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कहीं कुछ और

गंगाप्रसाद विमल

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :241
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3534
आईएसबीएन :81-7016-353-6

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एक रोचक सामाजिक उपन्यास...

Kahin kuchh Aur

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

कहीं कुछ और एक ऐसी कथाकृति है जो हमें दो इकाइयों से परिचित कराती है। एक इकाई संपन्नता और दूसरी विपन्नता। एक छोर है अतीत और दूसरा वर्तमान। वर्तमान के रास्ते से भविष्य केवल एक प्रतीक्षा है किन्तु अतीत समूचा समग्र देखा हुआ, भोगा हुआ सच। शहर, कस्बों गाँवों में जीवन की हलचल अपने लक्षित गंतव्य से अपने अपेक्षित रूप से किस तरह अलग है इसका परिदर्शन ‘कहीं कुछ और’ की कथा में मिलता है।

एक निष्पाप संसार में भूख की दास्तान उस संबल को और मजबूत बनाती है जिसे तोड़ने की संभावनाएँ बलवती हैं किन्तु अपने मानवीय आधार पर एकनिष्ठ आस्था उस टूटन को खदेड़ बाहर करती है-कुछ-कुछ त्रासद के कथाधार में पुष्ट होने वाली यह कथा वास्तव में हिमालय के जनक्षेत्र की अकेली कथा है जिसमें हम खुले आकाश के नीचे विचित्र सी हलचल देखते हैं।

कहीं कुछ और

जिन लोगों के बारे में लिख रहा हूँ उन में से कोई आप को मिल सकता है। हो सकता है, कोई आप को उन आम जगहों में मिले जहाँ आप अकसर जाते हैं, तब आप उसे पहचान लेंगे। लेकिन वह आपकी तरफ़ ऐसी अपरिचित आँखों से देखेगा कि एक क्षण के लिए सही, आप उलझन में पड़ जायेंगे। इससे पहले की आप फिर पहचान वाली मु्द्रा बनायें, वह एकदम उस जगह से खिसक जायेगा। वह नहीं चाहेगा कि कोई भी उसे जानने वाला हो उस के अतीत के गोपनीय को जानने वाला हो वह नहीं चाहेगा कि कोई उस की बाँह पकड़ कर उस से पूछे—कुछ भी।

ये लोग जिनसे आप का सामना होते-होते रह जायेगा, अपने आप को अतीत से मुक्त करने की तलाश में हैं। ये लोग अभी उस पीड़ा से मुक्त नहीं हुए हैं। अपनी इस बचने जैसी हालत में जबतक ये हैं तबतक मुक्त नहीं हो सकेंगे। मैं यह इसलिए जानता हूँ कि मैं खुद इन में से एक हूँ।
आप मुझसे पूछ सकते हैं, पर मैं लेखक की नक़ाब ओढ़ कर आप को कोई ऐसा जवाब दूँगा कि आप अरसे तक उसी के बारे में सोचते रहेंगे। आप कभी नहीं जानेंगे कि मैंने आप के साथ चालाकी से एक खेल खेला है।

पर कहीं आप, यह सब जो मैं आपके सामने ला रहा हूँ, इसे भी खेल नहीं मान लें। यह खेल नहीं है, यह उन लोगों का क़िस्सा है जो खुद को केवल कुछ दिनों के इतिहास से मुक्त करना चाहते हैं।

वह कौन-सी खुशनुमा सुबह होती, या कोई भी धूप भरी दोपहर, जब मैं अपने आप को मजबूर कर सकता कि मुझे यह सब नहीं लिखना है क्योंकि यह सब लिखकर मैं खुद अपनी आँखों में नंगा हो गया हूँ। और अपनी आँखों के विश्वास के नीचे गिर जाने के बाद क्या बाकी रह जाता है, यह मैं जानता हूँ। मैं अतीत से मुक्त नहीं हुआ, मैं इस वहम से भी मुक्त नहीं हो सका हूँ कि बहुत नीचे गिर जाने के बाद भी कुछ ब़ाकी रह जाता है। परन्तु जिन दिनों मैंने यह सब कुछ लिखा है उन दिनों मुझे लगा था, कम से कम मैं खुद को बाकी लोगों से अलग पाऊँगा। पर यह मेरा सोचना ही था, और अब मैं मानता हूँ कि अपने लिए सोचना काफ़ी बेकार होता है।

