स्वास्थ्य-चिकित्सा >> एलर्जी व अस्थमा का उपचार एलर्जी व अस्थमा का उपचारराजीव शर्मा
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एलर्जी व अस्थमा के रोग तथा उनके उपचारों पर प्रकाश डाला गया है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आजकल बदलते वातावरणीय प्रदूषण, खान-पान में मिलावट व शुद्धता में कमी के
चलते अस्थमा (दमा) व एलर्जी जैसी बीमारियां बढ़ती ही जा रही हैं। यहां तक
कि नकली दवाओं का धंधा भी दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। ऐसे में शरीर की
रोग प्रतिरोधक क्षमता ही नहीं घटती वरन् कई भयानक रोग भी हो जाते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में दमा व एलर्जी के विभिन्न पहलुओं पर तो प्रकाश डाला ही गया है। साथ ही श्वसन संस्थान के कार्य व संबंधित अन्य रोगों जैसे जुकाम, खांसी, न्यूमोनिया, क्षय (तपेदिक) आदि के भी कारण, लक्षण, बचाव व उपचार बताए गए हैं।
पुस्तक में यथोचित अंग्रेजी औषधियों के अलावा आयुर्वेद, होम्योपैथी, बायोकैमिक, प्राकृतिक व आहार उपचार के बारे में भी बताया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक में दमा व एलर्जी के विभिन्न पहलुओं पर तो प्रकाश डाला ही गया है। साथ ही श्वसन संस्थान के कार्य व संबंधित अन्य रोगों जैसे जुकाम, खांसी, न्यूमोनिया, क्षय (तपेदिक) आदि के भी कारण, लक्षण, बचाव व उपचार बताए गए हैं।
पुस्तक में यथोचित अंग्रेजी औषधियों के अलावा आयुर्वेद, होम्योपैथी, बायोकैमिक, प्राकृतिक व आहार उपचार के बारे में भी बताया गया है।
लेखक परिचय
डॉ. राजीव शर्मा
डॉ. राजीव शर्मा देश के प्रतिष्ठित होमियोपैथी, योग, प्राकृतिक व वैकल्पिक
चिकित्सा के परामर्शदाता हैं। लगभग सौ पुस्तकें लिख चुके,
‘‘साहित्य श्री’’ की उपाधि से
विभूषित डॉ. राजीव
शर्मा विगत दस वर्षों से स्तम्भ लेखक के रूप में सक्रिय हैं। लगभग सभी
राष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में आपके 1000 से अधिक लेख प्रकाशित हो
चुके हैं। चिकित्सीय लेखन के क्षेत्र में डॉ. राजीव शर्मा ने जनपद
बुलंदशहर का नाम रोशन किया है। आपको साहित्य श्री व अन्य कई उपाधियों से
विभूषित किया जा चुका है।
डॉ. राजीव शर्मा भारतीय जीवन बीमा निगम के मेडिकल ऑफिसर हैं, रॉलसन रेमेडीज दिल्ली के सलाहकार हैं और विश्व के 20 से अधिक देशों में प्रसारित ‘‘एशियन होमियोपैथिक जर्नल’’ के सम्पादक मंडल के सदस्य हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर ‘‘नशा मुक्ति व एड्स जागृति कार्यक्रम’’ से जुड़े डॉ. राजीव शर्मा की आकाशवाणी से भी वार्ताएं प्रसारित हो चुकी हैं।
डॉ. राजीव शर्मा भारतीय जीवन बीमा निगम के मेडिकल ऑफिसर हैं, रॉलसन रेमेडीज दिल्ली के सलाहकार हैं और विश्व के 20 से अधिक देशों में प्रसारित ‘‘एशियन होमियोपैथिक जर्नल’’ के सम्पादक मंडल के सदस्य हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर ‘‘नशा मुक्ति व एड्स जागृति कार्यक्रम’’ से जुड़े डॉ. राजीव शर्मा की आकाशवाणी से भी वार्ताएं प्रसारित हो चुकी हैं।
डॉ. डी.के. शर्मा
डॉ. डी.के. शर्मा की प्रारम्भिक शिक्षा जनपद बुलन्दशहर में ही हुई। आपने
उत्तर प्रदेश के झांसी स्थित मेडिकल कॉलेज से वर्ष 1992 में एम.डी. की
उपाधि ‘इंटरनल मेडिसिन’ विषय में उच्च दक्षता के साथ
उत्तीर्ण
की।
एम.डी. पास करने के बाद आपने कुछ समय दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में काम किया व कुछ सरकारी सेवा में भी रहे। तत्पश्चात् आपने कई रिसर्च पेपर्स को विभिन्न चिकित्सकीय सेमिनारों में पढ़ा व अमेरिका भी कई बार गए। अमेरिका में तपेदिक (टी.बी.) व मधुमेह (डायबिटीज़) पर आपके व्याख्यानों को खूब सराहा गया।
अपने देश में ही सेवा-भाव के साथ कार्य करने की इच्छा के फलस्वरूप ‘ग्रीन कार्ड होल्डर’ होते हुए भी आपने अपनी पैतृक भूमि बुलन्दशहर को ही अपनी कर्मभूमि चुना।
सम्प्रति डॉ. डी.के. शर्मा जनपद बुलन्दशहर में ही अपनी चिकित्सक, मिलनसार व मृदुभाषिणी पत्नी डॉ. रेखा शर्मा (एम.डी.-गायनी एंड आब्स) के साथ मिलकर ‘देव क्लीनिक व नर्सिंग होम’ का संचालन बड़ी सफलतापूर्वक कर रहे हैं।
ईश्वर दोनों पति-पत्नी को सफलता के उच्चतम शिखर पर विराजमान करें।
