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विविध उपन्यास >> एक और चन्द्रकान्ता - 1

एक और चन्द्रकान्ता - 1

कमलेश्वर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3531
आईएसबीएन :81-7016-412-5

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एक अनंत कथा है जो यथार्थ और कल्पना की देह-आत्मा से सृजित और नवीकृत होती रहती है।

Ek aur chandrakanta-1

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय दूरदर्शन के इतिहास में चन्द्रकान्ता सीरियल ने जो लोकप्रियता का कीर्तिमान स्थापित किया है इसका श्रेय हिन्दी के अग्रणी उपन्यासकार बाबू देवकीनंदन खत्री को जाता है क्योंकि चन्द्रकान्ता सीरियल के सुप्रसिद्ध लेखक कमलेश्वर का मानना है कि इसकी प्रेरणा उन्होंने खत्रीजी से ही ग्रहण की है। खत्रीजी की प्रेरणा के महादान से संपन्न इस शीर्ष कथाकार ने जिस प्रकार उपन्यास से सीरियल को अलग किया था, उसी तरह सीरियल से एक और चन्द्रकान्ता की इस महागाथा को अलग करके प्रस्तुत किया है।

एक और चन्द्रकान्ता के इस पाठ में हिन्दी पाठक एक बार फिर से अपनी भाषा तथा कथा के आदर्श तथा गौरवमयी अनुभव से गुजर सकेगा। कहा जा सकता है कि हिन्दी में यह रचना के स्तर पर एक प्रयोग भी है। लेखक के अनुसार यह ‘‘भाषायी स्तर पर एक विनम्र प्रयास है ताकि हिन्दी अधिकतम आम फहम बन सके।’’ हिन्दी कथा-परंपरा में किस्सागोई की मोहिनी को पुनः अवतरित करने में लेखक के भाषागत सरोकार और उपकार का यह औपन्यासिक वृत्तांत अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है।

चमत्कार, ऐयारी, फंतासी, बाधाएँ, कर्तव्य, दोस्ती,युद्ध-पराक्रम, नमकहरामी, बगावत, प्रतिरोध, साजिश, मक्कारी, तांत्रिक एवं शैतानी शक्तियाँ, वासना, वफादारी तथा अंधसत्ता आदि को बखानती और परत-दर-परत खुलती बंद होती अनेक कथा-उपकथाओं की इस उपन्यास-श्रृंखला में मात्र प्यार-मोहब्बत की दास्तान को ही नहीं बखाना गया है बल्कि इस दास्तान के बहाने लेखक ने अपने देश और समाज की झाड़ा-तलाशी ली है। यही कारण है कि कुँवर वीरेन्द्र सिंह और राजकुमारी चन्द्रकान्ता की उद्दाम प्रेमकथा को बारंबार स्थगित करते हुए, लेखक कहीं दो देशों की परस्पर शत्रुता के बीच संधि की कोशिश को शिरोधार्य करता प्रतीत होता है तो कहीं भ्रष्टाचार राष्ट्रदोह की प्रतिच्छाया वाली उपकथाओं के सृजन में व्यस्त दीखता है। समय के साथ निरंतर बहने और रहने वाली एक और चन्द्रकान्ता की इस महाकथा में महानायकों का चिरंतन संघर्ष यहाँ मौजूद है, उनका समाधान नहीं। अर्थात् यह एक अनंत कथा है जो यथार्थ और कल्पना की देह-आत्मा से सृजित और नवीकृत होती रहती है। कहना न होगा कि यह हिन्दी की एक समकालीन ऐसी ‘तिलिस्मी’ उपन्यास-श्रृंखला है जो हमारे अपने ही आविष्कृत रूप-स्वरूप को प्रत्यक्ष करती है। इस उपन्यास श्रृंखला के सैकड़ों बयानों की अखण्ड पठनीयता लेखक की विदग्ध प्रतिभा का जीवंत साक्ष्य है।

