदल गई है, मनों को जोड़ने वाला सूत्र तलवार करार दे दिया गया है, पराधीनता की भाषा स्वाधीनता का गर्व हो गई है। निश्चय ही इसके पीछे दास मन की सक्रियता है। कैसा अजब लगता है, जब कोई इसलिए आंदोलन करे कि हमें दासता दो, बेड़ियाँ पहनाओ !
भाषा के बारे में हमारा सोच और रवैया वही है जो जीवन के बारे में है। कोई भी मूल्य नष्ट होने से बचा है कि भाषा और स्वाभिमान बचे रहें ? मुझे लगता है कि अब राजनीति, नौकरशाही, पूँजीवाद या साम्राज्यवाद को कोसना बेकार है; जब तक जनता खुद ही अपना हित-अनहित न देखेगी, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। इसलिए कोई भी समस्या हो, वह सीधे जनता को निवेदित या संबोधित होनी चाहिए। लोगों को विभाजनकारी षड्यंत्रों के हवाले करके हम भाषा के भीतर कोई संवेदन, कोई हार्दिकता पैदा नहीं कर रहे हैं।
अहिन्दीभाषी अगर गलती से यह समझ रहे हों कि हिन्दी न रहेगी तो उनका भला होगा, तो उन्हीं से बात करनी होगी कि हिन्दी चली जाएगी तो अंग्रेजी आएगी, राजभाषा के रूप में अंग्रेजी का चरित्र देशी भाषा और जनता से नफरत करना सिखाता है। हिन्दी की कोई स्पर्द्धा देशी भाषाओं से नहीं है। वह उन्हें फूलते-फलते देखना चाहती है, उनसे आत्मालाप करना चाहती है।
वर्षों से मैं कई बातें अनुभव करता रहा हूँ, बहुत-सी घटनाएँ देखी हैं। हिन्दी कर्मियों के चरित्र देखे हैं, भारत में कई जगह जाने के अवसर आए हैं; हिन्दी की समस्या पर कई पत्र-पत्रकाओं में लिखा है। वे तमाम अनुभव और सोच, जो इस भाषा को लेकर मेरे मन में हलचल मचाते रहे हैं, उन्हें मैंने इन निबंधों और टिप्पणियों को शक्ल में नए सोच के साथ यहाँ एकत्र कर दिया है। चुनौती, उग्रता, प्रचार का उत्साह जैसी बातें यहाँ शायद ही होंगी, भाषा शास्त्रीय, ऐतिहासिक या अन्य विवरणात्मक चर्चाएँ भी यहाँ नहीं हैं-भाषा के मामले में मेरे मन पर पड़े प्रभाव, सोच और प्रेक्षण भर यहाँ हैं। क्योंकि ये निबंध और टिप्पणियाँ एक ही प्रकरण को लेकर लिखी गई हैं, इसलिए इनमें यदा-कदा पुनरावृत्तियाँ भी हुई हैं। उनके लिए मैं पाठकों से क्षमा चाहूँगा।
इन लेखों और टिप्पणियों का उद्देश्य किसी को दुःख पहुँचाना नहीं है, अंग्रेजी के अध्ययन, अध्यापन और लेखन में लगे लोगों को भी नहीं; अंग्रेजी की महत्ता और सेवाओं से मैं अपरिचित नहीं हूँ, लेकिन एक विदेशी भाषा का राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में बने रहना हमारी मानसिक दासता का प्रतीक है और कुल मिलाकर कई तरह से उसका यह रूप घातक है। अगर न होता तो वे सारे नेता जो विदेशों से पढ़कर आए थे और मातृभाषा की तरह अंग्रेजी का व्यवहार करते थे, स्वाधीन देश के लिए राष्ट्रभाषा के संघर्ष और उसकी स्थापना में भागीदार-बल्कि सूत्रधार क्यों बने थे ? लगता है, स्वाधीन चेतना और राष्ट्रभाषा-चिंतन पर्यायवाची हैं। अगर यह चिंतन समाप्त हुआ तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी स्वाधीन चेतना ही समाप्त हो रही हो ! अगर ऐसा है तो यह एक बड़ा हादसा होगा।