इतना कुछ कह देने के बाद, अब जब मैं सब कुछ आप के सामने रखने ही जा रहा हूँ तो मुझे यह तय करने में देर लग रही है कि कहाँ से शुरू करूँ। सब छोरों पर एक ही तरह की शुरूआत खड़ी हुई है। एक ही तरह की।
कहाँ से शुरू करूँ....यही तो समस्या है। यह क़िस्सा सालों पहले का है। पर मैं जब कभी उन दिनों को, अतीत को याद करता हूँ तो मुझे लगता है, जैसे वह सभी कुछ अभी भी हो रहा है और अब भी मेरे सामने गुजर रहा हो।
उस दिन की बात भी—अभी इस वक़्त की बात लगती है। उस दिन हल्की वर्षा से दिन शुरू हुआ था। बाहर कुहरा था और कुहरे के बीच पेड़, खेत सभी कुछ ऐसे लगते थे जैसे कोई चीज़ ज़बरदस्ती उन से लिपट गयी हो।

जैसा तय था—उस दिन मुझे पोस्ट ऑफ़िस जाना था और वहाँ से अपनी वह चिट्ठी लानी थी जिस की हमें लम्बे अरसे से प्रतीक्षा थी। वह चिट्ठी जिसे हमारे पिता हमें भेजने वाले थे, जिसकी राह सारा परिवार देख रहा था। दरअसल यह चिट्ठी मामूली नहीं थी। और हमें सिर्फ़ काग़ज़ पर लिखी कुछ सतरों का इन्तज़ार ही नहीं, उन पैसों का इन्तज़ार था जो हमें न सिर्फ़ उन दिनों बल्कि आने वाले दिनों तक हमारे परिवार को भूख और अपमान से बचा सकते थे।
अब याद नहीं है, उस दिन पोस्ट ऑफ़िस जाकर क्या हुआ होगा। हाँ, जब मैं लौटा था तो छोटा भाई दरवाजे़ पर खड़ा था।
‘‘....आयी ?’’ उसने इतना ही कहा। अभी वह काफ़ी छोटा था। उन दिनों अगर आप उसकी आँखों में झाँकते तो आपको लगता कि वह 50 साल का है। सालों में नहीं, पिछले कुछ ही दिनों में उस की आँखें 45 साल की यात्रा कर आयी हैं। मैं ने उसका जवाब नहीं दिया। मेरी आँखें कुछ खोज रही थीं।

दरवाजे़ से हटकर वह सीधे मेरी तरफ़ आया और उसने फिर पूछा, ‘‘आयी ?’’ उसका मतलब चिट्ठी से था। और चिट्ठी का मतलब उन पैसों से, जिसकी प्रतीक्षा ने हमें असमय ही बूढ़ा बना दिया था।
‘‘तुम बोलते क्यों नहीं,’’ उस ने दबी ज़बान से कहा, ‘‘मैं समझता हूँ, तुम मेरे साथ मज़ाक करना चाहते हो।’’
फिर उसने मेरी आँखों में झाँक कर देखा। और जैसे जवाब पा लिया हो, उसने दूर आसमान के छोरों की ओर देखना शुरू किया। क्षितिज के पार कहीं काले-काले बादल अटके हुए थे। ठीक जैसे किसी बड़े दरवाजे़ के आगे कोई ठिठका खड़ा हो।
‘‘माँ ऊपर वाले कमरे में हैं’’ उस ने वैसे ही दूर कहीं देखते हुए कहा।

