ओशो साहित्य >> ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरियाओशो
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ओशो द्वारा पंच महाव्रत पर दिये गये तेरह प्रवचनों का अपूर्व संकलन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ओशो की आवाज जब बहती हुई पवन की तरह किसी के अंतर में सरसराती है, एक बादल
की तरह घिरती हुई बूँद-बूँद बरसती है, और सूरज की एक किरण होकर कहीं
अन्तर्मन में उतरती है तो कह सकती हूँ, वहां चेतना का सोया हुआ बीज पनपने
लगता है। फिर कितने ही रंगों का जो फूल खिलता है उसका कोई भी नाम हो सकता
है। वो बुद्ध होकर भी खिलता है, महावीर होकर भी खिलता है, और नानक होकर भी
खिलता है।
अमृता प्रीतम
भूमिका
भगवान महावीर की देशनाओं में पंच महाव्रत केंन्दीय स्थान रखते हैं। 2500
वर्ष से इनकी सम्यक समझ के साथ किया होगा, जीया होगा, क्योंकि निश्चित ही
उनके मुनियों ने समझा होगा, जीया होगा, क्योंकि उस समय शास्ता स्वयं उनके
बीच उपस्थित थे। लेकिन समय के अंतराल में इन महाव्रतों पर बहुत धूल इकट्ठी
होती गयीऔर ये महासूत्र धूमिल होते गये। आज ये महासूत्र धूमिल होते गये।
आज ये महासूत्र मात्र एक औपचारिक बन कर रह गये है, जिन्हें बिना समझे आज
के साधक जैन मुनि निभा रहे हैं।
ये पंच महाव्रत हैं-अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम तथा अप्रवाद। ये जीवन में महाक्रातिं के सूत्र हैं। प्रस्तुत पुस्तक में ओशो ने इन महासूत्रों पर पाँच अमृत प्रवचन दिये हैं तथा आठ प्रश्नोंत्तर हैं। अपने प्रथम प्रवचन के अंत में ओशो कहते हैः चार दिन तक एक-एक की खोज आपके साथ करना चाहूँगा और पाँचवें दिन, अंतिम दिन, इन चारों सूत्रों में कैसे उतरा जा सकता है, उसकी बात कहूंगा। अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम, ये चार परिणाम हैं और पांचवा सूत्र-अप्रमाद, अवेयरनेस-इन चारों तक पहुँचने का मार्ग है।
जैन साधकों ने अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य और अकाम पर आचरण की भांति तो बहुत ध्यान दिया, लेकिन इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सूत्र अप्रमाद-अंतस-रूपांतरण के सूत्र- पर उतना ध्यान नहीं दिया। इसलिए ये प्रथम चार सूत्र केवल ऊपरी औपचारिक व्रत मात्र बन कर रह गये, महाव्रत नहीं बन पाए और साधक जीवन-रूपांतरण से वंचित रह गये।
भगवान महावीर के 2500 वर्ष बाद आज ओशो ने इन्हें पुनरुज्जीवित करने की करुणा की है और इन पर जमी धूल को हटाया है। उनके इन प्रवचचनों को पढ़कर न केवल जैन साधक लाभान्वित होंगे, बल्कि वे सभी साधक भी लाभान्वित होंगो, जो किन्हीं संप्रदायों की संकीर्ण दीवारों में बंधे नहीं हैं। यह कहना अधिक संगत होगा कि इन प्रवचनों को पढ़कर कोई भी व्यक्ति संप्रदाय या धर्म-विशेष नहीं रह पाएगा, क्योंकि ये सूत्र तो परम मुक्ति हैं।
सभी बुद्धों-कृष्ण, बुद्घ, महावीर, नानक, गोरख, कबीर तथा ओशो- के सूत्र उनकी देशनाएं संपूर्ण मनुष्यता के लिए हैं। इसलिए जैन यह दावा नहीं कर सकते कि महावीर केवल उनके हैं। महावीर सभी के लिए हैं। ओशो सभी के लिए हैं। ओशो को देशना सार्वभौम है, सार्वकालिक है। इन देशनाओं का रसादन करने और जीवन-रूपांतरण की दिशा में गतिमान होने के लिए सभी को निमंत्रण है। रहे होंगे कभी ये पंच महाव्रत केवल जैनियों के लिए। लेकिन अब, इन पर ओशो के अमृत प्रवचनों के बाद, ये सभी के हो गये है। जैना और मुनि तो उन्हें पढ़ ही रहे हैं। वे लोग भी जिन्हें न तो कभी जैन धर्म से कोई सरोकार था और न भगवान महावीर से परिचय था, वे भी इन्हें बहुत भाव से पढ़ रहे हैं, क्योंकि वे ओशो के प्रत्येक प्रवचन को पढ़ते हैं और वे ओशों को प्रेम करते हैं।
ओशो के माध्यम से आज पच्चीस सौ वर्ष बाद महावीर पुनः जीवंत हो गये हैं, समसामयिक हो गए है, यद्यपि यह भी सत्य है कि दुनिया आज भी महावीर की समसामयिक नहीं हो पायी है। महावीर अहिंसा सिखाते हैं और आज चारों ओर हिंसा ही हिंसा है- भारत में भी ! संपूर्ण विश्व में तो महावीर पहुंच ही नहीं पाये, भारत जहाँ से पैदा हुए, वह भी महावीर को नहीं समझा है, और जीना तो बहहुत दूर की बात है। भारत और यह समूचा विश्व महावीर को नहीं समझा है, न उनका समसामायिक हुआ है, तो ओशो ने अपने समय से और भी आगे हैं, उनका समसामायिक कब होगा ? भारत ने इस दिशा में कोई रुचि नहीं दिखाई, लेकिन फिर भी महावीर के मार्ग पर आ गई दुरूहता को अलग करके सभी के लिए महावीर को बोधगम्य बनाया जाता है। और ओशो स्वयं अति सरल हैं, सहज हैं, सर्वसुलभ हैं, हम उन तक सुगमता से पहुँच सकते हैं। सभी को उनका निमंत्रण है। सिर्फ निमंत्रण स्वीकार करने भर की बात है। पंच महाव्रत के माध्यम से ओशो हमें पुकार रहे हैं, बुला रहे हैं,-बुद्धत्व की दुनिया में, जिनत्व की दुनिया में। ओशो के प्रज्ञा-प्रकाश में महावीर की देशानाएं आज के युग के लिए निश्चित ही बहुत उपयोगी हो गयी हैं। एक अन्य प्रवचन में ओशो ने स्पष्ट रूप से दो विकल्प बताए हैं: महावीर या महाविनाश।
