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मंटो के बेहतरीन अफसाने

सआदत हसन मंटो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :334
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3624
आईएसबीएन :81-288-0262-3

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प्रस्तुत है मंटो की कहानियाँ....

Manto Ke Behtarin Afsane

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मंटो की कहानियाँ एक अर्थ में मनोवैज्ञानिक सनसनी पैदा करने वाली कहानियां है। इनमें समाज के दलित, उत्पीड़ित लोगों की मजबूरियों उनके दुःख-दर्द को पूरी ईमानदारी से उकेरने की कोशिश की गई है। उनके वर्णनों से जो ध्वनि निकलती है। वह असाधारण रूप से जीने की कला, मरने की कला और इन दोनों के बीच होने की कला से सराबोर रहती है। इनकी कहानियों के मुख्य पात्र वे यातना भोगती आत्माएं हैं जो कमजोर जिस्म लेकर भी अपने फौलादी इरादों के बल-बूतें पर कट्टर सम्प्रदायवाद के खिलाफ लड़ती हैं।

दो शब्द लेखक के बारे में


उनका पूरा नाम था, सआदत हसन मंटो, किन्तु मित्रों एवं परिचितों के दायरे में वे मन्टो के नाम से मशहूर थे। उनका जन्म हुआ था वर्ष 1912 में अविभाजित पंजाब के समराला (जिला लुधियाना) नामक गाँव में। जब इनकी आयु सात वर्ष की थी, उसी दौरान अमृतसर के जलियावाला बाग में वह सामूहिक बर्बर हत्याकांड हुआ था, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में अन्तिम कील ठोंक दी। मंटो इस अमानवीय घटना से इस कदर प्रभावित हुए कि जब उन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू किया तो पहली कहानी इसी विषय को आधार बनाकर उर्दू में लिखी। कहानी का नाम था-तमाशा। इसी बीच उनकी भेंट हुई ईस्ट इंडिया कंपनी के सम्बद्ध इतिहासकार बारी आलिग से, उस भेंट ने मंटो की दुनिया ही बदल कर रख दी। बारी की प्रेरणा और प्रोत्साहन से उन्होंने रूसी और फ्रेंच साहित्य का गहरा अध्ययन किया तथा विक्टर ह्ययूगों के ‘‘द लास्ट डेड ऑफ ए कंडेम्ड मैन’’ तथा आस्कर वाइल्ड के ‘वेरा’ नामक उपन्यासों का उर्दू में तर्जुमा भी किया। बारी के ही दबाव से मंटो ने उस उर्दू जुबान में मौलिक कहानियाँ लिखनी शुरू कीं, जिसमें वह स्कूल में पढ़ते समय प्रायः फेल होते रहे थे।

मंटों की कहानियां एक अर्थ में मनोवैज्ञानिक सनसनी पैदा करने वाली कहानियाँ है। उसमें समाज के दलित उत्पीड़ित लोगों की मजबूरियों उनके दुःख-दर्द को पूरी ईमानदारी से उकेरने की कोशिश की गई है। उनके वर्णनों से जो ध्वनि निकलती है, वह असाधारण रूप से जीने की कला, मरने की कला और इन दोनों के बीच होने की कला से सराबोर रहती है। उनकी कहानियों के मुख्य पात्र वे यातना भोगती आत्माएं है जो कमजोर जिस्म से लेकर भी अपने इरादों के बल-बूते पर कट्टर सम्प्रदावाद के खिलाफ लड़ती हैं। मजहब के तंग दायरों को तोड़ने के लिए आखिरी दम तक जंग करती हैं, और बड़ी अग्नि परीक्षा में से गुजरते हुए कुंदन बनकर निकलती हैं। अपने कीमती जिस्म बेचने को मजबूर कोठेवालियों कभी बड़ी एक्सट्राओं और मुल्क के बंटवारे से पैदा हुई फिरकापरस्त दरिन्दगी को अपनी अस्मत की भेंट चढ़ाती अमीनाओं-सकीनाओं का जीती जागती तस्वीरें पेश करती है मंटो की कहानियाँ। लोगों का मानना है कि यदि पामेला बोर्डस भी मंटो के जमाने में हुई होती वह तो उसे भी अपनी कहानी का मुख्य पात्र जरूर बनाते।