एम.डी. पास करने के बाद आपने कुछ समय दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में काम किया व कुछ सरकारी सेवा में भी रहे। तत्पश्चात् आपने कई रिसर्च पेपर्स को विभिन्न चिकित्सकीय सेमिनारों में पढ़ा व अमेरिका भी कई बार गए। अमेरिका में तपेदिक (टी.बी.) व मधुमेह (डायबिटीज़) पर आपके व्याख्यानों को खूब सराहा गया।
अपने देश में ही सेवा-भाव के साथ कार्य करने की इच्छा के फलस्वरूप ‘ग्रीन कार्ड होल्डर’ होते हुए भी आपने अपनी पैतृक भूमि बुलन्दशहर को ही अपनी कर्मभूमि चुना।
सम्प्रति डॉ. डी.के. शर्मा जनपद बुलन्दशहर में ही अपनी चिकित्सक, मिलनसार व मृदुभाषिणी पत्नी डॉ. रेखा शर्मा (एम.डी.-गायनी एंड आब्स) के साथ मिलकर ‘देव क्लीनिक व नर्सिंग होम’ का संचालन बड़ी सफलतापूर्वक कर रहे हैं।
ईश्वर दोनों पति-पत्नी को सफलता के उच्चतम शिखर पर विराजमान करें।
प्रकाशक
श्वासोच्छ्वास संस्थान
(The Respiratory system )
श्वासोच्छ्वास संस्थान (The Respiratory system ) का परिचय
श्वासोच्छ्वास संस्थान में सांस संबंधी यंत्र जैसे नाक, स्वरयंत्र (Larynx), श्वासनलिका (Wind Pipe), और फुफ्फुस (Lungs) आदि शामिल होते हैं।
श्वासोच्छ्वास संस्थान में सांस संबंधी यंत्र जैसे नाक, स्वरयंत्र (Larynx), श्वासनलिका (Wind Pipe), और फुफ्फुस (Lungs) आदि शामिल होते हैं।
श्वासोच्छ्वास संस्थान का कार्य (Functions)
इस संस्थान का मुख्य कार्य दूषित गैसों से भरे हुए रक्त को शुद्ध करके
प्राणप्रद वायु प्रदान करना और साथ ही सारे शरीर को शुद्ध करना है।
अब हम इस संस्थान से संबंधित अवयवों का संक्षेप में वर्णन करेंगे।
नाक (Nose)-
सांस लेने के दो रास्ते हैं- एक सही रास्ता दूसरा गलत रास्ता। नाक द्वारा सांस लेना सही रास्ता है किन्तु मुंह से सांस लेना गलत है। हमेशा नाक से ही सांस लेनी चाहिए क्योंकि नाक के अन्दर छोटे-छोटे बाल होते हैं। ये बाल हवा में मिली धूल को बाहर ही रोक लेते हैं, अन्दर नहीं जाने देते। मुंह से सांस कभी नहीं लेनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने से हवा (सांस) के साथ धूल और हानिकारक कीटाणु भी अन्दर चले जाते हैं।
वायु प्रणाली (सांस-नली) (Wind Pipe, Trachea)-
यह प्राय: साढ़े चार इंच लम्बी, बीच में खोखली एक नली होती है, जो गले में टटोली जा सकती है। यह भोजन को नली (अन्न) नाल के साथ गले से नीचे वक्षगहर में चली जाती है। वक्षगहर में, नीचे के सिरे पर चलकर इसकी दो शाखाएं हो गई हैं। इसकी एक शाखा दाएं फेफड़े में और दूसरी बाएं फेफड़े में चली गई है। ये ही दोनों शाखाएं वायु नली कहलाती हैं। श्वास नली और वायु नली फेफड़े में जाने के प्रधान वायु पथ हैं।
स्वरयंत्र (Larynx)
–जीभ के मूल के पीछे, कण्ठिकास्थि के नीचे और कण्ठ के सामने स्वरयंत्र (Larynx) होता है। नाक से ली हुई हवा कण्ठ से होती हुई इसी में आती है। इसके सिरे पर एक ढकना-सा होता है। जिसे ‘स्वर यंत्रच्छद’ कहते हैं। यह ढकना हर समय खुला रहता है किन्तु खाना खाते समय यह ढकना बन्द हो जाता है जिससे भोजन स्वरयंत्र में न गिरकर, पीछे अन्नप्रणाली में गिर पड़ता है। कभी-कभी रोगों के कारण या असावधानी से जब भोजन या जल का कुछ अंश स्वरयंत्र में गिर पड़ता है तो बड़े जोर से खांसी आती है। इस खांसी आने का मतलब यह है कि जल या भोजन का जो अंश इसमें (स्वरयंत्र में) गिर पड़ा है, यह बाहर निकल जाए।
भोजन को हम निगलते हैं तो उस समय स्वरयंत्र ऊपर को उठता और फिर गिरता हुआ दिखाई देता है। इसमें जब वायु प्रविष्ठ होती है तब स्वर उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह हमें बोलने में भी बहुत सहायता प्रदान करता है।
फुफ्फुस की रचना (Structure of the Lungs)-
हमारी छाती में दो फुफ्फुस (फेफड़े) होते हैं- दायां और बायां। दायां फेफड़ा बाएं से एक इंच छोटा, पर कुछ अधिक चौड़ा होता है। दाएं फेफड़े का औसत भार 23 औंस और बाएं का 19 औंस होता है। पुरुषों के फेफड़े स्त्रियों के फुफ्फुसों से कुछ भारी होते हैं।
फुफ्फुस चिकने और कोमल होते हैं। इनके भीतर अत्यंत सूक्ष्म अनन्त कोष्ठ होते हैं जिनको ‘वायु कोष्ठ’ (Air cells) कहते हैं। इन वायु कोष्ठों में वायु भरी होती है। फेफड़े युवावस्था में मटियाला और वृद्धावस्था में गहरे रंग का स्याही मायल हो जाता है। ये भीतर से स्पंज-समान होते हैं।
श्वसन क्रिया (Respiration)
अब आप जानते ही हैं कि सांस लेने को ‘श्वास’ और सांस छोड़ने को ‘प्रश्वास’ कहते हैं। इस ‘श्वास-प्रश्वास क्रिया’ को ही ‘श्वसन क्रिया’ कहते हैं।
