धर्म एवं दर्शन >> दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएंमा धर्म ज्योति
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यह पुस्तक धर्म ज्योति पर आधारित है
Das hajar budddho ke leye ek sau gahtyen
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
धर्म ज्योति,यह पुस्तक तेरी रूह की खुशबू है, जिस पर ओशो के आशीष बरसे हैं।
‘...परिस्थिति को स्वीकार कर लो, तो फिर कोई समस्या नहीं होती है।’
‘... तू सौभाग्यशाली है कि तेरा कोई गुरु है जो तेरा मार्गदर्शन कर सकता है।’
‘...आँखें बंद करके जब धीरे-धीरे चाय पीने लगती हूँ तो मुझे बोध बोता है कि मेरे गर्भ में शून्य शिशु जन्मा है, जिसका मुझे पूरा ख्याल रखना है।’
ओशो मुझे शून्य की तरह चारों ओर से घेरे हुए है।
‘...परिस्थिति को स्वीकार कर लो, तो फिर कोई समस्या नहीं होती है।’
‘... तू सौभाग्यशाली है कि तेरा कोई गुरु है जो तेरा मार्गदर्शन कर सकता है।’
‘...आँखें बंद करके जब धीरे-धीरे चाय पीने लगती हूँ तो मुझे बोध बोता है कि मेरे गर्भ में शून्य शिशु जन्मा है, जिसका मुझे पूरा ख्याल रखना है।’
ओशो मुझे शून्य की तरह चारों ओर से घेरे हुए है।
-इसी पुस्तक से
आज के लमहे अक्सर कल की कहानियां बन जाते हैं। पर कुछ लमहे होते हैं जो न कभी गुजर चुकते हैं और न ही जिन पर ‘कल’ की परछाई पड़ती है। ऐसे लमहे शब्दों और कहानियों की गिरफ्त में भी नहीं आते। वह हमेशा ‘आज’ में ही जीते हैं, सांस लेते हुए धड़कते हुए।
मा धर्म ज्योति ने एक लंबे अरसे तक ओशो की शारीरिक मौजूदगी को जीया है, और अपने इस सफर में वह पल-पल उन लमहों को सहेजती रहीं जो ओशो के छुए से जिंदा होते रहे। ये लमहे बाहर तो इंद्रधनुषी आंसू बरसाते रहे और खुद भीतर जाकर सीप के मोती बनते रहे। यह शरीर के पार जाने वाले प्रेम का ही तिलिस्म है कि एक दिन अचानक इन मोतियों में भी अंकुर फूट आए और गाथाओं का वृक्ष बन गए- सौ गाथाएं; दस हजार बुद्धों के लिए।
आइए कुछ देर इन गाथाओं की हवा में जी लें। कुछ देर इनकी खुशबू को अपने दिल में महसूस कर लें। आखिर, ये मोती हम सब ही की तो प्यास है।
मा धर्म ज्योति ने एक लंबे अरसे तक ओशो की शारीरिक मौजूदगी को जीया है, और अपने इस सफर में वह पल-पल उन लमहों को सहेजती रहीं जो ओशो के छुए से जिंदा होते रहे। ये लमहे बाहर तो इंद्रधनुषी आंसू बरसाते रहे और खुद भीतर जाकर सीप के मोती बनते रहे। यह शरीर के पार जाने वाले प्रेम का ही तिलिस्म है कि एक दिन अचानक इन मोतियों में भी अंकुर फूट आए और गाथाओं का वृक्ष बन गए- सौ गाथाएं; दस हजार बुद्धों के लिए।
आइए कुछ देर इन गाथाओं की हवा में जी लें। कुछ देर इनकी खुशबू को अपने दिल में महसूस कर लें। आखिर, ये मोती हम सब ही की तो प्यास है।
- स्वामी संजय भारती
प्रस्तावना
शनिवार, 26 सितम्बर 1992 का दिन था। उस रोज मेरे संन्यास की बाईसवीं वर्षगांठ थी। शाम को प्रवचन के बाद मैं बुद्धा हाल में संन्यास-उत्सव के लिए गयी। वहां ऊर्जा अत्यधिक सघन थी, पूरे समय मैं नृत्यमग्न रही। अचानक मुझे अपने आज्ञाचक्र पर कुछ संवेदना सी होने लगी, यह लगभग वैसा ही अनुभव था जैसा पूना के पुराने दिनों में ओशो के साथ ऊर्जा दर्शन के समय मुझे अनुभव हुआ करता था। उस रात यह अनुभव मुझे पूरी तरह डुबो ले गया।
अब तक मुझे ऐसा लगा करता था कि शायद शुरू के दिनों में ओशो की निकटता में बिताए गये उन क्षणों की सभी स्मृतियां मैं भूल चुकी हूँ, लेकिन यह रात मेरे लिए स्मरणीय रहेगी। अचाकन जैसे कोई द्वार खुल गया और पुरानी स्मृतियाँ बाहर आने लगीं। ऐसा लगा जैसे किसी फिल्म की रील खुलती जा रही हो। अपने हृदय के मौन में अतीत की अनेकों घटनाओं को मैं साफ-साफ देख पा रही थी। यह सिलसिला दूसरे दिन भी अनवरत जारी रहा। तीसरे दिन बड़ी तीव्रता से मुझे ऐसा भाव हुआ कि जो कुछ भी घट रहा है, उसे मैं लिख डालूं, सो मैंने लिखना शुरू कर दिया।
यह मेरे लिए बहुत अद्भुत अनुभव है। लिखते समय मुझे ऐसा महसूस हो रहा है जैसे कि पूरे अनुभव से मैं दोबारा ही गुजर रही हूं और मैं हैरान हूं कि यह सब मैं वर्तमान काल की तरह लिख रही हूं। लेकिन मैं भला क्या कर सकती हूं ? इसी भांति यह सब उतर रहा है।
