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धर्म एवं दर्शन >> योगिराज श्रीकृष्ण

योगिराज श्रीकृष्ण

लाला लाजपतराय

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3530
आईएसबीएन :81-88118-14-1

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इस पुस्तक में लाला लाजपतराय ने अपने शब्दों में श्रीकृष्ण के चरित्र को लिखने का प्रयास किया है....

Yogiraj shrikrishna by Lala lajpat rai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ग्रन्थकार लाला लाजपतराय

भारत की आजादी के आन्दोलन के प्रखर नेता लाला लाजपथ राय का नाम ही देशवासियों में स्फूर्ति तथा प्रेरणा का संचार कराता है। अपने देश धर्म तथा संस्कृति के लिए उनमें जो प्रबल प्रेम तथा आदर था उसी के कारण वे स्वयं को राष्ट्र के लिए समर्पित कर अपना जीवन दे सके। भारत को स्वाधीनता दिलाने में उनका त्याग, बलिदान तथा देशभक्ति अद्वितीय और अनुपम थी। उनके बहुविधि क्रियाकलाप में साहित्य-लेखन एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। वे ऊर्दू तथा अंग्रेजी के समर्थ रचनाकार थे।

लालाजी का जन्म 28 जनवरी, 1865 को अपने ननिहाल के गाँव ढुंढिके (जिला  फरीदकोट, पंजाब) में हुआ था। उनके पिता लाला राधाकृष्ण लुधियाना जिले के जगराँव कस्बे के निवासी अग्रवाल वैश्य थे।  लाला राधाकृष्ण अध्यापक थे। वे ऊर्दू–फारसी के अच्छे जानकार थे तथा इस्लाम के मन्तव्यों में उनकी गहरी आस्था थी। वे मुसलमानी धार्मिक मन अनुष्ठानों का भी नियमित रूप से पालन करते थे। नमाज पढना और रमजान के महीने में रोजा रखना उनकी जीनवचर्या का अभिन्न अंग था यथापि वे बच्चे धर्म-जिज्ञासु थे। अपने पुत्र लाला लाजपतराय के आर्यसमाजी बन जाने पर उन्होंने वेद के दार्शनिक सिद्धान्त त्रेतवाद (ईश्वर, जीव तथा प्रकृति का अनादित्य) को समझने में भी रुचि दिखाई। लालाजी की इस जिज्ञासु प्रवृति उनके पुत्र पर भी पड़ा था।

लाजपतराय की शिक्षा पाँचवें वर्ष में आरम्भ हुई। 1880 में उन्होंने कलकत्ता तथा पंजाब विश्वविद्यायल से एंट्रेंस की परीक्षा एक वर्ष में पास की और आगे पढ़ने के लिए लाहौर आये। यहाँ वे गर्वमेंट कालेज में प्रविष्ट हुए और 1982 में एफ० ए० की परीक्षा तथा मुख्यारी की परीक्षा साथ-साथ पास की। यहीं वे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और उसके सदस्य बन गये। डी०ए०वी० कालेज लाहौर के प्रथम प्राचार्य लाला हंसराज (आगे चलकर महात्मा) हंसराज के नाम से प्रसिद्ध) तथा प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् पं गुरूदत्त सहपाठी थे, जिनके साथ उन्हें आगे चलकर आर्यसमाज का कार्य करना पड़ा। इनके द्वारा ही उन्हें महर्षि दयानन्द के विचारों का परिचय मिला।

1882 के अंतिम दिनों में वे पहली बार आर्यसमाज लाहौर के वार्षिक उत्सव में सम्मिलित हुए। इस मार्मिक प्रसंग का वर्णन लालाजी ने अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है-‘‘उस दिन स्वर्गीय लाला मदनसिंह बी० ए० (डी० ए० वी० कालेज के संस्थापकों में प्रमुख) का व्याख्यान था। उनको मुझसे बहुत प्रेम था। उन्होंने व्याख्यान देने से पहले समाज मंदिर की छत पर मुझे अपना लिखा व्याख्यान सुनाया और मेरी सम्मति पूछी।

