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ओशो साहित्य >> साधना पथ

साधना पथ

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3547
आईएसबीएन :81-7182-607-5

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पंद्रह प्रवचनों प्रश्नोत्तरी एवं ध्यान सूत्रों का संकलन....

Sadhana Path

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘उनके शब्द निपट जादू हैं।’’

अमृता प्रीतम

‘‘भारत ने अब तक जितने भी विचारक पैदा किये हैं, वे उनमें सबसे मौलिक, सबसे उर्वर, सबसे स्पष्ट और सर्वाधिक सृजनशील विचारक थे। उनके जैसा कोई व्यक्ति हम सदियों तक न देख पाएँगे। ओशो के जाने से भारत ने अपने महानतम सपूतों में से एक खो दिया है। विश्वभर में जो भी खुले दिमाग वाले लोग हैं, वे भारत की इस हानि के भागीदार होंगे।’’

खुशवंत सिंह

आलोक-आमंत्रण


मैं मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूं। जैसी अंधेरी रात में किसी घर का दीया बुझ जाये, ऐसा ही आज मनुष्य हो गया है। उसके भीतर कुछ बुझ गया है।
पर—जो बुझ गया है, उसे प्रज्वलित किया जा सकता है।
और, मैं मनुष्य को दिशाहीन हुआ देख रहा हूं। जैसे कोई नाव अनंत सागर में राह भूल जाती है, ऐसा ही आज मनुष्य हो गया है। वह भूल गया है कि उसे कहां जाना है और क्या होना है ?
पर, जो विस्मृत हो गया है, उसका स्मृति को उसमें पुनः जगाया जा सकता है।

इसलिए, अंधकार है, पर आलोक के प्रति निराश होने का कोई कारण नहीं है। वस्तुतः अंधकार जितना घना होता है, प्रभात उतनी ही निकट आ जाता है।
मैं देख रहा हूं कि सारे जगत में एक आध्यात्मिक पुनरुत्थान निकट है और एक नये मनुष्य का जन्म होने के करीब है। हम उसकी प्रसव-पीड़ा से गुजर रहे हैं।
पर, यह पुनरुत्थान हम सबके सहयोग की अपेक्षा में है। वह हम सब में आने को है, और इसलिए हम केवल दर्शक ही नहीं हो सकते है। उसके लिये हम सब को अपने में राह देनी है।
हम सब अपने आपको आलोक से भरें तो ही वह प्रभात निकट आ सकता है। उसकी संभावना को वास्तविकता में परिणत कर पाना हमारे हाथों में है। हम सब भविष्य के उस भवन की ईंटें हैं। और, हम ही वे किरणें जिनसे भविष्य के सूरज का जन्म होगा। हम दर्शक नहीं स्रष्टा हैं।

और, इसलिए वह भविष्य का ही निर्माण नहीं, वर्तमान का भी निर्माण है। वह हमारा ही निर्माण है। मनुष्य स्वयं का ही सृजन करके मनुष्यता का सृजन करता है। व्यक्ति की समष्टि इकाई है। उसके द्वारा ही विकास है और क्रांति है। वह इकाई आप हैं।
इसलिए मैं आपको पुकारना चाहता हूं। मैं आपको निद्रा से जगाना चाहता हूं।
क्या आप नहीं देख रहे हैं कि आपका जीवन एक बिलकुल बेमानी, निरर्थक और उबा देने वाली घटना हो गया है ? जीवन ने सारा अर्थ और अभिप्राय खो दिया है। यह स्वाभाविक ही है। मनुष्य के भीतर प्रकाशन हो तो उसके जीवन में अर्थ नहीं हो सकता है।

