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दुर्गा उपासना

राधाकृष्ण श्रीमाली

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3651
आईएसबीएन :81-288-0217-8

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दुर्गा उपासना

Durga Upasna-1

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वैदिक साहित्य में उपासना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म के सभी मतावलम्बी—वैष्णव, शैव, शाक्त तथा सनातन धर्मावलम्बी—उपासना का ही आश्रय ग्रहण करते हैं। यह अनुभूत सत्य है कि मन्त्रों में शक्ति होती है। परन्तु मन्त्रों की क्रमबद्धता, शुद्ध उच्चारण ओर प्रयोग का ज्ञान भी परम आवश्यक है, जिस प्रकार कई सुप्त व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति के नाम का उच्चारण होता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है, अन्य सोते रहते हैं, उसी प्रकार शुद्ध उच्चारण से ही मन्त्र प्रभावशाली होते हैं, और देवों को जाग्रत करते हैं। क्रमबद्धता भी उपासना का महत्त्वपूर्ण भाग है। दैनिक जीवन में हमारी दिनचर्या में यदि कहीं व्यतिक्रम हो जाता है तो कितनी कठिनाई होती है, उसी प्रकार उपासना में भी व्यतिक्रम कठिनाई उत्पन्न कर सकता है।

    अतः उपासना  पद्धति में मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्टय की प्राप्ति कर परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। इसी श्रृखंला में प्रस्तुत है—दुर्गा उपासना।

प्राक्कथन

भारतीय वाङ्मय में हिन्दुओं का जीवन-धन सदैव से धर्म रहा है। ‘धर्म इति धारयेत्’ जो भी अपनाने या ग्रहण करने योग्य है वही धर्म है। यह जाति धर्मार्थ स्वयं को मिटा देना, धर्म पर स्व को, तन-मन-धन को न्यौछावर कर देना, सदा सर्वोपरि कर्त्तव्य कर्म और आदर्श, परम कर्त्तव्य ही नहीं परम सौभाग्य, परम धर्म समझती आ रही है। इसका प्रमाण यत्र-यत्र-सर्वत्र, पुराण, इतिहास के पन्ने रंगे पड़े हैं। जब तक धर्म पर अटल विश्वास था, जब तक हिन्दू श्रुति, वेद, स्मृति, ऐतरेय अठारह पुराण, इतिहास प्रतिपाद्द सनातन धर्म के भक्त थे, अनन्य भक्त थे, तब तक धर्म पर भी पग-पग पर उनकी रक्षा करना था, यह तो निर्विवाद रूप सत्य है सिद्ध है। कालान्तर में हमारी आस्था जब से धर्म पर से हटने लगी है, जब से हमारे धर्म-बंधन ढीले हुए, जब से धर्म पर तर्क-वितर्क होने लगा, उसे तर्क की कसौटी पर हम कसने लगे, तब से धर्म ने भी साथ देना छोड़ दिया और उसी का यह परिणाम हो रहा है कि हिन्दू जाति संकटापन्न अवस्था में है और इसकी आज वही दशा हो रही है, जैसी मझदार में डूबती किसी नाव की हो रही हो।

भगवान मनु ने अपनी स्मृति में स्पष्ट शब्दों में कहा है—

    धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षित रक्षितः।
    तस्माद् धर्म्मो न हन्तव्यो, मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।

    अर्थात नष्ट किया हुआ धर्म ही नाश करता है और रक्षित किया धर्म ही रक्षा करता है। ‘नष्ट धर्म कहीं हमें नष्ट न करे’ इसलिए कभी भी धर्म का नाश नहीं करना चाहिए। क्योंकि—

    एक एव सुहृद्धर्मो, निधनेऽप्यनुयाति यः।
    शरीरेण समं नाशं, सर्वमन्यद्धि गच्छति।।

    अर्थात धर्म मात्र ही एक ऐसा मित्र है जो मरने पर साथ जाता है। और सब कुछ शरीर के साथ नष्ट हो जाता है। धर्म अच्छा है या कि बुरा, इस पर तर्क-वितर्क करने की आवश्यकता ही नहीं है। जिस धर्म को हमारे पूर्वज, पुरखे मानते आये हैं, उसी को हमें मानना उचित भी है। कारण भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए स्पष्ट कहा है

    ‘श्रेयान्स्वधर्मोविगुणः पर धर्मात्स्वनुष्ठितात्।
    स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

    अर्थात—
    हो परधर्म रुचीर, गुणवाला, पर स्वधर्म में निर्गुण भी श्रेय।
    मरना भी शुभ है स्वधर्म में, धर्म पराया भयप्रद हेय।।
    इस कारण प्रत्येक जाति वालों को, यदि वह निज कल्याण चाहते हैं, तो अपने-अपने धर्म का पालन बिना किसी प्रकार के ना-नुकर, तर्क-वितर्क और सन्देह के, करना चाहिए तभी वह निस्संदेह सुखी रह सकते हैं।
    मनुस्मृति में लिखा है

    आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च।
    सर्वस्य तपसो मूलमाचारं जगृहुः परम्।।

