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ओशो साहित्य >> भारत एक सनातन यात्रा

भारत एक सनातन यात्रा

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :293
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3551
आईएसबीएन :81-7182-345-9

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ओशो द्वारा भारतीय सनातन धर्म पर दिये गये प्रवचनों का संकलन

Bharat Ek Sanatan Yatra-A Hindi Book by Osho - भारत एक सनातन यात्रा - ओशो

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जैसा ओशो ने भारत को समझा है ऐसा कोई भी नहीं समझा है। यह समझ बहुत तलों पर है; दार्शनिक, ऐतिहासिक, शुद्ध भावनात्मक-और यहाँ तक कि राजनैतिक और साहित्यिक, स्वतंत्र और आध्यात्मिक। ओशो की समझ सर्वग्राही है। एक ऐसी समझ जो शब्दों के पार जाती है-सच्चे प्रेम के अज्ञात लोक में। क्योंकि ओशो की सभी धारणाओं का आत्यंतिक केंद्र था प्रेम। यही उनका परम संदेश था जो उन्होंने हमारे लिए छोड़ा। जीवन की प्रेम के माध्यम से खोज, अनुभूति और रसास्वादन। यह पुस्तक हमें उस प्रेम के दिशासूचक प्रदान करती है।

ओशो एक ऐसा प्रज्ञा-स्त्रोत हैं जो कभी नहीं सूखता। इसी सदी के सर्वाधिक मौलिक चिंतन ने हम मनुष्यों के आनन्द के लिए एक नये विश्व का सृजन किया है, जिसके माध्यम से हम प्रेम-मार्ग के द्वारा अपने को मुक्त करते हैं। इस पुस्तक में युगों की प्रज्ञा का सारभूत है, आवश्यक ज्ञान का शुद्ध अमृत, जिससे नश्वर की अनश्वर से प्रत्यभिज्ञा होती है।

‘भारत एक सनातन यात्रा’ एक रहस्यदर्शी की रहस्यपूर्ण पुस्तक है। इस रहस्यदर्शी में अतीत के स्वर्णिम भारत के सभी रहस्यदर्शी समा जाते हैं और साथ ही वे जीवंत व जगमत हो उठते हैं। इस पुस्तक के एक-एक पृष्ठ की एक-एक पंक्ति में रहस्यों के हीरे, माणिक-मोती हैं। रहस्य में से रहस्य निकालने चलें और फिर भी पीछे रहस्य छूट जाएंगे। इसलिए इसे आप बार-बार पढ़ने का आंनद ले सकते हैं। पुस्तक के अंत में सभी प्रवचनांशों का स्रोत भी प्रकाशित किया गया है, ताकि आप चाहें तो पूरा प्रवचन अथवा पुस्तक भी मंगवा सकते हैं।

 

भूमिका

 

चेतना की पहली किरण के साथ इंसान की आंखों में जो सपना बस गया, ओशो उस सपने का नामकरण करते हैं—भारत। इसीलिए भारत को भू-खंड की सीमा से मुक्त कर देते हैं। उनके लफ्जों में—‘‘भारत कोई भू-खंड नहीं है, न राजनैतिक इकाई, न ऐतिहासिक तथ्यों का कोई टुकड़ा। भारत एक प्यास है, सत्य को पा लेने की। जमीन पर कोई कहीं भी पैदा हो, किसी देश में, किसी सदी में, अतीत में या भविष्य में, अगर कोई खोज अंतर की खोज है, किसी की भी, वह भारत का निवासी है।’’
जातिवाद एक बहुत बड़ी समस्या है। सम-काल हार गया उसे सुलझाते हुए, कुछ नहीं कर पाया। ओशो सहज कह पाए हैं—‘‘देह शूद्र है, मन वैश्य, आत्मा क्षत्रिय, और परमात्मा ब्राह्मण।’’
वे सबकुछ ब्योरे में उतरते हैं—‘‘देह शूद्र है, क्यों ? क्योंकि देह की दौड़ सिर्फ इतनी है—खा लो, पी लो, भोग कर लो, सो जाओ, जाग जाओ और मर जाओ। यह शूद्र की सीमा है। जो देह मे जीता है, वह शूद्र। शूद्र का अर्थ हुआ—मैं देह हूं। यह मनोदशा शूद्र है।
‘‘मन वैश्य है। खाने-पीने से ही पाजी नहीं होता। कुछ और मांगता है। मन का अर्थ है—कुछ और चाहिए। शूद्र में एक तरह की सरलता है। देह में बड़ी सरलता है। वह सब कुछ ज्यादा नहीं मांगती। दो रोटी मिल जाए, सोने को छप्पर मिल जाए, और शरीर की मांग सीधी है—थोड़ी सी, सीमित सी। देह को असंभव में रस नहीं है। इसलिए कहता हूं देह शूद्र है.....।
‘‘जब और-और की वासना उठती हगै, तो वैश्य हुआ। वैश्य का मतलब है—मन। और मन व्यवसायी है, वह फैलता चला जाता है, रुकना नहीं जानता...।