अब तक मुझे ऐसा लगा करता था कि शायद शुरू के दिनों में ओशो की निकटता में बिताए गये उन क्षणों की सभी स्मृतियां मैं भूल चुकी हूँ, लेकिन यह रात मेरे लिए स्मरणीय रहेगी। अचाकन जैसे कोई द्वार खुल गया और पुरानी स्मृतियाँ बाहर आने लगीं। ऐसा लगा जैसे किसी फिल्म की रील खुलती जा रही हो। अपने हृदय के मौन में अतीत की अनेकों घटनाओं को मैं साफ-साफ देख पा रही थी। यह सिलसिला दूसरे दिन भी अनवरत जारी रहा। तीसरे दिन बड़ी तीव्रता से मुझे ऐसा भाव हुआ कि जो कुछ भी घट रहा है, उसे मैं लिख डालूं, सो मैंने लिखना शुरू कर दिया।
यह मेरे लिए बहुत अद्भुत अनुभव है। लिखते समय मुझे ऐसा महसूस हो रहा है जैसे कि पूरे अनुभव से मैं दोबारा ही गुजर रही हूं और मैं हैरान हूं कि यह सब मैं वर्तमान काल की तरह लिख रही हूं। लेकिन मैं भला क्या कर सकती हूं ? इसी भांति यह सब उतर रहा है।
-मा धर्म ज्योति
1
मैं छब्बीस वर्ष की हूं। 21 जनवरी 1968, रविवार का दिन है और आज शाम 4 बजे ओशो बंबई के षण्मुखानंद हॉल में बोलने वाले हैं। मेरी एक मित्र, जो सत्य की मेरी खोज से परिचित है, मुझे उन्हें सुनने के लिए जाने को कहती है। मैं इतने तथाकथित संतो और महात्माओं को सुन चुकी हूं कि भारत में चल रहे इन धार्मिक आडंबरों से मेरा विश्वास उठ चुका है, लेकिन फिर भी, ओशो, जो आचार्य रजनीश के नाम से जाने जाते हैं, मुझे आकर्षित करते हैं। मैं उनके प्रवचन में जाने के फैसला कर लेती हूं।
शाम चार बजे मैं षण्मुखानंद हॉल की दूसरी मंजिल वाली बालकनी में पहुंचती हूँ जो कि पूरी तरह भरी हुई है। बहुत से लोग दीवारों के साथ-साथ किनारों पर भी खड़े हुए हैं। हवा में एक उमंग है, एक उत्साह है। बहुत शोर हो रहा है। यह हॉल बंबई के सबसे बड़े सभागारों में से है जहां पांच हजार लोग बैठ सकते हैं। मैं एक सीट खोज कर आराम से बैठ जाती हूँ।
कुछ ही मिनटों में सफेद लुंगी और शॉल ओढ़े, एक दाढ़ी वाले व्यक्ति मंच पर नजर आते हैं जो दोनों हाथ जोड़े सबको नमस्कार करते हुए धीमें से पद्मासन में बैठ जाते है। मैं मंच से बहुत दूर बैठी हूं और बामुश्किल उनका चेहरा ही देख पा रही हूं, लेकिन मेरा हृदय इस अनजान व्यक्ति को सुनने की आकांक्षा से आतुर है।
कुछ ही क्षणों में मुझे उनकी मधुर, लेकिन सशक्त वाणी सुनाई पड़ती है। वे श्रोताओं को संबोधित कर रहे हैं- ‘मेरे प्रिय आत्मन...।’ अचानक सभागार में एक गहन सन्नाटा छा जाता है। मुझे महसूस होता है कि उनकी आवाज मुझे एक गहरे विश्राम में लिए जा रही है और मैं बिल्कुल शांत होकर उन्हें सुन रही हूं। मेरा मन पूरी तरह रुक गया है, मात्र उनकी वाणी ही मेरे भीतर गूंज रही है। मैं पूर्ण रूपेण ‘अहा’ के भाव में हूं, विस्मय की स्थिति में हूं, वे मेरे उन सभी प्रश्नों का जवाब दे रहे हैं जो वर्षों से मुझे सताते रहे हैं।
प्रवचन समाप्त हो गया, मेरा हृदय आनंद से नाच रहा है, और मैं अपनी मित्र से कहती हूं, ‘यही वह गुरु हैं जिन्हें मैं खोज रही हूं। मैंने उन्हें पा लिया है।’ बाहर आ कर मैं उनकी कुछ पुस्तकें और ज्योतिशिखा नाम की पत्रिका खरीदती हूं। मैं जैसे ही ज्योतिशिखा को खोलती हूं तो सामने पृष्ठ पर लिखा दिखाई पड़ता है ‘आचार्य रजनीश का छत्तीसवां जन्मोत्सव’ मैं विश्वास नहीं कर पाती। मुझे लगता है प्रिटिंग में किसी गलती के कारण 63 का 36 हो गया है। काउंटर पर खड़ी युवती से जब मैं पूछती हूं तो वह हंस पड़ती है और कहती है 36 सही है। मुझे अभी तक भरोसा नहीं होता कि मैंने ऐसे व्यक्ति का प्रवचन सुना है जो अभी सिर्फ छत्तीस ही वर्ष का है। उनकी वाणी से ऐसा महसूस हुआ जैसे उपनिषदकाल का कोई प्राचीन ऋषि बोल रहा है।
शाम चार बजे मैं षण्मुखानंद हॉल की दूसरी मंजिल वाली बालकनी में पहुंचती हूँ जो कि पूरी तरह भरी हुई है। बहुत से लोग दीवारों के साथ-साथ किनारों पर भी खड़े हुए हैं। हवा में एक उमंग है, एक उत्साह है। बहुत शोर हो रहा है। यह हॉल बंबई के सबसे बड़े सभागारों में से है जहां पांच हजार लोग बैठ सकते हैं। मैं एक सीट खोज कर आराम से बैठ जाती हूँ।
कुछ ही मिनटों में सफेद लुंगी और शॉल ओढ़े, एक दाढ़ी वाले व्यक्ति मंच पर नजर आते हैं जो दोनों हाथ जोड़े सबको नमस्कार करते हुए धीमें से पद्मासन में बैठ जाते है। मैं मंच से बहुत दूर बैठी हूं और बामुश्किल उनका चेहरा ही देख पा रही हूं, लेकिन मेरा हृदय इस अनजान व्यक्ति को सुनने की आकांक्षा से आतुर है।
कुछ ही क्षणों में मुझे उनकी मधुर, लेकिन सशक्त वाणी सुनाई पड़ती है। वे श्रोताओं को संबोधित कर रहे हैं- ‘मेरे प्रिय आत्मन...।’ अचानक सभागार में एक गहन सन्नाटा छा जाता है। मुझे महसूस होता है कि उनकी आवाज मुझे एक गहरे विश्राम में लिए जा रही है और मैं बिल्कुल शांत होकर उन्हें सुन रही हूं। मेरा मन पूरी तरह रुक गया है, मात्र उनकी वाणी ही मेरे भीतर गूंज रही है। मैं पूर्ण रूपेण ‘अहा’ के भाव में हूं, विस्मय की स्थिति में हूं, वे मेरे उन सभी प्रश्नों का जवाब दे रहे हैं जो वर्षों से मुझे सताते रहे हैं।