‘‘सब लोग वहीं होंगे,’’ मैं ने कहा और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। वह मेरे पीछे-पीछे चला आया।
‘‘तुम्हें मालूम नहीं, आज ताया जी भी कहीं बाहर चले गये।’’
‘‘मुझे पता था,’’ मुझे इस वक़्त दूसरी किसी बात में दिलचस्पी नहीं थी। ताया जी ग्राम वैद्य थे, अकसर वे गाँव से बाहर ही रहते थे क्योंकि कोई न कोई दूसरे गाँवों से उन्हें बुलाने आया ही रहता था। इन पाँच-छह महीनों में, जब से हम अपने गाँव-घर आये हैं, मुझे गाँव का धीमा चलने वाला जीवन अब एकदम मामूली लगने लगा था। शुरू-शुरू के दिन थे, जब गाँव का यह धीमा जीवन कुछ रोचक और दिलचस्प लगता था लेकिन बाद में वह दिलचस्पी एकदम खत्म हो गयी थी।

 हालाँकि छोटे भाई के लिए गाँव वालों की ही तरह हर बात, चाहे वह बेमतलब ही क्यों न हो, मामूली नहीं थी।
शुरू के दिनों में बहुत दिनों तक मैं ख़ुद को यह मानने के लिए तैयार नहीं कर पाया था कि गाँव में कुछ दिन रहा भी जा सकता है लेकिन बाद में यह समझने के बाद कि इस के अलावा कोई रास्ता नहीं, मैं ने अपने ही मन में यह चुन लिया था कि मजबूरी में एक लम्बे अरसे तक ऐसी जगहों पर भी खड़ा रहा जा सकता है। अब मैं सोचता हूँ कि ख़ुद को ऐसे मामलों में समझाना कितना मुश्किल होता है।
सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त मैं दूसरी ही तरह की मुश्किल महसूस कर रहा था। वह मुश्किल यह कि मैं माँ को क्या बताऊँगा।
‘‘पता है, आज ताया जी क्या कहते थे ?’’ छोटे भाई ने मेरे पीछे से धीमे स्वर में कहा।
मैं ठिठक कर खड़ा हो गया। ऐसा न हो, कहीं कोई और बात हो गयी हो। कोई और बात, जिसे कभी स्पष्ट नहीं किया जा सकता। ऐसी कोई भी बात हो सकती है। ‘‘क्या’’, मैं बोला।
‘‘जाते हुए कहने लगे, अरे उस की चिट्ठी आज भी नहीं आयेगी। माँ को यह बात बहुत बुरी लगी।

‘‘भला इसमें बुरा मानने वाली बात क्या है ?’’
बातें करते-करते हम ऊपर के कमरे में आ गये थे। ऊपर के कमरे में उस वक़्त बड़ी बहन, माँ और छोटी बहन आशी अपनी रोज की बातों में लगी होंगी, मैं ने अनुमान लगाया। लेकिन ये लोग चुप बैठे हुए थे। बड़ी दी का बच्चा भी उस समय सोया हुआ था। अकसर जब महिलाएँ अपनी बातों में, दूसरों की निंदा में निमग्न रहती हैं, वह सोया रहता है। अभी वह मुश्किल से दो महीने का हुआ होगा, लेकिन वह दो महीने से बड़ा लगता है।
माँ चुप थीं और वे खिड़की के पास बैठकर बाहर देख रही थीं।

‘‘मैं ने तुम्हें देख लिया था,’’ वे बोलीं, ‘‘मैं तुम्हारी चाल से पहचान गयी थी कि आज भी कोई चिट्ठी नहीं आयी होगी।’’ उन्होंने मुझे खिड़की से आता देख लिया होगा। उन्होंने मुझसे कुछ नहीं पूछा और खुद ही बात शुरू कर दी तो मुझे कुछ तसल्ली हुई।
‘‘नित्ती सोया हुआ है,’’ मेरा छोटा भाई बीच में बोल पड़ा। अकसर जब बातें गम्भीर हो जाती हैं, या उसे लगता है कि उन बातों का असर और ही ढंग का पड़ रहा है तो वह बीच में बोल पड़ता है।
‘‘अभी सोया है,’’ माँ ने ही जवाब दिया।
बड़ी दी और आशी चुपचाप बैठी माँ की तरफ़ देख रही थीं। छोटा भाई नित्ती की तरफ झुका तो माँ बोली, ‘‘बुलू तुम उसे जगाओ नहीं। आज बड़ी देर बाद सोया है।’’

माँ की बातों से मुझे लग रहा था जैसे वे सही बात से अलग हटने की कोशिश कर रही हों, जैसे वे सब लोगों के मन से चिट्ठी वाली बात हटा देना चाह रही हों।
‘‘ताया जी कुछ कहते थे,’’ मैं बोला।
‘’अच्छा हुआ, वे चले गये,’’ माँ ने कहा, ‘‘तुम्हारे आने पर तो वे फिर ग़ुस्सा करते। अच्छा ही हुआ।’’
मुझे ताया जी के ग़ुस्से की बातें याद आयीं। वे अकसर पापा को भला बुरा कहते रहते हैं। वे पापा के बड़े भाई हैं और अपने हक़ से सब कुछ कहते हैं। जब से हम गाँव आये हैं तब से लेकर अब तक हमारे ताया जी की बातों से मुझे कहीं नहीं लगा कि वे सचमुच पापा के भाई हैं।
‘‘वह तुम्हें गाँव में छोड़ ही क्यों गया ?’’ ताया जी का कहना था, ‘‘वह बेमतलब बच्चों को यहाँ छोड़ गया। अब तो सब के स्कूल खुल गये, अबतक भी चिट्ठी-पत्री नहीं।’’

अकसर वे कहते फिरते, ‘‘वह बड़ा नालायक है। बजाय शहर में बसने के गाँव आने की क्या ज़रूरत थी !’’
और ताया जी की अनुपस्थिति में बुलू कहता है, ‘‘हाँ क्या ज़रूरत थी। गाँव की अपनी ज़मीन का इस्तेमाल तब ताया जी जो नहीं कर पा रहे।’’
उसे ऐसी बातें पता नहीं कहाँ से मिल गयी थीं। माँ का कहना है कि गाँव वाले उसे इस तरह की बातें सिखाते हैं, लेकिन वह कहता है कि ये बातें वह ख़ुद जानता है।
वह ऐसी बहुत सारी बातें जानता है। उसके चेहरे का भोलापन और उसकी आँखों की शरारत यह साबित कर देती है कि वह बहुत सारी बातें जानता है।
‘‘पता है, वे और क्या कर रहे थे ?’’ बुलू बोला।

‘‘क्या,’’ माँ ने कहा।
‘‘मुझे घर के पिछवाड़े ले जाकर कह रहे थे कि अब तेरे बाप की कोई चिट्ठी नहीं आयेगी,’’ बुलू बोला।
‘‘ऐसा तो वे कहते ही हैं,’’ मैं ने बुलू की बात को मामूली सी बात रहने देने की वजह से कहा। हालाँकि मैं जानता हूँ कि माँ पर इस का क्या असर हुआ होगा। ‘‘वे इसलिए भी कहते हैं ताकि हम लोग इसे ज़्यादा महसूस न करें।’’
‘‘अब हम क्या करें ? बात ही कुछ ऐसी हो गयी है,’’ माँ ने कहा।