‘‘क्षत्रिय का मतलब है संकल्प, प्रबल संकल्प, कि मैं कौन हूं ? इसे जान लूं ! शूद्र शरीर को ही जानता है, उतने में ही मजा लेता है। वैश्य मन के साथ दौड़ता है। और क्षत्रिय जानना चाहता है—मैं कौन हूँ ? असीलिए चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण सब क्षत्रिय थे। क्योंकि ब्राह्मण होने से पहले क्षत्रिय होना जरूरी है। जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लिया, वह चूक गया। जैसे परशुराम ब्राह्मण नहीं हैं। उनसे बड़ा क्षत्रिय खोजना मुश्किल होगा। जिंदगी भर मारने का काम करते रहे। फरसा लेकर घूमते थे। उन्हें ब्राह्मण करना ठीक नहीं है। सो—संकल्प क्षत्रिय है.....।
‘‘ऐसा समझो कि भोग यानी शुद्र। तृष्णा यानी वैश्य। संकल्प यानी क्षत्रिय। और जब संकल्प पूरा हो जाए, तब समर्पण की संभावना है....।
‘‘समर्पण—यानी ब्राह्मण। ब्राह्मण यानी ब्रह्म को जान लेना। जो मिटा उसने ब्रह्म को जाना....।
और ओशो यह सब कहते हुए, आहिस्ता से हर रहस्य को खोलते हैं—‘‘भारत में पैदा होने से ही कोई भारत का नागरिक नहीं हो सकता। जो एक दुर्घटना की तरह भारत में हो गए, जब तक उनकी प्यास उन्हें दीवना न कर दे, तब तक वे बरात के नागरिक होने के अधिकारी नहीं हैं। भारत एक सनातन यात्रा है, अनंत से अनंत तक फैला हुआ रास्ता...’’ और ओशो की आवाज एक सीमा से निकल कर असीम में ढलती हुई कहती है—‘‘मेरे लिए भारत और अध्यात्म एक ही अर्थ में हैं.....।’’
मैं नहीं जानती—कौन सा काल था, कौन से ऋषि थे, जिन्होंने काल मुक्त होकर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश के गुणों से गुणातीत, त्रिपुरा सुंदरी का रहस्य पाया। आदि शक्ति काष उन ऋषियो ने कायामय होते हुए भी काया-मुक्त की सी अवस्था में त्रिपुरा सुंदरी का दर्शन किया। और कर सकती हूं—कि ओशो का होना कुछ इसी तरह की घटना है, कि उन्होंने ‘भारत’ शब्द को अध्यात्म नाम की जमीन पर पनपते हुए खिलते हुए देखा।