 मैंने उस व्याख्यान को बहुत पसन्द किया। जब मैं छत से नीचे उतरा तो लाला साईंदासजी (आर्यसमाज लाहौर के प्रथम मंत्री) ने मुझे पकड़ लिया और अलग ले जाकर कहने लगे कि हमने बहुत समय तक इन्तजार किया है कि तुम हमारे साथ मिल जाओ। मैं उस घड़ी को भूल नहीं सकता। वह मेरे से बातें करते थे, मेरे मुँह की ओर देखते थे, तथा प्यार से पीठ पर हाथ फेरते थे। मैंने उनको जवाब दिया कि मैं तो उनके साथ हूँ। मेरा इतना कहना था कि उन्होंने फौरन समाज के सभासद बनने का प्रार्थना-पत्र मंगवाया और मेरे सामने रख दिया। मैं दो-चार मिनट तक सोचता रहा, परन्तु, उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारे हस्ताक्षर लिए बिना तुम्हें जाने न दूँगा। मैंने फौरन हस्ताक्षर कर दिए। उस समय उनके चेहरे पर प्रसन्नता की जो झलक थी उसका वर्णन मैं नहीं कर सकता। ऐसा मालूम होता था कि उनको हिन्दुस्तान की बादशाहत मिल गयी है। उन्होंने एकदम प० गुरूदत्त को बुलाया और सारा हाल सुनाकर मुझे उनके हवाले कर दिया। वह भी बहुत खुश हुए। लाला मदनसिंह के व्याख्यान की समाप्ति पर लाला साँईदास ने मुझे और प० गुरूदत्त को मंच पर खड़ा कर किया। हम दोनों से व्याखान दिलवाये। लोग बहुत खुश हुए और खूब तालियाँ बजाई। इन तालियों ने मेरे दिल पर जादू का-सा असर किया। मैं प्रसन्नता और सफलता की मस्ती में झूमता हुआ अपने घर लौटा।’’1

यह है लालजी के आर्यसमाज में प्रवेश की कथा। लाला साँईदास आर्यसमाज के प्रति इतने अधिक समर्पित थे कि वे होनहार नवयुवकों को इस संस्था में प्रविष्ट करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। स्वामी श्रद्धानन्द (तत्कालीन लाला मुंशीराम) को आर्यसमाज में लाने का श्रेय भी उन्हें ही है। 30 अक्टूबर, 1883 को जब अजमेर में ऋषि दयानन्द का देहान्त हो गया तो 9 नवम्बर, 1883 को लाहौर आर्यसमाज की ओर एक शोकसभा का आयोजन किया गया। इस सभा के अन्त में यह निश्चित हुआ कि स्वामी जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाये जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृति तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। 1886 में जब इस शिक्षण की स्थापना हुई तो आर्यसमाज के अन्य नेताओं के साथ लाला लाजपतराय का भी इसके संचालन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा तथा वे कालान्तर में डी०ए०वी० कालेज, लाहौर के महान स्तम्भ बने।

वकालत के क्षेत्र में

लाला लाजपतराय ने एक मुख्तार (छोटा वकील) के रूप में अपने मूल निवासस्थल जगराँव में ही वकालत आरम्भ कर दी थी; किन्तु यह कस्बा बहुत छोटा था, जहाँ उनके कार्य के बढ़ने की अधिक सम्भावना नहीं थी, अतः वे रोहतक चले गये। उन दिनों पंजाब प्रदेश में वर्तमान हरियाणा, हिमाचल तथा आज के पाकिस्तानी पंजाब का भी समावेश था। रोहतक में रहते हुए ही उन्होंने 1885 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की, 1886 में वे हिसार आ
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1 लाला लाजपतराय की आत्मकथा ग्रंथमाला, में प्रकाशित 1932