श्वास-गति (Breathing Rate)
साधारणत: स्वस्थ मनुष्य एक मिनट में 16 से 20 बार तक सांस लेता है। भिन्न-भिन्न आयु में सांस संख्या निम्नानुसार होती है-
आयु संख्या प्रति मिनट
दो महीने से दो साल तक 35 प्रति मिनट
दो साल से छ: साल तक 23 प्रति मिनट
छ: साल से बारह साल तक 20 प्रति मिनट
बारह साल से पन्द्रह साल तक 18 प्रति मिनट
पन्द्रह साल से इक्कीस साल तक 16 से 18 प्रति मिनट
उपर्युक्त श्वास-गति व्यायाम और क्रोध आदि से बढ़ जाया करती है किन्तु सोते समय या आराम करते समय यह श्वास-गति कम हो जाती है। कई रोगों में जैसे न्यूमोनिया, दमा, क्षयरोग, मलेरिया, पीलिया, दिल और गुर्दों के रोगों में भी श्वास-गति बढ़ जाती है। इसी प्रकार ज्यादा अफीम खाने से, मस्तिष्क में चोट लगने के बाद तथा मस्तिष्क के कुछ रोगों में यही श्वास गति कम हो जाया करती है।
अब हम इस संस्थान से संबंधित अवयवों का संक्षेप में वर्णन करेंगे।
नाक (Nose)-
सांस लेने के दो रास्ते हैं- एक सही रास्ता दूसरा गलत रास्ता। नाक द्वारा सांस लेना सही रास्ता है किन्तु मुंह से सांस लेना गलत है। हमेशा नाक से ही सांस लेनी चाहिए क्योंकि नाक के अन्दर छोटे-छोटे बाल होते हैं। ये बाल हवा में मिली धूल को बाहर ही रोक लेते हैं, अन्दर नहीं जाने देते। मुंह से सांस कभी नहीं लेनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने से हवा (सांस) के साथ धूल और हानिकारक कीटाणु भी अन्दर चले जाते हैं।
वायु प्रणाली (सांस-नली) (Wind Pipe, Trachea)-
यह प्राय: साढ़े चार इंच लम्बी, बीच में खोखली एक नली होती है, जो गले में टटोली जा सकती है। यह भोजन को नली (अन्न) नाल के साथ गले से नीचे वक्षगहर में चली जाती है। वक्षगहर में, नीचे के सिरे पर चलकर इसकी दो शाखाएं हो गई हैं। इसकी एक शाखा दाएं फेफड़े में और दूसरी बाएं फेफड़े में चली गई है। ये ही दोनों शाखाएं वायु नली कहलाती हैं। श्वास नली और वायु नली फेफड़े में जाने के प्रधान वायु पथ हैं।
स्वरयंत्र (Larynx)
–जीभ के मूल के पीछे, कण्ठिकास्थि के नीचे और कण्ठ के सामने स्वरयंत्र (Larynx) होता है। नाक से ली हुई हवा कण्ठ से होती हुई इसी में आती है। इसके सिरे पर एक ढकना-सा होता है। जिसे ‘स्वर यंत्रच्छद’ कहते हैं। यह ढकना हर समय खुला रहता है किन्तु खाना खाते समय यह ढकना बन्द हो जाता है जिससे भोजन स्वरयंत्र में न गिरकर, पीछे अन्नप्रणाली में गिर पड़ता है। कभी-कभी रोगों के कारण या असावधानी से जब भोजन या जल का कुछ अंश स्वरयंत्र में गिर पड़ता है तो बड़े जोर से खांसी आती है। इस खांसी आने का मतलब यह है कि जल या भोजन का जो अंश इसमें (स्वरयंत्र में) गिर पड़ा है, यह बाहर निकल जाए।
भोजन को हम निगलते हैं तो उस समय स्वरयंत्र ऊपर को उठता और फिर गिरता हुआ दिखाई देता है। इसमें जब वायु प्रविष्ठ होती है तब स्वर उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह हमें बोलने में भी बहुत सहायता प्रदान करता है।
फुफ्फुस की रचना (Structure of the Lungs)-
हमारी छाती में दो फुफ्फुस (फेफड़े) होते हैं- दायां और बायां। दायां फेफड़ा बाएं से एक इंच छोटा, पर कुछ अधिक चौड़ा होता है। दाएं फेफड़े का औसत भार 23 औंस और बाएं का 19 औंस होता है। पुरुषों के फेफड़े स्त्रियों के फुफ्फुसों से कुछ भारी होते हैं।
फुफ्फुस चिकने और कोमल होते हैं। इनके भीतर अत्यंत सूक्ष्म अनन्त कोष्ठ होते हैं जिनको ‘वायु कोष्ठ’ (Air cells) कहते हैं। इन वायु कोष्ठों में वायु भरी होती है। फेफड़े युवावस्था में मटियाला और वृद्धावस्था में गहरे रंग का स्याही मायल हो जाता है। ये भीतर से स्पंज-समान होते हैं।
श्वसन क्रिया (Respiration)
अब आप जानते ही हैं कि सांस लेने को ‘श्वास’ और सांस छोड़ने को ‘प्रश्वास’ कहते हैं। इस ‘श्वास-प्रश्वास क्रिया’ को ही ‘श्वसन क्रिया’ कहते हैं।
श्वास-गति (Breathing Rate)
साधारणत: स्वस्थ मनुष्य एक मिनट में 16 से 20 बार तक सांस लेता है। भिन्न-भिन्न आयु में सांस संख्या निम्नानुसार होती है-
आयु संख्या प्रति मिनट
दो महीने से दो साल तक 35 प्रति मिनट
दो साल से छ: साल तक 23 प्रति मिनट
छ: साल से बारह साल तक 20 प्रति मिनट
बारह साल से पन्द्रह साल तक 18 प्रति मिनट
पन्द्रह साल से इक्कीस साल तक 16 से 18 प्रति मिनट