मंटो सन् 1936 में ‘मुसव्वर’ नाम के फिल्मी साप्ताहिक का संपादन करने के लिए मुम्बई आए और तभी उन्होंने ‘इंपीपियर फिल्म कंपनी’ के लिए पटकथा एवं संवाद लेखन का कार्य भी शुरू किया। लिखने के लिहाज से ये दिन मंटो की जिन्दगी के सबसे सुनहरे दिन थे। उन्हीं दिनों उन्होंने जो कुछ लिखा, रिसालों को एडिट किया, ऑल इंडिया रेडियो को अपना रचनात्मक योगदान किया और मौलिक कहानियों एवं निबन्ध के संकलन प्रकाशित करवाए सन् 1941 में वह दिल्ली गए लेकिन दिल्ली की जिंदगी उन्हें रास न आई और दो साल बाद ही वह फिर ‘फिल्मिस्तान कंपनी’ में काम करने के लिए मुम्बई लौट आए।

मंटो ने अपने लेख में लिखा है कि वे दिन उनके लिए यादगार दिन थे। जिंदगी बड़े आराम से गुजर रही थी कि 14 अगस्त 1947 की रात तो ठीक 12 बजे हिन्दुस्तान का ऐतिहासिक बंटवारा हो गया। पूरे देश में अफरा-तफरी का माहौल पैदा हो गया। देश के नगरों में दोनों समुदायों के बीच मारकाट होने लगी। मुम्बई भी अछूता न रहा। उनकी पत्नी और बच्चे परिवार के दूसरे लोगों के साथ पाकिस्तान चले गए लेकिन मंटो वहीं डटे रहे। दरअसल उनका दिल मुम्बई शहर को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं था। उन दिनों वह बॉम्बे टाकीज में काम कर रहे थे। उन्होंने पुख्ता इरादा कर लिया था कि कुछ भी हो जाए, वे हिन्दुस्तान छोड़कर नहीं जाएँगे, पर उनके इरादे करने से क्या होना था। मजहवी सियासत तो अपनी घिनौनी हरकतों से बाज आने वाली नहीं थी। बॉम्बे टाकीज के मालिकों को अल्टीमेटम मिला-या तो अपने सब मुस्लिम कर्मचारियों को बर्खास्त कर दें या फिर अपनी सारी जायदाद को अपनी आँखों के सामने बर्बाद होते देखने के लिए तैयार हो जाएं।

मंटो पर इस खौफनाक धमकी का बड़ा घातक असर हुआ। जनवरी 1948 को वह अपना टूटा दिल और बिखरे सपने लेकर कराची चले गए। मुम्बई में गुजरे अपने आखिरी दिनों की याद करते हुए उन्होंने लिखा- ‘मेरे लिए यह तय करना नामुमकिन हो गया है। कि दोनों मुल्कों में अब मेरा मुल्क कौन-सा है। बड़ी निर्दयता के साथ रोजाना जो खून बहाया जा रहा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? अब आजाद हो गए हैं ? क्या गुलामी का वजूद खत्म हो गया है ? जब हम औपनिवेशक दासता में थे, स्वतंत्रता के सपने देख सकते थे, लेकिन अब हम आजाद हो गए हैं।

तब हमारे सपने किसके लिए होंगे ? इन सवालों के अलग-अलग जवाब हैं। हिन्दुस्तानी जवाब-पाकिस्तानी जवाब। हिन्दुस्तान हो गया है और पाकिस्तान तो पैदा ही आजादी में हुआ है लेकिन दोनों ही देश में आदमी अलग-अलग तरह की गुलामी ढोने को मजबूर हैं। पूर्वाग्रहों की गुलामी, मजहबी पालगपन की गुलामी पशुता की हैवानियत की गुलामी है। ज़लालत की गुलामी अभी तक भी आदमी को जकड़े हुए है। इन गुलामियों से छुटकारा दिलाने की पहल किसी और से नहीं हो रही है। क्यों आखिर क्यों ?

