लोगों की राय

हास्य-व्यंग्य >> रांग नम्बर

रांग नम्बर

सरदार मनजीत सिंह

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3611
आईएसबीएन :81-288-0235-6

Like this Hindi book 13 पाठकों को प्रिय

9 पाठक हैं

प्रस्तुत है हास्य-व्यंग्य कविताएँ....

Aawan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘मेरी शवयात्राएं’ और ‘शाकाहारी मक्खियां’ नामक पुस्तकों का रचयिता मनजीत, मन के मामले में भक्तिकालीन-रीतिकालीन सोच से अलग, बिना संकोच, यथार्थवादी रीति से आधुनिक व्यंग्य-भक्ति को मानता है मनोविश्लेषणशास्त्र के मनोविकारों को नहीं बल्कि विकारशील मनों के सुगम संगीत को पहचानता है। मनोनिग्रह का कोई संदेश नहीं देता, देश के मनो निग्रह पर ध्यान देता है। अपने मन की खास फ़िक्र नहीं करता, दूसरों की फ़िक्र पर कान देता है। दूसरों का मन चंगा रहे इस नाते अपनी कठौती में गंगा लाने के स्थान पर दूसरों तक गंगा पहुँचाने में कटौती नहीं करता। अपने भागीरथी श्रम के रहते किसी भी महारथी से नहीं डरता। इसके हास्य-बम में व्यंग्य का पलीता है। अपने हास्य-व्यंग्य से इसने असंख्य लोगों का मन जीता है। इसकी कविताओं ने बड़े प्यार से दिलों को घायल किये बिना कायल किया है। प्रिय पाठकों ! मैंने इसका ‘रांग नम्बर’ सही डायल किया है।
अशोक चक्रधर

पाठ : रांग नम्बर
मनजीत


आज का पाठ है-रांग नम्बर मनजीत ! रांग नम्बर सब जानते हैं, प्रश्न है कि मनजीत किसे कहते हैं ?

जैसा कि हम इस शब्द में देख रहे हैं कि यह मन और जीत दो शब्दों से बना है। मन और जीत दोनों ही निराकार होते हैं। शरीर में मस्तिष्क कहां है, यह पता होता है पर मन कहां है यह किसी को नहीं पता। मन की भौगोलिक स्थिति न जान पाने के कारण अज्ञानवश उसे मस्तिष्क के साथ जोड़ दिया जाता है। कहा जाता है-मन-मस्तिष्क।

फिलहाल मेरा मस्तिष्क कह रहा है कि मन तो शरीर के भूगोल में कहीं भी हो सकता है। उदाहरण के लिए जैसे कोई प्रेमिका प्रस्ताव रखे, ‘बाज़ार चलने का मन है,’ तो मन कहां हुआ ? कन्या के पैरों में ! प्रस्ताव चलने का हुआ है। इस पर प्रेमी कह सकता है-‘मेरा मन नहीं है !’ यह मन जेब के पैसों के आसपास हो सकता है। इसी प्रकार यदि प्रेमी प्रस्ताव रखे-‘मेरा डार्क होते ही पार्क में जाने का मन है,’ तो प्रेमिका शार्क-शैली में कह सकती है-‘नहीं, मेरा मन नहीं है !’ या शार्क-सम्मिलन शैली में कह सकती है-‘मन तो मेरा भी है !’
कहने का तात्पर्य यह है कि मन का लेना-देना शत प्रतिशत मस्तिष्क के साथ नहीं है। हो सकता है। मन का लेना मस्तिष्क से हो और देना कहीं और से ! इसी तरह देना मस्तिष्क से हो और लेना कहीं और से ! बहरहाल, मन निराकार है। कई बार ये बस दिल के क़रीब होता है।

भक्तिकालीन साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि यह मन संख्या में हर मनुष्य के पास एक ही होता है, या होना चाहिए। कृष्ण की गोपियां बड़े आत्मविश्वास के साथ उद्धव से कहा करती थीं ऊधौ मन नाहीं टैन ट्वैण्टी ! जिनके पास एक मन होता है वे भले ही छटांक भर, एकनिष्ठ कहलाते हैं और जिनका मन चलायमान रहता है, सभी जानते हैं कि उन्हें छंटा हुआ अथवा मनचला कहा जाता है।

भारत में अनेक शास्त्रों की रचना हुई लेकिन मन का विश्लेषण करने वाला शास्त्र पश्चिम से आया, जिसे मनोविश्लेषणशास्त्र कहा गया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मन से जुड़े हुए मामलों को मनोविकारों की श्रेणी में लाकर अनेक लेखों की लड़ी लगा दी। ऋषियों-मुनियों ने, बौद्धों और जैनियों ने मन को समग्र इंद्रियों का पर्याय मानते हुए उनपर अंकुश लगाने के आदेश दिए और मनोनिग्रह पर बहुत कुछ कह डाला।