गये। एक सफल वकील के रूप में 1892 तक वे यहीं रहे और इसी वर्ष लाहौर आये। तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। लालाजी ने यों तो समाज-सेवा का कार्य हिसार में रहते हुए ही आरम्भ कर दिया था, जहाँ उन्होंने लाला चंदूलाल प० लखपतराय और लाला चूड़ामणि जैसे  आर्यसमाजी कार्यकर्ताओं के साथ सामाजिक हित की योजनाओं के कार्यान्वयन में योगदान किया किन्तु लाहौर आने पर वे आर्यसमाज के अतिरिक्त राजनैतिक आन्दोलन के साथ भी जुड़ गये। 1888 में वे प्रथम बार कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए जिनकी अध्यक्षता मि० जार्ज यूल ने की थी। 1906 में वे प० गोपालकृष्ण गोखले के साथ कांग्रेस के एक शिष्टमण्डल के सदस्य के रूप में इंग्लैड गये। यहाँ से वे अमेरिका चले गये।

उन्होंने कई बार विदेश यात्राएँ की और वहाँ रहकर पश्चिमी देशों के समक्ष भारत की राजनैतिक परिस्थिति की वास्तविकता से वहां के लोगों को परिचित कराया तथा उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन की जानकारी दी।

लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियों-लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल के साथ मिलकर कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। 1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षो तक कांग्रेस ने एक राजभवन संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण वर्ष में एक बार बड़े दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होने और विनम्रता पूर्वक शासनों के सूत्रधारों (अंग्रेजी) से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिकाधिक संख्या में प्रविष्ट युगराज के भारत-आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच ये यह अपनी किस्म का पहला तेजस्वी भाषण हुआ जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी।

1907 में जब पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा सरदार अजीतसिंह (शहीद भगतसिंह के चाचा) पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर उन्हें पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर में नजरबंद कर दिया, किन्तु देशवासियों द्वारा सरकार के इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा। लालाजी पुनः स्वदेश आये और देशवासियों ने उनका भावभीना स्वागत किया। लालाजी के राजनैतिक जीवन की कहानी अत्यन्त रोमांचक तो है ही, भारतीयों को स्वदेश-हित के लिए बलिदान तथा महान् त्याग करने की प्रेरणा भी देती है।

जन-सेवा के कार्य

लालाजी केवल राजनैतिक नेता और कार्यकर्ता ही नहीं थे। उन्होंने जन सेवा का भी सच्चा पाठ पढ़ा था। जब 1896 तथा 1899 (इसे राजस्थान में छप्पन का अकाल कहते हैं, क्योंकि यह विक्रम का 1956 का वर्ष था) में उत्तर भारत में भयंकर दुष्काल पड़ा तो लालाजी ने अपने साथी लाला हंसराज के सहयोग से अकालपीड़ित लोगों को सहायता पहुँचाई। जिन अनाथ बच्चों को ईसाई पादरी अपनाने के लिए तैयार थे और अन्ततः जो उनका धर्म-परिवर्तन करने के इरादे रखते थे उन्हें इन मिशनरियों के चुंगुल से बचाकर फीरोजपुर तथा आगरा के आर्य अनाथलायों में भेजा। 1905 में कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) में भयंकर भूकम्प आया। उस समय भी लालाजी सेवा-कार्य में जुट गये और डी०ए०वी० कालेज लाहौर के छात्रों के साथ भूकम्प-पीड़ितों को राहत प्रदान की। 1907-08 में उड़ीसा मध्यप्रदेश तथा संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) से भी भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और लालाजी को पीडितों की सहायता के लिए आगे आना पड़ा।