उपर्युक्त श्वास-गति व्यायाम और क्रोध आदि से बढ़ जाया करती है किन्तु सोते समय या आराम करते समय यह श्वास-गति कम हो जाती है। कई रोगों में जैसे न्यूमोनिया, दमा, क्षयरोग, मलेरिया, पीलिया, दिल और गुर्दों के रोगों में भी श्वास-गति बढ़ जाती है। इसी प्रकार ज्यादा अफीम खाने से, मस्तिष्क में चोट लगने के बाद तथा मस्तिष्क के कुछ रोगों में यही श्वास गति कम हो जाया करती है।
फेफड़े के कार्य
दोनों फुफ्फुसों के मध्य में हृदय स्थित रहता है। प्रत्येक फुफ्फुस को एक
झिल्ली घेरे रहती है ताकि फूलते और सिकुड़ते वक्त फुफ्फुस बिना किसी रगड़
के कार्य कर सकें। इस झिल्ली में विकार उत्पन्न होने पर इसमें शोथ हो जाता
है जिसे प्लूरिसी नामक रोग होना कहते हैं। जब फुफ्फुसों में शोथ होता है
तो इसे श्वसनिका शोथ होना कहते हैं जिससे दमा रोग होता है और जब फुफ्फुसों
से क्षय होता है तब उसे यक्ष्मा या क्षय रोग, तपेदिक, टी.बी. होना कहते
हैं।
फुफ्फुसों के नीचे एक बड़ी झिल्ली होती है जिसे उर: प्राचीर कहते हैं जो फुफ्फुसों और उदर के बीच में होती है। सांस लेने पर यह झिल्ली नीचे की तरफ फैलती है जिससे सांस अन्दर भरने पर पेट फूलता है और बाहर निकलने पर वापिस बैठता है।
कार्य: फेफड़ों का मुख्य काम शरीर के अन्दर वायु खींचकर ऑक्सीजन उपलब्ध कराना तथा इन कोशिकाओं की गतिविधियों से उत्पन्न होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड नामक गन्दी गैस को बाहर फेंकना है। यह फेफड़ों द्वारा किया जाने वाला फुफ्फुसीय वायु संचार कार्य है जो फेफड़ों को शुद्ध और सशक्त रखता है। यदि वायुमण्डल प्रदूषित हो तो फेफड़ों में दूषित वायु पहुंचने से फेफड़े शुद्ध न रह सकेंगे और विकारग्रस्त हो जाएंगे।
श्वास-क्रिया दो खण्डों में होती है। जब सांस अन्दर आती है तब इसे पूरक कहते हैं। जब यह श्वास बाहर हो जाती है तब इसे रेचक कहते हैं। प्राणायाम विधि में इस सांस को भीतर या बाहर रोका जाता है। सांस रोकने को कुम्भक कहा जाता है। भीतर सांस रोकना आंतरिक कुम्भक और बाहर सांस रोक देना बाह्य कुम्भक कहलाता है। प्राणायाम ‘अष्टांग योग’ के आठ अंगों में एक अंग है। प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से फेफड़े शुद्ध और शक्तिशाली बने रहते हैं। फुफ्फुस में अनेक सीमांत श्वसनियां होती हैं जिनके कई छोटे-छोटे खण्ड होते हैं जो वायु मार्ग बनाते हैं। इन्हें उलूखल कोशिका कहते हैं। इनमें जो बारीक-बारीक नलिकाएं होती हैं वे अनेक कोशिकाओं और झिल्लीदार थैलियों के जाल से घिरी होती हैं। यह जाल बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करता है क्योंकि यहीं पर फुफ्फुसीय धमनी से ऑक्सीजन विहीन रक्त आता है और ऑक्सीजनयुक्त होकर वापस फुफ्फुसीय शिराओं में प्रविष्ठ होकर शरीर में लौट जाता है। इस प्रक्रिया से रक्त शुद्धी होती रहती है। यहीं वह स्थान है जहां उलूखल कोशिकाओं में उपस्थित वायु तथा वाहिकाओं में उपस्थित रक्त के बीच गैसों का आदान-प्रदान होता है जिसके लिए सांस का आना-जाना होता है।
फुफ्फुसों के नीचे एक बड़ी झिल्ली होती है जिसे उर: प्राचीर कहते हैं जो फुफ्फुसों और उदर के बीच में होती है। सांस लेने पर यह झिल्ली नीचे की तरफ फैलती है जिससे सांस अन्दर भरने पर पेट फूलता है और बाहर निकलने पर वापिस बैठता है।
कार्य: फेफड़ों का मुख्य काम शरीर के अन्दर वायु खींचकर ऑक्सीजन उपलब्ध कराना तथा इन कोशिकाओं की गतिविधियों से उत्पन्न होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड नामक गन्दी गैस को बाहर फेंकना है। यह फेफड़ों द्वारा किया जाने वाला फुफ्फुसीय वायु संचार कार्य है जो फेफड़ों को शुद्ध और सशक्त रखता है। यदि वायुमण्डल प्रदूषित हो तो फेफड़ों में दूषित वायु पहुंचने से फेफड़े शुद्ध न रह सकेंगे और विकारग्रस्त हो जाएंगे।