ये पंच महाव्रत हैं-अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम तथा अप्रवाद। ये जीवन में महाक्रातिं के सूत्र हैं। प्रस्तुत पुस्तक में ओशो ने इन महासूत्रों पर पाँच अमृत प्रवचन दिये हैं तथा आठ प्रश्नोंत्तर हैं। अपने प्रथम प्रवचन के अंत में ओशो कहते हैः चार दिन तक एक-एक की खोज आपके साथ करना चाहूँगा और पाँचवें दिन, अंतिम दिन, इन चारों सूत्रों में कैसे उतरा जा सकता है, उसकी बात कहूंगा। अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम, ये चार परिणाम हैं और पांचवा सूत्र-अप्रमाद, अवेयरनेस-इन चारों तक पहुँचने का मार्ग है।
जैन साधकों ने अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य और अकाम पर आचरण की भांति तो बहुत ध्यान दिया, लेकिन इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सूत्र अप्रमाद-अंतस-रूपांतरण के सूत्र- पर उतना ध्यान नहीं दिया। इसलिए ये प्रथम चार सूत्र केवल ऊपरी औपचारिक व्रत मात्र बन कर रह गये, महाव्रत नहीं बन पाए और साधक जीवन-रूपांतरण से वंचित रह गये।
भगवान महावीर के 2500 वर्ष बाद आज ओशो ने इन्हें पुनरुज्जीवित करने की करुणा की है और इन पर जमी धूल को हटाया है। उनके इन प्रवचचनों को पढ़कर न केवल जैन साधक लाभान्वित होंगे, बल्कि वे सभी साधक भी लाभान्वित होंगो, जो किन्हीं संप्रदायों की संकीर्ण दीवारों में बंधे नहीं हैं। यह कहना अधिक संगत होगा कि इन प्रवचनों को पढ़कर कोई भी व्यक्ति संप्रदाय या धर्म-विशेष नहीं रह पाएगा, क्योंकि ये सूत्र तो परम मुक्ति हैं।
सभी बुद्धों-कृष्ण, बुद्घ, महावीर, नानक, गोरख, कबीर तथा ओशो- के सूत्र उनकी देशनाएं संपूर्ण मनुष्यता के लिए हैं। इसलिए जैन यह दावा नहीं कर सकते कि महावीर केवल उनके हैं। महावीर सभी के लिए हैं। ओशो सभी के लिए हैं। ओशो को देशना सार्वभौम है, सार्वकालिक है। इन देशनाओं का रसादन करने और जीवन-रूपांतरण की दिशा में गतिमान होने के लिए सभी को निमंत्रण है। रहे होंगे कभी ये पंच महाव्रत केवल जैनियों के लिए। लेकिन अब, इन पर ओशो के अमृत प्रवचनों के बाद, ये सभी के हो गये है। जैना और मुनि तो उन्हें पढ़ ही रहे हैं। वे लोग भी जिन्हें न तो कभी जैन धर्म से कोई सरोकार था और न भगवान महावीर से परिचय था, वे भी इन्हें बहुत भाव से पढ़ रहे हैं, क्योंकि वे ओशो के प्रत्येक प्रवचन को पढ़ते हैं और वे ओशों को प्रेम करते हैं।
ओशो के माध्यम से आज पच्चीस सौ वर्ष बाद महावीर पुनः जीवंत हो गये हैं, समसामयिक हो गए है, यद्यपि यह भी सत्य है कि दुनिया आज भी महावीर की समसामयिक नहीं हो पायी है। महावीर अहिंसा सिखाते हैं और आज चारों ओर हिंसा ही हिंसा है- भारत में भी ! संपूर्ण विश्व में तो महावीर पहुंच ही नहीं पाये, भारत जहाँ से पैदा हुए, वह भी महावीर को नहीं समझा है, और जीना तो बहहुत दूर की बात है। भारत और यह समूचा विश्व महावीर को नहीं समझा है, न उनका समसामायिक हुआ है, तो ओशो ने अपने समय से और भी आगे हैं, उनका समसामायिक कब होगा ? भारत ने इस दिशा में कोई रुचि नहीं दिखाई, लेकिन फिर भी महावीर के मार्ग पर आ गई दुरूहता को अलग करके सभी के लिए महावीर को बोधगम्य बनाया जाता है। और ओशो स्वयं अति सरल हैं, सहज हैं, सर्वसुलभ हैं, हम उन तक सुगमता से पहुँच सकते हैं। सभी को उनका निमंत्रण है। सिर्फ निमंत्रण स्वीकार करने भर की बात है। पंच महाव्रत के माध्यम से ओशो हमें पुकार रहे हैं, बुला रहे हैं,-बुद्धत्व की दुनिया में, जिनत्व की दुनिया में। ओशो के प्रज्ञा-प्रकाश में महावीर की देशानाएं आज के युग के लिए निश्चित ही बहुत उपयोगी हो गयी हैं। एक अन्य प्रवचन में ओशो ने स्पष्ट रूप से दो विकल्प बताए हैं: महावीर या महाविनाश।
स्वामी चैतन्य कीर्ति
संपादकः ओशो टाइम्स इंटरनेशनल
संपादकः ओशो टाइम्स इंटरनेशनल
अहिंसा
मेरे प्रिय आत्मन्,
आज मैं अहिंसा पर आपसे बात करूँगा। पांच महाव्रत नाकारात्मक हैं, अहिंसा भी। असल में साधना नाकारात्मक ही हो सकती है, निगेटिव ही हो सकती है, उपलब्धि पॉजिटिव होगी, विधायक होगी। जो मिलेगा वह वस्तुतः होगा और जो हमें खोना है। वहीं खोना है जो वस्तुतः नहीं है।
अंधकार खोना है, प्रकाश पाना है। अत्सय खोना है सत्य पाना है, इससे एक बात और खयाल में लेना जरूरी है कि नकारात्मक शब्द इस बात की खबर देते है कि अहिंसा हमारा स्वाभाव है, उसे पाया जा सकता, वह है ही। हिंसा पायी गयी है। वह हमारा स्वभाव नहीं है। वह अर्जित है, एचीव्ड। हिंसक बनने के लिए हमें कुछ करना पड़ा है। हिंसा हमारी उपलब्धि है। हमने उसे खोजा है, हमने उसे निर्मित किया है। अहिंसा हमारी उपलब्धि नहीं हो सकती। सिर्फ हिंसा न हो जाये तो जो शेष बचेगा वह अहिंसा होगी।