यदि इस लेखक की सामाजिक प्रतिबद्धता की बात पर ध्यान दें तो एक और चन्द्रकान्ता उसकी सम्यक् लेखकीय जबावदेही का साहसिक उदाहरण है। अपने अग्रज-पूर्वज उपन्यासकारों का ऋण स्वीकार करते हुए स्पर्धाहीन सर्जन की ऐसी बेजोड़ मिसाल आज अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। दूसरे शब्दों में कमलेश्वर का हिन्दी साहित्य में यह एक स्वतंत्रता संग्राम भी है जिसमें आम हिन्दी को सुराज सौंपने का सपना लक्षित है।

एक और चन्द्रकान्ता : कुछ बातें

इस बृहद वृत्तांत के लिए मैं विनत भाव से बाबू देवकीनंदन खत्री का आभारी हूँ, क्योंकि इसकी प्रेरणा मैंने उन्हीं से ग्रहण की है।
‘एक और चन्द्रकान्ता’ के लेखन का कारण इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही रहा है। यदि दूरदर्शन न होता तो इसके लिए लिखे जाने की नौबत ही न आती। इसी का एक पक्ष और भी है। कुछ बरस पहले कहानी लिखने और स्थापित होने की होड़ में बुद्धिवादी घटाटोप की कहानियाँ लिखने का रेला आया हुआ था। अनियमित रूप से निकलने वाली अधिकांश पत्रिकाओं की एक त्रासदी यह भी है कि जो कुछ उन्हें मिल जाता है, वे उसी को छाप देती हैं और जो छपता है उसी का अनुकरण छपास की भूख के कारण होने लगता है। इससे एक रचनाहीन रचना संसार की रचना में मदद मिलती है। तब प्रयोग संभव नहीं हो पाते, केवल छापने के लिए लिखित शब्द का प्रयोग होता है।

लेकिन इसी के साथ ऐसी रचनाशीलता एक और भूमिका भी निभाती चलती है। अनजाने ही इससे भाषा और कथन के वे सेतु बनते हैं जो साहित्यिक भाषा से किंचित दूर होते हुए भी, भाषायी दूरियों को पीटते रहते हैं। हिंदी पर यह आक्षेप भी लगता रहा है कि हर दस मील पर वह बदलती रहती है। इसे वे विद्वान नहीं समझ सकते जो भाषा के नैसर्गिक विकास की प्रक्रिया से परिचित नहीं हैं।

राहुल जी ने बहुत पहले कहा था। कि हिंदी एक भाषामंडल है। यानी यह हमारी तमाम बोलियों, वाचिक उपभाषाओं और क्षेत्रीय लिखित भाषाओं का एक समूह है। हिंदी एक भाषायी मोहल्ला है जिसमें दादी अवधी की रामायण पढ़ती हैं, विवाह योग्य गंभीर बहन मैथिली विद्यापति को पढ़ती है, पड़ोस के आचार्य जी संस्कृत के कालिदास को पढ़ते हैं, खोसला साहब जपुजी का पाठ करते हैं, ताऊजी मीर और गालिब का बयान करते हैं, चौबेजी ब्रज के सूरदास और मीरा के पद गाते हैं, मुंशी जी अपनी मस्ती में बिहारी के दोहे जड़ देते हैं, नायब तहसीलदार अली भाई मीर अनीस को गुनगुनाते हैं, आढ़ती झब्बूलाल आधी राजस्थानी में नफा नुकसान की बात करते हैं, मंजरी आनंद बख्शी और इंदीवर के तराने गाती है, बंटी हलो अंकिल के साथ-साथ तेंदुलकर के स्ट्रोक प्ले पर बहस करता है और एक कमरा किराये पर लेकर रहने वाले मास्टर जी अपनी लँगड़ी अंग्रेजी पर हिंदी का व्याकरण चढ़ाकर अपनी पुरअसर बात कह लेते हैं।