प्रवचन समाप्त हो गया, मेरा हृदय आनंद से नाच रहा है, और मैं अपनी मित्र से कहती हूं, ‘यही वह गुरु हैं जिन्हें मैं खोज रही हूं। मैंने उन्हें पा लिया है।’ बाहर आ कर मैं उनकी कुछ पुस्तकें और ज्योतिशिखा नाम की पत्रिका खरीदती हूं। मैं जैसे ही ज्योतिशिखा को खोलती हूं तो सामने पृष्ठ पर लिखा दिखाई पड़ता है ‘आचार्य रजनीश का छत्तीसवां जन्मोत्सव’ मैं विश्वास नहीं कर पाती। मुझे लगता है प्रिटिंग में किसी गलती के कारण 63 का 36 हो गया है। काउंटर पर खड़ी युवती से जब मैं पूछती हूं तो वह हंस पड़ती है और कहती है 36 सही है। मुझे अभी तक भरोसा नहीं होता कि मैंने ऐसे व्यक्ति का प्रवचन सुना है जो अभी सिर्फ छत्तीस ही वर्ष का है। उनकी वाणी से ऐसा महसूस हुआ जैसे उपनिषदकाल का कोई प्राचीन ऋषि बोल रहा है।
2
मैं उनकी पुस्तकें पढ़ना शुरू कर देती हूं और आपको उधार ज्ञान से पूरी तरह मुक्त होता हुआ अनुभव करती हूं। उनके शब्द मुझे नितांत खाली पन में अकेला छोड़ जाते हैं। मेरा हृदय उनसे मिलने की उत्कंठा से भर उठता है। मैं बंबई के जीवन जागृति केंद्र का पता व फोन नंबर मालूम करती हूं और ओशो के विषय में पूछने के लिए वहां फोन करती हूं। मुझे नारगोल में होने वाले ध्यान शिविर के बारे में बताया जाता है, जहां मैं उन्हें मिल पाऊंगी। मैं बहुत आनंदित हो जाती हूं और अधीर होकर इस ध्यान शिविर की प्रतिक्षा करने लगती हूं।
आखिरकार, नारगोल में उनके करीब से दर्शन पाने का वह पहला दिन भी आ पहुंचा जब मैं उनके चरणों के पास बैठ पाऊंगीं। शिविर में कोई पाँच सौ लोग हैं, ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से घिरा यह बहुत ही सुंदर सागर तट है। मैं वहा बनाए गए मंच के करीब अपना एक वृक्ष खोज कर उसके नीचे आराम से बैठ जाती हूं। मेरी आँखे उस रास्ते पर टकटकी बाधें है, जहाँ से उनको आना है, और कुछ ही क्षणों में मैं देखती हूं कि श्वेत लुंगी और शॉल में लिपटे हुए अपने पूरे सौन्दर्य और गरिमा के साथ वे चले आ रहे हैं। मैं वस्तुतः उनके चारों ओर शुभ्र प्रकाश का एक आभामंडल देख पा रही हूं। उनकी मौजूदगी में एक जादू है जो कि इस संसार का ही नहीं है। वे सबको हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हैं और एक चौकोर मेज पर सफेद चादर डालकर बनाए गए मंच पर बैठ जाते हैं।
वे बोलना प्रारम्भ करते हैं, लेकिन उनके शब्द मेरे सिर के ऊपर से गुजर रहे हैं। उनकी आवाज और दूर से आती हुई सागर की लहरों की गर्जना के अतिरिक्त चारों ओर गहन शान्ति छायी हुई है। मुझे नहीं पता कि वे कितनी देर बोले परन्तु जब मैं अपनी आँखे खोलती हूं तो पाती हूं कि वे पहले ही जा चुके हैं। मुझे मृत्यु की-सी अनुभूति हो रही है। उन्होंने मेरे हृदय को ऐसे छू लिया है जैसे चुंबक लोहे को खींच लेता है, और मैं पूरी रात सो नहीं पाती। सागर तट पर शून्य आँखे लिए मैं यूं ही घूमती रहती हूं। आकाश तारों से भरा हुआ है। ऐसी शांति व ऐसा सौंदर्य मैंने पहले कभी नहीं जाना है। मेरा हृदय पुकारना चाहता है, ‘वे कहां हैं ? मैं उनसे मिलना चाहती हूं।’
आखिरकार, नारगोल में उनके करीब से दर्शन पाने का वह पहला दिन भी आ पहुंचा जब मैं उनके चरणों के पास बैठ पाऊंगीं। शिविर में कोई पाँच सौ लोग हैं, ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से घिरा यह बहुत ही सुंदर सागर तट है। मैं वहा बनाए गए मंच के करीब अपना एक वृक्ष खोज कर उसके नीचे आराम से बैठ जाती हूं। मेरी आँखे उस रास्ते पर टकटकी बाधें है, जहाँ से उनको आना है, और कुछ ही क्षणों में मैं देखती हूं कि श्वेत लुंगी और शॉल में लिपटे हुए अपने पूरे सौन्दर्य और गरिमा के साथ वे चले आ रहे हैं। मैं वस्तुतः उनके चारों ओर शुभ्र प्रकाश का एक आभामंडल देख पा रही हूं। उनकी मौजूदगी में एक जादू है जो कि इस संसार का ही नहीं है। वे सबको हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हैं और एक चौकोर मेज पर सफेद चादर डालकर बनाए गए मंच पर बैठ जाते हैं।