इसलिए साधना नकारात्मक है। वह जो हमने पा लिया है और जो पाने योग्य नहीं है, उसे खो देना है। जैसे कोई आदमी स्वभाव से हिंसक नहीं है, हो नहीं सकता। क्योंकि कोई भी दुख को चाह नहीं सकता और हिंसा सिवाय दुख के कहीं भी नहीं ले जाती। हिंसा एक्सीडेंट है, चाह नहीं है। वह हमारे जीवन की धारा नहीं है। इसलिए जो हिंसक है वह भी चौबीस घंटे हिंसक नहीं हो सकता। अहिंसक चौबीस घंटे अहिंसक हो सकता है। हिंसक चौबीस घेटे हिंसक नहीं हो सकता। उसे भी किसी वर्तुल के भीतर अहिंसक ही होना पड़ता है। असल में, अगर वह हिंसा भी करता है तो किन्ही के साथ अहिंसक हो सके, इसीलिए करता है। कोई आदमी चौबीस घंटे चोर नहीं हो सकता। और अगर कोई चोरी भी करता है तो इसलिए कि कुछ समय वह बिना चोरी के हो सके। चोर का लक्ष्य भी अचोरी करना है, और हिंसक का लक्ष्य भी अहिंसा है। और इसीलिए ये सारे शब्द नकारात्मक हैं।
धर्म की भाषा में दो शब्द विधायक हैं, बाकी सब शब्द नाकारात्मक हैं। उन दोनों को मैंने चर्चा से छोड़ दिया है। एक ‘सत्य’ शब्द विधायक है, पॉजिटिव है; और एक ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द विधायक है, पॉजिटिव है।
यह भी प्राथमिक रूप से खयाल में ले लेना जरूरी है कि जो पांच शब्द मैंने चुने हैं, जिन्हें मैं पंच महाव्रत कह रहा हूं, वे नकारात्मक हैं। जब वे पांचो छूट जायेंगे तो जो भीतर उपलब्ध होगा सत्य, और जो बाहर होगा ब्रह्मचर्य।
सत्य आत्मा बन जायेगी इन पाँच के छूट जाने पर और ब्रह्यचर्य आचरण बन जायेगा इन पांच के छूटने पर। वे दो विधायक शब्द हैं। सत्य का अर्थ है, जिसे हम भीतर जानेंगे। और ब्रह्मचर्य का अर्थ है, जिसे हम बाहर से जीयेंगे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, जो ईश्वर जैसा हो जाये। ईश्वर जैसा आचरण। ईश्वर जैसा आचरण उसी का हो सकता है, जो ईश्वर जैसा हो जाये। सत्य का अर्थ है-ईश्वर जैसे हो जाना। सत्य का अर्थ है- ब्रह्म। और ईश्वर जैसा हो गया उसकी जो चर्या होगी, वह ब्रह्मचर्य होगी। वह ब्रह्म जैसा आचरण होगा। ये दो शब्द धर्म की भाषा में विधायक है, पॉजिटिव हैं; बाकी पूरे धर्म की भाषा नकारात्मक है। इन पांच दिनों में इन पांच नकार पर विचार करना है। आज पहले नकार पर-अहिंसा......।
अगर ठीक से समझें तो अहिंसा पर कोई विचार नहीं हो सकता है, सिर्फ हिंसा पर विचार हो सकता है और हिंसा के न होने पर विचार हो सकता है। ध्यान रहे अहिंसा का मतलब सिर्फ इतना ही है- हिंसा का न होना, हिंसा की एबसेन्स, अनुपस्थिति-हिंसा का अभाव।
इसे ऐसा समझें। अगर किसी चिकित्सक को पूछें कि स्वास्थ्य की परिभाषा क्या है ? कैसे आप डेफिनीशन करते है स्वास्थ्य की ? तो दुनिया में स्वास्थ्य के बहुत से विज्ञान विकसित हुए हैं, लेकिन कोई भी स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं करता। अगर आप पूछें कि विकसित हुए हैं, लेकिन कोई भी स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं करता। अगर आप पूछें कि स्वास्थ्य की परिभाषा क्या है तो चिकित्सक कहेगा: जहां बीमारी न हो। लेकिन यह बीमारी की बात हुई, यह स्वास्थ्य की बात न हुई। यह बीमारी का न होना हुआ। बीमारी की परिभाषा हो सकती है, डेफिनीशन हो सकती है कि बीमारी क्या है ? लेकिन परिभषा नहीं हो सकती- स्वास्थ्य क्या है। इतना ज्यादा से ज्यादा हम कह सकते हैं कि जब कोई बीमार नहीं है तो वह स्वस्थ है।
धर्म परम स्वास्थ्य है ! इसलिए धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। सब परिभाषा अधर्म की है। इन पांच दिनों हम धर्म पर विचार नहीं करेंगे। अधर्म पर विचार करेंगे।
विचार से, बोध से, अधर्म छूट जाये तो जो निर्विकार में शेष रह जाता है, उसी का नाम धर्म की है। इसलिए जहां-जहां धर्म पर चर्चा होती है, वहां व्यर्थ होती है ! चर्चा सिर्फ अधर्म की ही हो सकती है। चर्चा धर्म की हो नहीं सकती। चर्चा बीमारी की हो सकती है, चर्चा स्वास्थ्य की नहीं हो सकती। स्वास्थ्य को जाना जा सकता है स्वास्थ्य को जीया जा सकता है धर्म में हुआ जा सकता है, धर्म की चर्चा नहीं हो सकती। इसलिए धर्मशास्त्र वस्तुतः अधर्म की चर्चा करते हैं। धर्म की कोई चर्चा नहीं करता।
पहले अधर्म की चर्चा हम करें- हिंसा। और जो-जो हिंसक हैं, उनके लिए यह पहला व्रत है। यह समझने जैसा मामला है कि आज हम जो विचार करेंगे वह यह मान कर करेंगे कि हम हिंसक है। इसके अतिरिक्त उस चर्चा का कोई अर्थ नहीं है। ऐसे भी हम हिंसक है। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते हैं। और हिंसा की इतनी पर्तें हैं। ऐसे भी हम हिंसक हैं। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते हैं। और हिंसा की इतनी पर्तें हैं, और इतनी सूक्ष्मताएं हैं, कि कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम हिंसा कह रहे हैं और समझ रहे हैं। वह हिंसा का बहुत सूक्ष्म रूप हो सकता हो। जिंदगी बहुत जटिल है।
उदाहरण के लिए गांधी की अहिंसा को मैं हिंसा का सूक्ष्म रूप कहता हूं और कृष्ण की हिंसा को अहिंसा का स्थूल रूप कहता हूं। उसकी हम चर्चा करेंगे तो खयाल में आ सकेगा। हिंसक को ही बिचार करना जरूरी है अहिंसा पर। इसलिए यह भी प्रासंगिक है समझ लेना, कि दुनिया में अहिंसकों की जमात से आया।
जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे। वह जमात हिंसको की थी। उनमें एक भी ब्राह्मण नहीं था। इनमें एक भी वैश्य नहीं था। बुद्ध क्षत्रिय थे। दुनिया में अहिंसा का विचार हिंसको की जमात से आया है। दुनिया में अहिंसा का खयाल, जहां हिंसा घनी थी, सघन थी, वहां पैदा हुआ है।
असल में हिंसकों को ही सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा है अहिंसा के संबंध में। जो चौबीस घंटे हिंसा में रत थे, उन्हीं को यह दिखाई पड़ा है कि हमारी बहुत अंतर-आत्मा नहीं है, असल में हाथ में तलवार हो, क्षत्रिय का मन हो, तो बहुत देर न लगेगी यह देखने में कि हिंसा हमारी पीड़ा है, दुख है। वह हमारा जीवन नहीं है। वह हमारा आनंद नहीं है।
आज का व्रत हिंसकों के लिए है। यद्यपि जो अपने को अहिंसक समझते हैं वे आज के व्रत पर विचार करते हुए मिलेंगे ! मैं तो मान कर चलूंगा कि हम हिंसक इकट्ठे हुए हैं। और जब मैं हिंसा के बहुत रूपों की आप से बात करूंगा तो आप समझ पायेंगे कि आप किस रूप के हिंसक हैं। और हिंसक और अहिंसक होने की पहली शर्त है, अपनी हिंसा को ठीक-ठाक जगह पर पहचान लेना। क्योंकि जो व्यक्ति हिंसा को ठीक से पहचान ले, वह हिंसक नहीं रह सकता है। हिंसक रहने की तरकीब, टेकनीक एक ही है कि हम अपनी हिंसा को अहिंसा के वस्त्र पहन लेती है। वह धोखा पैदा होता है।
सुनी है मैंने एक कथा, सीरियन पैदा होता है ।
सौन्दर्य और कुरूप की देवियों को जब परमात्मा ने बनाया और वे पृथ्वी पर उतरीं, तो धूल-धवांस से भर गए होंगे उनके वस्त्र, तो एक झील के किनारे वस्त्र रख कर स्नान करने झील में गईं। स्वभावतः सौंदर्य की देवी को पता भी नहीं न था कि उसके वस्त्र बदले जा सकते हैं। असल में सौंदर्य को अपने वस्त्रों का पता ही नहीं होता है। सौंदर्य को अपनी देह का भी पता नहीं होता है। सिर्फ कुरूपता को देह का बोध होता है, सिर्फ कुरुपता को वस्त्रों की चिंता होती है। क्योंकि वस्त्रों और देह की व्यवस्था से अपने को छिपाने के उपाय करती है। सौंदर्य की देवी झील में स्नान करते निकल गई, और कुरुपता की देवी को मौका मिला; वह बाहर आई, उसने सौंदर्य की देवी के कपड़े पहने और चलती बनी। जब सौंदर्य की देवी बाहर आई तो बहुत हैरान हुई। उसके वस्त्र तो नहीं थे। वह नग्न खड़ी थी गाँव के लोग जागने शुरू हो गये और राह चलने लगी थी। और कुरुपता की देवी उसके वस्त्र लेकर भाग गई थी तो मजबूरी में उसे कुरुपता के वस्त्र पहन लेने पड़े। और कथा कहती है कि तब से वह कुरूपता की देवी का पीछा कर रही है और खोज रही है; लेकिन अब तक मिलना नहीं हो पाया। कुरुपता अब भी सौंदर्य के वस्त्र पहने हुए है और सौंदर्य की देवी अभी भी मजबूरी में कुरूपता के वस्त्र ओढ़े हुए है।
असल में असत्य को जब भी खड़ा होना हो तो उसे सत्य का चेहरा उधार लेना पड़ता है ! असत्य को भी खड़ा होना पड़ता हो तो उसे सत्य का ढंग अंगाकार करना पड़ता है। हिंसा को भी खड़े होने के लिए अहिंसा बनाना पड़ता है। इसलिए अहिंसा की दिशा में जो पहली बात जरूरी है, वह यह है कि हिंसा का चेहरा पहचान लेने जरूरी हैं। खास कर उसके अहिंसक चेहरे, नान-वायलेंट फेसेज़ पहचान लेना बहुत जरूरी है। हिंसा, सीधा धोखा किसी को भी नहीं दे सकती। दुनिया में कोई भी पाप, सीधा धोखा देने में असमर्थ है। पाप को भी पुण्य की आड़ में ही धोखा देना पड़ता है तो पुण्य के गुण-गौरव की कथा है। इससे पता चलता है कि पाप भी अगर जीतता है तो पुण्य का चेहरा लगा कर जीतता है। जीतता सदा पुण्य ही है। चाहे पाप के ऊपर चेहरा बन कर जीतता हो और चाहे खुद को अंतरात्मा बन कर जीतता हो। पाप कभी जीतता नहीं। पाप अपने में हारा हुआ है ! हिंसा जीत नहीं सकती। लेकिन दुनिया से हिंसा मिटती नहीं, क्योंकि हमने हिंसा के बहुत से अहिंसक चेहरे खोज निकाले हैं। पहले हिंसा के चेहरों को समझने की कोशिश करें।
हिंसा का सबसे पहला रूप, सबसे पहली डायमेंशन, उसका पहला आयाम है, वह बहुत गहरा है, वहीं से पकड़े। सबसे पहली हिंसा, दूसरे हैः दूसरे को दूसरा मानने से शुरु होती हैः टू कन्सीव द अदर, एज द अदर। जैसे ही मैं कहता हूं आप दूसरे हैं, मैं आपके प्रति हिंसक हो गया। असल में दूसरे के प्रति अहिंसक होना असंभव है। सिर्फ अपने प्रति ही अहिंसक हो ही नहीं सकते। होने की बात ही नहीं उठती, क्योंकि दूसरे को दूसरा स्वीकार कर लेने में ही हिंसा शुरू हो। बहुत सूक्ष्म है, बहुत गहरी है।
सार्त्र का वचन है- द अदर इज हेल, वह जो दूसरा है वह नरक है। सार्त्र के इस वचन से मैं थोड़ी दूर तक राजी हूं। उसकी समझ गहरी है। वह ठीक कर रहा है दूसरा नरक है। लेकिन उसकी समझ अधूरी भी है। दूसरा नरक नहीं है, दूसरे को दूसरा समझने में नरक है ! इसलिए जो भी स्वर्ग से थोड़े से क्षण हमें मिलते हैं, वह तब मिलते हैं जब हम दूसरे को अपना समझते हैं। उसे हम प्रेम करते हैं।
अगर मैं किसी को किसी क्षण में अपना समझता हूं तो, उसी क्षण में मेरे और उसके बीच जो धारा बहती है वह अहिंसा की है; हिंसा की नहीं रह जाती। किसी क्षण दूसरे को अपना समझने का क्षण ही प्रेम का क्षण है। लेकिन जिसको हम अपना समझते हैं वह भी गहरे में दूसरा ही बना रहता है। किसी को अपना अपना कहना भी सिर्फ इस बात की स्वीकृति है कि तुम हो तो दूसरे, लेकिन हम तुम्हें अपना मानते हैं। इसलिए जिसे हम प्रेम करते हैं उसकी भी गहराई में हिंसा मौजूद रहती है। और इसलिए प्रेम की फ्लेम, वह जो प्रेम की ज्योंति है, कभी कम कभी ज्यादा होती रहती है। कभी वह दूसरा हो जाता है, कभी अपना हो जाता है।
चौबीस घंटे में कई यह बार बदलाहट होती है। जब वह जरा दूर निकल जाता है और दूसरा दिखाई पड़ने लगता है, तब हिंसा थोड़ी कम हो जाती है। लेकिन जिसे हम अपना कहते है, वह भी दूसरा है, पत्नी भी दूसरी है चाहे कितनी भी अपनी हो। बेटा भी दूसरा है, चाहे कितना ही अपना हो। पति भी दूसरा है, चाहे कितना भी अपना हो। अपना कहने में भी दूसरे का भाव सदा मौजूद होता है। इसलिए प्रेम भी पूरी तरह अहिंसक नहीं हो पाता। प्रेम के अपने हिंसा के ढंग हैं।
प्रेम अपने ढ़ंग से हिंसा करता है। प्रेमपूर्ण ढंग से हिंसा करता है। पत्नी, पति को प्रेमपूर्ण ढ़ंग से सताती है। पति, पत्नी को प्रेमपूर्ण ढ़ंग से सताता है। बाप, बेटे को प्रेमपूर्ण ढ़ंग से सताता है। और जब, सताना प्रेमपूर्ण हो तो बड़ा सुरक्षित हो जाता है। फिर सताने में बड़ी सुविधा मिल जाती है, क्योंकि हिंसा ने अहिंसा का चेहरा ओढ़ लिया है। शिक्षक विद्यार्थी को सताता है और कहता है, तुम्हारे हित के लिए ही सता रहा हूं। और जब किसी के हित के लिए सताते है, तब सताना बड़ा आसान है। वह गौरवान्वित, पुण्यकारी हो जाता है। इसलिए ध्यान रखना, दूसरे को सताने में हमारे चेहरे सदा साफ होते हैं। जो बड़ी-से-बड़ी हिंसा चलती है वह दूसरे साथ नहीं, वह अपनों के साथ चलती है।
सच तो यह है कि किसी को भी शत्रु बनाने के पहले मित्र बनाना अनिवार्य शर्त है। किसी को मित्र बनाने के लिए शत्रु बनाना अनिवार्य शर्त नहीं है। शर्त ही नहीं है। असल में शत्रु बनाने के लिए पहले मित्र बनाना जरूरी है। मित्र बनाये बिना शत्रु नहीं बनाया जा सकता। हां, मित्र बनाया जा सकता है बिना शत्रु बनाये। उसके लिए कोई शर्त नहीं है शत्रुता की। मित्रता से पहले चलती है।
अपनों के साथ जो हिंसा है, वह अहिंसा का गहरे से गहरा चेहरा है। इसलिए जिस व्यक्ति को हिंसा के प्रति जागना हो, उसे पहले अपनों के प्रति जो हिंसा है, उसके प्रति जागना होगा। लेकिन मैंने कहा कि किसी-किसी क्षण में दूसरा अपना मालूम पड़ता है। बहुत निकट हो गये हैं हम। यह निकट होना, दूर होना, बहुत तरल है। पूरे वक्त बदलता रहता है।
इसलिए हम चौबीस घंटे प्रेम में नहीं होते किसी के साथ। प्रेम सिर्फ क्षण होते हैं। प्रेम के घंटे नहीं होते है। प्रेम के दिन नहीं होते। प्रेम के वर्ष नहीं होते। मोमेंट ओनली। लेकिन क्षण जब हम क्षणो से स्थायित्व का धोखा देते हैं तो हिंसा शुरु हो जाती है। अगर मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो यह क्षण की बात है। अगले क्षण भी करूंगा, जरुरी नहीं। कर सकूंगा, जरूरी नहीं। लेकिन अगर मैंने वायदा किया कि अगले क्षण भी प्रेम जारी रखूंगा, तो अगले क्षण जब हम दूर हट गये होंगे और हिंसा बीच में आ गई होगी तब हिंसा प्रेम का शक्ल लेगी। इसलिए दुनिया में जितनी अपना बनानेवाली संस्थाएं है, सब हिंसक हैं। परिवार से ज्यादा हिंसा और किसी संस्था ने नहीं की है, लेकिन उसकी हिंसा बड़ी सूक्ष्म है।
इसलिए अगर संन्यासी को परिवार छोड़ देना पड़ा, तो उसका कारण था। उसका कारण था-सूक्ष्मता हिंसा के बाहर हो जाना। और कोई कारण नहीं था, और कोई भी कारण नहीं था। सिर्फ़ एक ही कारण था कि हिंसा का एक सूक्ष्मतम जाल है जो अपना कहनेवाला कर रहे हैं। उनसे लड़ना भी मुश्किल है, क्योंकि वे हमारे हित में ही कर रहे हैं। परिवार का ही फैला हुआ बड़ा रूप समाज है इसलिए समाज ने जितनी हिंसा की है, उसका हिसाब लगाना कठिन है !
सच तो यह है कि समाज ने करीब-करीब व्यक्ति को मार डाला है ! इसलिए ध्यान रहे जब समाज आप समाज के सदस्य की हैसियत से किसी के साथ व्यवहार करने लगते हैं तब आप हिंसक होते हैं। आप जैन की तरह हैं तो आप हिंसक हैं मुसलमान की तरह व्यवहार करते हैं तो आप हिंसक हैं। क्योंकि अब आप व्यक्ति की तरह व्यवहार नहीं कर रहे, अब आप समाज की तरह व्यवहार कर रहे हैं। और अभी व्यक्ति ही अहिंसक नहीं हो तो समाज के अहिंसक होने की संभावना तो बहुत दूर है। समाज तो अहिंसक हो ही नहीं सकता इसलिए दुनिया में जो बड़ी हिंसाएं हैं, वह व्यक्तियों ने नहीं की हैं, वह समाज ने की हैं।
आज मैं अहिंसा पर आपसे बात करूँगा। पांच महाव्रत नाकारात्मक हैं, अहिंसा भी। असल में साधना नाकारात्मक ही हो सकती है, निगेटिव ही हो सकती है, उपलब्धि पॉजिटिव होगी, विधायक होगी। जो मिलेगा वह वस्तुतः होगा और जो हमें खोना है। वहीं खोना है जो वस्तुतः नहीं है।
अंधकार खोना है, प्रकाश पाना है। अत्सय खोना है सत्य पाना है, इससे एक बात और खयाल में लेना जरूरी है कि नकारात्मक शब्द इस बात की खबर देते है कि अहिंसा हमारा स्वाभाव है, उसे पाया जा सकता, वह है ही। हिंसा पायी गयी है। वह हमारा स्वभाव नहीं है। वह अर्जित है, एचीव्ड। हिंसक बनने के लिए हमें कुछ करना पड़ा है। हिंसा हमारी उपलब्धि है। हमने उसे खोजा है, हमने उसे निर्मित किया है। अहिंसा हमारी उपलब्धि नहीं हो सकती। सिर्फ हिंसा न हो जाये तो जो शेष बचेगा वह अहिंसा होगी।
इसलिए साधना नकारात्मक है। वह जो हमने पा लिया है और जो पाने योग्य नहीं है, उसे खो देना है। जैसे कोई आदमी स्वभाव से हिंसक नहीं है, हो नहीं सकता। क्योंकि कोई भी दुख को चाह नहीं सकता और हिंसा सिवाय दुख के कहीं भी नहीं ले जाती। हिंसा एक्सीडेंट है, चाह नहीं है। वह हमारे जीवन की धारा नहीं है। इसलिए जो हिंसक है वह भी चौबीस घंटे हिंसक नहीं हो सकता। अहिंसक चौबीस घंटे अहिंसक हो सकता है। हिंसक चौबीस घेटे हिंसक नहीं हो सकता। उसे भी किसी वर्तुल के भीतर अहिंसक ही होना पड़ता है। असल में, अगर वह हिंसा भी करता है तो किन्ही के साथ अहिंसक हो सके, इसीलिए करता है। कोई आदमी चौबीस घंटे चोर नहीं हो सकता। और अगर कोई चोरी भी करता है तो इसलिए कि कुछ समय वह बिना चोरी के हो सके। चोर का लक्ष्य भी अचोरी करना है, और हिंसक का लक्ष्य भी अहिंसा है। और इसीलिए ये सारे शब्द नकारात्मक हैं।
धर्म की भाषा में दो शब्द विधायक हैं, बाकी सब शब्द नाकारात्मक हैं। उन दोनों को मैंने चर्चा से छोड़ दिया है। एक ‘सत्य’ शब्द विधायक है, पॉजिटिव है; और एक ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द विधायक है, पॉजिटिव है।
यह भी प्राथमिक रूप से खयाल में ले लेना जरूरी है कि जो पांच शब्द मैंने चुने हैं, जिन्हें मैं पंच महाव्रत कह रहा हूं, वे नकारात्मक हैं। जब वे पांचो छूट जायेंगे तो जो भीतर उपलब्ध होगा सत्य, और जो बाहर होगा ब्रह्मचर्य।
सत्य आत्मा बन जायेगी इन पाँच के छूट जाने पर और ब्रह्यचर्य आचरण बन जायेगा इन पांच के छूटने पर। वे दो विधायक शब्द हैं। सत्य का अर्थ है, जिसे हम भीतर जानेंगे। और ब्रह्मचर्य का अर्थ है, जिसे हम बाहर से जीयेंगे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, जो ईश्वर जैसा हो जाये। ईश्वर जैसा आचरण। ईश्वर जैसा आचरण उसी का हो सकता है, जो ईश्वर जैसा हो जाये। सत्य का अर्थ है-ईश्वर जैसे हो जाना। सत्य का अर्थ है- ब्रह्म। और ईश्वर जैसा हो गया उसकी जो चर्या होगी, वह ब्रह्मचर्य होगी। वह ब्रह्म जैसा आचरण होगा। ये दो शब्द धर्म की भाषा में विधायक है, पॉजिटिव हैं; बाकी पूरे धर्म की भाषा नकारात्मक है। इन पांच दिनों में इन पांच नकार पर विचार करना है। आज पहले नकार पर-अहिंसा......।
अगर ठीक से समझें तो अहिंसा पर कोई विचार नहीं हो सकता है, सिर्फ हिंसा पर विचार हो सकता है और हिंसा के न होने पर विचार हो सकता है। ध्यान रहे अहिंसा का मतलब सिर्फ इतना ही है- हिंसा का न होना, हिंसा की एबसेन्स, अनुपस्थिति-हिंसा का अभाव।
इसे ऐसा समझें। अगर किसी चिकित्सक को पूछें कि स्वास्थ्य की परिभाषा क्या है ? कैसे आप डेफिनीशन करते है स्वास्थ्य की ? तो दुनिया में स्वास्थ्य के बहुत से विज्ञान विकसित हुए हैं, लेकिन कोई भी स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं करता। अगर आप पूछें कि विकसित हुए हैं, लेकिन कोई भी स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं करता। अगर आप पूछें कि स्वास्थ्य की परिभाषा क्या है तो चिकित्सक कहेगा: जहां बीमारी न हो। लेकिन यह बीमारी की बात हुई, यह स्वास्थ्य की बात न हुई। यह बीमारी का न होना हुआ। बीमारी की परिभाषा हो सकती है, डेफिनीशन हो सकती है कि बीमारी क्या है ? लेकिन परिभषा नहीं हो सकती- स्वास्थ्य क्या है। इतना ज्यादा से ज्यादा हम कह सकते हैं कि जब कोई बीमार नहीं है तो वह स्वस्थ है।
धर्म परम स्वास्थ्य है ! इसलिए धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। सब परिभाषा अधर्म की है। इन पांच दिनों हम धर्म पर विचार नहीं करेंगे। अधर्म पर विचार करेंगे।
विचार से, बोध से, अधर्म छूट जाये तो जो निर्विकार में शेष रह जाता है, उसी का नाम धर्म की है। इसलिए जहां-जहां धर्म पर चर्चा होती है, वहां व्यर्थ होती है ! चर्चा सिर्फ अधर्म की ही हो सकती है। चर्चा धर्म की हो नहीं सकती। चर्चा बीमारी की हो सकती है, चर्चा स्वास्थ्य की नहीं हो सकती। स्वास्थ्य को जाना जा सकता है स्वास्थ्य को जीया जा सकता है धर्म में हुआ जा सकता है, धर्म की चर्चा नहीं हो सकती। इसलिए धर्मशास्त्र वस्तुतः अधर्म की चर्चा करते हैं। धर्म की कोई चर्चा नहीं करता।