ये लेख लंबे समय से लिखे जाते रहे। राष्ट्रभाषा की समस्या निरंतर जटिल होती गई, प्रबुद्ध क्षेत्र और नई पीढ़ी दोनों के लिए अंग्रेजी सर्वोच्च प्राथमिकता हो गई बाजार और इंटरनेट ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी और राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में भारतीय भाषाओं को लगभग हाशिए में ही ढकेल दिया है। ऐसे में कई नए लेख लिखे गए, जो इस पुस्तक को अधुनातन बनाते हैं।
भाषा का प्रश्न मानवीय है, खासकर भारत में, जहाँ साम्राज्यवादी भाषा जनता को जनतंत्र से अलग कर रही है। हिन्दी और अंग्रेजी की स्पर्द्धा देशी भाषाओं और राष्ट्रभाषा के द्वंद्व में बदल गई है, मनों को जोड़ने वाला सूत्र तलवार करार दे दिया गया है, पराधीनता की भाषा स्वाधीनता का गर्व हो गई है। निश्चय ही इसके पीछे दास मन की सक्रियता है। कैसा अजब लगता है, जब कोई इसलिए आंदोलन करे कि हमें दासता दो, बेड़ियाँ पहनाओ !
भाषा के बारे में हमारा सोच और रवैया वही है जो जीवन के बारे में है। कोई भी मूल्य नष्ट होने से बचा है कि भाषा और स्वाभिमान बचे रहें ? मुझे लगता है कि अब राजनीति, नौकरशाही, पूँजीवाद या साम्राज्यवाद को कोसना बेकार है; जब तक जनता खुद ही अपना हित-अनहित न देखेगी, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। इसलिए कोई भी समस्या हो, वह सीधे जनता को निवेदित या संबोधित होनी चाहिए। लोगों को विभाजनकारी षड्यंत्रों के हवाले करके हम भाषा के भीतर कोई संवेदन, कोई हार्दिकता पैदा नहीं कर रहे हैं।
अहिन्दीभाषी अगर गलती से यह समझ रहे हों कि हिन्दी न रहेगी तो उनका भला होगा, तो उन्हीं से बात करनी होगी कि हिन्दी चली जाएगी तो अंग्रेजी आएगी, राजभाषा के रूप में अंग्रेजी का चरित्र देशी भाषा और जनता से नफरत करना सिखाता है। हिन्दी की कोई स्पर्द्धा देशी भाषाओं से नहीं है। वह उन्हें फूलते-फलते देखना चाहती है, उनसे आत्मालाप करना चाहती है।
वर्षों से मैं कई बातें अनुभव करता रहा हूँ, बहुत-सी घटनाएँ देखी हैं। हिन्दी कर्मियों के चरित्र देखे हैं, भारत में कई जगह जाने के अवसर आए हैं; हिन्दी की समस्या पर कई पत्र-पत्रकाओं में लिखा है। वे तमाम अनुभव और सोच, जो इस भाषा को लेकर मेरे मन में हलचल मचाते रहे हैं, उन्हें मैंने इन निबंधों और टिप्पणियों को शक्ल में नए सोच के साथ यहाँ एकत्र कर दिया है। चुनौती, उग्रता, प्रचार का उत्साह जैसी बातें यहाँ शायद ही होंगी, भाषा शास्त्रीय, ऐतिहासिक या अन्य विवरणात्मक चर्चाएँ भी यहाँ नहीं हैं-भाषा के मामले में मेरे मन पर पड़े प्रभाव, सोच और प्रेक्षण भर यहाँ हैं। क्योंकि ये निबंध और टिप्पणियाँ एक ही प्रकरण को लेकर लिखी गई हैं, इसलिए इनमें यदा-कदा पुनरावृत्तियाँ भी हुई हैं। उनके लिए मैं पाठकों से क्षमा चाहूँगा।
इन लेखों और टिप्पणियों का उद्देश्य किसी को दुःख पहुँचाना नहीं है, अंग्रेजी के अध्ययन, अध्यापन और लेखन में लगे लोगों को भी नहीं; अंग्रेजी की महत्ता और सेवाओं से मैं अपरिचित नहीं हूँ, लेकिन एक विदेशी भाषा का राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में बने रहना हमारी मानसिक दासता का प्रतीक है और कुल मिलाकर कई तरह से उसका यह रूप घातक है। अगर न होता तो वे सारे नेता जो विदेशों से पढ़कर आए थे और मातृभाषा की तरह अंग्रेजी का व्यवहार करते थे, स्वाधीन देश के लिए राष्ट्रभाषा के संघर्ष और उसकी स्थापना में भागीदार-बल्कि सूत्रधार क्यों बने थे ? लगता है, स्वाधीन चेतना और राष्ट्रभाषा-चिंतन पर्यायवाची हैं। अगर यह चिंतन समाप्त हुआ तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी स्वाधीन चेतना ही समाप्त हो रही हो ! अगर ऐसा है तो यह एक बड़ा हादसा होगा।
ये लेख लंबे समय से लिखे जाते रहे। राष्ट्रभाषा की समस्या निरंतर जटिल होती गई, प्रबुद्ध क्षेत्र और नई पीढ़ी दोनों के लिए अंग्रेजी सर्वोच्च प्राथमिकता हो गई बाजार और इंटरनेट ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी और राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में भारतीय भाषाओं को लगभग हाशिए में ही ढकेल दिया है। ऐसे में कई नए लेख लिखे गए, जो इस पुस्तक को अधुनातन बनाते हैं।
प्रभाकर श्रोत्रिय
वह अपने घर में प्रवासिनी
राष्ट्रभाषा हिन्दी के बारे में कुछ कहने में झिझक होती है, क्योंकि
सौभाग्य या दुर्भाग्य से हम हिन्दीभाषी हैं, जबकि यह होना हमने नहीं चुना
है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न भी हिन्दीभाषियों का नहीं था।
राष्ट्रभाषा के रूप में इसकी आवश्यकता सबसे पहले अहिन्दीभाषियों ने ही
अनुभव की। हिन्दीभाषियों ने तो उनके स्वर में स्वर मिलाया, ताकि उन्हें
नाकारा न मान लिया जाए। फिर भी विडंबना यह है कि उन्हीं पर हिन्दी थोपने
या हिन्दी का साम्रज्यवाद स्थापित करने का आरोप लगाया जाता है। यह हिन्दी
हम पर किसने थोपी है ? हमारी हिन्दी तो संतों-भक्तों की गोद में पली है,
आज तक कभी वह सत्ता की मोहताज नहीं रही। माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में
तो वह सिंहासनों से तिरस्कृत रही है। हिन्दी को कभी संस्कृत, पाली, अरबी,
फारसी या अंग्रेजी की तरह राज्याश्रय नहीं मिला। तमगा बनने की उसकी इच्छा
रही ही नहीं, अलबत्ता वह देश की बाँसुरी, तलवार और ढाल जरूर बनी है। जब भी
देश को एक सूत्र में पिरोने की जरूरत पड़ी, जब भी उसके विद्रोह को वाणी
देने की आवश्यकता हुई, हिन्दी ने पहले की है। तभी राजा राममोहन राय के
पहले समाचार-पत्र की वह भाषा बनी। गांधी की अखंड भारत की आवाज को उसने
जन-जन तक पहुँचाया। अफ्रीका से लौटने पर जब गांधी जी ने पहला भाषण हिन्दी
में दिया था और कुछ लोगों ने आपत्ति की थी तो उन्होंने कहा था कि मैं
हिन्दी में नहीं, भारत की भाषा में बोल रहा हूँ। हिन्दी में ही सुभाषचंद्र
बोस की ललकार दसों दिशाओं में गूँजी थी। संभवतः इन्हीं सेवाओं को याद करके
स्वतंत्र भारत के संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा का सम्मान
दिया गया। भारतीय जनता के संवाद और एकात्मता के लिए इस रूप में मात्र उसकी
अनिवार्यता को रेखांकित किया गया था। क्या देश को आज एकात्मता और संवाद की
जरूरत नहीं रह गई है ?
स्वाधीनता निश्चिंतता और पूर्णविराम नहीं, एक सतत तप है। जिस दिन इस तथ्य को कोई देश भूल जाता है, वही उसके विघटन का पहला दिन होता है। ठीक उसी वक्त देश अपनी पहचान खोने लगता है और अपने अस्तित्व से इंकार करने लगता है। आज हम विघटन के उसी चरम दौर से गुजर रहे हैं। राष्ट्रभाषा को खारिज करने के बहाने, अनजाने ही हम समस्त देशी भाषाओं को निरस्त करते चले जा रहे हैं। यह किसी भयावह संकट की पूर्व सूचना है।
पिछले दिनों अर्थात् उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में, भारत में तीन दुर्घटनाएँ एक साथ तेजी से घटित हुईं-उग्र प्रांतीयतावाद, सांप्रदायिक उन्माद और अंग्रेजी की पूर्ण प्रतिष्ठा। ये बातें अकारण एक साथ पैदा नहीं हुईं-इनका एक-दूसरे से नाभि नाल संबंध है-ये सभी राष्ट्र की अस्मिता को खंडित करने और उसे फिर से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पराधीनता के अंधे कुएँ में धकेलने वाली घटनाएँ हैं। इन तीनों मामलों में विदेशी शक्तियों के साथ विघटनकारी शक्तियों की दिलचस्पी अकारण नहीं है।
सबसे पहले आपसे अपनी भाषा छीनी जा रही है, ताकि आप किसी भी मामले में परस्पर आत्मीय संवाद कायम न कर सकें, जैसे आक्रामण सेनाएँ पुलों को उड़ा देती हैं। गूँगा और संवादहीन देश आपस में सिर्फ अपना माथा ही फोड़ सकता है। आपको अपनी भाषा के बदले जो परदेशी भाषा दी गई है वह जोड़ने वाली नहीं है, क्योंकि वह भारत की जनता को परस्पर जोड़ने के लिए लाई भी नहीं गई थी। गुलामों को अधिक गुलाम बनाने का इससे नायाब तरीका अंग्रेजों के पास दूसरा न था।
इस सत्य को न समझते हुए आज भी कुछ लोग तर्क देते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए कुछ लोगों ने ही स्वाधीनता और सामाजिक सुधारों के लिए संघर्ष किया था। यानी अंग्रेजी शिक्षा ने ही उनमें स्वाधीनता की आकांक्षा पैदा की थी; उन्हें स्वाधीनता के लिए एकजुट किया था। यह सुनकर लगता है कि ये लोग इतिहास की क्रूरता को चुनौती देने वाले इतिहास से अपरिचित हैं। विकल्पहीन अवस्था में हमेशा विद्रोही शक्तियाँ प्राप्त साधनों को ही हथियार बना लेती हैं, जैसे आसन्न उपस्थित शत्रु से निपटने के लिए पत्थर, डंडा या नाखून तक बंदूक बन जाते हैं। जापानियों, चीनियों यहूदियों यहाँ तक कि खुद अंग्रेजों ने भी अपने-अपने पराधीन काल में विजेताओं की भाषाएँ शस्त्रों की तरह इस्तेमाल की थीं, जिन्हें स्वाधीनता के बाद सबने फेंक दिया। आज भी अफ्रीकी नीग्रो, गोरों के विरुद्ध अंग्रेजी में ही साहित्य लिख रहे हैं, परंतु इसकी तीव्र वेदना उनके साहित्य में झलकती है। इसीलिए वे अपनी बोलियों के जरिए स्वयं अपनी भाषा गढ़ने में व्यस्त हैं। इस दृष्टि से किसी अनिवार्य ऐतिहासिक तदर्थता को प्रमाण के रूप में लेना चीजों का सरलीकरण करना और सच्चाई को भुलाना है।
स्वाधीनता के बाद से हमारे देश में, हिन्दी के बारे में कुतर्कों के ऐसे जाल लगातार फैलाए जाते रहे हैं। उन्हीं का परिणाम है कि हिन्दी आज तक अपना अनिवार्य ऐतिहासिक स्थान नहीं पा सकी है। मेरी जानकारी में किसी महत्त्वपूर्ण स्वाधीन राष्ट्र में उसकी राष्ट्रभाषा इतने समय तक अपदस्थ नहीं रही। यहाँ तो स्थिति यह है कि यह सिलसिला लगातार तेज होता जा रहा है।
यह स्थिति क्यों पैदा हुई, इसके क्या कारण रहे हैं, इस पर हम अगले पृष्ठों में विचार करेंगे, परंतु आज तो देश के आम पढ़े लिखे लोगों की मानसिकता को इतना प्रदूषित किया जा चुका है कि कभी-कभी लगता है कि राष्ट्रभाषा के बारे में बात करना और सांप्रदायिक दंगे कराना एक ही बात है। ऐसी क्रूर और गुलाम मानसिकता पैदाकरने वाले लोग ही आज बड़ी हसरत से अंग्रेज और अंग्रेजी राज को याद करते हैं-इससे क्या यह साबित नहीं होता कि भारत में अंग्रेजों और अंग्रेजी राज की भूमिका को अलग करना सरासर नासमझी दिखाना है।
कथित उदारता दिखाते हुए, स्वाधीनता के प्रारंभिक नाजुक और भावनापूर्ण काल में हम भयानक चूक कर बैठे थे। तब क्या पता था (जबकि होना चाहिए था) कि हिन्दी के साथ 15 वर्षो तक अंग्रेजी जारी करने का निर्णय हिन्दी को अपदस्थ करने की भूमिका साबित होगा। इस अंतराल में अंग्रेजों के उच्छिष्ट नौकरशाहों, स्वार्थी राजनीतिज्ञों, विदेशी शक्तियों, मतलबी पूँजीपतियों वगैरह ने अपनी रणनीति तैयार कर ली थी और भारतीय भाषाओं तथा प्रांतवाद को आगे करके राष्ट्रभाषा पर चौतरफा आक्रमण कर दिया था। इतिहास में भी हम देख चुके हैं कि मामूली छूट के सहारे ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना जाल फैलाया था और बाद में समस्त देशी राज्यों को एक-एक कर हड़पते हुए संपूर्ण संप्रभुता हासिल कर ली थी। वही चरित्र तो अंग्रेजी का है-एक राजभाषा के रूप में।
इतिहास और संस्कृति के मर्मज्ञ डॉ. राममनोहर लोहिया ने बहुत सही आंदोलन चलाया था-अंग्रेजी हटाओ। इस बारे में उन्होंने उस बुजुर्गी सलाह को नजर अंदाज कर दिया था कि हिन्दी को समर्थ बनाइए, नाहक अंग्रेजी का विरोध क्यों करते हैं ?’ लोहिया जानते थे कि इस दिखावटी अहिंसक सलाह के निहितार्थ क्या हैं ? वास्तव में किसी भी विदेशी भाषा को राष्ट्रभाषा का विकल्प बनाए रखना पराधीनता को स्वाधीनता का विकल्प बनाए रखने की तरह है। वे यह भी जानते थे कि अंग्रेजी की उपस्थिति में कोई भी देशी भाषा पनप नहीं सकती, क्योंकि अपने ऐतिहासिक चरित्र के अनुरूप वह एक से दूसरी को पिटवाने का काम करती रहेगी।
