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पिया पीर न जानी

मालती जोशी

प्रकाशक : परमेश्वरी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :130
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3536
आईएसबीएन :81-88121-15-0

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इक्कीसवीं सदी में नारी...

Piya peer na jaani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर खड़े होकर स्वाधीनता की पचासवीं वर्षगाँठ मनाते हुए भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि भारतीय नारी पूर्णरूपेण स्वतंत्र है। परम्परा की रूढ़ियों की, सनातन संस्कारों की अर्गलाएँ आज भी उसके पाँवों को घेरे हुए हैं। आर्थिक स्वातंत्र्य का झाँसा देकर उसे अर्थार्जन में भी झोंक दिया गया है। अब वह घर और बाहर दोनों तरफ पिसती है-दो-दो हुक्मरानों के आदेशों पर नाचती है। इस मायने में वह सोलहवीं सदी की नारी से भी ज्यादा शोषित और असहाय हो गई है।
पर हाँ इधर कुछ वर्षो में छटपटाने लायक ऊर्जा उसने अपने में भर ली है। इसीलिए कभी-कभी इन बंधनों को तोड़ने में भी वह सफल हो जाती है।

मालती जोशी

गतांक से आगे


सुबह उठी तो लगा, सर थोड़ा भारी है। शायद हरारत थी। वैसे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। महीने-भर से मैं अपने शरीर पर मनमाना अत्याचार कर रही थी। उसे घड़ी-भर भी चैन नहीं लेने दिया था। पहले रिश्तेदारों को ढ़ेर-सी चिट्ठियाँ लिखीं, फिर खरीददारी, निमंत्रण-पत्रों का वितरण, मेहमानों की आवभगत, फिर शादी की हड़बोंग, रिसेप्शन का सरंजाम। इसके बाद मेहनानों की विदाई का सिलसिला शुरू हुआ। सबके बाद बेटियों की रवानगी। कल सुबह पाँच बजे की जी०टी० से नूपुर नागपुर  गई है। रात साढ़े दस बजे झेलम से पायल पुणे के लिए रवाना हुई।
और आज सौम्या और कुणाल गोआ जा रहे हैं। मैंने अपने कुनमुनाते शरीर से कहा- ‘‘भैया तीन-चार घंटे और सब्र कर ले। बच्चों को खुशी-खुशी हनीमून पर निकल जाने दे। वैसे भी बेचारे लेट हो गये हैं।’’ कुणाल के पिताश्री का सख्त आदेश था कि ‘घर में जब तक मेहमान हैं, ये लोग कहीं नहीं जाएँगे। इन लोगों को तो जिंदगी भर साथ रहना है, पर मेहमान रोज-रोज थोड़े आएँगे।’

उठने लगी तो अनजाने ही मुँह से एक कराह निकल गई।
‘‘क्यों, क्या हुआ ? तबीयत तो ठीक है ?’’ इन्होंने सिर से रजाई हटाकर औपचारिकता निभा दी।
‘‘तबीयत को क्या हुआ है !’’ मैंने चिढ़कर कहा- ‘‘सर्दी में बिस्तर छोड़ने का दिल नहीं कर रहा है, बस।’’
फिर मैं कमरे में रुकी ही नहीं। जरा भी अलसाती तो इन्हें संदेह हो जाता। किचन में आकर मैंने झटपट चाय बनाई। पंडित ईमानदारी से सुबह आ गया था। उसके हाथ कमरे में चाय भिजवाई, उसे मीनू समझाया और फिर नहाने चली गई।
पहला लोटा उँडेलते ही मेरी घिग्घी बँध गई। हे भगवान, कही सचमुच बुखार तो नहीं चढ़ रहा ! इससे तो अच्छा था कि नहाने की छुट्टी कर देती या फिर देर से नहा लेती। पर वह एक वहम-सा मन में बैठ गया है न कि कोई बाहर गाँव जा रहा हो तो नहाना-धोना पहले निपटा लेना चाहिए। मेरी सास तो बाद में कपड़े भी नहीं धोने देती थीं।

किसी तरह कपड़े पहने और बाहर आई। बिंदी लगाते हुए सोचा-बच्चों को अब जगा देना चाहिए। आवाज देते संकोच तो होता है, लेकिन नहीं दूँगी तो फिर लेट हो जाएँगी। पर बाहर आकर देखा, सौम्या उठ आई थी। गुलाबी साड़ी में वह ताजे खिले गुलाब की तरह लग रही थी। हैदराबाद मोतियों के इकहरे सेट को छोड़कर शरीर पर एक भी गहना नहीं था। कल रात ही वह सारे जेवर मुझे दे गयी थी। कुणाल कह रहा था-

‘‘ममा ! ये तुम्हारी बहू है या ज्वैलरी बॉक्स ? इसे लेकर तो मैं सिनेमा भी नहीं जा सकता, गोवा क्या जाउँगा।’’
इतने दिनों तक उसका गहनों से लदा-फँदा रूप देखने के बाद यह निराधार सौंदर्य बड़ा मोहक लग रहा था। मैं ठगी-सी उसे देखती ही रह गई। मेज पर नाश्ता लगाते हुए उसने पता नहीं कैसे मेरी अपलक दृष्टि को अनुभव किया। पलटकर उसने मेरी ओर देखा और झुककर मेरे पैर छू लिए। मैंने दोनों हाथों से उसका चेहरा थामकर माथे को हल्के से चूम लिया।
‘‘हाय मम्मी जी, आपको तो बुखार है !’’ उसने मेरे दोनों हाथ हाथों में लेते हुए कहा। मैंने जल्दी से हाथ छुड़ा लिए और कहा-‘‘डॉक्टरों को तो बस हर जगह पेंशेट ही नजर आते हैं। अब जिंदगी भर तुम्हें यही कहना है, लेकि�

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