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श्री कृष्ण श्री सत्य साई

जंध्याला सुमन बाबू

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3627
आईएसबीएन :000000

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वर्तमान युग के अवतार भगवान श्री सत्य साई बाबा पर लेखक की अनूठी लोकप्रिय तेलुगु पुस्तक श्री कृष्ण-श्री सत्य साई का हिन्दी अनुवाद...

Shri Krishna Shri Satya Sai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्वविजयी भगवान


‘‘करुणश्री’’


कस्तूरी तिलकं कपोलफलकें, मौलौ जटामण्डलं
जिह्वाग्रे सकलाः कलाः करतले भूतिं करे कल्पकम्
सर्वांगे स्वरूणांशुकांच कलयन् कंठे सुधावाहिनी
पुण्यस्त्री परिवेष्टितो विजयते श्री सत्य साई प्रभु।

श्री सत्य साईश्वराष्टकम्


‘‘शान्ति श्री’’


1.    ईश्वरांबा सुतं सत्यं नित्यमंगल कारिणम्
वेंकावधूत सप्रातम् वंदे साई जगद्गुरुम्।

2.    तुलसीदल संकाशं योगि मानस पूजितम्
    सर्व मानव संदेशं वंदे साई जगद्गुरुम्।

3.    हरिनील जटाजूटं पूर्णचन्द्र निभाननम्
भक्तलोक चिराभासं वंदे साई जगदुरुम्।

4 आर्त्तत्राण व्रताधारं व्योमकेश विराजितम्
यशश्चन्द्र प्रभाव्योमं वंदे साई जगद्गुरुम्

5.रत्नाकार समुद्रभूतं काषायांबर धारिणम्
   आनन्दकोश संचार बंदे साई जगतगुरुम।

6. प्रेमामृग पयोराशिं विश्वकल्याण कारिणम्
शांति सत्य समाहारं वंदे साई जगदगुरुम्

7 प्रशांति निलयावासं बालभास्कर सन्निभम्
आत्रितानंदमंदारं वंदे साई जगदगुरुम्

8 विश्वविद्यालय व्याप्तं निगमागम सेवितम्
सत्य शिवंच सौंदर्य वंदे साई जगदगुरुम्

 साईश्वाराष्टकं पुण्यं नित्यं मनसियः पठेत्
जन्मांतरकृतं पापं विनश्चयि न संशयः।

विनयाञ्जलि


दिनांक 11.4.1982 सुबह 9 बजे, नई दिल्ली में अशोक होटल के विशाल वातावरण सभा कक्ष में, भगवान श्री सत्य साई बाबा के दर्शन के लिए सैंकड़ो भक्त जन इन्तजार कर रहे थे। धीरे-धीरे जनता की संख्या बढ़ने लगी। सेवागल के लोग अनुशासनपूर्वक अपने-अपने विधि के अनुसार काम कर रहे थे। करीब दस बजे एक आवाज सुनाई दीः ‘‘स्वामी पधार रहे हैं।’’ लहर जैसे लोग आ रहे थे फिर एक गम्भीर खामोशी फैली हुई थी। उस खामोशी में केशरिया रंग वस्त्रधारी, निर्मल, आनन्द एवं करुणामय मूर्ति श्री सत्य साई भगवान आहिस्ते-आहिस्ते, चलते हुए मंच पर आये। सदस्यों के करतल ध्वनि से सभा गूँज उठी। सुंदर, सुमनोहर केशालंकृत, कठोर पाषाण को हिला देने वाली अनुकम्पा की दृष्टि से, हवा में खिलते हुए, भक्तों के लिए हस्त दिखाते हुए स्वामी सिंहासन पर आरुण हुये।

भगवान श्री साई बाबा ने मुझे प्रथम बार दर्शन दिये। तब मेरे लड़के (चिंरजीवी श्रीनिवास) की उम्र साढ़े चार साल की थी। पैदा होते ही उसके हृदय में एक छेद होने की वजह से एक महीने से दिल्ली के ए. आई. अम. एस. अस्पताल में चक्कर लगाते रहे। इसी बीच हमने सुना कि बाबा दिल्ली आये है। और अशोक होटल मे सीताराम कल्याण का आयोजन किया गया है। यह खुशी की खबर सुनते ही हम सब पास का बंदोबस्त कर वहाँ गए। मगर हम अपने बच्चे को उन्हें दिखायें कैसे ? उनसे बात कैसे करे ? वहाँ के वातावरण तथा जनसमूह को देखकर हम लोगों न निश्चय कर लिया यह नामुमकिन है। मैं अपने बच्चे को लेकर इधर-उधर घूम रहा था।

मंच पर कल्याण होते समय पुरोहित ने स्वामी के पास आकर कहा- ‘‘स्वामी ! मंगलसूत्र धारण करने का संमय आसन्न हुआ।’’ स्वामी ने् उठकर दो तीन बार  हवा में हाथ घुमाया। हाथ में हल्दी धागे के साथ सोने का मंगरलसूत्र आया। भक्तों ने आश्चर्यचकित होकर। आनन्द के साथ तालियाँ बजायी। तत्पश्चात् स्वामी ने एक साथ घंटा तक सीता-राम कल्याण के बारे में श्लोक पद्य एवं गानों के साथ सुमधुर उपदेश दिए। बाद में जब स्वामी निकलने लगे तो मेरा संकोच अधिक हुआ। अपने लड़के की कमीज ऊपर करके, उसे दोनों हाथों से   उठाकर मै उस रास्ते पर खड़ा हुआ जिस रास्ते से बाबा निकल रहे थे। लोगों की भीड़ उमड़ने लगी। तब सत्य साई भगवान मेरे पास आए और फिर उन्होंने अपने दिव्य हस्त दो क्षण के लिए मेरे बच्चे के सीने पर रखा और आगे बढ़े। हमारे हर्ष का पारावार न रहा।

बाद में अस्पताल की केटटेस्ट करने वाली मशीन खराब हो गयी। हम वापस रिजवाड़ा आ गये। बाद में, 1984 में पुनः दिल्ली जाकर केट-जांच कराय़ी। जांच का फल बताया नहीं गया। डाक्टरो ने पूछा कि आपको कब खुला हृदय सर्जरी कराने के लिए समय मिलेगा ? इसको सुनते ही हमें डर लगा। फिर उन्होंने केट-जांच के परिणाम के बारे में बताते हुए कहा कि ‘‘अभी आपरेशन की आवश्यकता नहीं है। वह छेद धीरे-धीरे बंद हो सकता है। आप निश्चिन्त रहें।’’ तब हमने कुछ राहत की सांस ली। यह बात हमें तब नहीं मालूम हुई कि इसकी वजह साई का हस्त-स्पर्श है।

नवम्बर 1985 में पुट्टपर्ती में स्वामी का आठवाँ वर्षगाठ का उत्सव धूमधाम से मनाने के लिए प्रबन्ध हो रहे थे। ताडेपल्लीगूडेम् से हजारों भक्त वहाँ सेवा करने के लिए जा रहे थे। उस दिव्य समारोह को  देखकर मेरे पिताजी ‘‘शांतिश्री’’ जंध्याला वेंकटेश्वर शास्त्री जी के मन में एक प्रश्न उठाः ‘‘कौन है यह साई बाबा ? इतने लोग कहां जा रहे है ?’’ और फिर  वे पहली बार पुटुपर्ती गये। सात लाख दर्शकगण वहाँ आए हुए थे। स्वामी जी ने सभी के लिए उचित भोजन का प्रबन्ध किया था। उस समय स्वामी जी ने मेरे माता-पिता को साक्षात्कार देकर पूछा, ‘‘आपको क्या चाहिए ?’’ मेरे पिता जी को समझ नहीं आया कि क्या बोलें। पिता जी ने कहा यदि आप अनुमति दें तो मुझे यहीं रहने की अनुमति दें।’’ स्वामी बोले-‘‘ठीक है। तुम जनवरी के प्रथम सप्ताह में यहाँ रहने आओ।’’ हम सबने यह बात घर पर सुनी। हमें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कि पिताजी कहाँ और कैसे ठहरेंगे ? ज्यादा-से-ज्यादा चार दिन रुककर लौट आएंगे। ऐसा सोचकर हम सब वहाँ गये। स्वामी जी के कथानुसार हम सब रात 11. 00 बजे पुट्टपर्ती पहुँचे। सवेरे हम सब पंक्ति में बैठे थे। प्रशांत वातावरण में स्वामी के दर्शन हुए। हमें साक्षात्कार के लिए कमरे में बुलाया गया। हम भगवान के चरण कमलों के निकट बैठे थे।
अंदर चार-पाँच देशों से आये हुए करीब बीस लोग थे। उनमें से एक अमेरिकन सज्जन की उंगली में अँगूठी के तीन पत्थरों (नगों) की जगह एक ही नग था, शेष खाली था। स्वामी ने उनसे पूछा- ‘‘इसमें एक ही नग क्यों हैं ?’’ उन्होंने कहा कहीं गिर गया है।’’ स्वामी ने सबसे उस अँगूठी के नगों को ढूँढ़ने के लिए कहा।