यह सब हिंदी है !
इतना ही नहीं, अन्य भाषायी प्रदेशों की सरहदों पर भी हिंदी अपना रूप ले रही है। हिंदी अब मात्र हिंदी प्रदेश की भाषा नहीं है-वह सेतु भाषा बन चुकी है। और यह भी जानना ज़रूरी है कि आज हिंदी जिस तेजी से विकसित हो रही है, उतनी तीव्रता से कम भाषाएँ विकसित हुई हैं। हिंदी विरोध में यह कहा जाता है कि पूरी भारत हिंदी नहीं बोलता, पर इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पूरा भारत हिंदी भी बोलता है।

ऐसे संक्रमणशील समय में हिंदी का दायित्व बहुत बढ़ जाता है-एक निरंतर विकसित होती भाषा को अपने क्षेत्रीय स्रोतों से तो बहुत कुछ लेना ही होता है, साथ ही अपने समांतर चलती भाषाओं से आदान-प्रदान भी ज़रूरी हो जाता है। विकसित होती बड़ी भाषाएँ पहले आदान की प्रक्रिया से गुजरती हैं, वे लेती अधिक हैं, जो देना होता है, बाद में देती हैं !
हर भाषा में एक तबका ऐसा होता है जो भाषायी प्रगति और उसके संस्कार पर कुण्डली मारकर बैठ जाता है, उसे क्रॉस फर्टिलाइज होने से रोकता है। चन्द्रकान्ता सीरियल के दौरान ऐसे शुद्धतावादी लोगों ने बार बार और लगातार उर्दू शब्दों और लहजे का विरोध किया।

मैंने एक और चन्द्रकान्ता में जो कोशिश की है वहभाषायी स्तर पर एक विनम्र प्रयास है ताकि हिंदी अधिकतम आम फहम बन सके। हिंदी के उदय काल में जो सफल कोशिश हुई है, वह जारी रह सके।

कोई पाठक सिर्फ भाषा की जानकारी के लिए किताबें नहीं पढ़ता, वह किस्से कहानियाँ पढ़ता है और भाषा बहते पानी की तरह उसका साथ देती है। मुझे इस बात का एहसास भी है कि जब इस दास्तान को कथाओं-उपकथाओं के ज़रिए विस्तार दिया गया और जब मैंने चन्द्रकान्ता में दास्तान के अंदर मौजूद दास्तान को पेश करना शुरू किया तो साहित्य के सुरक्षा गार्डों ने आक्षेपों की बौछार शुरू की। पहले तो इधर-उधर लिखके विरोध किया गया, फिर प्रतिवाद पत्रों के ज़रिए प्रधानमंत्री, सूचना प्रसारण मंत्री से लेकर सांसदों तक दौड़ लगाई गई। मंत्रालय की कन्सलटेटिव कमेटी में इस मसले को उठवाया गया। गुटबंद लेखकों को उकसाया गया और एक अन्य प्रोड्यूसर द्वारा, इसके निर्माता परनहीं, मुझ पर एक बेसिर पैर का कापीराइट का मुक़द्दमा कायम करवाया गया। तरह तरह के गौर ज़रूरी सवालों और स्थितियों में मुझे फँसाया गया। अदालतों में दौड़ाया गया। कापीराइट के संदर्भ में अदालत में मुझसे खत्री जी की मृत्यु-तिथि का सर्टिफिकेट माँगा गया ! बस, यहीं से मैंने मुक़द्दमों, शिकायतों, प्रतिवादों का मजा लेना शुरू किया। यह तो स्पष्ट ही था कि यह सब कार्रवाई साहित्य की गरिमा के लिए नहीं, बल्कि उन सुरक्षा गार्डों और तालिबानों की हसद का नतीजा थी, क्योंकि, ‘चन्द्रकान्ता’ सीरियल ने लोकप्रियता का नया ऐतिहासिक कीर्तिमान स्थापित किया था। इतना ही नहीं, रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक-पौराणिक सीरियलों के कमर्शियल कीर्तिमानों को हफ्ते-दर-हफ्ते ध्वस्त भी किया था। मीडिया के अब तक के इतिहास में चन्द्रकान्ता सीरियल की सफलता एक अप्रत्याशित घटना के रूप में दर्ज है।

