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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ऋग्वेद संहिता - भाग 1

ऋग्वेद संहिता - भाग 1

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :415
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 357
आईएसबीएन :00-000-00

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ऋग्वेद का विवरण (मण्डल 1-2)

Rigved Sanhita Part 1 - A Hindi Book by - Sriram Sharma Acharya ऋग्वेद संहिता भाग 1 - श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपने आराध्य के चरणों में

परम पूज्य गुरुदेव ने जो गुरुत्तर भार कन्धों पर डाला, उनमें अपने वेदों का आज के परिप्रेक्ष्य में बुद्धिसंगत एवं विज्ञानसम्मत प्रतिपादन सर्वथा दुःसाध्य कार्य था। लोगों के पास योग्यता रहती होगी, जिससे वे बड़े-बड़े कार्य सम्भव कर पाते होंगे; पर मुझ अकिंचन के लिए तो यह सौभाग्य ही क्या कुछ कम था कि अपने आराध्य के चरणों पर स्वयं को सर्वतोभावेन समर्पित करने का सन्तोष प्राप्त हुआ। होंठ कौन से गीत निकालेंगे, भला बाँसुरी को क्या पता ? कौन सा राग आलापित होगा—यह पता वादक को हो सकता है, सितार बेचारा उसे क्या समझे ?

वेदों के भाष्य जैसे कठिन कार्य में मेरी स्थिति ऐसे ही वाद्य यंत्र की रही। यदि गायन सुन्दर हो तो श्रेय उन्हीं को मिलना चाहिए, जिन्होंने इस भाषानुवाद प्रारम्भ (सन् 1960 ई.) में किया और दुबारा करने का आदेश मुझे दिया। कलम मेरी हो सकती है, पर चलाई उन्होंने ही। अक्षर मेरे हो सकते हैं, पर भावाभिव्यक्ति एक मात्र उन्हीं की है।

आज यह सुरभित पुष्प अपने उन्हीं आराध्य गुरुदेव-आचार्य जी के चरणों में समर्पित कर स्वयं को कृत्य-कृत्य हुआ अनुभव करती हूँ।

जिन मनीषियों के ग्रन्थ हमने इस अवधि में पढ़े, उनसे कुछ दिशा बोध मिला, उनका तथा जिन्होंने इस गुरुतर कार्य के संकलन से प्रकाशन तक में सहयोग दिया, उनका मैं विशेष रूप से आभार मानती हूँ। आशा करती हूँ कि इस सृजन से अपनी संस्कृति और इस महान् देश की विराट् बौद्धिक, आत्मिक तथा आध्यात्मिक सम्पदा गौरवान्वित होगी।

-भगवती देवी शर्मा

भूमिका



वेद की अतुलनीय महिमा


वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। भारतीय धर्म संस्कृति एवं सभ्यता का भव्य प्रसाद जिस दृढ़ आधारसिला पर प्रतिष्ठित है, उसे वेद के नाम से जाना जाता है। भारतीय आचार-विचार, रहन-सहन तथा धर्म-कर्म को भली-भाँति समझने के लिए वेदों का ज्ञान बहुत आवश्यक है। सम्पूर्ण धर्म-कर्म का मूल तथा यथार्थ कर्त्तव्य-धर्म की जिज्ञासा वाले लोगों के लिए ‘वेद’ सर्वश्रेष्ठ प्रमाण हैं। ‘वेदोंऽखिलो धर्ममूलम्’, ‘धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः’ (मनु. 2.6, 13) जैसे शास्त्रवचन इसी रहस्य का उद्घाटन करते हैं। वस्तुतः ‘वेद’ शाश्वत-यथार्थ ज्ञान राशि के समुच्चय हैं, जिसे साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने अपने प्रातिभ चक्षु से देखा है—अनुभव किया है।

ऋषियों ने अपने मन या बुद्धि से कोई कल्पना न करके एक शाश्वत अपौरुषेय सत्य की, अपनी चेतना के उच्चतम स्तर पर अनुभूति की और उसे मंत्रों का रूप दिया। वे चेतना क्षेत्र की रहस्यमयी गुत्थियों को अपनी आत्मसत्ता रूपा प्रयोगशाला में सुलझाकर सत्य का अनुशीलन करके उसे शक्तिशाली काव्य के रूप में अभिव्यक्त करते रहे हैं। वेद स्वयं इनके बारे में कहता है—‘सत्यश्रुतः कवयः’’ (ऋ.5.57.8) अर्थात् ‘‘दिव्य शाश्वत सत्य का श्रवण करने वाले द्रष्टा महापुरुष।’’

 इसी आधार पर वेदों को ‘श्रुति’ कहकर पुकारा गया। यदि श्रुति का भावात्मक अर्थ लिया जाय, तो वह है स्वयं साक्षात्कार किये गये ज्ञान का भाण्डागार। इस तरह समस्त धर्मों के मूल के रूप में माने जाने वाले, देवसंस्कृति के रत्न-वेद हमारे समक्ष ज्ञान के एक पवित्र कोष के रूप में आते हैं। ईश्वरीय प्रेरणा से अन्तःस्फुरण (इलहाम) के रूप में ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ की भावना से सराबोर ऋषियों द्वारा उनका अवतरण सृष्टि के आदिकाल में हुआ।

वेदों की ऋचाओं में निहित ज्ञान अनन्त है तथा उनकी शिक्षाओं में मानव-मात्र ही नहीं, वरन् समस्त सृष्टि के जीवधारियों-घटकों के कल्याण एवं सुख की भावना निहित है। उसी का वे उपदेश करते हैं। इस प्रकार वे किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष को दृष्टिगत रख अपनी बात नहीं कहते। उनकी शिक्षा में छपे मूल तत्त्व अपरिवर्तनीय हैं, हर काल-समय-परिस्थिति में वे लागू होते हैं तथा आज की परिस्थितियों में भी पूर्णतः व्यावहारिक एवं विशुद्ध विज्ञान सम्मत हैं।

भारतीय परम्परा ‘वेद’ के सर्व ज्ञानमय होने की घोषणा करती है—‘भूतं भव्यं भविष्यञ्च सर्वं वेदात् प्रसिध्यति।’ (मनु.12.97) अर्थात् भूत, वर्तमान और भविष्यत सम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञान का आधार वेद है। आचार्य सायण ने कृष्ण यजुर्वेद की तैत्ति. सं. के उपोद्घात में स्वयमेव  लिखा है—


प्रत्क्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते।
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता।।


अर्थात्-प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण से जिस तत्त्व (विषय) का ज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा हो, उसका ज्ञान भी वेदों के द्वारा हो जाता है। यही वेदों का वेदत्व है।

दृष्टाओं का मत है कि वेद श्रेठतम ज्ञान–पराचेतना के गर्भ में सदैव से स्थित रहते हैं। परिष्कृत-चेतना-सम्पन्न ऋषियों के माध्यम से वे प्रत्येक कल्प में प्रकट होते हैं। कल्पान्त में पुनः वहीं समा जाते हैं।

आचार्य शंकर ने अपने ‘शारीरिक –भाष्य’ में वेदान्त सूत्र —‘अतएव च नित्यत्वम्’ की व्याख्या में महाभारत का यह श्लोक उद्धृत किया है—युगान्तेऽन्तर्हितान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः। लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयंभुवा।। ‘युग के अन्त में वेदों का अन्तर्धान हो जाता है। सृष्टि के आदि में स्वयंभू के द्वारा महर्षि लोगों ने उन्हीं वेदों को इतिहास के साथ अपनी तपस्या के बल से प्राप्त किया।’

ऐसा भी प्रसिद्धि है कि परमात्मा ने सृष्टि के प्रारम्भ में ही ‘वेद’ के रूप में अपेक्षित ज्ञान का प्रकाश कर दिया। महाभारत में ही महर्षि वेदव्यास ने इस सत्य का उद्घाटन करते हुए लिखा है—अनादि निधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा। आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः (महा. शा. प. 232, 24)। अर्थात्—सृष्टि के प्रारम्भ में स्वयंभू परमात्मा से ऐसी दिव्य वाणी (वेद) का प्रादुर्भाव हुआ, जो नित्य है और जिससे संसार की गतिविधियाँ चलीं। स्थूल बुद्धि से यह अवधारणा अटपटी सी-कल्पित सी लगती है, किन्तु है सत्य। आज के विकसित विज्ञान के सन्दर्भ से उसे समझने का प्रयास करें, तो बात कुछ स्पष्ट हो सकती है। कम्प्यूटर तंत्र के अंतर्गत मास्टर के साथ माइक्रोवेव टावर्स (सूक्ष्म तरंग प्रणाली) द्वारा विभिन्न कम्प्यूटर केन्द्र जुड़े रहते हैं। रेलवे टिकिट बुकिंग से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय आँकड़ों के तन्त्रों में आज यह प्रणाली प्रयुक्त है। प्रत्यक्ष में कम्प्यूटरों के पर्दे पर इच्छित आँकड़े या सूत्र उभरते रहते हैं। यदि कोई कम्प्यूटर केन्द्र बिगड़ जाए अथवा नष्ट हो जाए तो उस अंकित आँकड़े नष्ट या लुप्त हो गये से लगते तो हैं, किंतु वास्तव में वे मास्टर कम्प्यूटर में समा जाते हैं, वहाँ सुरक्षित रहते हैं। कालान्तर में कम्प्यूटर केन्द्र पुनः स्थापित होने पर वे ही सूत्र पुनः पर्दों पर आने लगते हैं।