स्वाधीनता निश्चिंतता और पूर्णविराम नहीं, एक सतत तप है। जिस दिन इस तथ्य को कोई देश भूल जाता है, वही उसके विघटन का पहला दिन होता है। ठीक उसी वक्त देश अपनी पहचान खोने लगता है और अपने अस्तित्व से इंकार करने लगता है। आज हम विघटन के उसी चरम दौर से गुजर रहे हैं। राष्ट्रभाषा को खारिज करने के बहाने, अनजाने ही हम समस्त देशी भाषाओं को निरस्त करते चले जा रहे हैं। यह किसी भयावह संकट की पूर्व सूचना है।
पिछले दिनों अर्थात् उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में, भारत में तीन दुर्घटनाएँ एक साथ तेजी से घटित हुईं-उग्र प्रांतीयतावाद, सांप्रदायिक उन्माद और अंग्रेजी की पूर्ण प्रतिष्ठा। ये बातें अकारण एक साथ पैदा नहीं हुईं-इनका एक-दूसरे से नाभि नाल संबंध है-ये सभी राष्ट्र की अस्मिता को खंडित करने और उसे फिर से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पराधीनता के अंधे कुएँ में धकेलने वाली घटनाएँ हैं। इन तीनों मामलों में विदेशी शक्तियों के साथ विघटनकारी शक्तियों की दिलचस्पी अकारण नहीं है।
सबसे पहले आपसे अपनी भाषा छीनी जा रही है, ताकि आप किसी भी मामले में परस्पर आत्मीय संवाद कायम न कर सकें, जैसे आक्रामण सेनाएँ पुलों को उड़ा देती हैं। गूँगा और संवादहीन देश आपस में सिर्फ अपना माथा ही फोड़ सकता है। आपको अपनी भाषा के बदले जो परदेशी भाषा दी गई है वह जोड़ने वाली नहीं है, क्योंकि वह भारत की जनता को परस्पर जोड़ने के लिए लाई भी नहीं गई थी। गुलामों को अधिक गुलाम बनाने का इससे नायाब तरीका अंग्रेजों के पास दूसरा न था।
इस सत्य को न समझते हुए आज भी कुछ लोग तर्क देते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए कुछ लोगों ने ही स्वाधीनता और सामाजिक सुधारों के लिए संघर्ष किया था। यानी अंग्रेजी शिक्षा ने ही उनमें स्वाधीनता की आकांक्षा पैदा की थी; उन्हें स्वाधीनता के लिए एकजुट किया था। यह सुनकर लगता है कि ये लोग इतिहास की क्रूरता को चुनौती देने वाले इतिहास से अपरिचित हैं। विकल्पहीन अवस्था में हमेशा विद्रोही शक्तियाँ प्राप्त साधनों को ही हथियार बना लेती हैं, जैसे आसन्न उपस्थित शत्रु से निपटने के लिए पत्थर, डंडा या नाखून तक बंदूक बन जाते हैं। जापानियों, चीनियों यहूदियों यहाँ तक कि खुद अंग्रेजों ने भी अपने-अपने पराधीन काल में विजेताओं की भाषाएँ शस्त्रों की तरह इस्तेमाल की थीं, जिन्हें स्वाधीनता के बाद सबने फेंक दिया। आज भी अफ्रीकी नीग्रो, गोरों के विरुद्ध अंग्रेजी में ही साहित्य लिख रहे हैं, परंतु इसकी तीव्र वेदना उनके साहित्य में झलकती है। इसीलिए वे अपनी बोलियों के जरिए स्वयं अपनी भाषा गढ़ने में व्यस्त हैं। इस दृष्टि से किसी अनिवार्य ऐतिहासिक तदर्थता को प्रमाण के रूप में लेना चीजों का सरलीकरण करना और सच्चाई को भुलाना है।