लेकिन मेरे लिए यह अप्रत्याशित नहीं था। इतना अंदाज तो मुझे था ही कि भारतीय जनमानस अपने पौराणिक आख्यानों की मूल्य परम्परा के साथसाथ उन आख्यानों में भी रुचि रखता है जो अपने समय की सुकृतियों और विकृतियों को उजागर करते हुए किसी महानायक की उपस्थिति का आभास दे सकते हैं। एक महानायक हर व्यक्ति के भीतर बैठा है...अगर कोई कथाकृति उससे तादात्म्य स्थापित कर ले, तो कोई कारण नहीं है कि वह जनमानस को आंदोलित न कर सके...

और अगर इसमें चमत्कार, ऐयारी, मुश्किलें और फंतासी शामिल हो जाए, कर्तव्य और दोस्ती के सकारात्मक सूत्र भी जुड़ जाएँ, लालच, साजिशों और तिलिस्म तोड़ सकने की कोशिशें भी शामिल हो जाएँ तो दर्शक पाठक अपनी उस दुनिया में प्रवेश कर जाता है, जहाँ वह खुद नहीं पहुँच सकता, पर उसका मनोवांछित महानायक उसी के आहत महानायक के साथ एकाकार हो जाता है। और तब वह खलनायक और विकृत स्थितियों से स्वयं ही बदला लेने लगता है। तो ख़ैर...

इस दास्तान में लगभग सभी नई दास्तानें पैवस्त हैं और प्रेरणा लेने के सिवा मीडिया पर इसकी सफलता को सुनिश्चित करने, और आज के बनते हुए भारतीय मानस को रेखांकित करने के लिए खत्री जी की मुसलमान विरोधी सोच को सोच समझकर खारिज भी किया गया है। खत्री जी का चन्द्रकान्ता शत प्रतिशत मुसलमान विरोधी है। मैं कह नहीं सकता कि यह उनकी व्यक्तिगत सोच है या उनके दौर का मानसिक सच ! जो भी हो...

इसके लेखन के कुछ अत्यंत रोचक प्रसंग भी हैं। मैंने लगातार यह प्रयास किया था कि इसमें वर्तमान प्रसंगों की वैचारिक घटना-छाया उलझी रहे। जो कुछ देश में घटित हो रहा है उसकी अनकही प्रतिच्छाया लगातार मौजूद रहे। इसीलिए कश्मीर की समस्या को सुमेधा के ज़रिए प्रतिभासित किया गया। भ्रष्टाचार और लालच को क्रूरसिंह में केंद्रित किया गया। धर्म की शर्तों से ऊपर उठकर दोस्ती की शर्तों को जाँबाज़ और वीरेन्द्रसिंह के ज़रिए स्थापित किया गया...बिगड़ी संतान की समस्या को क्रूरसिंह के पिता भूपतसिंह के बहाने से कहा गया। अंधसत्ता को प्रतीकात्मक रूप से महाराज जयसिंह में पैवस्त किया गया। भाई-भाई की ईर्ष्या के कारणों को पं. जगन्नाथ और शनि के रूप में लाया गया। सनकी, ऐयाश और मनोग्रंथियों से ग्रस्त व्यक्ति को राजा शिवदत्त के ज़रिए पेश किया गया।