वे बोलना प्रारम्भ करते हैं, लेकिन उनके शब्द मेरे सिर के ऊपर से गुजर रहे हैं। उनकी आवाज और दूर से आती हुई सागर की लहरों की गर्जना के अतिरिक्त चारों ओर गहन शान्ति छायी हुई है। मुझे नहीं पता कि वे कितनी देर बोले परन्तु जब मैं अपनी आँखे खोलती हूं तो पाती हूं कि वे पहले ही जा चुके हैं। मुझे मृत्यु की-सी अनुभूति हो रही है। उन्होंने मेरे हृदय को ऐसे छू लिया है जैसे चुंबक लोहे को खींच लेता है, और मैं पूरी रात सो नहीं पाती। सागर तट पर शून्य आँखे लिए मैं यूं ही घूमती रहती हूं। आकाश तारों से भरा हुआ है। ऐसी शांति व ऐसा सौंदर्य मैंने पहले कभी नहीं जाना है। मेरा हृदय पुकारना चाहता है, ‘वे कहां हैं ? मैं उनसे मिलना चाहती हूं।’
3
सुबह आठ बजे उनके प्रवचन के लिए हम सब फिर से उसी स्थान पर इकट्ठे होते हैं। आज वे प्रश्नों का उत्तर देंगे तथा लोग कागज पर अपने प्रश्न लिख-लिखकर उनके सचिव को पकड़ा रहे हैं। मैं भी साहस बटोर कर अपना अनुभव लिखकर उनसे पूछती हूं कि यह मुझे क्या हो रहा है ? अपना प्रश्न दे कर मैं थोड़ी दूर पर सबके बीच में स्वयं को छिपाती हुई बैठ जाती हूं।
वही दिव्य गरिमा लिए, सबको नमस्कार करते हुए वे पुनः यहां चले आ रहे हैं। पद्मासन में बैठकर वे प्रश्न पढ़ना शुरू कर देते हैं। जब अपना गुलाबी कागज मैं उनके हाथ में देखती हूं तो मेरा हृदय तेजी से धड़कने लगता है। पता नहीं क्यों, मुझे शर्म आने लगती है कि मेरा प्रश्न पढ़ने के बाद वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मुझे आश्चर्य होता है कि मेरा प्रश्न पढ़ने के बाद जो कि वास्तव में कोई प्रश्न नहीं बल्की पहली दफा उनको सुनने के बाद जो अनुभव मुझे हुआ उसका यथावत बयान भर है..., जैसे मैं किसी चुंबक से खिची जा रही हूं, मर रही हूं। वे अपनी बायीं तरफ बैठे श्रोताओं की ओर देखने लगते हैं और जब उनकी नजरें मुझ तक पहुंचती है तो वहीं ठहर जाती है। मैं अपना सिर झुका लेती हूं, ऐसा लगता है जैसे मैं जम गई हूं, तथा मैं जान जाती हूं कि उन्हें पता चल गया है कि यह प्रश्न मेरा ही है। वे यह प्रश्न सिर्फ पढ़ते भर हैं और फिर दूसरे प्रश्नों का जवाब देने लगते हैं।
प्रवचन समाप्त होने के बाद लोग समीप जाकर उनके पांव छू रहे हैं और वे सबके सिर पर हाथ रख रहे हैं। दूर से ही मैं यह सब देख रही हूं, उनके नजदीक जाने का साहस नहीं हो रहा है। अंततः जब वे जाने के लिए उठ खड़े होते हैं तो मैं उनकी ओर दौडती हूं, और जैसे ही उनके पास पहुंचती हूं वे मुस्कुराकर पूछते हैं, ‘तो वह तुमने लिखा था ?’ मैं सहमति में अपना सिर झुका देती हूं और उनके चरण छूने के लिए झुक जाती हूं। वे अपना हाथ मेरे सिर पर रख देते हैं और जब मैं उठती हूं तो वे कहते हैं, ‘दोपहर को आकर मुझसे मिलना।’
वही दिव्य गरिमा लिए, सबको नमस्कार करते हुए वे पुनः यहां चले आ रहे हैं। पद्मासन में बैठकर वे प्रश्न पढ़ना शुरू कर देते हैं। जब अपना गुलाबी कागज मैं उनके हाथ में देखती हूं तो मेरा हृदय तेजी से धड़कने लगता है। पता नहीं क्यों, मुझे शर्म आने लगती है कि मेरा प्रश्न पढ़ने के बाद वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मुझे आश्चर्य होता है कि मेरा प्रश्न पढ़ने के बाद जो कि वास्तव में कोई प्रश्न नहीं बल्की पहली दफा उनको सुनने के बाद जो अनुभव मुझे हुआ उसका यथावत बयान भर है..., जैसे मैं किसी चुंबक से खिची जा रही हूं, मर रही हूं। वे अपनी बायीं तरफ बैठे श्रोताओं की ओर देखने लगते हैं और जब उनकी नजरें मुझ तक पहुंचती है तो वहीं ठहर जाती है। मैं अपना सिर झुका लेती हूं, ऐसा लगता है जैसे मैं जम गई हूं, तथा मैं जान जाती हूं कि उन्हें पता चल गया है कि यह प्रश्न मेरा ही है। वे यह प्रश्न सिर्फ पढ़ते भर हैं और फिर दूसरे प्रश्नों का जवाब देने लगते हैं।
प्रवचन समाप्त होने के बाद लोग समीप जाकर उनके पांव छू रहे हैं और वे सबके सिर पर हाथ रख रहे हैं। दूर से ही मैं यह सब देख रही हूं, उनके नजदीक जाने का साहस नहीं हो रहा है। अंततः जब वे जाने के लिए उठ खड़े होते हैं तो मैं उनकी ओर दौडती हूं, और जैसे ही उनके पास पहुंचती हूं वे मुस्कुराकर पूछते हैं, ‘तो वह तुमने लिखा था ?’ मैं सहमति में अपना सिर झुका देती हूं और उनके चरण छूने के लिए झुक जाती हूं। वे अपना हाथ मेरे सिर पर रख देते हैं और जब मैं उठती हूं तो वे कहते हैं, ‘दोपहर को आकर मुझसे मिलना।’
4