उक्त विधा के अनुरूप ही पराचेतना में मास्टर कम्प्यूटर की तरह समस्त ज्ञान स्थित है। विभिन्न लोकों और विभिन्न कालों में वहाँ विकसित उच्च-परिष्कृत मानस कम्प्यूटर केन्द्रों की भूमिका निभाते रहते हैं। कभी भूलोक आदि किसी लोक का तन्त्र नष्ट या अस्त-व्स्त हो जाने से वह ज्ञान नष्ट नहीं होता। यह अवधारणा चेतना-विज्ञान का क, ख, ग समझने वालों को भी अटपटी नहीं लगनी चाहिए।


नेति-नेति



उपनिषद् की यह अवधारणा कि वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है। पूर्ण से ही पूर्ण का उदय-विकास होता है। उस पूर्ण में से यह पूर्ण प्राप्त कर लेने पर भी वह पूर्ण ही रहता है—

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।।


अस्तु वेद का वह सनातन भाण्डागार पूर्ण है। उससे प्रकट यह वेद भी पूर्ण हैं, क्योंकि समकालीन सृष्टि तन्त्र का पूर्ण ज्ञान इसमें रहता है। सनातन वेद में से प्रत्यक्ष वेद के प्रकट होने या न होने से उस सनातन की पूर्णता में कोई अन्तर नहीं पड़ता। पदार्थ से उत्पन्न ज्ञान (पाश्चात्य-विज्ञान) पदार्थ के साथ नष्ट हो सकता है, किन्तु चेतना अनश्वर है, इसलिए चेतना से उद्भूत ज्ञान को भी अनश्वर कहा गया है।। ऋषियों ने यह ज्ञान समाधि द्वारा परमात्म तत्त्व से एकाकार होकर पाया था। ऋषियों का ज्ञान ‘साक्षात्कार का ज्ञान’ नॉलेज बाय आयडेन्टिटी (Knowledge by Identity) है। देख-पढ़कर, बैद्धिकता, तार्किक विश्लेषण द्वारा अथवा बाह्य प्रेरणा द्वारा ऐसा ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। यह हमारी संस्कृति की ही अनादिकालीन परम्परा रही है कि ज्ञान-प्राप्ति हेतु ऋषि-गण आत्मसत्ता की प्रयोगशाला में जाकर अन्तर्मुखी हो मनन, निदिध्यासन तथा फिर समाधि की स्थिति में जाकर चेतना जगत् के सूत्रों को खोज लाते थे। उन ज्ञान सूत्रों का क्रमबद्ध संकलन हमें वेद मंत्रों के रूप में उपलब्ध है। ऋषियों ने वेद को पूर्ण तो कहा, किन्तु उसी के साथ नेति-नेति (यही अंतिम नहीं है) भी कहा ‘पूर्णमिदं’ के साथ नेति-नेति कहना उनके तत्त्व द्रष्टा और स्पष्ट वक्ता होने का प्रमाण है। अंतर्दृष्टि की परिपक्वता के बिना कोई व्यक्ति ऐसी उक्ति कह नहीं सकता। ऋषियों ने लोक एवं काल की आवश्यकता के अनुरूप चेतना के समग्र सूत्र प्रकट कर दिये। इसलिए उन्हें पूर्ण तो कहा, किन्तु वे देख रहे थे कि यह पूर्ण ज्ञान भी इस दिव्य ज्ञान भाण्डागार का एक अंश मात्र है। इसलिए उन्होंने नेति (यही अंतिम नहीं) कह दिया। आवश्यकता के अनुरूप जिस ज्ञान का बोध उन्होंने किया, उसे जन-जन तक पहुँचाने के लिए उसे भाषा में व्यक्त करना आवश्यक हुआ। अनुभूति को व्यक्त करने में भाषा सामान्य व्यवहार में भी अक्षम सिद्ध होती है, सो वेदानुभूति को व्यक्त करने में तो वह समर्थ हो ही कैसे सकती थी ? अस्तु ऋषियों ने स्पष्टता से कह दिया जितना कुछ व्यक्त किया जा सका, तथ्य केवल उतना ही नहीं है। उसे पूर्णतया समझने के लिए तो स्वानुभूति की क्षमता ही विकसित करनी होती है।

देवसंस्कृति के मर्मज्ञ ऋषियों ने इसी कारण से वेदाध्ययन करने वालों के लिए दो तत्व अनिवार्य बताए हैं—श्रद्धा एवं साधना। श्रद्धा की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि आलंकारिक भाषा में कहे गए रूपकों के प्रतिमान—शाश्वत सत्यों को पढ़कर बुद्धि भ्रमित न हो जाय। साधना इस कारण आवश्यक है कि श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परिधि से भू ऊपर उठकर मन ‘‘अनन्तं निर्विकल्पम्’’ की विकसित स्थिति में जाकर इन सत्यों का स्वयं साक्षात्कार कर सके। मंत्रों का गुह्यार्थ तभी जाना जा सकता है।

 

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