श्वास-क्रिया दो खण्डों में होती है। जब सांस अन्दर आती है तब इसे पूरक कहते हैं। जब यह श्वास बाहर हो जाती है तब इसे रेचक कहते हैं। प्राणायाम विधि में इस सांस को भीतर या बाहर रोका जाता है। सांस रोकने को कुम्भक कहा जाता है। भीतर सांस रोकना आंतरिक कुम्भक और बाहर सांस रोक देना बाह्य कुम्भक कहलाता है। प्राणायाम ‘अष्टांग योग’ के आठ अंगों में एक अंग है। प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से फेफड़े शुद्ध और शक्तिशाली बने रहते हैं। फुफ्फुस में अनेक सीमांत श्वसनियां होती हैं जिनके कई छोटे-छोटे खण्ड होते हैं जो वायु मार्ग बनाते हैं। इन्हें उलूखल कोशिका कहते हैं। इनमें जो बारीक-बारीक नलिकाएं होती हैं वे अनेक कोशिकाओं और झिल्लीदार थैलियों के जाल से घिरी होती हैं। यह जाल बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करता है क्योंकि यहीं पर फुफ्फुसीय धमनी से ऑक्सीजन विहीन रक्त आता है और ऑक्सीजनयुक्त होकर वापस फुफ्फुसीय शिराओं में प्रविष्ठ होकर शरीर में लौट जाता है। इस प्रक्रिया से रक्त शुद्धी होती रहती है। यहीं वह स्थान है जहां उलूखल कोशिकाओं में उपस्थित वायु तथा वाहिकाओं में उपस्थित रक्त के बीच गैसों का आदान-प्रदान होता है जिसके लिए सांस का आना-जाना होता है।
खांसी-श्वसन विकारों का प्रमुख लक्षण
सूखी खांसी
खांसी आवाज करती हुई विस्फोटक नि:श्वसन होती है जो बन्द कंठ द्वार के
विरुद्ध निकलती है। इसका उद्देश्य श्वांस-प्रणाली तथा श्वसन-वृक्ष से
नि:स्राव या फंसा हुआ कोई बाहरी पदार्थ को निकाल फेंकना होती है। यह स्वत:
होनेवाली एक परावर्तक क्रिया के रूप में होती है या स्वेच्छा से की जाती
है। खांसी श्वसन व्याधियों का सबसे सामान्य लक्षण है। खांसी होने के
निम्नलिखित कारण है-
(क) शोथज स्थितियां
1. वायु मार्ग की शोथज स्थितियां- फेरिन्जाइटिस, टांसिलाइटिस श्वसन-यंत्र शोथ, श्वसन-प्रणाली शोथ, श्वसनी शोथ एवं श्वसनिका शोथ,
2. फुफ्फुसों की शोथज स्थितियां-न्यूमोनिया एवं ब्रोंकोन्यूमोनिया, फुफ्फुस-विद्रधि, यक्ष्मा, फुफ्फुसों के फंगस रोग।
(ख) यान्त्रिक कारण
1. धूम्रपान करने के कारण, धुंआ, धूल या क्षोभकारी गैसों के सूंघने के कारण हुए क्षोभ एवं फुफ्फुस धूलिमयता के कारण,
2. वायु-मार्ग पर किसी अबुर्द, ग्रेन्यूलोमा, महादमनी एन्यूरिज्म या मीडियास्टिनम में स्थित किसी पिण्ड द्वारा पड़ रहे दबाव के कारण,
3. श्वसन वृक्ष के अन्दर कोई बाहरी वस्तु फंस जाने के कारण,
4. श्वसनी-नलिकाओं की संकीर्णता, श्वसनी दमा, तीव्र या पुराना श्वसनी शोथ तथा
5. पुराना अन्तराली तन्तुमयता।
(ग) ताप उत्तेजना
ठंडी या गर्म हवा का झाँका लगना या मौसम में अचानक परिवर्तन होने के कारण भी खांसी या तो सूखी होती है या गीली अर्थात् बलगम के साथ होती है।
साधारणत: ऐसी खाँसी ऊपरी वायु मार्ग फेरिंग्स, स्वर यंत्र, श्वास प्रणाली या श्वसनी में हुए क्षोभ के कारण होती है। इसके कई विशिष्ठ प्रकार हैं:
1. धातु ध्वनि खांसी: ऐसी खांसी फैरिंग्स में धूम्रपान से उत्पन्न प्रणाली शोथ या बड़े श्वसनियों में ब्रोंकाइटिस के प्रथम स्टेज में क्षोथ होने के कारण होती है।
2. कर्कश खांसी: ऐसी खांसी घांटी में कोई विक्षति होने के कारण होती है।
3. घर्घर के साथ खांसी: ऐसी खांसी प्रश्वसन के दौरान आवाज करती हुई प्रश्वसनी कष्ठ-श्वास अर्थात् घर्घर के साथ होती है। ऐसी खांसी स्वरयंत्र में डिफ्थीरिया होने के कारण भी होती है।
4. कूकर-खांसी: ऐसी खांसी छोटी-छोटी तीखी नि:श्वसनी मौकों के बाद एक लम्बी, आवाज करती हुई प्रश्वसनी ‘हूप’ के साथ होती है। ऐसी खांसी कूकर खांसी में होती है।
5. गो-खांसी: इसमें कोई विस्फोटक आवाज नहीं होती। इस खांसी की आवाज कुत्ते के रोने या गाय की डकार जैसी होती है। ऐसी खांसी स्वर-यंत्र रोगग्रस्त में होती है।
6. हल्की, आधी दबी हुई कष्टदायी खांसी: ऐसी खांसी शुष्क प्लूरिसी में होती है।
(क) शोथज स्थितियां
1. वायु मार्ग की शोथज स्थितियां- फेरिन्जाइटिस, टांसिलाइटिस श्वसन-यंत्र शोथ, श्वसन-प्रणाली शोथ, श्वसनी शोथ एवं श्वसनिका शोथ,
2. फुफ्फुसों की शोथज स्थितियां-न्यूमोनिया एवं ब्रोंकोन्यूमोनिया, फुफ्फुस-विद्रधि, यक्ष्मा, फुफ्फुसों के फंगस रोग।
(ख) यान्त्रिक कारण
1. धूम्रपान करने के कारण, धुंआ, धूल या क्षोभकारी गैसों के सूंघने के कारण हुए क्षोभ एवं फुफ्फुस धूलिमयता के कारण,
2. वायु-मार्ग पर किसी अबुर्द, ग्रेन्यूलोमा, महादमनी एन्यूरिज्म या मीडियास्टिनम में स्थित किसी पिण्ड द्वारा पड़ रहे दबाव के कारण,
3. श्वसन वृक्ष के अन्दर कोई बाहरी वस्तु फंस जाने के कारण,
4. श्वसनी-नलिकाओं की संकीर्णता, श्वसनी दमा, तीव्र या पुराना श्वसनी शोथ तथा
5. पुराना अन्तराली तन्तुमयता।
(ग) ताप उत्तेजना
ठंडी या गर्म हवा का झाँका लगना या मौसम में अचानक परिवर्तन होने के कारण भी खांसी या तो सूखी होती है या गीली अर्थात् बलगम के साथ होती है।
साधारणत: ऐसी खाँसी ऊपरी वायु मार्ग फेरिंग्स, स्वर यंत्र, श्वास प्रणाली या श्वसनी में हुए क्षोभ के कारण होती है। इसके कई विशिष्ठ प्रकार हैं:
1. धातु ध्वनि खांसी: ऐसी खांसी फैरिंग्स में धूम्रपान से उत्पन्न प्रणाली शोथ या बड़े श्वसनियों में ब्रोंकाइटिस के प्रथम स्टेज में क्षोथ होने के कारण होती है।
2. कर्कश खांसी: ऐसी खांसी घांटी में कोई विक्षति होने के कारण होती है।
3. घर्घर के साथ खांसी: ऐसी खांसी प्रश्वसन के दौरान आवाज करती हुई प्रश्वसनी कष्ठ-श्वास अर्थात् घर्घर के साथ होती है। ऐसी खांसी स्वरयंत्र में डिफ्थीरिया होने के कारण भी होती है।
4. कूकर-खांसी: ऐसी खांसी छोटी-छोटी तीखी नि:श्वसनी मौकों के बाद एक लम्बी, आवाज करती हुई प्रश्वसनी ‘हूप’ के साथ होती है। ऐसी खांसी कूकर खांसी में होती है।
5. गो-खांसी: इसमें कोई विस्फोटक आवाज नहीं होती। इस खांसी की आवाज कुत्ते के रोने या गाय की डकार जैसी होती है। ऐसी खांसी स्वर-यंत्र रोगग्रस्त में होती है।
6. हल्की, आधी दबी हुई कष्टदायी खांसी: ऐसी खांसी शुष्क प्लूरिसी में होती है।
गीली खांसी
गीली खांसी ऐसी खांसी है जिसके होने से बलगम निकलता है जो श्लेष्माभ, सपूय
या श्लेष्म-पूयी होती है।
श्लेष्माभ बलगम श्लेष्मा का बना होता है जो श्वसनी ग्रंथियों द्वारा सृजित होता है। यह गाढ़ा, लस्सेदार, उजले रंग का होता है। ऐसा बलगम तीव्र श्वसनीर, शोथ में, न्यूमोनिया के प्रथम चरण में अथवा यक्ष्मा की प्रारम्भिक अवस्था में निकलता है।
सपूय बलगम गाढ़ा या पतला पूय का बना होता है तथा पीला या हरा-पीला रंग का होता है। इस प्रकार का बलगम पुराना श्वसनी शोथ में, पुराना संक्रमी दमा में, श्वसनी-विस्फार, न्यूमोनिया की देर वाले अवस्था में फुफ्फुस विद्रधि या यक्ष्मा के बढ़े हुए स्वरूप में मिलता है।
श्लेष्म पूयी बलगम हल्के पीले रंग का होता है। ऐसा बलगम सपूय बलगम वाली व्याधियों (जैसा ऊपर बताया गया है) की प्राथमिक अवस्थाओं में निकलता है।
दुर्गंध करता हुआ बलगम फुफ्फुस विद्रधि, फुफ्फुसी गैंग्रीन तथा श्वसनी विस्फार की स्थितियों में निकलता है। रक्त में सना बलगम रक्तनिष्ठीवन का परिचायक होता है। फनिल, गुलाबी रंग का बलगम फुफ्फुसी शोथ से निकलता है। हरा रंग का बलगम फुफ्फुसी गैंग्रीन में निकलता है। काला बलगम कोयला-खदानी फुफ्फुस धूलिमयता में निकलता है। लोहे पर लगे जंग के रंग का बलगम विघटिक न्यूमोनिया में, कत्थे के रंग का या बादामी रंग की चटनी जैसा बलगम फुफ्फुसी अभीबी रुग्णता में अथवा ऐसे यकृत अमीबी विद्रधि में जो फटकर किसी श्वसनी से सम्पर्क स्थापित कर लिया हो, मिलता है। सुनहला बलगम ऐस्बेटॉस रुग्णता से निकलता है।
श्लेष्माभ बलगम श्लेष्मा का बना होता है जो श्वसनी ग्रंथियों द्वारा सृजित होता है। यह गाढ़ा, लस्सेदार, उजले रंग का होता है। ऐसा बलगम तीव्र श्वसनीर, शोथ में, न्यूमोनिया के प्रथम चरण में अथवा यक्ष्मा की प्रारम्भिक अवस्था में निकलता है।
सपूय बलगम गाढ़ा या पतला पूय का बना होता है तथा पीला या हरा-पीला रंग का होता है। इस प्रकार का बलगम पुराना श्वसनी शोथ में, पुराना संक्रमी दमा में, श्वसनी-विस्फार, न्यूमोनिया की देर वाले अवस्था में फुफ्फुस विद्रधि या यक्ष्मा के बढ़े हुए स्वरूप में मिलता है।
श्लेष्म पूयी बलगम हल्के पीले रंग का होता है। ऐसा बलगम सपूय बलगम वाली व्याधियों (जैसा ऊपर बताया गया है) की प्राथमिक अवस्थाओं में निकलता है।
दुर्गंध करता हुआ बलगम फुफ्फुस विद्रधि, फुफ्फुसी गैंग्रीन तथा श्वसनी विस्फार की स्थितियों में निकलता है। रक्त में सना बलगम रक्तनिष्ठीवन का परिचायक होता है। फनिल, गुलाबी रंग का बलगम फुफ्फुसी शोथ से निकलता है। हरा रंग का बलगम फुफ्फुसी गैंग्रीन में निकलता है। काला बलगम कोयला-खदानी फुफ्फुस धूलिमयता में निकलता है। लोहे पर लगे जंग के रंग का बलगम विघटिक न्यूमोनिया में, कत्थे के रंग का या बादामी रंग की चटनी जैसा बलगम फुफ्फुसी अभीबी रुग्णता में अथवा ऐसे यकृत अमीबी विद्रधि में जो फटकर किसी श्वसनी से सम्पर्क स्थापित कर लिया हो, मिलता है। सुनहला बलगम ऐस्बेटॉस रुग्णता से निकलता है।
कुकुर (काली) खांसी
बच्चों की खतरनाक संक्रामक बीमारी
कुकुर खांसी बच्चों में होने वाली एक संक्रामक तथा खतरनाक बीमारी है।
मुख्यत: श्वसन तंत्र को प्रभावित करती है जो विकसित और विकासशील दोनों
प्रकार के देशों के लिए अत्यन्त चिन्ता का विषय है। भारत जैसे विकासशील