थोड़ा सा गहराई में जाएं, अध्यात्म की जमीन पर खिलते हुए फूल को समझने के लिए, तो ओशो की इन पंक्तियों को सामने रखना होगा—‘‘ नहीं’ के बीच फिर नहीं होगा, वह असत्य कहा जाता है, यह असत्य होगा। भारत में सत्य की एक परिभाषा है—जो काल में टिके। तीन काल में टिके। तीन काल में जिसका खंडन न हो। जो पहले भी था, अब भी है, और फिर भी होगा, वही सत्य है। जो काल नहीं था, अब है, और फिर नहीं होगा, भारत उसे असत्य कहता है।’’
त्रिपुरा सुंदरी का रहस्य ठीक यही है, वह तीन पुर, तीन नगर, तीन गुण, जो लीला खेलते हैं, उससे पहले भी त्रिपुरा सुंदरी थी, उस लीला में भी वह है, और उस लीला के बाद भी वह रहेगी।
बारत ने इस सब कुछ को साक्षी भाव से देखा, और इस सत्य को अंतर चेतना का नाम दिया।
यही सत्य महा कारण से पहले था, महा कारण में आया, फिर कारण शरीर में, फिर शूक्ष्म शरीर में। और फिर वही सूक्ष्म—कायामय होता है...।

दूसरे लफ्जों में—यह कायामय होना कायनात के साज़ की आरोही है, और फिर काया—मुक्त होकर लौट जाना है, वह इसी साज़ की अवरोही.....।
खामोशी का तरंगित हो जाना वही सत्य है, जो किसी ध्वनि का खामोशी में उतर जाना। इसलिए कह सकती हूं कि ओशो, भारत की खामोशी का तरंगित हो जाना है। बुद्ध, कृष्ण, नानक, भारत की ध्वनि थे, और जब गम से वह ध्वनि खो गयी, तब उस ध्वनि को सुन पाने का और कह पाने का जो माध्यम हुआ, उस माध्यम का नाम ओशो है।

हम जब काल की सीमा में बंध जाते हैं, काल-मुक्त होकर सत्य को पाने का स्मरण भी खो जाता है। और उस समय किसकी बुद्ध, किसी कृष्ण, किसी अष्टावक्र की आमद अंतर के अंधेरे में शक्ति कणों की तरह चमक जाती है। शक्त कण अंतर में होते हैं, लेकिन उनका स्मरण नहीं होता। और बुद्ध जैसी कोई आवाज उनकी स्मरण देती है। ठीक उसी तरह ओशो हैं, जिन्होंने भारत के शक्ति कणों की स्मरण-गाथा कही है, इसलिए बड़े प्यार से, अंतर के गहरे अहसास से मैं ओशो को स्मरण-देवता कहना चाहती हूं।

यह अंतर में कृष्ण की बांसुरी को सुनना है। इसी का स्मरण देते हुए ओशो के शब्द हैं—‘‘तुमने सुना कि कृष्ण की बांसुरी बजती है तो गोपियां अपने घरों में काम नहीं कर पातीं। उनके हाथ-पार डगमगा जाते हैं, गगरी छूट जाती है, मथनी भूल जाती है, वे भागती हैं, मदहोश सी। यह कथा प्रतीक है—इंद्रियां प्रतीक हैं गोपियों की। और जिस दिन भीतर की बांसुरी बजने लगती हैं, तो इंद्रियां —अपनी मथनी, अपनी मटकी, अपनी गागर, सब भूल जाती हैं। भीतर के कृष्ण की बांसुरी बजने लगी, और इंद्रियां उसके आसपास नाचने लगीं। परिधि नाचने लगी केंद्र के पास।’’

जिस तरह कृष्ण की बासुरी को भीतर से सुनना है, ठीक उसी तरह ‘भारत—एक सनातन यात्रा’ को पढ़ते-सुनते, इस यात्रा पर चल देना है। और कह सकती हूं कि अगर कोई तलब कदमों में उतरेगी, और कदम इस राह पर चल देंगे, तब वक्त आएगा कि यह राह सहज होकर कदमों के साथ चलने लगेगी, और फिर ‘यात्रा’ शब्द अपने अर्थ को पा लेगा !
यह अर्थ बहुत गहरा है—धारा से राधा हो जाने का ओशो सुनाते हैं—‘‘पुराने शास्त्रों में राधा का कोई जिक्र नहीं। गोपियां हैं, सखियां हैं, कृष्ण बांसुरी बजाते हैं और रास की लीला होती है। राधा का नाम पुराने शास्त्रों में नहीं है। बस इतना सा जिक्र है, कि सारी सखियों में एक थी, जो छाया की तरह साथ रहती थी। यह तो सात सौ वर्ष पहले राधा नाम प्रकट हुआ। गीत गाए जाने लगे, राधा और कृष्ण के। इस नाम की खोज में बहुत बड़ा गणित है। राधा शब्द बनता है धारा शब्द को उलटा कर देने से।