स्वाधीनता के बाद से हमारे देश में, हिन्दी के बारे में कुतर्कों के ऐसे जाल लगातार फैलाए जाते रहे हैं। उन्हीं का परिणाम है कि हिन्दी आज तक अपना अनिवार्य ऐतिहासिक स्थान नहीं पा सकी है। मेरी जानकारी में किसी महत्त्वपूर्ण स्वाधीन राष्ट्र में उसकी राष्ट्रभाषा इतने समय तक अपदस्थ नहीं रही। यहाँ तो स्थिति यह है कि यह सिलसिला लगातार तेज होता जा रहा है।
यह स्थिति क्यों पैदा हुई, इसके क्या कारण रहे हैं, इस पर हम अगले पृष्ठों में विचार करेंगे, परंतु आज तो देश के आम पढ़े लिखे लोगों की मानसिकता को इतना प्रदूषित किया जा चुका है कि कभी-कभी लगता है कि राष्ट्रभाषा के बारे में बात करना और सांप्रदायिक दंगे कराना एक ही बात है। ऐसी क्रूर और गुलाम मानसिकता पैदाकरने वाले लोग ही आज बड़ी हसरत से अंग्रेज और अंग्रेजी राज को याद करते हैं-इससे क्या यह साबित नहीं होता कि भारत में अंग्रेजों और अंग्रेजी राज की भूमिका को अलग करना सरासर नासमझी दिखाना है।
कथित उदारता दिखाते हुए, स्वाधीनता के प्रारंभिक नाजुक और भावनापूर्ण काल में हम भयानक चूक कर बैठे थे। तब क्या पता था (जबकि होना चाहिए था) कि हिन्दी के साथ 15 वर्षो तक अंग्रेजी जारी करने का निर्णय हिन्दी को अपदस्थ करने की भूमिका साबित होगा। इस अंतराल में अंग्रेजों के उच्छिष्ट नौकरशाहों, स्वार्थी राजनीतिज्ञों, विदेशी शक्तियों, मतलबी पूँजीपतियों वगैरह ने अपनी रणनीति तैयार कर ली थी और भारतीय भाषाओं तथा प्रांतवाद को आगे करके राष्ट्रभाषा पर चौतरफा आक्रमण कर दिया था। इतिहास में भी हम देख चुके हैं कि मामूली छूट के सहारे ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना जाल फैलाया था और बाद में समस्त देशी राज्यों को एक-एक कर हड़पते हुए संपूर्ण संप्रभुता हासिल कर ली थी। वही चरित्र तो अंग्रेजी का है-एक राजभाषा के रूप में।
इतिहास और संस्कृति के मर्मज्ञ डॉ. राममनोहर लोहिया ने बहुत सही आंदोलन चलाया था-अंग्रेजी हटाओ। इस बारे में उन्होंने उस बुजुर्गी सलाह को नजर अंदाज कर दिया था कि हिन्दी को समर्थ बनाइए, नाहक अंग्रेजी का विरोध क्यों करते हैं ?’ लोहिया जानते थे कि इस दिखावटी अहिंसक सलाह के निहितार्थ क्या हैं ? वास्तव में किसी भी विदेशी भाषा को राष्ट्रभाषा का विकल्प बनाए रखना पराधीनता को स्वाधीनता का विकल्प बनाए रखने की तरह है। वे यह भी जानते थे कि अंग्रेजी की उपस्थिति में कोई भी देशी भाषा पनप नहीं सकती, क्योंकि अपने ऐतिहासिक चरित्र के अनुरूप वह एक से दूसरी को पिटवाने का काम करती रहेगी।
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