दोपहर दो बजे मैं उस बंगले पर पहुंचती हूं जहां वे ठहरे हुए हैं। वहां बहुत से लोग पहले से ही इनसे मिलने के लिए आए हुए हैं और उनका इंतजार कर रहे हैं। उनके सचिव आते हैं और लोग एक-एक करके उनसे मिलने के लिए उनके कमरे में जाने लगते हैं। सभी लोग दो या तीन मिनट में उनसे मिलकर बाहर आ रहे हैं। अब मेरे आगे खड़ी हुई स्त्री जा रही है, उसके बाद मेरी ही बारी है। सिर्फ यह देखने के लिए कि वह ओशो से कैसे मिलती हैं, मैं खिड़की से भीतर झांकती हूं। ओशो सोफे पर बैठे हैं, फर्श पर कालीन बिछा है। वह स्त्री झुककर ओशो के चरण स्पर्श करती है और कालीन पर बैठ जाती है। मैं स्वयं से कहती हूं, ‘यही उनसे मिलने का उचित ढंग लगता है।’ मेरा हृदय उत्तेजना से धडक रहा है और साथ ही किसी आज्ञात भय से कांप भी रहा है। कुछ ही मिनटों में वह स्त्री बाहर आती है और मैं कमरे में प्रवेश करती हूं।
ओशो बड़ी मोहक मुस्कान से मेरा स्वागत करते हैं। मैं बस सब कुछ भूलकर उनकी ओर खिंची चली जाती हूं और उनके गले लग जाती हूं, और वे मेरे आलिंगन को इतना प्रेम से स्वीकार करते हैं जैसे केवल मैंने ही उन्हें नहीं खोजा है, उन्हें भी कोई खोया हुआ बालक मिल गया है। वे बड़े प्रसन्न नजर आते हैं और मुझे सोफे पर ही बायीं ओर बिठा लेते हैं। अपने बायें हाथ से वे मेरी पीठ सहला रहे हैं और अपना दायां हाथ वे मेरे हाथों में दे देते हैं। मैं उनकी आँखों में झांकती हूं, वे प्रेम और प्रकाश से परिपूर्ण हैं, और मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि इस व्यक्ति को मैं अनंतकाल से जानती हूं। अपने जादुई स्पर्श से जैसे वे कुछ चमत्कार सा कर रहे हैं तथा पिछली रात उनका प्रवचन सुनने के बाद से मृत्यु का जो अनुभव मुझे हुआ था उससे निकलकर अब मैं अपनी सामान्य अवस्था में लौट आती हूं।
वे मुझसे पूछते है कि मैं क्या करती हूं, लेकिन मैं कुछ भी बोलने में असमर्थ हूं। वे कहते हैं, ‘चिंता मत करो, सब कुछ ठीक हो जाएगा। कुछ क्षणों में जब मैं बोल पाने में समर्थ हो जाती हूं तो मैं उन्हें बताती हूं कि बंबई की एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करती हूं।’
वे पूछते हैं, ‘क्या तुम मेरा काम करोगी ?’
यह तो मुझे पता नहीं था कि उनका काम क्या है, लेकिन मैं सहमति से सिर हिला देती हूं।
वे अपने सचिव को भीतर बुलाकर उससे मेरा परिचय करवाते हैं और मुझ से कहते हैं, ‘इससे संपर्क बनाए रखना।’
थोड़ी देर बाद मैं बाहर जाने के लिए उठ खड़ी होती हूं, और दो या तीन कदम चलने के बाद ही पीछे मुड़कर उनकी ओर देखती हूं। वे मुस्कुरा देते हैं, और मैं वापस लौटकर उनके चरणों में बैठ जाती हूं।
वे कहते हैं, ‘अपनी आँखें बंद करो’, और अपना दायां पांव मेरे हृदय केन्द्र पर रख देते हैं। उनके पांव से कोई ऊर्जा निकलकर मेरे शरीर में प्रवेश करती हुई महसूस होती है और मेरा मन बिल्कुल शून्य हो जाता है, मैं केवल अपनी सांस की आवाज सुन पाती हूं। ऐसा लगता है जैसे समय रुक गया हो। शायद कुछ ही मिनट हुए होंगे कि मुझे उनकी आवाज सुनाई देती है, ‘वापस आ जाओ...धीरे-धीरे अपनी आँखें खोल लो।’ आहिस्ता से वे अपना पांव हटा लेते हैं, और जब मैं अपनी आंखे खोलती हूं तो देखती हूं कि वे अपनी आंखे बंद किए बैठे हैं। धीमे से उठकर मैं कमरे से बाहर निकल आती हूं। मेरा हृदय आनन्दातिरेक से नाच रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे मैंने कोई खोया खजाना पा लिया है।
ओशो बड़ी मोहक मुस्कान से मेरा स्वागत करते हैं। मैं बस सब कुछ भूलकर उनकी ओर खिंची चली जाती हूं और उनके गले लग जाती हूं, और वे मेरे आलिंगन को इतना प्रेम से स्वीकार करते हैं जैसे केवल मैंने ही उन्हें नहीं खोजा है, उन्हें भी कोई खोया हुआ बालक मिल गया है। वे बड़े प्रसन्न नजर आते हैं और मुझे सोफे पर ही बायीं ओर बिठा लेते हैं। अपने बायें हाथ से वे मेरी पीठ सहला रहे हैं और अपना दायां हाथ वे मेरे हाथों में दे देते हैं। मैं उनकी आँखों में झांकती हूं, वे प्रेम और प्रकाश से परिपूर्ण हैं, और मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि इस व्यक्ति को मैं अनंतकाल से जानती हूं। अपने जादुई स्पर्श से जैसे वे कुछ चमत्कार सा कर रहे हैं तथा पिछली रात उनका प्रवचन सुनने के बाद से मृत्यु का जो अनुभव मुझे हुआ था उससे निकलकर अब मैं अपनी सामान्य अवस्था में लौट आती हूं।
वे मुझसे पूछते है कि मैं क्या करती हूं, लेकिन मैं कुछ भी बोलने में असमर्थ हूं। वे कहते हैं, ‘चिंता मत करो, सब कुछ ठीक हो जाएगा। कुछ क्षणों में जब मैं बोल पाने में समर्थ हो जाती हूं तो मैं उन्हें बताती हूं कि बंबई की एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करती हूं।’
वे पूछते हैं, ‘क्या तुम मेरा काम करोगी ?’