पति-परायणता की पराकाष्ठा को शिवदत्त की महारानी में प्रस्तुत किया गया। प्यार के अनंत, उद्दाम और उज्ज्वल स्वरूप के लिए चन्द्रकान्ता और कुँवर वीरेन्द्रसिंह को बिलकुल अलग तरीके से तराश गया, नहीं तो खत्री जी के वीरेन्द्रसिंह तो बात बात पर रोते और गश खाकर गिर पड़ते हैं।
इसके अलावा और भी प्रसंग आते रहे। शूटिंग के दौरान क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नहीं आये तो तत्काल चाँदपुर नाम की जगह ईजाद कर, नामी ऐयार की पदवी देकर अहमद नाम के पात्र को पैदा करना पड़ा। कुँवर वीरेन्द्रसिंह के खत्री जी वाले ऐयार तेजसिंह शूटिंग के दौरान नाराज हो गए तो जाँबाज़ के किरदार को खड़ा करना पड़ा और उसे कुँवर वीरेन्द्रसिंह का दोस्त बनाकर ज़रूरत से पहले कहानी में लाना पड़ा। महल की अंदरूनी हलचलों में शामिलात के लिए तेजसिंह की जगह उसके एक छोटे भाई अजीतसिंह को पैदा करना पडा। बारहवें बयान तक आते आते अजीतसिंह का किरदार निभाने वाला एक्टर भाग गया, तब उसी बारहवें बयान में सेनानायक वीरसिंह को गढ़ना पड़ा।

जाँबाज़ इस दास्तान का खास पात्र है। शुरू-शुरू में उसके माथे पर एक पैदायशी दिव्य निशान दिखाया गया था, उस पर एतराज हुआ तो चौबीसवें बयान तक आते जाते एक चमत्कारी घटना का ताना बाना बुनना पड़ा और उस निशान को दैवी ताक़त का सहारा लेकर मिटाना पड़ा। फिर दास्तान के अंदर दास्तान के सहारे से जाँबाज़ के अब्बा का प्रसंग लाना पड़ा। उन्हें बड़ी बारीकी से देश की सहनशील सूफ़ी परम्परा से जोड़ा गया। धार्मिक पात्रों को धर्म के नाम पर उग्र नहीं होने दिया गया...असुर और दैवी शक्तियों को महिमा-मंडन से बचाकर यथासंभव मानवीय अपेक्षाओं के लिए सक्रिय किया गया...वेश-विन्यास और संवाद के शब्दों से वे योगी, फकीर दरवेश या आचार्य लग सकते हैं पर उन्हें किसी इतिहास या पौराणिक खण्ड का नुमाइंदा नहीं बनाया गया। आवश्यक पात्रों के ज़रिए, जगह जगह अनकहे तरीके से पुनरुत्थानवादी संवेगों और शब्दों को शमित किया गया। यहाँ तक कि आसुरी शक्ति महामाया मायावती को एक अमानवीय घटना से जोड़कर भविष्य में उसके संभावित चरित्र-परिवर्तन के लिए जगह बना दी गई। औरतें यहाँ भी हैं, पर वे निरीह, नादान और शोषित नहीं हैं। अगर शोषित हैं भी तो दास्तान की हर महिला पात्र बहुधा अपने शोषण या किसी अन्य के प्रति हुए अत्याचार के प्रतिकार के लिए मौजूद है। शव्या का किरदार खास तौर से इसीलिए तराशा गया और वह इस आख्यान का एक महत्त्वपूर्ण पात्र है। शव्या समाज के सामान्य वर्ग से आती है, वह राजसी औरत नहीं है, और कोई सक्रिय पात्र न मिल पाने के कारण उसे तीन तीन बार मारकर भी जीवित करना पड़ा।

तेजसिंह को एक अंग्रेजी फिल्म मिल गई थी, इसलिए राजपूती प्रण का सहारा लेकर, उसी से उसकी गर्दन कटवाकर इस वृत्तांत से उसे विराम देना पड़ा....
ऐसे हज़ारों प्रसंग हैं, जिन्हें गिनवाया नहीं जा सकता।
लेकिन इस वृत्तांत को लगातार, अनकहे ढंग से तात्कालिक अनुगूजों और घनात्मक छायाओं से जोड़े रखने का कठिन उपक्रम लगातार चलता रहा। बयान सत्ताईस में उदयसिंह जैसे पात्र को लाया गया, जिसे नौगढ़ नरेश सुरेन्द्रसिंह के भाई का दर्जा देकर विजयगढ़ से संधि की कोशिशों के लिए भेजा गया, क्योंकि उन दिनों पाकिस्तान भारत मैत्री की कुछ कोशिशें शुरू हुई थीं।
दर्शक पाठक इतना समझदार है कि वह महीन इशारों को गहराई से समझ लेता है इसीलिए मैंने इस वृत्तांत में यह कोशिश लगातार की है कि संदर्भों की छाया तात्कालिक घटनाओं की ओर इशारा करती रहे...यह इशारे अभिधात्मक नहीं हैं।

और फिर इस वृत्तांत को रोचक, घटनात्मक नाटकीय और मनोरंजक बनाने के लिए, विलक्षण स्थितियों की उत्पत्ति के लिए खत्री जी द्वारा प्रदत्त जासूसी, ऐयारी तथा तिलिस्म के नुस्खे मौजूद ही थे, जिनका मैंने उन्मुक्त रूप से इस्तेमाल किया है। इसमें मेरी मदद अग्रज लेखकों ने भी की। किशोरीलाल गोस्वामी जी का उपन्यास ‘तिलिस्मी शीशमहल’ भी मेरे सामने था। गोपालराम गहमरी जी के जासूसी उपन्यास तो मौजूद थे ही। उन्होंने लगभग 200 जासूसी उपन्यास लिखे। गुलाबदास जी का ‘तिलिस्मी बुर्ज’ और रामलाल वर्मा जी के ‘पुतली का महल’-यह सब मेरे प्रेरणास्रोत बने। मैं अपने इन तमाम अग्रज पूर्वज उपन्यासकारों का ऋणी हूँ।

अंत में-
श्री युगेश्वर जी की टिप्पणी का एक अंश :
खत्री जी कालीन जमींदार या सामंत एक टूटते हुए स्वप्नलोक में रह रहे थे। जिस लोक को वे छोड़ना नहीं चाहते थे, किंतु जिसका बने रहना उनके वश में नहीं था। वे किसी विद्रोह की स्थिति में भी नहीं थे। एक बार विद्रोह (सन् 1857 का) पराजित हो चुका था। वे ऐयारी से काम लेना चाहते थे। कोई लखलखा सुँघाए कि काम बने। इस प्रकार वे एक दिवा-स्वप्न में लीन थे, किंतु वे अपनी बेचैनी को जानते थे। इसलिए सामाजिक छल-कपट, ईर्ष्या द्वेष, मारपीट भी बहुत थी। उनका समाज विश्रृंखल हो रहा था। उनकी सत्ता टूट रही थी। वे लड़ते अवश्य थे किंतु उनकी लड़ाई की पुरानी तेजस्विता खत्म थी।’

लगभग यही राजनीतिक हालात, भ्रष्ट ऐयाश, नवधनाढ्य वर्ग की बेलगाम हरकतें, साजिशें, ईर्ष्या, धनलोलुपता, हत्या, अपराध, निरंकुश सत्ता, चापलूस नौकरशाह, जी हुजूरी, स्वार्थ दिशाहीनता और पस्तहिम्मती का माहौल इस समय भी है जब एक और चन्द्रकान्ता लिखा जा रहा है और कुछ पहले भी मौजूद रहा है जब धारावाहिक के रूप में चन्द्रकान्ता प्रसारित हुआ था। खत्री जी के उपन्यास से चन्द्रकान्ता सीरियल जिस तरह अलग था, उसी तरह सीरियल से एक और चन्द्रकान्ता का यह वृत्तांत अलग है ! इत्यलम्।


5/116, इरोज गार्डन
सूरज कुण्ड रोड
नई दिल्ली-110044


पहला बयान



रंगारंग जश्न की रात।
मौक़ा ही ऐसा था। विजयगढ़ रियासत के राजकुमार शक्तिसिंह को युवराज बनाये जाने का दिन नजदीक आया था। पिछले हफ़्ते भर से रियासत में जगह-जगह तरह-तरह के रंगारंग कार्यक्रमों की धूम मची थी। कहीं बेड़नियों के नाच हो रहे थे तो कहीं तलवारबाज़ी के करतब दिखाये जा रहे थे। कहीं मस्ती भरी महफिलें सजी थीं, तो कहीं मल्ल युद्ध के मुकाबले हो रहे थे। कहीं साँप न्योले की लड़ाई चल रही थी, तो कहीं मुर्गों की मुठभेड़ हो रही थी। मंदिरों पर नई पताकाएँ और मस्जिदों पर नये परचम फहरा रहे थे। राजकुमार शक्तिसिंह को सब आसमानी दुआएँ हासिल हों, इसके लिए रियासत की हर दरगाह में कीमती रेशम की चादरें और बेले चमेली की चाँदनियाँ चढ़ाई गई थीं। कोई मंदिर ऐसा न था, जिसमें आरतियाँ न हो रही हों और भोग न लग रहा हो।

छावनी में समाँ ही अलग था। मदमस्त हाथियों को जैसे जंग के लिए सजाया गया था। घोड़ों की जीनें और लगामें मोम की पालिश से चमकाई गई थी। उनकी कलंगी के लिए रंगीन पंखों के गुलदस्ते बनाये गये थे...
विजयगढ़ में जलते चिराग दिये और मशालें उसी तरह गिनी नहीं जा सकती थीं जैसे आसमान के तारे गिने नहीं जा सकते।
अमीर-उमरा और दरबारियों की हवेलियों में छिड़काव के लिए शाम से ही मशकची उतर पड़े थे।
शाही महल की सीढ़ियों पर तो खास तौर से मशकचियों ने कन्नौज के गुलाबजल और केवड़े का छिड़काव किया था, आसपास की छोटी बड़ी रियासतों के ख़ासुलख़ास लोग एक दिन पहले ही राजधानी पहुँच चुके थे।
आख़िर राजकुमार शक्तिसिंह को कल युवराज की पदवी और रियासत के सेनापति का ओहदा मिलने वाला है...तो फिर रात रंगीन क्यों न हो।

खास मेहमानों के लिए विजयगढ़ दुर्ग के रंगमहल में बाकायदा इंतजाम किया गया था।
वहाँ का समाँ तो देखते ही बनता था शबाब और सुरुर की महफ़िल का अपना रंग था। उस्ताद मुन्ने ख़ाँ की सारंगी, भोला पंडित का तबला और केसरबाई के घुँघरुओं की झनकार से रंगमहल गूँज रहा था। शाही कारिदे दौड़ भाग रहे थे और जाम छलक रहे थे। काबुली मेवों और रामपुरी गोला कबाब की महक से रंगमहल गमक रहा था। मोरपंखी पंखों से हिना की फुहारें बरस रही थीं और तमाम रियासतों की हरदिल अजीज कमसिन तवायफ केसरबाई बड़े पुरजोश अंदाज में रक्स कर रही थी...और रक्स के साथ उसके गाने और दिलकश अदाओं का दौर जारी था...वो झूम झूम के गा रही थी-


मोरी गगरी को नीर राजा छलक न जाये...
साड़ी भीगी, चुनरी भीगी, चोली भीगी जाये....
मैं मरी जाऊँ शरम के मारे, मोरा जोबन भीगो जाये...
मोरी गगरी को नीर राजा छलक न जाये...


रंगमहल में वाह-वाहों और दिल की कचोट से निकली आगों ने तो महफिल का रंग ही बदल दिया। घुँघरुओं की झनकार के साथ ही अशर्फियों की बौछार होने लगी...तो केसरबाई ने अपनी आँखों के तीर चलाते हुए, शाही मेहमानों को घायल करते हुए अपने घुँघरुओं, को मद्धिम गति पर लाकर दूसरा तोड़ा पेश किया-

जोबन को ही बोझ बहुत है...


मुन्ना उस्ताद की सारंगी ने तारों को सँभाल केसरबाई की बात की ताईद की और भोला पंडित के तबले ने गमक के साथफिर केसरबाई को पुकारा...तो थिरकती, चमकती केसरबाई ने फिर वार किया-


जोबन की ही बोझ बहुत है...