‘‘अभी थोड़ी ही देर पहले जब बातें हो रही थीं, मैं अपनी मजबूरियों के बारे में सोच रही थी।’’ माँ और बड़ी दी ऐसी ही बातें कर रही होंगी। वे लोग जब इकट्ठी होती थीं तो उन की बातों के छोर अतीत से लेकर नित्ती तक फैल जाते थे। और उनकी बातों के बीच अगर मैं कभी फँस जाता तो ख़ुद को अजीब-सी स्थिति में महसूस करता।
यह प्रसंग ही ऐसा था कि इस में हम सब चुप हो जाते थे। बोलती थीं तो केवल माँ। पाँच-छह महीनों के इस छोटे से अरसे का फैलाव इतना बड़ा लगता है कि माँ की बातें कभी खत्म नहीं होंगी क्योंकि जिस हलके-पन से वे बातें करती थीं, वे मामूली व गतिहीन थीं, उनमें हलकापन था जिसमें बीतने का भान बहुत कम होता था।
‘‘यह आजकल काफ़ी कमज़ोर हो गया है,’’ माँ ने कहा। मुझे देख-कर अकसर माँ ऐसा ही कहती हैं। इस वक़्त तो जैसे उन्होंने बात बदलने के लिए कहा हो।

अपनी पतले बाज़ुओं को दिखाकर बुलू बोला, ‘‘हम तो पूरे पहलवान हो गये हैं।’’
‘‘हट शैतान,’’ एक क्षण के लिए माँ के चेहरे पर हमेशा जैसी आधी मुसकराहट वाला भाव आया। केवल एक क्षण के लिए। ‘‘तुम में और बड़े में फ़र्क़ थोड़ा ही देखा जाता है।’’
बुलू खुश हो गया लगता था। थोड़ी ही देर पहले की गम्भीर स्थिति में हलकी सी हँसी का मौक़ा पैदा करके उसे ख़ुशी होती थी। ख़ासकर जब वह माँ को कृत्रिम गम्भीरता से मुक्त देखता था।

बड़ी दी ने प्यार से उसे अपनी ओर खींचा, ‘‘तू कहाँ से मोटा हो गया है ?’’ वे हमेशा उसी का पक्ष लेती थीं।
‘‘तेरे लाड़ से ही बिगड़ा है यह,’’ माँ ने कहा, ‘‘देखा, कितनी बातें जानता है। अब तो लगता है, यह जैसे हमारा दादा हो।’’
‘‘आज कोई आया तो नहीं था ?’’ मैं ने पूछा। पोस्ट ऑफ़िस जाने के बाद हो सकता है कि कोई आया हो, और पापा की चिट्ठी लाया हो।
मुझे हमेशा ऐसी प्रतीक्षा रहती है। जैसे किसी दूसरे ही रास्ते वह ‘प्रतीक्षा’ पूरी हो जायेगी।
‘‘कौन,’’ दीदी बोली।

‘‘कोई नहीं आया,’’ माँ जैसे मेरी बात समझ गयी हों, बोलीं, ‘‘अब कौन आयेगा ?’’
एक क्षण के लिए जिस गम्भीरता को बुलू ने तोड़ा था वह फिर एक घने कुहरे की तरह हमारे उस कमरे में छा गयी थी।
माँ का चेहरा था जो अपने ही रंग में सब चीजों को रंग देता था।
‘‘कौन आयेगा,’’ उन्होंने फिर दोहराया, ‘‘कौन भाग्यहीन है जो हम लोगों के बीच आयेगा।’’

माँ ऐसी बातें करती हैं लेकिन सच्चाई यह है कि जब भी कभी कोई हमारे घर आया है, वह उसका ऐसा स्वागत करती हैं जैसे वह अपना ही हो। लेकिन वक़्त ऐसा आ गया है कि अब कोई आने वाला भी बोझ लगता है। अब हमारी उदार माँ भी ऐसा सोचती हैं। जब कि पास-पड़ोस में माँ के बारे में यह प्रचलित है कि वे बहुत उदार हृदय वाली हैं और कुलीन परिवार की हैं लेकिन अब वह एकदम उन गाँव वालों के स्तर का ही सोचती हैं जिन्हें बहुत कम मिलती हैं।