वेदों और उपनिषदों में मन के बारे में अनेक उक्तियां मिलती हैं। ऋग्वेद में कहा गया कि मन का ज्ञाता मन का स्वामी होता है। यजुर्वेद में कहा गया कि स्वप्नों में भटकने के बजाय संकल्प वाला होना चाहिए। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया कि मन अपरिमित है, वाणी परिमित है। छांदोग्योपनिषद् में ताल ठोककर कहा गया कि मन वाणी से उत्कृष्ट है। महर्षि वेदव्यास ने मन की स्पीड बताते हुए कहा कि वह वायु से भी शीघ्रगामी है। योगवाशिष्ठ में कथन है कि मन का विलय होने पर ही कल्याण होता है। मन के बारे में व्यापक बातचीतें हुई हैं। बातें कम चीतें ज्यादा हुई हैं। कुछ लोग यह मानने में संकोच नहीं करते कि यह मन ही है जिसमें न जाने कितने जन्मों का कचरा भरा है फिर भी मन की नैया कचरे को लेकर बहे जा रही है। नीतिसार यही है कि ‘तन्मंगलम् यत्र मनः प्रसन्नम्’ अर्थात् जहां मन प्रसन्न है, वहीं मंगल है। मन चंगा तो कठौती में गंगा इस उक्ति का गीला ट्रांसलेशन है।

पाठ को पूरा करना के लिए अब आगे बढ़ता हूं। मन के समान ‘जीत’ शब्द भी निराकारी है। मन कहां रहता है यह पता नहीं रहता और जीत कह होगी यह भी लगभग धुंधला सा मामला है। मन यदि एक निराकारी पदार्थ तो जीत एक क्रिया है। मन और जीत दोनों शब्दों को एक साथ रखने वाले व्यक्ति ने किसी व्यक्ति विशेष को आदेश रूप में कहा होगा-‘तू अपना मन जीत’ ! पर हे मनजीत आज का पाठ समाप्त करते हुए मैं कहता हूं-तू अपनी हास्य-व्यंग्य कविता से सबका मन जीत ! हे डियर मनजीता, यही है आज के पाठ की गीता। इस पाठ को पढ़ने के बाद बावजूद रांग नम्बर के पाठकों को होगा सुभीता।

पाठकों के फ़रदर सुभीते के लिए चलिए ये भी बता देता हूं कि ‘मेरी शवयात्राएं’ और ‘शाकाहारी मक्खियां’ नामक पुस्तकों का रचयिता मनजीत मन के मामले में भक्तिकालीन रीतिकालीन सोच से अलग बिना संकोच यथार्थवादी रीति से आधुनिक व्यंग्य भक्ति को मानता है। मनोविश्लेषणशास्त्र के मनोविकारों को नहीं बल्कि विकारशील मनो के सुगम संगीत को पहचानता है। मनोनिग्रह का कोई संदेश नहीं देता, देश के मनोविग्रह पर ध्यान देता है। अपने मन की ख़ास फ़िक्र नहीं करता, दूसरों की फ़िक्र पर कान देता हूँ। दूसरों का मन चंगा रहे इस नाते अपनी कठौती में गंगा लाने के स्थान पर दूसरों तक गंगा पहुंचाने में कटौती नहीं करता। अपने भागीरथी श्रम के रहते किसी भी महारथी से नहीं डरता। इसके हास्य-बम में व्यंग्य का पलीता है। अपने हास्य-व्यंग्य से इसने असंख्य लोगों का मन जीता है। इसकी कविताओं ने बड़े प्यार से दिलों को घायल किए बिना कायल किया है। प्रिय पाठकों ! मैंने इसका ‘रांग नम्बर’ आपको सही डायल किया है।
इति शुभम्।


प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
जामिआ मिल्लिआ इस्लामिया
केन्द्रीय विश्वविद्याय)
नई दिल्ली 110025


अशोक चक्रधर


डॉक्टर झटका



डाक्टर ने
मरीज़ को
टेबुल पर लिटाया
बिना वस्त्र हटाए ही
इन्जैक्शन लगाया।
जब मरीज़ ने
सुई न चुभने
दर्द न होने की
शिकायत की
तो डॉक्टर ने
ज़ोर का कहकहा लगाया
बोला, ‘‘हमारे टीके से
दर्द का होना
हमारी सुई से
मरीज़ का रोना
इतना आसान नहीं है,
ये डाक्टर झटका का
क्लीनिक है,
किसी नौसिखिए की
दुकान नहीं है।’’

आश्वस्त होकर
मरीज़ ने
पैसे देने के लिए
जैसे ही पर्स खोला
उसके चेहरे पर
मुर्दनी छा गई
इन्जैक्शन नोटों में घुस गया, और
दवा पर्स में आ गई।

इसी प्रकार
सरकारी अनुदान की राशि
अपना अलग
चमत्कार दिखलाती है।
जिसे
ग़रीब की धमनियों में पहुंचना चाहिए
वो इन्जैक्शन की
दवाई की तरह
दलालों के पर्स
में पहुंच जाती है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai