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कैदी

शान्ता कुमार

प्रकाशक : भारतीय प्रकाशन संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3539
आईएसबीएन :81-88122-09-2

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इसमें मनुष्य के जीवन के सम्बन्ध के विषय में कहा गया है कि आज के समय में प्रत्येक व्यक्ति कैदी के रूप में जी रहा है...

Kaidi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राजीव इस देश में हर आदमी के माथे पर उसकी कीमत लिखी रहती है। वह कीमत कीमत चुकाओ और उसे खरीद लो। यहाँ बाजार में सरेआम इंसान नीलामी पर चढ़ते हैं और मंदिर में भगवान् भी बेचे जाते हैं। बड़ा अनुभव हैं मुझे जिन्दगी का। जेल में वार्डर पैसे लेकर क्या नहीं ले आते बस इतनी बात है कि दुगुना-तिगुना मूल्य चुकाना पड़ता है। जब उन्हें पता चल गया कि मेरे पास धन है तब मेरी इज्जत होने लगी। मैने कैद पूरी की। छूटकर बाहर आया, पर जाता कहाँ फिर से वही धंधा पुलिस और जेल। इसी प्रकार अब सातवीं बार यहाँ आया हूँ। अब यह कैद समाप्त हो रही है तो फिर मेरे सामने सवाल खडा हो गया है कि बाहर जाकर कहाँ जाऊँगा व क्या करूँगा। जानता हूँ कि कुछ भी और नहीं कर सकता। यह जिन्दगी अब जेल की ही हो गई है।
‘‘मैंने कैद पूरी की। छूटकर बाहर आया, पर जाता कहाँ फिर से वही धंधा पुलिस और जेल। इसी प्रकार अब सातवीं बार यहाँ आया हूँ। अब यह कैद समाप्त हो रही है तो फिर मेरे सामने सवाल खड़ा हो गया है कि बाहर जाकर कहाँ जाऊँगा व क्या करूँगा। जानता हूँ कि कुछ भी और नहीं कर सकता। यह ज़िन्दगी अब जेल की ही हो गई है।’’

दो शब्द


नाहन जेल में हमारी पहली दीवाली थी। प्रातः से ही सब गुमसुम-से थे। एक सप्ताह से कुछ बंदियों में यह आशा झलकती रही थी कि शायद दीवाली पर सबको रिहा कर दिया जाए। प्रतिदिन रेडियो ध्यान से सुना जाता था। दीवाली आ गई पर जेल के दरवाज़े न खुले।
हममें से कुछ खूब मस्ती में रहते थे। सामान मँगवाया। नाहन जेल की उस सूनी कोठरी को दीपों से जगमगा दिया। सब कैदी बड़े प्रसन्न हुए। एक आजीवन कैदी ने कहा कि उसने आठ साल के बाद दीवाली का दीप देखा है। बढ़िया भोजन बनाया। खाया। पूजा भी की।
बाहर से सब मस्ती का लबादा ओढ़े थे, पर मन ही मन घर की याद सबके दिल में लीक डाल रही थी। जेल में पटाखे चलाने की आज्ञा नहीं दी गई। नाहन नगर से पटाखों की आवाज़ बराबर आ रही थी। उस आवाज़ की आकाश में गूँजती गूँज हमारे दिलों की धड़कनों को तेज़ कर देती और हमारी आँखों के सामने अपना घर व परिवार घूम जाता।
सब सो गए। कुछ करवटें बदलते रहे। मुझे नींद नहीं आ रही थी। करवटें बदल-बदलकर भी थक गया। आँखों के पानी ने सिरहाने को गीला कर दिया।

कमरे के एक कोने में परदा लगाकर एक मेज़ कुर्सी रखे थे। जो रात को पढ़ना चाहे, वह वहीं चला जाता था। परदा इसलिए था कि बाकियों की नींद में खलल न पड़े। पढ़ने के बहाने से कई वहाँ काफ़ी रात तक बैठते थे। बहाना पढ़ने का होता था, पर अधिकार घर की याद में आँसू बहाते थे।
रात के बारह भी बज गए, पर नींद न आई। उठा और उसी परदे के पीछे बिजली जलाकर बैठ गया। नगर से पटाखों की आवाज़ अभी भी कमरे को गुंजा रही थी।
तभी बिजली की तरह एक विचार मनस्पटल पर घूम गया-‘मुझे कुछ लिखना चाहिए, तभी दिल हलका हो सकेगा।’
मैं उछल-सा पड़ा। धीरे से अपने बिस्तर के पास आया, कॉपी-पैन लिया और परदे के पीछे की कुर्सी पर बैठ गया। पैन की नोक कॉपी के काग़ज पर पड़ी और यह उपन्यास यों शुरू हो गया, जैसे परीक्षा में छात्र रटे-रटाए उत्तर लिख रहा हो। उसी रात कई पृष्ठ लिख गया। उपन्यास वहीं से शुरू हुआ, जहाँ मैं था, अर्थात् दीवाली की रात को एक कैदी जेल में बंद है...
‘कैदी’ नाहन जेल में लिखी मेरी प्रथम रचना है। यह मेरा प्रथम उपन्यास है।
पता नहीं, पाठकों को ‘कैदी’ कैसा लगेगा...कुछ भी हो, यह एक कैदी द्वारा लिखी एक कैदी की कहानी है। जेल अधिकारियों की नज़रों से बचाने के लिए इसे भी कैद रहना पड़ा...किसी प्रकार पांडुलिपि बाहर भेज दी गई थी।
‘कैदी’ पर मेरे पाठक मुझे कुछ लिख भेंजें, तो स्वागत करूँगा।
-शान्ता कुमार



कैदी


आज दीवाली की रात थी। चारों ओर से दीपों, मोमबत्तियों व बिजली के बल्बों का प्रकाश दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ राजीव की इस बैरक तक भी अपनी धीमी किरणें बिखेर जाता था। पटाखों की गूँजती आवाज़ कानों को दहला रही थी। इस सुनसान कोने की नीरवता भी आज जगमगाहट में प्रकाशित होने व पटाखों की आवाज़ में मुखरित होने का प्रयत्न करती-सी लग रही थी। राजीव जब दूर शून्य के घने अंधकार में दृष्टि घुमाता, तो देखता कि आतिशबाज़ियाँ धरती से आकाश छूने निकल पड़तीं, दूर आसमान में जाकर प्रकाश का एक पुंज बिखेरतीं और फिर ज़ोर के पटाखे की आवाज़ आती। रात्रि का प्रथम पहर दिन की तरह जगमगा रहा था।
जेल की अपनी बैरक के दरवाज़े की लोहे की सलाखों पर सिर टिकाए राजीव कब से यह सारा दृश्य देख रहा था। आज प्रातः से ही वह उदास था। वह प्रतीक्षा करता रहा था, पर वह नहीं आई थी। अब रात का दूसरा पहर भी दस्तक दे रहा था, पर राजीव दरवाज़े पर सिर टिकाए मानो पत्थर हुआ जा रहा था। उसे न सर्दी लग रही थी, न आँखों में नींद थी।
‘‘राजीव ! उठो, यहाँ बैठे क्या सोच रहे हो ? एक क्या, अभी तो कितनी ही दीवालियाँ इन्हीं सीखचों के अंदर घुट-घुटकर हमें बितानी हैं। इस तरह घंटों सोचते रहने से पागल हो जाओगे। उठो, सो जाओ।’’ साथी कैदी मोहन ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा। राजीव का मानो सपना टूट गया। उसे कल्पना के पंखों पर उड़ते हुए मानो किसी ने धरती पर पटक दिया। तभी एक तरफ से ज़ोर से ‘सब ठीक है’ की कर्ण-कटु आवाज़ गूँजी।
‘‘मोहन, मुझे यहीं रहने दो।’’ सिर घुमाकर राजीव बोला।
‘‘नहीं, यों सोचते रहने से न कभी कुछ हुआ है और न ही कुछ होगा राजीव !  तुम तो बहुत समझदार हो।’’

‘‘तभी तो यहाँ खड़ा हूँ।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘दिल में घुट रहा गुबार कुछ निकल जाए, इसीलिए तो यहाँ खड़ा था।’’
‘‘पर इस तरह गुबार निकलता नहीं। अकेले सोचते रहने से तो चिंता का धुआँ घुटता है और अंतर को जला देता है। उठो ! चलो, सो जाओ।’’
‘टक..टक...’ बूटों की एक कर्कश आवाज़ ने दोनों का ध्यान खींच लिया।
‘‘अरे ! रात के दस बज गए। तुम दरवाज़े पर क्या कर रहे हो ? पाजी कहीं के ! औरों को भी सोने नहीं दोगे ? जाओ, सो जाओ। वरना...।’’ पहरे पर तैनात वार्डर की क्रोध-भरी आवाज़ गूँजी।
‘‘वरना...वरना क्या ?’’ मोहन बोल उठा।
‘‘अबे पाजी...उल्लू...ज़बान खोलता है ?’’
‘‘कैद मुझे हुई है, मेरी ज़बान को नहीं। मैं कैदी हूँ, मीसा का नज़रबंद नहीं।’’ मोहन तुनककर बोला।
‘‘वार्डर साहब ! ज़रा दीवाली की जगमगाहट में घर की याद सता रही थी। यहाँ बैठ गया। हम कुछ भी तो नहीं कर रहे। आप व्यर्थ में गाली देकर हमारा दिल भी दुखा रहे हैं और अपनी ज़बान भी गंदी कर रहे हैं।’’ राजीव की गंभीरता से कही यह बात सुन वार्डर दूसरी तरफ चला गया।

मोहन राजीव को उठाकर अपने बिस्तर पर ले आया। फिर उसी के पास बैठकर बोला, ‘‘राजीव ! आखिर बात क्या है ? तुम आज प्रातः से ही इतने अधिक उदास क्यों हो ? तुम्हारे चेहेरे पर इतनी अधिक उदासी पहले कभी नहीं देखी। याद रखो, तुम्हें पूरे सात साल यहीं, इसी कोठरी में बिताने हैं। एक नहीं, पूरी सात दीवालियाँ।’’
‘‘मोहन ! जब से मैं जेल आया हूँ, आज पहली बार मेरी पत्नी रेखा अपने वायदे के अनुसार मुझे मिलने नहीं आई। उसने पत्र में लिखा था कि वह दीवाली के एक दिन पहले या दीवाली के दिन मुझे मिलने आएगी। पर वह कल भी नहीं आई और आज भी नहीं।’’ राजीव ने ठंडी साँस छोड़ी। मोहन ने उसे समझाया, ढाढ़स दिया। उसे कहा कि परिवार में कोई कारण हो गया होगा। अब तक बैरक के कुछ और कैदी भी जाग गए थे। सबने राजीव को धैर्य रखने का उपदेश दिया। सबकी आँखों में दीवाली के प्रकाश के बदले किसी अंधकार की कालिमा थी। राजीव को समझाने के बहाने वे मानो अपने-अपने मन को ही समझा रहे थे। सहानुभूति का आदान-प्रदान कर वे सो गए।
बिजली के प्रकाश में देखा, जो कैदी राजीव को बड़े साहस से समझा रहे थे, उन्हीं के सिरहाने उन्हीं की आँखों के पानी से भीग रहे थे।
 नाहन को इस जेल के पास के शहर से अब पटाखों व आतिशबाज़ियों की आवाज़ भी बंद हो गई थी। दीपों का तेल चुक चुका था। मोमबत्तियाँ अपना आखिरी मोम तक जला चुकी थीं। पटाखों से हवा में फैली बारूदी गंध भी अब समाप्त हो गई थी। दीवाली का मदमाता उल्लास रात की काली चादर में दबकर सिसकियाँ ले रहा था।

राजीव ने सपने में देखा, वह अपने घर के बरामदे में खड़ा है। उसकी पत्नी रेखा व नन्ही बेटी सन्नो बड़े आनंद से पटाखे चला रहे हैं। राजीव ने एक बड़ी फुलझड़ी जलाई, उसे घुमाता-घुमाता रेखा के पास ले गया। रेखा डरी, भागी और दूर जाकर खड़ी हो गई। फिर उसने भी एक फुलझड़ी जलाई और उसे घुमाती हुई राजीव के मुकाबले पर आ गई। थोड़ी देर बाद जब रेखा एक बुझी मोमबत्ती को जलाने लगी तो पीछे से राजीव ने चुपके से एक छोटा पटाखा उसके पैरों के पास छोड़ दिया। रेखा चौंकी, मोमबत्ती गिर गई। वह भाग खड़ी हुई। राजीव व सुन्नो हँसी से लोटपोट हो गए।
नन्ही सुन्नो एक फुलझड़ी हाथ में घुमाती इधर-उधर घूम रही थी। फुलझड़ी पूरी जल गई और उसकी सलाख गर्म हो गई। छोटी बच्ची उस गर्मी से सहमी, हड़बड़ाई और दूसरे हाथ से उसे पकड़ने लगी, परंतु देखते-देखते उसका हाथ जल गया।
‘‘रेखा...दौड़ो...बरनौल...सुन्नो...’’ राजीव नींद में ज़ोर से चिल्ला पड़ा। बैरक के कुछ कैदी उठ गए। मोहन फिर उसके पास आ गया। राजीव छत की ओर एकटक लगाए पागल की तरह देख रहा था। उसकी नज़रें छत से हटकर साथी कैदियों के चेहरों पर तैरने लगीं।
‘‘बाबूजी ! क्या बात है ? यदि आपको कोई रोग या तकलीफ है, तो बताएँ। हम आपकी कोई सेवा करें।’’ सूरत ने उसके पास आकर अपनी भोली आँखें मलते हुए कहा।

‘‘रोग-तकलीफ कुछ भी नहीं। मैं सपना देख रहा था। अभी-अभी अपने घर में अपनी पत्नी व बच्ची के साथ मैं दीवाली मना रहा था। एक फुलझड़ी से मेरी सुन्नो का हाथ जल गया। वह पीड़ा से तड़प उठी। मैं उसकी तड़प देख छटपटा उठा।’’ कहते-कहते राजीव का गला आँसुओं से जकड़-सा गया। उसने साथी कैदियों से इस असुविधा के लिए क्षमा माँगी। सबने उसे फिर सांत्वना व सहानुभूति के शब्द कहे और सो गए।
दीवाली की खुशियाँ समेट रात घोर अंधकार में समा गई थी। वातावरण शांत था। लगता था, सारा व्यक्त ब्रह्म इसी प्रकार अव्यक्त ब्रह्म में लीन होता होगा। अगले दिन का दूसरा पहर शुरू होने को था। जेल का बड़ा दरवाज़ा हिला। उस बड़े दरवाज़े के दाईं ओर का एक छोटा-सा दरवाज़ा कुछ खुला। जेल का यह बड़ा गेट तभी खुलता है, जब जेल अधीक्षक या कोई बड़ा अधिकारी भीतर आ रहा हो। बाकी सबके लिए तो बड़े दरवाज़े के एक ओर बना छोटा-सा खिड़की की तरह का दरवाज़ा ही खुलता है।
प्रातः के तीन बज रहे थे। वार्डरों की ड्यूटी बदल रही थी। अंदर के वार्डर बाहर गए व बाहर से अंदर आए। वे अपने-अपने स्थान पर तैनात हो गए।

बड़े गेट से सीटी की आवाज़ गूँजी और उसी के साथ ‘ठीक है’, ‘ठीक है’ की तीखी आवाजें उभरीं। राजीव फिर चौंक पड़ा।
‘ठीक है ! क्या ठीक है ? कुछ भी तो नहीं। दीवाली बीत गई, रेखा नहीं आई। उसके हाथ की मिठाई तक भी न मिली। सपना आया पर उसमें भी सन्नो का हाथ जल गया। इधर यह मेरी लुटी-पिटी दुनिया और उधर ‘ठीक है’ का यह उद्घोष ! क्या विडंबना है !’ राजीव मन ही मन बड़बड़ाया। उसने करवट बदली और सो गया। फिर से स्वप्न-लोक में जा पहुँचा।
राजीव चुपचाप दबे पाँव एक कमरे से दूसरे कमरे की ओर गया। सुन्नो को उसने कुछ मिठाई दे दी। वह उसे खाने में लग गई। दूसरे कमरे में टँगी लक्ष्मी की तसवीर के पास खड़ी होकर रेखा आँखें बंद किए धूप जलाए वंदना में मग्न थी। दबे पाँव राजीव उसके ठीक पीछे खड़ा हो गया। पीछे से अपनी भुजाएँ आगे बढ़ा उसने रेखा को समेट लिया।
‘‘रेखा ! क्या माँग रही हो लक्ष्मी देवी से ? पहले इस धरती के अपने देवता को तो संतुष्ट कर लो। देखो, यह आज का दिन और ये प्यारे-से होंठ।’’ रेखा का मुँह अपनी ओर घुमाकर वह उसकी आँखों की गहराइयों में डूब गया। रेखा के हाथ में सुलग रही धूप का उठता, लहराता वह बलखाता धुआँ दोनों के बीच धुएँ की एक बारीक जाली बुन रहा था। धुएँ की उस बारीक, धुँधली बदली में दोनों एक-दूसरे में खोए एक गहरी सोच में डूब रहे थे।

‘‘रेखा ! मैं जानता हूँ, तुम लक्ष्मी से क्या माँग रही हो ! यही न कि खूब धन-धान्य, कोठी, कार, साड़ियाँ, ऐश्वर्य की सब सुविधाएँ तुम्हारे पास हों !’’ राजीव ने मौन तोड़ते हुए कहा। पर तभी रेखा ने उसके मुँह के शब्दों पर अपनी कोमल हथेली रख पूर्ण विराम लगा दिया। राजीव के पास रखे मिठाई के डिब्बे से एक गुलाब जामुन निकाला और उसे रेखा के मुँह में डालने का यत्न करते हुए बोला, ‘‘रेखा, मैंने हार मान ली है। अब जीवन दाँव पर लगाकर भी तुम्हारे लिए एक विशाल ऐश्वर्य का साम्राज्य खड़ा करूँगा, पर मेरे दिल की रानी, मेरी रेखा, अभी तो यह गुलाब जामुन ही लो।’’
ज्यों ही गुलाब जामुन पकड़े राजीव की अंगुलियाएँ आगे बढ़ी, रेखा के होंठ गुलाब जामुन के लिए नहीं, अपितु एक तेज़ चीख मारते हुए खुल गए। एक ज़ोर की चीख मारती हुई रेखा राजीव के हाथों से निकल भागी।
‘‘रेखा...रेखा...!’’ चिल्लाता हुआ राजीव रेखा के पीछे भागने लगा। रेखा ओझल होती गई।
‘‘बाबूजी ! बाबूजी ! क्या देखा ? आप देखा-देखा क्या कह रहे हैं ?’’ पास के बिस्तर से जागकर सूरत बोला।
राजीव आँखें मलता हुआ उठ बैठा। उसकी आँखों में रेखा की मूर्ति झलक रही थी। जेल की बैरक व बिस्तर देखकर एक बार तो वह चौंक ही पड़ा।

‘‘क्या सपने में आपने कुछ देखा ? आप तो आज बस सपने ही लेते रहे। सोएँगे नहीं क्या ?’’ सूरत ने अपना कंबल नीचे से खींचते हुए कहा। राजीव ने इधर-उधर देखा। वह कुछ शरमा गया। अबकी बार केवल सूरत की आँख ही खुली थी। बाकी कैदी सोए रहे।
‘‘सूरत ! किसी से कुछ मत कहना। मुझे सपना आ रहा था। मेरी पत्नी रेखा...!’’ धीरे से राजीव ने कहा। फिर वह कंबल सिर पर लेकर लेट गया। तभी बाहर घंटे की चार बार बजने की आवाज़ आई। फिर सीटी की बारीक आवाज़ ने अंधकार के सीने को चीर डाला और उसके बाद ‘ठीक- है’ की कर्णभेदी गूँज से जेल का नीरव वातावरण भी काँप-सा गया।
नींद नहीं आ रही थी। कंबल मुँह तक लेकर राजीव ने अपने अतीत की ओर झाँकना शुरू किया। सिनेमा रील की तरह एक-एक परत उधड़ने लगी। इस सारे नाटक का आदि व अंत उसके कंबल के ताने-बाने पर पड़ रहे झीने प्रकाश की किरणों में चित्रित हो उठा।

दो


पाँच वर्ष पूर्व राजीव का रेखा से विवाह हुआ था। राजीव एक साधारण गरीब परिवार में एक छोटे-से गाँव में पैदा हुआ था। बडी कठिनाई से मैट्रिक किया। पिता लोगों की ज़मीन काश्त करके अपना गुज़र चलाते थे। माँ भी खेतों में काम करती। पर सनातनी विचारों की थी। व्रत-पूजा का क्रम भी सदा चलता रहता था। खेत में हल चलाते बैलों को घास डालते व भूमि के रोड़े तोड़ते-तोड़ते राजीव ने जब अच्छी श्रेणी से मैट्रिक पास कर लिया तो आगे पढ़ने की उसकी इच्छा हुई। पर पिता न आगे पढ़ने की बात सोच सकते थे, न ही निभा सकते थे। कभी ट्यूशन, कभी किसी दुकान की छोटी-सी नौकरी करके राजीव ने जैसे-तैसे प्राइवेट बी.ए. पास कर लिया। उसके इस परिश्रम को गाँव व परिवार में खूब सराहा गया था। फिर दिल्ली के एक बड़े सरकारी कार्यालय में एकाउंट विभाग में उसकी नियुक्ति हो गई। अपनी योग्यता व परिश्रम के कारण वह शीघ्र ही एक मुख्य पद पर पहुँच गया था।

विवाह हुआ तो राजीव व रेखा ने प्यार के नशे में प्यार की दुनिया में पैर रखा। सुहागरात का अधिक समय एक-दूसरे के प्यार की कसमें खाने में बीता था। जीवन की ऊषा लहलहाते प्यार की उल्लासमयी लाली से रक्ताभ हो उठी थी। छोटा-सा घर प्यार से लबालब हो गया था। जो कुछ मिल गया था, वह राजीव के लिए बहुत कुछ ही नहीं, बल्कि सब कुछ था। पास-पड़ोस के लोग उनके एक-दूसरे के प्रति प्यार की चर्चा करते व सराहते।
प्रातः कार्यालय जाते समय राजीव कितनी ही देर दरवाज़े पर खड़ा रहता। रेखा उसे विदा देने के लिए दरवाज़े के अंदर सामने खड़ी रहती। शाम को जल्दी आने का वायदा लेती। राजीव चलने लगता तो रेखा फिर आवाज़ दे देती। पास बुला लेती और कोई चीज़ लाने की याद दिला देती। ज्यों ही राजीव के पैर आगे बढ़ते, रेखा फिर किसी बहाने उसे आवाज़ देती। उसे अंदर बुला लेती, रुआँसी हो जाती, उसके कंधे पर अपना सिर रखकर बोलती, ‘‘अब इस मकान में मैं अकेली कैसे रहूँगी ?’’ तब उसे अपनी बाँहों में समेटकर राजीव कहता, ‘‘बस, शाम को ही तो मैं आ जाऊँगा।’’ इस पर रेखा मुँह ऊपर उठा उसकी आँखों में आँखें डाल बोलती, ‘‘जानते हो, शाम कब होगी ? अभी पूरे सात से भी कुछ अधिक घंटे हैं। एक घंटे में साठ मिनट, एक मिनट में साठ सैकिंड और एक सैकिंड में कितनी ही धड़कनें-मुझसे इतना समय नहीं काटा जाता।’’
तब राजीव उसे अपनी बाँहों में और कस लेता और उसके श्वासों की गर्मी को अनुभव करते हुए कहता, ‘‘रेखा ! मैं तुम्हारे पास लौट आने के लिए ऑफिस जा रहा हूँ। फिर मैं तो जा नहीं रहा, बस, मेरा यह शरीर ही जा रहा है। मैं, मेरा मन, मेरा दिल सब तुम्हारे पास है। गीता पढ़ी है तुमने ! मैं कोई मांस-हड्डी का शरीर ही तो नहीं हूँ। मैं तुम्हारे पास तुम्हारे दिल में, तुम्हारे दिल का कैदी। और यह तुच्छ शरीर आजीविका कमाने ऑफिस जाएगा। ठीक है न, मेरी अच्छी रेखा ?’’ यह कहते हुए वह रेखा के गाल पर हलकी चपत लगाकर बाहर निकल पड़ता।

‘‘ज़रा सुनो तो !’’ रेखा फिर आवाज़ लगा देती, ‘कुछ पढ़ने के लिए लेते आना। अकेली सारा दिन बोर होती रहती हूँ।’’ रेखा बात पूरी करती।
‘‘तो तुम्हें दिल लगाने के लिए खिलौना चाहिए। ठीक है, आज शाम बिरला मंदिर चलेंगे। वहाँ भगवान् से एक सुंदर-सा तुम्हारी तरह का एक गोल-कोमल नन्हा मुन्ना...’’ राजीव चुटकी लेकर बाहर चला जाता। लगभग हर रोज़ इसी प्रकार विदाई के ये क्षण रंगीन हो झूम उठते।
ऑफिस में राजीव को दिल लगाना मुश्किल हो जाता। पाँच बजते और उसके कदम घर की ओर भागते। रेखा तो चार बजे ही दरवाज़े पर आना-जाना शुरू कर देती। वह प्रति सायं उसका उसी प्रकार स्वागत करती, जैसे वर्षों के बाद कोई सैनिक युद्ध जीतकर घर लौट रहा हो।

दोनों के प्यार का बीज स्नेहशील धरती पर बड़े दुलार से अंकुरित हो रहा था। परस्पर समर्पित जीवन की गाड़ी ठीक पटरी पर स्वाभाविक गति से चल रही थी। उन्हें लगता था, अब इस प्यार के आगे दुनिया में और कुछ भी नहीं है, जिसे उन्हें पाना है। सब मिल गया उन्हें, सर्वस्व पा लिया उन्होंने। रेखा की घुँघराली अलकों में अपनी अंगुलियाँ नचाते कभी-कभी राजीव कहता, ‘‘रेखा ! संसार का सारा ऐश्वर्य वैभव व सौंदर्य मुझे तुम में मिल गया है। यदि तुम्हारे लिए मुझे सर्वस्व भी देना पड़े, तो मैं परम संतोष का अनुभव करूँगा। इस दुनिया में मेरी तरह शायद ही कोई सुखी हो।’’
और रेखा उसके होंठों पर अपनी अंगुली रखकर बोलती, ‘‘तुम्हें पाने से बढ़कर भी इस दुनिया में और कुछ हो सकता है, मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती। पता नहीं कितने जन्मों की प्यास बुझी है इस मिलन से।’’
दोनों प्यार के आदर्शों के आकाश पर ऊँची उड़ाने भर रहे थे। उन्हें यह जानने का समय ही न था कि आदर्श के आकाश से यथार्थ की धरती बहुत नीचे होती है।
उधर विवाह के दो वर्ष पूरे हुए और इधर रेखा की गोद एक नन्ही बेटी से लहलहा उठी। यद्यपि मनौतियाँ लड़के के लिए मनाई गई थीं, तो भी लड़की का भरपूर स्वागत हुआ। अपने प्यार का साकार रूप पाकर दोनों की प्रसन्नता का पारावार न रहा। इसके साथ ही परिवार की आवश्यकताएँ भी बढ़ने लगीं। राजीव ने अपने साधनों के अनुसार उन सब आवश्यकताओं को पूरा किया।
पड़ोस में एक पुरी दंपती रहता था। उनके घर भी कुछ दिन पूर्व एक लड़का पैदा हुआ था। उनकी अपनी कोठी व कार तो थी ही, नवागत बच्चे की देखभाल करने के लिए एक आया भी थी व घर का बाकी काम करने के लिए एक अलग नौकर था। बाहर का काम करने के लिए पुरी के ऑफिस से मिला हुआ अरदली था।



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