पहले अधर्म की चर्चा हम करें- हिंसा। और जो-जो हिंसक हैं, उनके लिए यह पहला व्रत है। यह समझने जैसा मामला है कि आज हम जो विचार करेंगे वह यह मान कर करेंगे कि हम हिंसक है। इसके अतिरिक्त उस चर्चा का कोई अर्थ नहीं है। ऐसे भी हम हिंसक है। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते हैं। और हिंसा की इतनी पर्तें हैं। ऐसे भी हम हिंसक हैं। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते हैं। और हिंसा की इतनी पर्तें हैं, और इतनी सूक्ष्मताएं हैं, कि कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम हिंसा कह रहे हैं और समझ रहे हैं। वह हिंसा का बहुत सूक्ष्म रूप हो सकता हो। जिंदगी बहुत जटिल है।
उदाहरण के लिए गांधी की अहिंसा को मैं हिंसा का सूक्ष्म रूप कहता हूं और कृष्ण की हिंसा को अहिंसा का स्थूल रूप कहता हूं। उसकी हम चर्चा करेंगे तो खयाल में आ सकेगा। हिंसक को ही बिचार करना जरूरी है अहिंसा पर। इसलिए यह भी प्रासंगिक है समझ लेना, कि दुनिया में अहिंसकों की जमात से आया।
जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे। वह जमात हिंसको की थी। उनमें एक भी ब्राह्मण नहीं था। इनमें एक भी वैश्य नहीं था। बुद्ध क्षत्रिय थे। दुनिया में अहिंसा का विचार हिंसको की जमात से आया है। दुनिया में अहिंसा का खयाल, जहां हिंसा घनी थी, सघन थी, वहां पैदा हुआ है।
असल में हिंसकों को ही सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा है अहिंसा के संबंध में। जो चौबीस घंटे हिंसा में रत थे, उन्हीं को यह दिखाई पड़ा है कि हमारी बहुत अंतर-आत्मा नहीं है, असल में हाथ में तलवार हो, क्षत्रिय का मन हो, तो बहुत देर न लगेगी यह देखने में कि हिंसा हमारी पीड़ा है, दुख है। वह हमारा जीवन नहीं है। वह हमारा आनंद नहीं है।
आज का व्रत हिंसकों के लिए है। यद्यपि जो अपने को अहिंसक समझते हैं वे आज के व्रत पर विचार करते हुए मिलेंगे ! मैं तो मान कर चलूंगा कि हम हिंसक इकट्ठे हुए हैं। और जब मैं हिंसा के बहुत रूपों की आप से बात करूंगा तो आप समझ पायेंगे कि आप किस रूप के हिंसक हैं। और हिंसक और अहिंसक होने की पहली शर्त है, अपनी हिंसा को ठीक-ठाक जगह पर पहचान लेना। क्योंकि जो व्यक्ति हिंसा को ठीक से पहचान ले, वह हिंसक नहीं रह सकता है। हिंसक रहने की तरकीब, टेकनीक एक ही है कि हम अपनी हिंसा को अहिंसा के वस्त्र पहन लेती है। वह धोखा पैदा होता है।
सुनी है मैंने एक कथा, सीरियन पैदा होता है ।
सौन्दर्य और कुरूप की देवियों को जब परमात्मा ने बनाया और वे पृथ्वी पर उतरीं, तो धूल-धवांस से भर गए होंगे उनके वस्त्र, तो एक झील के किनारे वस्त्र रख कर स्नान करने झील में गईं। स्वभावतः सौंदर्य की देवी को पता भी नहीं न था कि उसके वस्त्र बदले जा सकते हैं। असल में सौंदर्य को अपने वस्त्रों का पता ही नहीं होता है। सौंदर्य को अपनी देह का भी पता नहीं होता है। सिर्फ कुरूपता को देह का बोध होता है, सिर्फ कुरुपता को वस्त्रों की चिंता होती है। क्योंकि वस्त्रों और देह की व्यवस्था से अपने को छिपाने के उपाय करती है। सौंदर्य की देवी झील में स्नान करते निकल गई, और कुरुपता की देवी को मौका मिला; वह बाहर आई, उसने सौंदर्य की देवी के कपड़े पहने और चलती बनी। जब सौंदर्य की देवी बाहर आई तो बहुत हैरान हुई। उसके वस्त्र तो नहीं थे। वह नग्न खड़ी थी गाँव के लोग जागने शुरू हो गये और राह चलने लगी थी। और कुरुपता की देवी उसके वस्त्र लेकर भाग गई थी तो मजबूरी में उसे कुरुपता के वस्त्र पहन लेने पड़े। और कथा कहती है कि तब से वह कुरूपता की देवी का पीछा कर रही है और खोज रही है; लेकिन अब तक मिलना नहीं हो पाया। कुरुपता अब भी सौंदर्य के वस्त्र पहने हुए है और सौंदर्य की देवी अभी भी मजबूरी में कुरूपता के वस्त्र ओढ़े हुए है।
असल में असत्य को जब भी खड़ा होना हो तो उसे सत्य का चेहरा उधार लेना पड़ता है ! असत्य को भी खड़ा होना पड़ता हो तो उसे सत्य का ढंग अंगाकार करना पड़ता है। हिंसा को भी खड़े होने के लिए अहिंसा बनाना पड़ता है। इसलिए अहिंसा की दिशा में जो पहली बात जरूरी है, वह यह है कि हिंसा का चेहरा पहचान लेने जरूरी हैं। खास कर उसके अहिंसक चेहरे, नान-वायलेंट फेसेज़ पहचान लेना बहुत जरूरी है। हिंसा, सीधा धोखा किसी को भी नहीं दे सकती। दुनिया में कोई भी पाप, सीधा धोखा देने में असमर्थ है। पाप को भी पुण्य की आड़ में ही धोखा देना पड़ता है तो पुण्य के गुण-गौरव की कथा है। इससे पता चलता है कि पाप भी अगर जीतता है तो पुण्य का चेहरा लगा कर जीतता है। जीतता सदा पुण्य ही है। चाहे पाप के ऊपर चेहरा बन कर जीतता हो और चाहे खुद को अंतरात्मा बन कर जीतता हो। पाप कभी जीतता नहीं। पाप अपने में हारा हुआ है ! हिंसा जीत नहीं सकती। लेकिन दुनिया से हिंसा मिटती नहीं, क्योंकि हमने हिंसा के बहुत से अहिंसक चेहरे खोज निकाले हैं। पहले हिंसा के चेहरों को समझने की कोशिश करें।
हिंसा का सबसे पहला रूप, सबसे पहली डायमेंशन, उसका पहला आयाम है, वह बहुत गहरा है, वहीं से पकड़े। सबसे पहली हिंसा, दूसरे हैः दूसरे को दूसरा मानने से शुरु होती हैः टू कन्सीव द अदर, एज द अदर। जैसे ही मैं कहता हूं आप दूसरे हैं, मैं आपके प्रति हिंसक हो गया। असल में दूसरे के प्रति अहिंसक होना असंभव है। सिर्फ अपने प्रति ही अहिंसक हो ही नहीं सकते। होने की बात ही नहीं उठती, क्योंकि दूसरे को दूसरा स्वीकार कर लेने में ही हिंसा शुरू हो। बहुत सूक्ष्म है, बहुत गहरी है।