वे लोगों से बहुत कम मिलती हैं। उनका शान्त और अकेले रहने का स्वभाव कभी-कभी उन्हें घमण्डी व्यक्ति के रूप में पेश कर देता है लेकिन मैं जानता हूँ वे घमण्डी नहीं हैं, एकान्तप्रिय जरूर हैं। उनके इस तरह से एकान्तप्रिय होने के पीछे के कारण है, और वह कारण है उन का संस्कार।
नित्ती कूँ-कूँ करने लगा था।
‘‘वह जाग रहा है,’’ बुलू बोला।

‘उसे जगाना नहीं,’’ बड़ी दी ने कहा, ‘‘बाद में खूब तंग करेगा, इसलिए अभी सोने ही दो।’’
बुलू को उस के साथ खेलना अच्छा लगता है, और वह भी बुलू के साथ ज़्यादा ख़ुश लगता है।
हम लोगों को बातें करते देख माँ चुप हो गयी थीं। उनकी वह चुप्पी भी अजीब क़िस्म की होती है। ऐसा लगता है जैसे कोई बड़ा भारी पत्थर उन के गले में अटका हो और न जाने वे कितनी दूर पहुँच गयी हों।
फिर हम लोगों की हिम्मत नहीं होती कि उन्हें उस स्थिति से अलग हटायें अचानक ही कभी ऐसा होता है कि वे गम्भीर रूप से चुप हों और कभी बीच में बोल पडें।

‘‘कल छुट्टी तो नहीं है,’’ बड़ी दी ने पूछा।
‘‘छुट्टी किस बात की’’ फिर मुझे खयाल आया कि दीदी का मतलब पोस्ट ऑफ़िस से है। ‘‘नहीं तो,’’ मैं ने कहा। पर हमारी बातचीत से भी माँ की चुप्पी, वह खतरनाक चुप्पी कभी नहीं टूटती थी वे न जाने किस अँधेरी गुफा में उतर जाती थीं, हमारी आँखों की रोशनी में। न जाने कहाँ ?

‘‘तुम्हें छुट्टी का खयाल कैसे आया ?’’ मैं ने पूछा। मैं कुछ देर बात करके ख़ुद को व्यस्त रखना चाहता था।
‘‘ऐसे ही। मुझे पता नहीं था, कल क्या दिन है। मैं आजकल दिन भी भूल गयी हूँ।’’
‘‘शुक्रवार,’’ बुलू ने कहा। वह बीच में बोल कर हर चीज़ को काफ़ी हलका कर देता था। पर इस वक़्त...
‘‘मैं कल पोस्ट ऑफ़िस नहीं जाऊँगा।’’
‘‘भला क्यों नहीं जाओगे !’’ दीदी ने चौंक कर पूछा।

मैं उन्हें चौंकाना ही चाहता था। मैं सोचता था अगर मैं ने कुछ ऐसी-वैसी बात कही तो माँ भी उस से चौंक जायेंगी। या दीदी के चौंकने पर वे ज़रूर कुछ पूछेंगी। लेकिन वे वैसे ही चुप बैठी रहीं, बावजूद दीदी के यह कहने पर कि मैं क्यों पोस्ट ऑफ़िस नहीं जाऊँगा।
दीदी ने मेरी तरफ़ देखा। मानो अपना सवाल दोहरा रही हों।

‘‘पोस्टमैन ने कहा है कि वह ख़ुद कल इस इलाक़े में आयेगा, इसलिए जाने की ज़रूरत ही नहीं।’’ पोस्टमैन हफ़्ते में दो बार हमारे गाँव की तरफ़ डाक बाँटने आता था, और सारे दिनों डाक इन्हीं दो दिनों में बाँट जाता था।
‘‘वह शाम की डाक देखकर आयेगा न ?’’ दीदी ने कहा।
मैं दीदी को कोई जवाब देने वाला था कि अचानक ही बड़ा भाई कमरे में आ पहुँचा। ‘‘क्यों कोई चिट्टी आई ?’’ उसने मुझसे पूछा।
‘‘कोई नहीं। मैं ने जवाब दिया।

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