‘‘गंगोत्री से गंगा की धारा निकलती है। स्रोत से दूर जाने वाली अवस्था का नाम धारा है। और धारा शब्द को उलटा देने से पाधा हुआ, जिसा अर्थ है—स्रोत की तरफ लौट जाना। गंगा वापिस लौटती है गंगोत्री की तरफ। बहिर्मुखता, अंतर्मुखता बनती है।’’
ओशो जिस यात्रा की बात करते हैं—वह अपने अंतर में लौट जाने की बात करते हैं। एक यात्रा धारामय होने की होती है, और एक यात्रा राधामय होने की....।

 

-अमृता प्रीतम

 

भारत एक सनातन यात्रा है

 

प्यारे ओशो,
वह कौन-सा सपना है, जिसे साकार करने के लिए आप तमाम रुकावटों और बाधाओं को नजरअंदाज करते हुए पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से निरंतर क्रियाशील हैं ?

सपना तो एक है, मेरा अपना नहीं, सदियों पुराना है, कहें कि सनातन है, पृथ्वी के इस भू-भाग में मनुष्य की चेतना की पहली किरण के साथ उस सपने को देखने शुरू किया था। उस सपने की माला में कितने फूल पिरोये हैं—कितने गौतम बुद्ध, तिचने महावीर, कितने कबीर, कितने नानक, उस सपने के लिए अपने प्राणों को निछावर कर गये। उस सपने को मैं अपना कैसे कहूं ? वह सपना मनुष्य का, मनुष्य की अंतरात्मा का सपना है। इस सपने को हमने एक नाम दे रखा है। हम इस सपने को भारत कहते हैं। भारत कोई भूखंड नहीं है। न ही कोई राजनौतिक इकाई है, न ऐतिहासिक तथ्यों का कोई टुकड़ा है। न धन, न पद, न प्रतिष्ठा की पागल दौड़ है।

भारत है एक अभीप्सा, एक प्यास—सत्य को पा लेने की।
उस सत्य को, जो हमारे हृदय की धड़कन-धड़क में बसा है। उस सत्य को, जो हमारी चेतना की तहों में सोया है। वह जो हमारा होकर भी हमें भूल गया है। उसका पुनः स्मरण उसकी पुनरुद्घोषणा भारत है।
‘अमृतस्य पुत्रः— ऐस अमृत के पुत्रों’, जिनने इस उद्घोषणा को सुना, वे ही केवल भारत के नागरिक हैं । भारत में पैदा होने से कोई भारत का नागरिक नही हो सकता।

जमीन पर कोई कहीं भी पैदा हो, किसी देश में, किसी सदी में, अतीत में या भविष्य में, अगर उसकी खोज अंतस की खोज है, वह भारत की निवासी है। मेरे लिए भारत और अध्यात्म पर्यायवाची हैं। भारत और सनातन धर्म पर्यायवाची हैं। इसलिए भारत के पुत्र जमीन के कोने-कोने में हैं। और जो एक दुर्घटना की तरह केवल भारत में पैदा हो गए हैं, जब तक उन्हें अमृत की यह तलाश पागल न बना दे, तब तक वे भारत के नागरिक होने के अधिकारी नहीं हैं।
भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है।

इसलिए हमने कभी भारत का इतिहास नहीं लिखा। इतिहास भी कोई लिखने की बात है ? साधारण-सी दो कौड़ी की रोजमर्रा की घटनाओं का नाम इतिहास है। जो आज तूफान की तरह उठतीं हैं और कल जिनका कोई निशान भी नहीं रह जाता। इतिहास तो धूल का बवंडर है। भारत ने इतिहास नहीं लिखा। भरत ने तो केवल उस चिरंतन की ही साधना ही है, वैसे ही जैसे चकोर चांद को एकटक बिना पलक झपके देखता रहता है।


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