तीखे नश्तर से चुभने वाले मंटो के ये सवाल उसकी मौत के 55 साल बाद भी जवाब पाने के लिए अपनी जगह बदस्तूर कायम हैं। मजहब के नाम पर सियासत का खेल खेलेने वाले आदमखोर बाजीगर भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों मुल्कों में सत्ता पाने के लिए शतरंजी चालें चलने में मशगूल हैं। नतीजा यह है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अफसाना निगारों के महत्वपूर्ण स्थान पर भी मंटो को न हिन्दुस्तान ने अपना माना है और न पाकिस्तान ने। बंगलादेश तो खैर बंगला भाषा में लिखनेवालों के अलावा किसी और को स्वीकार करता ही नहीं है।

देखा जाए तो मंटो का साहित्य किसी को मान्यता का मोहताज भी नहीं है वह उतना बुलंद है जितना कुतुबमीनार। वह इतना आकर्षक है जितना ताजमहल और वह इतना ही पाक-साफ है जितना गंगाजल। आधी रात को पैदा हुए हिन्दुस्तान के बेटे-बेटियों के लिए यह एक सशक्त यादगार है उस क्रूर बंटवारे की, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता, इसलिए नहीं कि इसने एक देश के दो टकड़े कर दिए, बल्कि इसलिए कि इसमें एक दिल एक दिमाग और एक आत्मा को दो हिस्सों में बांट दिया।

मंटो ने जो कुछ भी लिखा, जितना भी लिखा, वास्तविकता के बहुत करीब होकर लिखा। मंटो ने सच्चाई से कभी गुरेज नहीं किया। अपनी मौत से एक साल पहले उन्होंने अपनी कब्र पर लिखी जाने के लिए जो इबादत लिखी, वह दर्द भरी होते हुए भी बड़ी प्यारी इबादत थी। उन्होंने लिखा था, ‘‘यहां सआदत हसन मंटो लेटा हुआ और उसके साथ कहानी लेखन की कला और रहस्य भी दफन हो रहे हैं। टनो मिट्टी के नीचे दबा वह सोच रहा है कि क्या वह खुद से बड़ा कहानी लेखक नहीं है।’

सचमुच मंटो चाहे खुदा से बड़ा कथाकार न हो, लेकिन उनका रचना संसार अनिवार्यताः ऐसे लोगों को प्रकाश में लाता है जिनकी ओर समाज कभी नजर डालना गवारा नहीं करता है। इन लोगों की जिंदगी उन अनाम, अनजाने पहलुओं को वह उद्घाटित करता है, जिन तक बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक की भी पहुँच नहीं हो पाई।
 
इस नाते वह एक लाजवाब सृजनकर्ता कहलाने का हक रखते हैं। मंटो की प्रतिभा व उसकी जीवन शैली की यदि किसी से तुलना की जा सकती है तो वह हैं- अर्नेस्ट हेमिंग्वे सब जानते हैं कि मंटों शराब पीते थे और उनकी शराबखोरी के कारण ही उनकी मौत हुई थी। बिल्कुल यही हालात अर्नेस्ट हेमिंग्व की भी थी। उसकी शराबखोरी की आदत मंटो के जीवन में भी प्रतिबिम्बित हुई है और दोनों ने ही मानवीय भावनाओं के अदम्य प्रवाह को कसे हुए शिल्प और कम से कम शब्दों के प्रयोग करते हुए दलित उत्पीड़न मनुष्य जाति के असह्य दुःख-दर्द को व्यक्त किया है। अपनी रचनाओं में मंटो आज हमारे बीच नहीं है लेकिन वह अपनी कालजयी रचनाओं के कारण आज भी अमर हैं। वह एक कालजयी व्यक्तित्व था और कालजयी व्यक्तित्व कभी मरते नहीं हैं।


दो गड्डे



आप मुझे एक अफसाना निगार (कहानीकार) के रूप में जानते हैं और अदालतें एक फोहश निगार (अश्लील लेखक) की हैसियत, से। सरकार मुझे कम्युनिस्ट कहती है और कभी देश का सबसे बड़ा अदीब। कभी मेरे लिए रोजी के दरवाजे बंद किए जाते हैं और कभी खोले जाते हैं।
कभी मुझे गैर-जरूरी इंसान बता कर, मकान से बाहर जाने का हुक्म दिया जाता है और कभी मौज में आकर यह कह दिया जाता हैं कि नहीं, तुम मकान के अंदर रह सकते हो। मैं पहले सोचता था, अब भी सोचता हूँ कि इस देश में जिसे दुनिया का सबसे बड़ा इस्लामी राज्य कहा जाता है, मेरी क्या जगह है और मेरी क्या जरूरत है ?
आप इसे कहानी कह लीजिए, लेकिन मेरे लिए यह कड़वी सच्चाई है कि मैं अभी तक खुद अपने वतन में जिसे पाकिस्तान कहते हैं, अपनी असली जगह नहीं खोज सका। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। यही वजह है कि मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में होता हूँ।  

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