तो किसी दिलजले मेहमान राजकुमार की आवाज आई थी-जालिम ! यह तो जाहिर है...हम ये बोझ उठा लेंगे...
तो केसरबाई ने उसे बार बार सलाम करते हुए राजकुमार शक्तिसिंह को देखा था जो अशर्फ़ियों की अपनी दसवीं थैली का मुँह खोल रहे थे...
केसरबाई की अदाओं में इज़ाफ़ा हुआ और वह एक ठुमका लेकर गाने लगी-


जोबन को ही बोझ बहुत है, जल भरने कैसे जाऊँ...
भारी गगरी उठए न मो पे...
पग पग ठोकर खाऊँ...
मोरी पतली कमर राजा...लचक न जाये....


इस बार झण्डे ख़ाँ के हारमोनियम ने मौके को पकडा...हारमोनियम पर झण्डे ख़ाँ की अंगुलियाँ थिरक उठीं और उसके पर्दे साँसें खींच-खींच हाँफ़ने लगे....
उस्ताद मुन्ने ख़ाँ की सारंगी, भोला पंडित का तबला, झण्डे ख़ाँ का हारमोनियम और केसर के घुँघरुओं ने वह समाँ बाँधा था कि मेहमान तड़प-तड़प उठे।
ऐसा जश्न तो आसपास की पचासों रियासतों में कभी नहीं मनाया गया...सब लोग सुरूर में थे और केसरबाई की अदाओं पर निछावर हुए जा रहे थे। सारंगी, तबले हारमोनियम और घुँघरुओं का मदमाता संगीत सारी महफिल पर हावी हो चुका था।

हिना की फुहार करते पंखे मदहोशी को बढ़ावा दे रहे थे और रामपुर के गोला कबाब अब अपना रंग अलग से दिखा रहे थे।
नृत्य संगीत और शबाब के साथ शराब ने पूरे माहौल में उन्माद भर दिया था। लोग अपने आपको भूल गए थे। दिल की हर धड़कन केसर के मादक गीत का बोल बन गई थी।
राजकुमार शक्तिसिंह ने सुरा, सुन्दरी और संगीत के उन्माद में झूमते मेहमानों पर एक नज़र डाली और फिर सामने थाल में रखी अशर्फ़ियों की दसवीं थैली केसरबाई के थिरकते पैरों की ओर उछाल दी, और उठ खड़े हुए। गीत के बोल और संगीत के सुर धीरे धीरे धीमे होते चले गए।

रात आधी से अधिकबीत चुकी थी। नगर की अट्टालिकाओं, हवेलियों और राजप्रसादों पर जगमगाती बत्तियाँ बुझचुकी थीं और तब तक आकाश के सीमाहीन विस्तार को रौंदती उमड़ती घुमड़ती काली कजरारी घटाओं ने अमावस की रात की कालिमा को और भी गहरा तथा भयानक बना दिया था। इस छोर से उस छोर तक आसमान पर एक नन्हा सा तारा भी दिखाई नहीं दे रहा था।
विजयगढ़ रियासत के निवासी दिनभर के राग-रंग, नृत्य-संगीत और आमोद-प्रमोद से थककर अपने अपने घरों में गहरी नींद सो चुके थे। विजयगढ़ के विशाल दुर्ग में भी गहरी ख़ामोशी और खुमारी छा गई थी, जिसे कभी-कभी पहरेदारों के कदमों की आहटें रह-रहकर भंग कर देती थीं।

आज से ठीक एक दिन बाद विजयगढ़ के महाराजा जयसिंह अपने इकलौते पुत्र राजकुमार शक्तिसिंह को युवराज के पग पर आसीन करने वाले थे। इसीलिए पिछले एक सप्ताह से विजयगढ़ के राजमहल और राजधानी ही नहीं, बल्कि समूची रियासत तरह तरह के उत्सवों और समारोहों में सराबोर थी।

   

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