मनुष्य के अंतस में ज्योति न हो, तो जीवन में आनंद नहीं हो सकता है।
हमें जो आज व्यर्थ मालूम हो रहा है, उसका कारण यह नहीं है कि जीवन ही स्वयं में व्यर्थ है। जीवन तो अनंत सार्थकता है, पर हम उस सार्थकता और कृतार्थता तक जाने का मार्ग भूल गये हैं। वस्तुतः हम केवल जी रहे हैं, और जीवन से हमारा कोई संबंध नहीं है। यह जीवन नहीं है। यह केवल मृत्यु की प्रतीक्षा है।
और, निश्चय ही मृत्यु की प्रतीक्षा केवल ऊब हो सकती है। वह आनंद कैसे हो सकती है ?
मैं आपसे यही कहने को आया हूं कि इस दुःख-स्वप्न से बाहर होने का मार्ग है, जिसे कि आपने भूल से जीवन समझ रखा है।
वह मार्ग सदा से है। अंधकार से आलोक में ले जाने वाला मार्ग शाश्वत है।
वह तो है पर हम उससे विमुख हो गये हैं। मैं आपको उसके सम्मुख करना चाहता हूं। वह मार्ग ही धर्म है। वह मनुष्य के भीतर का दीया जलाने का उपाय है। वह मनुष्य की दिशाहीन नौका को दिशा देना है।
महावीर ने कहा है :

जरामरण वेणेणं बुज्झमाणाण पाणिणं।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तं।।

—‘संसार के जरा और मरण के वेगवाले प्रवाह में बहते हुए जीवों के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और शरण है।’
क्या आप उस प्रकाश के लिए प्यासे हैं, जो जीवन को आनंद से भर देता है ? और, क्या आप उस सत्य के लिए अभीप्सु हैं, जो अमृत से संयुक्त कर देता है ?
मैं तो आपको आमंत्रित करता हूं—आलोक के लिए और आनंद के लिए और अमृत के लिए। मेरे आमंत्रण को स्वीकार करें ! केवल आंख ही खोलने की बात है, और आप एक नए आलोक के सदस्य हो जाते हैं।

और कुछ नहीं करना है, केवल आंख ही खोलनी है। और कुछ नहीं करना है, केवल जागना है और देखना है।
मनुष्य के अंदर वस्तुतः कुछ बुझता नहीं है—और न ही दिशा ही खो सकती है। वह आंख बंद किए हो तो अंधकार हो जाता है और सब दिशाएँ खो जाती हैं। आंख बंद होने से वह सर्वहारा है और आंख खुलते ही सम्राट हो जाता है।
मैं आपको सर्वहारा होने के स्वप्न से, सम्राट होने की   जागृति के लिए बुलाता हूं। मैं आपकी पराजय को विजय में परिणत करना चाहता हूं, और आपके अंधकार को आलोक में, और आपकी मृत्यु को अमृत में—लेकिन क्या आप भी मेरे साथ इस यात्रा पर चलने को राजी हैं ?

ओशो

साधना की भूमिका


चिदात्मन् !
सबसे पहले मेरा प्रेम स्वीकार करें। इस पर्वतीय निर्जन में, मैं उससे ही आपका स्वागत कर सकता हूं। यूं इसके अतिरिक्त मेरे पास देने को कुछ भी नहीं।
प्रभु के सान्निध्य ने जिस अनंत प्रेम को मेरे भीतर जन्म दिया है उसे बांटना चाहता हूं, उसे उलीचना चाहता हूं। और आश्चर्य तो यही है कि जितना उसे बांटता हूं, वह उतना ही बढ़ता जाता है।
शायद, वास्तविक संपत्ति वही है जो बांटने से बढ़ती है। जो बांटने से कम हो, वह वास्तविक संपत्ति नहीं है।
क्या आप मेरे इस प्रेम को स्वीकार करेंगे ?

आपकी आंखों में मैं स्वीकृति देख रहा हूं, और वह भी प्रत्युत्तर में प्रेम से भर आयी हैं। प्रेम-प्रेम को जगाता है। घृणा-घृणा को जगा देती है। हम जो देते हैं, वही हम पर वापिस लौट आता है। यही शाश्वत नियम है।
इसलिए जो चाहते हो कि आपको मिले, वही जगत को देना आवश्यक है। कांटे देकर कोई फूल वापसी नहीं पा सकता है।
मैं आपकी आंखों में खिले शांति और प्रेम के फूल को देख रहा हूं। इससे बहुत अनुगृहीत हुआ। यहां अब हम अनेक नहीं हैं। प्रेम जोड़ देता है और अनेक को एक कर देता है। शरीर तो भिन्न हैं और भिन्न रहते हैं, पर उनके पीछे कोई है जिससे प्रेम में मिलन हो जाता है और जिससे प्रेम में एकता हो जाती है।
उस एकता के बाद ही कुछ कहा और कुछ समझा जा सकता है।

प्रेम में और केवल प्रेम में ही संवाद, कम्युनिकेशन संभव होता है।
इस निर्जन में हम इकट्ठे हैं ताकि मैं आपसे कुछ कह सकूं और आप मुझे सुन सकें। यह कहना और सुनना प्रेम की भूमिका के अतिरिक्त संभव नहीं है। हृदय के द्वार केवल प्रेम के लिए ही खुलते है। और स्मरण रहे कि जब मस्तिष्क से नहीं, हृदय से सुना जाता है, तभी वस्तुतः सुना जाता है। आप कहेंगे कि क्या हृदय भी सुनता है ? मैं कहूंगा कि जब सुनना संभव होता है, हृदय ही सुनता है। मस्तिष्क ने आज कुछ भी नहीं सुना। मस्तिष्क बिलकुल बहरा है।
और, वही बोलने के संबंध में भी सच है। बोल जब हृदय से आते हैं, तो वे भी सार्थक हैं। हृदय से आकर ही उनमें वह गंध होती है जो ताजा फूलों की है, अन्यथा वे बासे ही नहीं, कागज के ही फूल होते हैं।

मैं अपने हृदय को उंडेलूंगा और यदि आपके हृदय ने द्वार दिया तो मिलन और संवाद हो सकेगा। और तब उस मिलन के क्षण में वह भी संवादित हो जाता है जिसे कि शब्द कहने में समर्थ नहीं हैं। बहुत सा अनकहा भी उस भांति सुना जाता है। और, वह सब जो पंक्तियों में नहीं, वरन पंक्तियों के बीच के अंतराल में होता है, वह भी संप्रेषित हो जाता है।
शब्द बहुत असमर्थ संकेत हैं, पर यदि उन्हें चित्त की परिपूर्ण शांति और मौन से सुना जा सके तो वे समर्थ हो जाते हैं। इसे ही मैं ‘हृदय से सुनना’ कहता हूं।

पर, हम तो किसी को सुनते समय स्वयं के ही विचारों से भरे रहते हैं। वह श्रवण झूठा है। वैसी स्थिति में आप ‘श्रावक’ नहीं हैं। आपको भ्रम ही है कि आप सुन रहे हैं, पर आप सुन नहीं रहे हैं।
सम्यक श्रवण के लिए चित्त का बिलकुल मौन-सजगता, सायलेंट वाचफुलनेस में होना आवश्यक है। आप बस सुन रहे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं तब आप ही सुन पाते हैं और समझ पाते हैं, और वह समझ, अंडरस्टेंडिंग आपके भीतर एक परिवर्तन और प्रकाश बन जाती है।
यदि ऐसा नहीं है, तो आप किसी और को नहीं, अपने को ही सुनते रहते हैं। आपके भीतर का कोलाहल ही आपको घेरे रहता है। उस घिराव में कुछ भी आपमें संप्रेषित नहीं होता है। तब आप देखते मालूम होते हैं  और सुनते प्रतीत होते हैं, पर सुनते नहीं हैं।

क्राइस्ट ने कभी कहा था, ‘जिनके पास आंखें हों, वे देखें और जिनके पास कान हों, वे सुनें।’ क्या जिनसे उन्होंने यह कहा था, उनके पास कान और आंखें नहीं थीं ? उनके पास आंख और कान तो जरूर थे, पर आंख और कान का होना ही देखने और सुनने के लिए पर्याप्त नहीं है। कुछ और भी चाहिए। जिसके बिना उनका होना न होना बराबर है।
वह कुछ और है, आंतरिक मौन, इनर सायलेंस और सजग जिज्ञासा। उस स्थिति में ही चित्त के द्वार खुले हुए होते हैं और कुछ कहा और सुना जा सकता है।




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