देश में प्रत्येक एक लाख की आबादी पर 587 बच्चे प्रत्येक वर्ष इस बीमारी
से ग्रसित होते हैं। इससे बच्चों में मृत्युदर 4.15 प्रतिशत है जो कि
कुकुर खांसी के रोगियों का 10 प्रतिशत, एक वर्ष के भीतर मरने वाले बच्चों
का आधा भाग है।
यह बीमारी बोर्डटेल परट्यूसिस नामक सूक्ष्मजीवी से होती है। संक्रमण की सार्वधिक बीमारियां पांच वर्ष से कम उम्र में होती हैं जोकि नर बच्चों की अपेक्षा मादा बच्चों में अधिक होती है। छह महीने से कम उम्र के शिशुओं में इस बीमारी से मृत्यु-दर अधिक होती है, हालांकि यह बीमारी साल के किसी भी माह में हो सकती है, किन्तु जाड़ा तथा वर्षा की ऋतु में इसकी संभावना सार्वाधिक होती है। अब प्रश्न उठता है कि यह बीमारी एक बच्चे से दूसरे बच्चे में किस प्रकार संक्रमित होती है ? इस बीमारी से ग्रसित बच्चों की नाक बहती है, छींक आती है और वह खांसता है। नाक बहने के क्रम में जो तरल पदार्थ निकलता है, इसी के द्वारा बीमारी फैलती है। खांसी या छींक के दौरान नाक, मुंह तथा सांस छोड़ने के क्रम में जीवाणु आसपास तथा वातावरण में फैल जाता है, जो दूसरे बच्चों में संक्रमित होने का कारण बनता है। यह बीमारी मुख्यत: बच्चों की प्रारंभिक अवस्था में, जब उनके माता-पिता को उनकी बीमारी का पता नहीं चलता, खेल के मैदान में, एक बिछावन पर सोने और एक ही बर्तन में खाने-पीने के क्रम में फैलती है।
ऐसी बात नहीं है कि रोग के कीटाणुओं के संक्रमण (बीमार बच्चे से स्वथ्य बच्चे में) के तुरंत बाद बीमारी हो जाती है। रोगाणुओं के आक्रमण के पश्चात लक्षण दिखाई पड़ने में एक से दो सप्ताह का समय लग जाता है। सर्वप्रथम जीवाणु श्वसन तंत्र की भीतरी सतह के संपर्क में आकर सतह पर चिपक जाता है, जहां उचित माध्यम पाकर वृद्धि करने लगता है। उसके बाद सतह पर घाव बनता है। फलस्वरूप स्थान फूल जाता है। फिर त्वचा पर नेक्रोसिस की क्रिया होती है। नेक्रोसिस (रक्त प्रवाह की कमी की वजह से त्वचा का क्षय) के कारण अन्य बैक्टीरिया आक्रमण कर त्वचा में तेजी से वृद्धि करना शुरू कर देते है।
इतनी प्रक्रिया पूरी होने में एक-दो सप्ताह का समय लग जाता है। उसके बाद रोग अपना लक्षण दिखाना शुरू करता है, जो तीन भागों में प्रकट होता है। शुरू में बच्चे के खांसी होती है तथा नाक से पानी बहता है। फिर धीरे-धीरे खांसी से बच्चे को विशेष परेशानी नहीं होती, किन्तु धीरे-धीरे इसकी गति बढ़ती है क्योंकि श्वसन-तंत्र को प्रभावित करने की प्रक्रिया लगातार बढ़ती जाती है। जैसे-जैसे श्वसन-तंत्र प्रभावित होता है खांसी और खांसने की गति बढ़ती जाती है और एक समय ऐसा आता है कि खांसी की वजह से रोगी रात को सो नहीं पाता है। पहले जो केवल जागृतावस्था में खांसी होती थी अब वह नींद में भी होने लगती है, जिससे बच्चा खांसते-खांसते उठ जाता है।
यह स्थिति दो से चार सप्ताह तक बनी रहती है। उसके बाद अपना उग्र और भयंकर रूप धारण कर लेती है। अब पहले की अपेक्षा और जल्दी-जल्दी खांसी का दौरा पड़ने लगता है। इस दौरान एक ऐसा स्थिति आ जाती है कि बच्चे को सांस लेने तक में कठिनाई होने लगती है। उसके बाद सांस लेने के क्रम में एक विशेष प्रकार की आवाज निकलने लगती है, जैसे-किसी कुत्ते के रोने की आवाज। यह आवाज श्वसन-तंत्र में संक्रमण तथा ग्लाटिस के खुलने की वजह से होती है, किन्तु वह हूप-हूप आवाज हमेशा नहीं होती है। उसके बाद खांसी के साथ गाढ़े रंग का बलगम (कफ) निकलता है। एक बात और कि जब खांसी अपना वीभत्स रूप दिखा रही होती है तो ठीक उसके बाद उल्टी होती है और खाया-पीया सब बाहर निकल जाता है। खांसी के दौरान जीभ का बार-बार मुंह से बाहर आने के क्रम में उस पर दांत पड़ने से घाव हो जाने की संभावना अत्यधिक बढ़ जाती है। बार-बार खांसने की वजह से चेहरा लाल हो जाता है। बच्चा चिन्तित रहने लगता है। कई बार तो अत्यधिक उदासीन अपने आप में भौंचक्का, किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में कुछ समझ नहीं पाता कि आखिर मुझे कौन-सी सजा दी जा रही है। मानसिक तनाव की वजह से पूरे शरीर से पसीना छूटने लगता है, भोजन से विरक्ति होने लगती है। वह भोजन करना नहीं चाहता।
यह बीमारी बोर्डटेल परट्यूसिस नामक सूक्ष्मजीवी से होती है। संक्रमण की सार्वधिक बीमारियां पांच वर्ष से कम उम्र में होती हैं जोकि नर बच्चों की अपेक्षा मादा बच्चों में अधिक होती है। छह महीने से कम उम्र के शिशुओं में इस बीमारी से मृत्यु-दर अधिक होती है, हालांकि यह बीमारी साल के किसी भी माह में हो सकती है, किन्तु जाड़ा तथा वर्षा की ऋतु में इसकी संभावना सार्वाधिक होती है। अब प्रश्न उठता है कि यह बीमारी एक बच्चे से दूसरे बच्चे में किस प्रकार संक्रमित होती है ? इस बीमारी से ग्रसित बच्चों की नाक बहती है, छींक आती है और वह खांसता है। नाक बहने के क्रम में जो तरल पदार्थ निकलता है, इसी के द्वारा बीमारी फैलती है। खांसी या छींक के दौरान नाक, मुंह तथा सांस छोड़ने के क्रम में जीवाणु आसपास तथा वातावरण में फैल जाता है, जो दूसरे बच्चों में संक्रमित होने का कारण बनता है। यह बीमारी मुख्यत: बच्चों की प्रारंभिक अवस्था में, जब उनके माता-पिता को उनकी बीमारी का पता नहीं चलता, खेल के मैदान में, एक बिछावन पर सोने और एक ही बर्तन में खाने-पीने के क्रम में फैलती है।
ऐसी बात नहीं है कि रोग के कीटाणुओं के संक्रमण (बीमार बच्चे से स्वथ्य बच्चे में) के तुरंत बाद बीमारी हो जाती है। रोगाणुओं के आक्रमण के पश्चात लक्षण दिखाई पड़ने में एक से दो सप्ताह का समय लग जाता है। सर्वप्रथम जीवाणु श्वसन तंत्र की भीतरी सतह के संपर्क में आकर सतह पर चिपक जाता है, जहां उचित माध्यम पाकर वृद्धि करने लगता है। उसके बाद सतह पर घाव बनता है। फलस्वरूप स्थान फूल जाता है। फिर त्वचा पर नेक्रोसिस की क्रिया होती है। नेक्रोसिस (रक्त प्रवाह की कमी की वजह से त्वचा का क्षय) के कारण अन्य बैक्टीरिया आक्रमण कर त्वचा में तेजी से वृद्धि करना शुरू कर देते है।
इतनी प्रक्रिया पूरी होने में एक-दो सप्ताह का समय लग जाता है। उसके बाद रोग अपना लक्षण दिखाना शुरू करता है, जो तीन भागों में प्रकट होता है। शुरू में बच्चे के खांसी होती है तथा नाक से पानी बहता है। फिर धीरे-धीरे खांसी से बच्चे को विशेष परेशानी नहीं होती, किन्तु धीरे-धीरे इसकी गति बढ़ती है क्योंकि श्वसन-तंत्र को प्रभावित करने की प्रक्रिया लगातार बढ़ती जाती है। जैसे-जैसे श्वसन-तंत्र प्रभावित होता है खांसी और खांसने की गति बढ़ती जाती है और एक समय ऐसा आता है कि खांसी की वजह से रोगी रात को सो नहीं पाता है। पहले जो केवल जागृतावस्था में खांसी होती थी अब वह नींद में भी होने लगती है, जिससे बच्चा खांसते-खांसते उठ जाता है।
यह स्थिति दो से चार सप्ताह तक बनी रहती है। उसके बाद अपना उग्र और भयंकर रूप धारण कर लेती है। अब पहले की अपेक्षा और जल्दी-जल्दी खांसी का दौरा पड़ने लगता है। इस दौरान एक ऐसा स्थिति आ जाती है कि बच्चे को सांस लेने तक में कठिनाई होने लगती है। उसके बाद सांस लेने के क्रम में एक विशेष प्रकार की आवाज निकलने लगती है, जैसे-किसी कुत्ते के रोने की आवाज। यह आवाज श्वसन-तंत्र में संक्रमण तथा ग्लाटिस के खुलने की वजह से होती है, किन्तु वह हूप-हूप आवाज हमेशा नहीं होती है। उसके बाद खांसी के साथ गाढ़े रंग का बलगम (कफ) निकलता है। एक बात और कि जब खांसी अपना वीभत्स रूप दिखा रही होती है तो ठीक उसके बाद उल्टी होती है और खाया-पीया सब बाहर निकल जाता है। खांसी के दौरान जीभ का बार-बार मुंह से बाहर आने के क्रम में उस पर दांत पड़ने से घाव हो जाने की संभावना अत्यधिक बढ़ जाती है। बार-बार खांसने की वजह से चेहरा लाल हो जाता है। बच्चा चिन्तित रहने लगता है। कई बार तो अत्यधिक उदासीन अपने आप में भौंचक्का, किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में कुछ समझ नहीं पाता कि आखिर मुझे कौन-सी सजा दी जा रही है। मानसिक तनाव की वजह से पूरे शरीर से पसीना छूटने लगता है, भोजन से विरक्ति होने लगती है। वह भोजन करना नहीं चाहता।
इलाज क्या हो ?
इस बीमारी के इलाज के लिए एन्टीबायोटिक्स का प्रयोग किया जाता है जो इसके
दौरे की भयानकता को कम कर देता है। यदि रोग की पहचान प्रारम्भिक अवस्था
में हो जाए तो एन्टीबायोटिक्स का प्रयोग काफी लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
इरिथ्रोमाइसिन या एम्पीसिलिन का प्रयोग सात से दस दिनों तक किया जाता है।
आजकल क्लोरम्फेनिकोल का व्यवहार अत्यधिक किया जाता है क्योंकि यह दवा
अत्यधिक सस्ती है। घबराहट दूर करने के लिए भी इनकी गोलियां दी जा सकती
हैं। श्वसन-नलियों की सिकुड़न को कम करने के लिए ब्रोंकोडायलेटर दिया जाता
है। कफ सिरप भी कफ को निकालने के लिए दिया जाता
है।
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