सार्त्र का वचन है- द अदर इज हेल, वह जो दूसरा है वह नरक है। सार्त्र के इस वचन से मैं थोड़ी दूर तक राजी हूं। उसकी समझ गहरी है। वह ठीक कर रहा है दूसरा नरक है। लेकिन उसकी समझ अधूरी भी है। दूसरा नरक नहीं है, दूसरे को दूसरा समझने में नरक है ! इसलिए जो भी स्वर्ग से थोड़े से क्षण हमें मिलते हैं, वह तब मिलते हैं जब हम दूसरे को अपना समझते हैं। उसे हम प्रेम करते हैं।
अगर मैं किसी को किसी क्षण में अपना समझता हूं तो, उसी क्षण में मेरे और उसके बीच जो धारा बहती है वह अहिंसा की है; हिंसा की नहीं रह जाती। किसी क्षण दूसरे को अपना समझने का क्षण ही प्रेम का क्षण है। लेकिन जिसको हम अपना समझते हैं वह भी गहरे में दूसरा ही बना रहता है। किसी को अपना अपना कहना भी सिर्फ इस बात की स्वीकृति है कि तुम हो तो दूसरे, लेकिन हम तुम्हें अपना मानते हैं। इसलिए जिसे हम प्रेम करते हैं उसकी भी गहराई में हिंसा मौजूद रहती है। और इसलिए प्रेम की फ्लेम, वह जो प्रेम की ज्योंति है, कभी कम कभी ज्यादा होती रहती है। कभी वह दूसरा हो जाता है, कभी अपना हो जाता है।
चौबीस घंटे में कई यह बार बदलाहट होती है। जब वह जरा दूर निकल जाता है और दूसरा दिखाई पड़ने लगता है, तब हिंसा थोड़ी कम हो जाती है। लेकिन जिसे हम अपना कहते है, वह भी दूसरा है, पत्नी भी दूसरी है चाहे कितनी भी अपनी हो। बेटा भी दूसरा है, चाहे कितना ही अपना हो। पति भी दूसरा है, चाहे कितना भी अपना हो। अपना कहने में भी दूसरे का भाव सदा मौजूद होता है। इसलिए प्रेम भी पूरी तरह अहिंसक नहीं हो पाता। प्रेम के अपने हिंसा के ढंग हैं।
प्रेम अपने ढ़ंग से हिंसा करता है। प्रेमपूर्ण ढंग से हिंसा करता है। पत्नी, पति को प्रेमपूर्ण ढ़ंग से सताती है। पति, पत्नी को प्रेमपूर्ण ढ़ंग से सताता है। बाप, बेटे को प्रेमपूर्ण ढ़ंग से सताता है। और जब, सताना प्रेमपूर्ण हो तो बड़ा सुरक्षित हो जाता है। फिर सताने में बड़ी सुविधा मिल जाती है, क्योंकि हिंसा ने अहिंसा का चेहरा ओढ़ लिया है। शिक्षक विद्यार्थी को सताता है और कहता है, तुम्हारे हित के लिए ही सता रहा हूं। और जब किसी के हित के लिए सताते है, तब सताना बड़ा आसान है। वह गौरवान्वित, पुण्यकारी हो जाता है। इसलिए ध्यान रखना, दूसरे को सताने में हमारे चेहरे सदा साफ होते हैं। जो बड़ी-से-बड़ी हिंसा चलती है वह दूसरे साथ नहीं, वह अपनों के साथ चलती है।
सच तो यह है कि किसी को भी शत्रु बनाने के पहले मित्र बनाना अनिवार्य शर्त है। किसी को मित्र बनाने के लिए शत्रु बनाना अनिवार्य शर्त नहीं है। शर्त ही नहीं है। असल में शत्रु बनाने के लिए पहले मित्र बनाना जरूरी है। मित्र बनाये बिना शत्रु नहीं बनाया जा सकता। हां, मित्र बनाया जा सकता है बिना शत्रु बनाये। उसके लिए कोई शर्त नहीं है शत्रुता की। मित्रता से पहले चलती है।
अपनों के साथ जो हिंसा है, वह अहिंसा का गहरे से गहरा चेहरा है। इसलिए जिस व्यक्ति को हिंसा के प्रति जागना हो, उसे पहले अपनों के प्रति जो हिंसा है, उसके प्रति जागना होगा। लेकिन मैंने कहा कि किसी-किसी क्षण में दूसरा अपना मालूम पड़ता है। बहुत निकट हो गये हैं हम। यह निकट होना, दूर होना, बहुत तरल है। पूरे वक्त बदलता रहता है।
इसलिए हम चौबीस घंटे प्रेम में नहीं होते किसी के साथ। प्रेम सिर्फ क्षण होते हैं। प्रेम के घंटे नहीं होते है। प्रेम के दिन नहीं होते। प्रेम के वर्ष नहीं होते। मोमेंट ओनली। लेकिन क्षण जब हम क्षणो से स्थायित्व का धोखा देते हैं तो हिंसा शुरु हो जाती है। अगर मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो यह क्षण की बात है। अगले क्षण भी करूंगा, जरुरी नहीं। कर सकूंगा, जरूरी नहीं। लेकिन अगर मैंने वायदा किया कि अगले क्षण भी प्रेम जारी रखूंगा, तो अगले क्षण जब हम दूर हट गये होंगे और हिंसा बीच में आ गई होगी तब हिंसा प्रेम का शक्ल लेगी। इसलिए दुनिया में जितनी अपना बनानेवाली संस्थाएं है, सब हिंसक हैं। परिवार से ज्यादा हिंसा और किसी संस्था ने नहीं की है, लेकिन उसकी हिंसा बड़ी सूक्ष्म है।
इसलिए अगर संन्यासी को परिवार छोड़ देना पड़ा, तो उसका कारण था। उसका कारण था-सूक्ष्मता हिंसा के बाहर हो जाना। और कोई कारण नहीं था, और कोई भी कारण नहीं था। सिर्फ़ एक ही कारण था कि हिंसा का एक सूक्ष्मतम जाल है जो अपना कहनेवाला कर रहे हैं। उनसे लड़ना भी मुश्किल है, क्योंकि वे हमारे हित में ही कर रहे हैं। परिवार का ही फैला हुआ बड़ा रूप समाज है इसलिए समाज ने जितनी हिंसा की है, उसका हिसाब लगाना कठिन है !
सच तो यह है कि समाज ने करीब-करीब व्यक्ति को मार डाला है ! इसलिए ध्यान रहे जब समाज आप समाज के सदस्य की हैसियत से किसी के साथ व्यवहार करने लगते हैं तब आप हिंसक होते हैं। आप जैन की तरह हैं तो आप हिंसक हैं मुसलमान की तरह व्यवहार करते हैं तो आप हिंसक हैं। क्योंकि अब आप व्यक्ति की तरह व्यवहार नहीं कर रहे, अब आप समाज की तरह व्यवहार कर रहे हैं। और अभी व्यक्ति ही अहिंसक नहीं हो तो समाज के अहिंसक होने की संभावना तो बहुत दूर है। समाज तो अहिंसक हो ही नहीं सकता इसलिए दुनिया में जो बड़ी हिंसाएं हैं, वह व्यक्तियों ने नहीं की हैं, वह समाज ने की हैं।
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