यह तो मुझे पता नहीं था कि उनका काम क्या है, लेकिन मैं सहमति से सिर हिला देती हूं।
वे अपने सचिव को भीतर बुलाकर उससे मेरा परिचय करवाते हैं और मुझ से कहते हैं, ‘इससे संपर्क बनाए रखना।’
थोड़ी देर बाद मैं बाहर जाने के लिए उठ खड़ी होती हूं, और दो या तीन कदम चलने के बाद ही पीछे मुड़कर उनकी ओर देखती हूं। वे मुस्कुरा देते हैं, और मैं वापस लौटकर उनके चरणों में बैठ जाती हूं।
वे कहते हैं, ‘अपनी आँखें बंद करो’, और अपना दायां पांव मेरे हृदय केन्द्र पर रख देते हैं। उनके पांव से कोई ऊर्जा निकलकर मेरे शरीर में प्रवेश करती हुई महसूस होती है और मेरा मन बिल्कुल शून्य हो जाता है, मैं केवल अपनी सांस की आवाज सुन पाती हूं। ऐसा लगता है जैसे समय रुक गया हो। शायद कुछ ही मिनट हुए होंगे कि मुझे उनकी आवाज सुनाई देती है, ‘वापस आ जाओ...धीरे-धीरे अपनी आँखें खोल लो।’ आहिस्ता से वे अपना पांव हटा लेते हैं, और जब मैं अपनी आंखे खोलती हूं तो देखती हूं कि वे अपनी आंखे बंद किए बैठे हैं। धीमे से उठकर मैं कमरे से बाहर निकल आती हूं। मेरा हृदय आनन्दातिरेक से नाच रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे मैंने कोई खोया खजाना पा लिया है।
5
इस ध्यान शिविर के बाद जब मैं वापस बंबई लौटती हूं तो खुद को लोगों की भीड़ में खोया हुआ पाती हूं। उनसे फिर से मिलने की गहन अभीप्सा ने मेरी तो रातों की नींद चुरा ली है। करीब-करीब हर रात मैं उन्हें स्वप्न में देखती हूं, कि वे मुझसे बातें कर रहे हैं। तब हर रोज मैं उन्हें एक पत्र लिखना आरम्भ कर देती हूं और चाहती हूं कि शीघ्र ही उनका जवाब आए। मैं यह पूरी तरह भूल चुकी हूं कि पत्र को उन तक पहुंचने में कम से कम तीन दिन लगेंगे और यदि वे मेरा पत्र पाकर तुरन्त उसी दिन भी वे जवाब दे देते हैं तो उनका पत्र मुझ तक पहुंचने में फिर तीन दिन का समय लगेगा। कई बार मुझे उन पर गुस्सा भी आने लगता है कि वे इस तरह दीवानी बना रहे हैं-मैं नहीं जानती कि कैसे खुद को संभाले हुए हूं और ऑफिस में जाकर अपना काम भी करती हूं।
कुछ हफ्ते बीत चुके हैं। आज शाम पांच बजे ऑफिस से निकल कर मैं नीचे जाने के लिए सीढ़ियां उतर रही हूं कि मेरे ऑफिस का चपरासी एक चिट्ठी हाथ में लिए मेरे पीछे दौड़ता हुआ आता है। यह कुछ अजीब सी घटना है, क्योंकि हमारे ऑफिस में किसी के व्यक्तिगत पत्रों की कोई परवाह नहीं करता। मैं उससे पत्र ले लेती हूं। यह ‘मेरे प्रियतम’ की ओर से आया है। मैं इसे चूमकर कांपते हाथों से खोलती हूं।
उसमें लिखा है :
‘प्यारी पुष्पा (संन्यास से पहले का मेरा नाम)
प्रेम ! तेरा पत्र पाकर मैं आनंदित हूं। परमात्मा के लिए ऐसी अभीप्सा शुभ है क्योंकि अभीप्सा की सघनता ही उस तक पुहंचने का मार्ग बन जाती है।
17 की रात को मैं बंबई में होऊंगा। नौ बजे रात आकर मिल या जब दोबारा 21 को मैं बंबई वापस आऊंगा, तब शाम 3 बजे आकर मिल सकती है।’
मैं कहां ठहरूंगा वह तू इन फोन नंबरो पर पता लगा सकती है।’
पत्र पढ़कर मैं खुशी से फूली नहीं समाती। आज सत्रह तारीख ही है और मैं आज रात ही उनसे मिलने जाने की ठान लेती हूं। फोन करने के लिए मैं दौड़कर वापस ऑफिस में जाती हूं। पत्र पढ़ते हुए मैं सोच रही थी कि उन्होंने भला चार फोन नंबर क्यों लिखे हैं, लेकिन वे जागृत पुरुष हैं और बेहतर जानते हैं। तीन नंबर लगते ही नहीं चौथा लगता है, और जो स्त्री फोन उठाती है वह बताती है कि हां, उनका आगमन हो चुका है और जहां वे मिलेगे, वहां का पता मुझे दे देती है। 5 बजकर 10 मिनट हो चुकें हैं। अब सिर्फ चार घंटे की बात और मैं दोबारा उनसे मिल पाऊंगी। समय बहुत धीमी गति से सरक रहा है। हर पांच या दस मिनट बाद मैं अपनी घड़ी की ओर देख रही हूं और इतने आहिस्ता-आहिस्ता चलने के लिए उसे कोसने लगती हूं। इंतजार की ये घड़ियां अनंतकाल जैसी लग रही हैं।