पुनः राजनैतिक आन्दोलन में

1907 के सूरत के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियों के द्वारा राजनीति में गरम दल की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था और जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गये थे कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। हम यह देख चुके हैं कि जनभावना को देखते हुए अंग्रेजों को उनके देश-निर्वासन को रद्द करना पड़ा था। वे स्वदेश आये और पुनः स्वाधीनता के संघर्ष में जुट गये। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) के दौरान वे एक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप में पुनः इंग्लैंड गये और देश की आजादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे जापान होते हुए अमेरिका चले गये और स्वाधीनता-प्रेमी अमेरिकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पथ प्रबलता से प्रस्तुत किया।

यहाँ इण्डियन होम रूल लीग की स्थापना की तथा कुछ ग्रन्थ भी लिखे। 20 फरवरी, 1920 को जब वे स्वदेश लौटे तो अमृतसर में जलियावाला बाग काण्ड हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला में जल रहा था। इसी बीच महात्मा गांधी ने सहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये। 1920 में ही वे कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष बने। उन दिनों सरकारी शिक्षण संस्थानों के बहिस्कार विदेशी वस्त्रों के त्याग, अदालतों का बहिष्कार, शराब के विरुद्ध आन्दोलन, चरखा और खादी का प्रचार जैसे कार्यक्रमों को कांग्रेस ने अपने हाथ में ले रखा था, जिसके कारण जनता में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हो चला था। इसी समय लालाजी को कारावास का दण्ड मिला, किन्तु खराब स्वास्थ्य के कारण वे जल्दी ही रिहा कर दिये गये।

1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और केन्द्रीय धारा सभा (सेंटल असेम्बली) के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पं० मोतीलाल नेहरू से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया और पुनः असेम्बली में पहुँच गये। अन्य विचारशील नेताओं की भाँति लालाजी भी कांग्रेस में दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाली मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से अप्रसन्नता अनुभव करते थे, इसलिए स्वामी श्रद्धानन्द तथा पं० मदनमोहन मालवीय के सहयोग से उन्होंने हिन्दू महासभा के कार्य को आगे बढ़ाया। 1925 में उन्हें हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया। ध्यातव्य है कि उन दिनों हिन्दू महासभा का कोई स्पष्ट राजनैतिक कार्यक्रम नहीं था और वह मुख्य रूप से हिन्दू संगठन, अछूतोद्धार, शुद्धि जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में ही दिलचस्पी लेती थी। इसी कारण कांग्रेस से उसे थोड़ा भी विरोध नहीं था। यद्यपि संकीर्ण दृष्टि से अनेक राजनैतिक कर्मी लालाजी के हिन्दू महासभा में रुचि लेने से नाराज भी हुए किन्तु उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की और वे अपने कर्तव्यपालन में ही लगे रहे।

जीवन संध्या

1928 में जब अंग्रेजों द्वारा नियुक्त साइमन भारत आया तो देश के नेताओं ने उसका बहिस्कार करने का निर्णय लिया। 30 अक्टूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुँचा तो जनता के प्रबल प्रतिशोध को देखते हुए सरकार ने धारा 144 लगा दी। लालाजी के नेतृत्व में नगर के हजारों लोग कमीशन के सदस्यों को काले झण्डे दिखाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचे और ‘साइमन वापस जाओ’ के नारों से आकाश गुँजा दिया। इस पर पुलिस को लाठीचार्ज का आदेश मिला। उसी समय अंग्रेज सार्जेंट साण्डर्स ने लालाजी की छाती पर लाठी का प्रहार किया जिससे उन्हें सख्त चोट पहुँची। उसी सायं लाहौर की एक विशाल जनसभा में एकत्रित जनता को सम्बोधित करते हुए नरकेसरी लालाजी ने गर्जना करते हुए कहा-मेरे शरीर पर पडी़ लाठी की प्रत्येक चोट अंग्रेजी साम्राज्य के कफन की कील का काम करेगी। इस दारुण प्रहात से आहत लालाजी ने अठारह दिन तक विषम ज्वर पीड़ा भोगकर 17 नवम्बर 1928 को परलोक के लिए प्रस्थान किया।


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