बारी-बारी से सभी ने ढूँढा। बाबा जी ने उस अँगूठी को हथेली में लेकर फूँका हथेली खोलने पर तीन पत्थर चमकते हुए दिखाई दिए। ‘‘मेरे कारीगर शीघ्र काम करते हैं।’’ स्वामी बोले। एक तमिल भाषी से स्वामी जी ने तमिल भाषा में पूछा- ‘‘क्या आपके पसंद का रिश्ता जुड़ गया है ?’’ वे बोले, ‘‘हाँ पर हम यहाँ मंलगसूत्र के लिए आए हैं।’’ स्वामी जी ने पूछा, ‘‘क्या तुम्हें मंगलसूत्र चाहिए ?’’ फिर सृजन कर बाबा ने उन्हें मंगल सूत्र दिया। फिर स्वामी ने सबको मशहूर संगीतकार पंडित रवि शंकर से परिचित कराया और एक विदेशी महिला से स्वास्थ्य के बारे में पूछते हुए विभूति का सजृन कर उसे दिया।

 इस प्रकार सभी परिवार के कुशल समाचार पूछते हुए एक-एक को कमरे में बुलाया गया। मेरे पिता जी को देखकर स्वामी बोले- ‘‘यहाँ ठहरने के लिए तैयार हो तो तुम्हें एक फ्लेट दूँगा। खुशी से रह सकते हो। तुम्हारी आवश्कताओं की देखभाल मैं करूँगा। जो भी स्वामी ने अनेक आध्यात्मिक विषयों के बारे में बताया। भागवत में से कुछ पदों को सुनाया और बोले, ‘‘यदि नैया पार करनी है तो भागवत का अध्ययन करना चाहिए। आज से तुम एक घंटा मंदिर में भागवत प्रवचन करो। तेलगू भाषा वाले सभी आकर सुनेंगे।’’ ‘‘मैंने कभी पुराण का प्रवचन नहीं   किया’’ मेरे पिता जी ने कहा। ‘‘मैं हूँ तुम्हारे साथ। यहाँ बहुत से लोग पढ़े-लिखे है। फिर भी डरने की बात नहीं। मैं हूं, डरों मत। बाबा ने कहा। उन्होंने पिताजा से कुछ व्यक्तिगत विषयों के बारे में चर्चा की। मुझे उस समय ऐसा प्रतीत हुआ कि सभी मानवों की एक-एक बात और हर एक काम यहां रिकार्ड हो रहा है। सभी लोगों के भूत वर्तमान एवं भविष्य के बारे में स्वामी को पता है। उसी दिन मेरे पिता जी को प्रशान्तिनिलयम में रहने के लिए एक मकान दिया गया। दोपहर दो बजे श्री कुटुम्बर राव द्वारा मेरे पिता जी के लिए रेशमी कपड़े भिजवाए गये। उन्हें धारण कर तीन बजे भागवत प्रवचन करने का संदेश भेजा गया। उस दिन से मेरे पिता जी ने लगातार ढाई साल तक भागवत रामायण आदि महान काव्यों के बारे में स्वामी के मंदिर में, स्वामी के सानिध्य में मनोहर ढंग से प्रवचन किए।

एक दिन स्वामी जी ने मेरे पिता जी से कुछ दिन विश्राम लेने के लिए कहा। वह था अप्रैल 1988। पिताजी, स्वामी के दर्शन करने हेतु बंगलौर गये। स्वामी ने उन्हें बुलाकर मंदिर में बातचीत की। पिताजी ने सोचा कितना अद्भुद है स्वामी का मंदिर। अंदर और कितना सुंदर होगा।’’ स्वामी ने कहा, ‘‘ओह, तुमने अन्दर नहीं देखा न।’’ ऐसा कहने हुए उन्होंने अंदर ले जाकर पूरा मंदिर दिखाया। उन्होंने पिताजी को मुट्ठी भर विभूति पैकेट में दी। पिताजी पुट्टपर्ती लौट आये। गणेश मंदिर के पास उन्हें कुछ बेहोशी-सी प्रतीत हुई तो उन्होंने पुडिया खोली जिसे स्वामी ने दी थी। उसमे एक टैब्लेट (गोली) दिखाई दी। पिता जी ने सोचा बाबा ने शायद यह भी दिया होगा। ऐसा सोचकर गेली खा ली। दक्षिण दिशा मंजिल चढ़कर कमरे में पिताजी सो गये। तुरंत उन्हें भयंकर लकुआ हो गया। दो दिन में हालत खतरनाक हो गई। डाक्टरों ने निराशा प्रकट की। पर धीरे-धीरे भगवान बाबा की कृपा से पिताजी की हालत सुधरने लगी। कनिष्ठ उँगली से शुरू होकर सारा शरीर धीरे-धीरे सुधरते हुए एक ही महीने में पिताजी फिर से चलने लगे।

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