कुछ हफ्ते बीत चुके हैं। आज शाम पांच बजे ऑफिस से निकल कर मैं नीचे जाने के लिए सीढ़ियां उतर रही हूं कि मेरे ऑफिस का चपरासी एक चिट्ठी हाथ में लिए मेरे पीछे दौड़ता हुआ आता है। यह कुछ अजीब सी घटना है, क्योंकि हमारे ऑफिस में किसी के व्यक्तिगत पत्रों की कोई परवाह नहीं करता। मैं उससे पत्र ले लेती हूं। यह ‘मेरे प्रियतम’ की ओर से आया है। मैं इसे चूमकर कांपते हाथों से खोलती हूं।
उसमें लिखा है :
‘प्यारी पुष्पा (संन्यास से पहले का मेरा नाम)
प्रेम ! तेरा पत्र पाकर मैं आनंदित हूं। परमात्मा के लिए ऐसी अभीप्सा शुभ है क्योंकि अभीप्सा की सघनता ही उस तक पुहंचने का मार्ग बन जाती है।
17 की रात को मैं बंबई में होऊंगा। नौ बजे रात आकर मिल या जब दोबारा 21 को मैं बंबई वापस आऊंगा, तब शाम 3 बजे आकर मिल सकती है।’
मैं कहां ठहरूंगा वह तू इन फोन नंबरो पर पता लगा सकती है।’
पत्र पढ़कर मैं खुशी से फूली नहीं समाती। आज सत्रह तारीख ही है और मैं आज रात ही उनसे मिलने जाने की ठान लेती हूं। फोन करने के लिए मैं दौड़कर वापस ऑफिस में जाती हूं। पत्र पढ़ते हुए मैं सोच रही थी कि उन्होंने भला चार फोन नंबर क्यों लिखे हैं, लेकिन वे जागृत पुरुष हैं और बेहतर जानते हैं। तीन नंबर लगते ही नहीं चौथा लगता है, और जो स्त्री फोन उठाती है वह बताती है कि हां, उनका आगमन हो चुका है और जहां वे मिलेगे, वहां का पता मुझे दे देती है। 5 बजकर 10 मिनट हो चुकें हैं। अब सिर्फ चार घंटे की बात और मैं दोबारा उनसे मिल पाऊंगी। समय बहुत धीमी गति से सरक रहा है। हर पांच या दस मिनट बाद मैं अपनी घड़ी की ओर देख रही हूं और इतने आहिस्ता-आहिस्ता चलने के लिए उसे कोसने लगती हूं। इंतजार की ये घड़ियां अनंतकाल जैसी लग रही हैं।
6
शाम के 8 बजकर 55 मिनट हो चुके हैं। मैं उस बिल्डिंग के प्रवेश द्वार से भीतर जा रही हूं। उसी वक्त वहां से बाहर आती हुई एक कार मेरे पास आकर रुक जाती है। मैं अपने विचारों में इतना लीन हूं कि उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देती। अचानक कार में से मुझे ओशो की आवाज सुनाई पड़ती है। वे मुझे बुला रहे हैं। वे पिछली सीट पर खिड़की के समीप बैठे हुए हैं।
मैं दौड़कर उनकी ओर जाती हूं।
वे कहते हैं, ‘मैं आधे घंटे में आऊंगा, तू तब तक रुकना’ और मुझसे पूछते हैं कि जहां वे ठहरे हैं उस अपार्टमेंट का पता मुझे है या नहीं। मैं कह देती हूं, ‘हां, मुझे पता है।’ कार चल पड़ती है और कुछ देर मैं वहीं खड़ी उसकी ओर देखती रहती हूं जब तक कि वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो जाती। मैं एक गहरी सांस लेती हूं और बिल्डिंग में प्रवेश करती हूं, उसमें कई खंड है और मुझे यह नहीं मालूम कि मुझे किस खंड में जाना है। अब मुझे साफ समझ में आता है कि वे यह क्यों पूछ रहे थे कि मुझे उस अपार्टमेंट का पता है या नहीं। यहां से वहां पागलों की तरह भटकते हुए मुझे अपने ही ऊपर गुस्सा आने लगता है कि अपनी बेहोशी के कारण मैंने अपने सदगुरु से सच क्यों नहीं बोला। ठीक जगह पहुंचने में मुझे बीस मिनट लग जाते हैं।
मेरे काले बटन दबाने पर वही स्त्री दरवाजा खोलती है, जिससे फोन पर मेरी बात हुई थी। मुझे पहचानने के बाद वह खेद व्यक्त करती है कि फोन पर उसने मुझे पूरा पता नहीं बताया था। वह मुझसे गले मिलती है और मेरा हाथ पकड़कर मुझे बड़े से लिविंग रूम में ले जाती है जहां आठ-दस लोग पहले से ही सोफों पर बैठे बातचीत कर रहें हैं। वातावरण काफी हल्का-फुल्का है, मुझे छोड़ कर और कोई भी गंभीर नजर नहीं आ रहा है। इस समूह में मैं स्वयं को अजनबी सा महसूस करती हूं और एक कोने में चुपचाप बैठ कर अपने सदगुरु का इंतजार करने लगी हूं।
ठीक दस मिनट बाद ओशो वहां आते हैं और हम सब खड़े हो जाते हैं। ओशो मुस्कुरा कर सबको नमस्ते करते हुए दूसरे कमरे में चले जाते हैं। अविलम्ब मुझे उनके कमरे में बुला लिया जाता है। मैं जब कमरे में प्रवेश करने लगती हूं तो फिर वही अज्ञात भय मुझे घेर लेता है। मुझे डर लगता है, जैसे कोई नन्हा-सा पतंग आग के पास जा रहा हो जो उसे जला डालेगी, लेकिन आग का यह चुम्बकीय आकर्षण इस भय से कहीं ज्यादा बड़ा है।
मैं देखती हूं कि वे पलंग पर बैठे कोई जूस पी रहे हैं, और मैं उनके सामने थोड़ी दूर पर बैठ जाती हूं। अपना जूस खत्म करने के बाद वे गिलास को पलंग के पास रखी छोटी सी मेज पर रखते हैं, नेपकिन से अपना मुंह पोछते हैं और मुस्कुराकर मुझे अपने करीब आने को कहते हैं।
अपना दायां हाथ वे मेरी छाती पर और बांया हाथ मेरे सिर पर रख देते है। मेरे मन की बकबक रुक जाती है और मैं ऐसी अवस्था में पहुंच जाती हूं जो मेरे लिए बिल्कुल अनजान है। मेरी आंखों से आंसू ढुलक पड़ते हैं और मेरा शरीर उनकी तरफ झुकने लगता है। उनकी गोद में सिर रखकर मैं छोटे बच्चे की तरह रोने लगती हूं।
कुछ ही क्षणों में वे अपने हाथ हटा लेते हैं और मुझसे कहते हैं, ‘धीरे-धीरे वापस आ जाओ।’ मैं शांत हो जाती हूं, अपना सिर ऊपर उठाकर उनकी आंखों में झांकती हूं। कि वे अनंत आकाश में छोटे-छोटे तारों जैसी चमक रही हैं। मैं उस अज्ञात भय और विरह की पीड़ा से मुक्ति अनुभव करती हूं।
मैं दौड़कर उनकी ओर जाती हूं।
वे कहते हैं, ‘मैं आधे घंटे में आऊंगा, तू तब तक रुकना’ और मुझसे पूछते हैं कि जहां वे ठहरे हैं उस अपार्टमेंट का पता मुझे है या नहीं। मैं कह देती हूं, ‘हां, मुझे पता है।’ कार चल पड़ती है और कुछ देर मैं वहीं खड़ी उसकी ओर देखती रहती हूं जब तक कि वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो जाती। मैं एक गहरी सांस लेती हूं और बिल्डिंग में प्रवेश करती हूं, उसमें कई खंड है और मुझे यह नहीं मालूम कि मुझे किस खंड में जाना है। अब मुझे साफ समझ में आता है कि वे यह क्यों पूछ रहे थे कि मुझे उस अपार्टमेंट का पता है या नहीं। यहां से वहां पागलों की तरह भटकते हुए मुझे अपने ही ऊपर गुस्सा आने लगता है कि अपनी बेहोशी के कारण मैंने अपने सदगुरु से सच क्यों नहीं बोला। ठीक जगह पहुंचने में मुझे बीस मिनट लग जाते हैं।
मेरे काले बटन दबाने पर वही स्त्री दरवाजा खोलती है, जिससे फोन पर मेरी बात हुई थी। मुझे पहचानने के बाद वह खेद व्यक्त करती है कि फोन पर उसने मुझे पूरा पता नहीं बताया था। वह मुझसे गले मिलती है और मेरा हाथ पकड़कर मुझे बड़े से लिविंग रूम में ले जाती है जहां आठ-दस लोग पहले से ही सोफों पर बैठे बातचीत कर रहें हैं। वातावरण काफी हल्का-फुल्का है, मुझे छोड़ कर और कोई भी गंभीर नजर नहीं आ रहा है। इस समूह में मैं स्वयं को अजनबी सा महसूस करती हूं और एक कोने में चुपचाप बैठ कर अपने सदगुरु का इंतजार करने लगी हूं।
ठीक दस मिनट बाद ओशो वहां आते हैं और हम सब खड़े हो जाते हैं। ओशो मुस्कुरा कर सबको नमस्ते करते हुए दूसरे कमरे में चले जाते हैं। अविलम्ब मुझे उनके कमरे में बुला लिया जाता है। मैं जब कमरे में प्रवेश करने लगती हूं तो फिर वही अज्ञात भय मुझे घेर लेता है। मुझे डर लगता है, जैसे कोई नन्हा-सा पतंग आग के पास जा रहा हो जो उसे जला डालेगी, लेकिन आग का यह चुम्बकीय आकर्षण इस भय से कहीं ज्यादा बड़ा है।
मैं देखती हूं कि वे पलंग पर बैठे कोई जूस पी रहे हैं, और मैं उनके सामने थोड़ी दूर पर बैठ जाती हूं। अपना जूस खत्म करने के बाद वे गिलास को पलंग के पास रखी छोटी सी मेज पर रखते हैं, नेपकिन से अपना मुंह पोछते हैं और मुस्कुराकर मुझे अपने करीब आने को कहते हैं।
अपना दायां हाथ वे मेरी छाती पर और बांया हाथ मेरे सिर पर रख देते है। मेरे मन की बकबक रुक जाती है और मैं ऐसी अवस्था में पहुंच जाती हूं जो मेरे लिए बिल्कुल अनजान है। मेरी आंखों से आंसू ढुलक पड़ते हैं और मेरा शरीर उनकी तरफ झुकने लगता है। उनकी गोद में सिर रखकर मैं छोटे बच्चे की तरह रोने लगती हूं।
कुछ ही क्षणों में वे अपने हाथ हटा लेते हैं और मुझसे कहते हैं, ‘धीरे-धीरे वापस आ जाओ।’ मैं शांत हो जाती हूं, अपना सिर ऊपर उठाकर उनकी आंखों में झांकती हूं। कि वे अनंत आकाश में छोटे-छोटे तारों जैसी चमक रही हैं। मैं उस अज्ञात भय और विरह की पीड़ा से मुक्ति अनुभव करती हूं।
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