    अर्थात वेद और स्मृति में कहा गया आचरण ही परम धर्म है। आचरण को ही सब तपस्याओं का मूल माना है।
    जो प्राणी सदाचार पूर्वक रहकर अपने स्व उपास्यदेव की आराधना करता है, वह सभी कुछ इच्छित फल प्राप्त कर अपने जीवन को पूर्ण सफल, सार्थक, आनन्दमय सुखमय बनाते हुए अन्त में उस स्थान पर पहुँच जाता है जिसको श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है—
    यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम् परमं मम।
    अर्थात उस परम स्थान पर पहुंच जाते हैं जहां से फिर नहीं लौटते। सनातन धर्म में मूलतः पाँच उपास्यदेव माने गए हैं—

    ‘आदित्यं, गणनाथश्च, देवी रुद्रश्च केश्वम्।
    पंचदेवत्वमित्युक्तं, सर्व कर्मसु पूजयेत्।।

    सूर्य, गणपति, दुर्गा, शंकर, और विष्णु परन्तु कलियुग में—‘कलौ चण्डी विनायकौ’ वाक्यानुसार गणेश और चण्डी अर्थात दुर्गा की उपासना को प्रमुख माना गया है। वास्तविकता भी यही है कि दुर्गा माता अपनी सन्तान की थोड़ी-सी सेवा से भी प्रसन्न हो कर अपने सकल मनोरथों को सिद्ध करते हुए देखी गई हैं।

    इसका स्पष्ट प्रमाण छत्रपति शिवाजी, परमहंस, रामकृष्ण आदि अनेकानेक विभूतियां इस कलिकाल में भी इस बात के प्रत्यक्ष सिद्ध करके दिखाई गई हैं कि ‘मां’ की सेवक सन्तान अलौकिक शक्ति-सम्पन्न होकर संसार में क्या-क्या नहीं कर सकती ?

    मातेश्वरी श्री भगवती दुर्गा परमेश्वर की उन प्रधान शक्तियों में से एक हैं जिनको आवश्यकतानुसार समय-समय पर उन्होंने प्रकट किया है जैसे—

    एकैव शक्तिः परमेश्वरस्य, भिन्न चतुर्धा व्यवहार काले।
    पुरुषेण विष्णुः भोगे भवानी समरे च दुर्गा प्रलये च काली।।

    उसी परमेश्वर की दुर्गा शक्ति की उत्पत्ति तथा उसके चरित्रों का वर्णन मार्कण्डेय पुराण के अन्तर्गत देवी माहात्म्य में है। वह देवी माहात्म्य ७00 श्लोकों में वर्णित है। अतः वह माहात्म्य ‘दुर्गासप्तशती’ नाम से संसार में ख्यात है। उसी मां दुर्गा शक्ति की उपासना भारतीय चिरकाल से करते चले आते हुए शक्तिशाली बने हुए थे। इसीलिए मां के चरित् में वर्णित है कि

    या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    जब तक मां अपने उपासको में शक्ति रूप होकर स्थित थीं तब तक किसी की सामर्थ्य नहीं थी जो सामने आ सके और जो कोई आया भी तो उसे मुँह की खानी पड़ी।

दुर्गा सप्तशती


    श्री वेद व्यास रचित मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत दुर्गा सप्तशती विविध पुरुषार्थ साधिका, कर्मोपासना, ज्ञानोत्तम, सिद्धान्त प्रतिपादिका, वेद वेदांग, वेदान्त तत्त्व प्रकाशिका, सफल भक्ताभीष्ट वरप्रदा, अभयदा एवं अशरण शरणदा है। इसमें जिस विशद, विमल चरित्र का वर्णन है, उसका संक्षेप में वर्णन अपने पाठकों की जानकारी के लिए कर रहा हूं। वास्तव में शस्त्रास्त्र धरिणी श्री भगवती के जिस युद्ध का वर्णन वेद में समान रूप से है, उसी को श्री वेदव्यास ने अपने ज्ञान-चक्षु द्वारा देखकर, मार्कण्डेय पुराण में विशद रूप में लिखा है। वह कथा तीन चरित्रों में वर्णित है और उसकी संक्षिप्त कला इस प्रकार है

प्रथम चरित्र


    दूसरे मनु के राज्याधिकार में ‘सुरथ’ नामक चैत्र वंशोद्भव राजा राज्य करता था। शत्रुओं तथा दुष्ट मंत्रियों के कारण उसका राज्य-कोष आदि सब कुछ उसके हाथ से निकल गया। राजा हतश्री होकर जंगल में चला गया और वहां ‘मेधा’ नामक ऋषि के आश्रम में पहुँचने पर भी राजा ‘सुरथ’ मोहवश प्रजा, पुर, शूर, हाथी, धन, कोष, और दासों की अर्थात अल्प नाशवान पदार्थों की चिन्ता करके दुखी हुआ। राजा सुरथ की वही दशा हुई जो भगवद् भक्ति से विहीन पुरुषों की होती है।
    इसी ‘मेधा’ ऋषि के आश्रम में ‘समाधि’ नाम के वैश्य से राजा ‘सुरथ’ की भेंट हुई। यद्दपि वह वैश्य अपने धन-लोलुप स्त्री-पुत्रों द्वारा घर से निकाल दिया गया था तथापि उनके दुर्व्यवहार को भूलकर उनके वियोग में दुखी था।

    इस प्रकार ये दोनों दुखी जीव ‘मेधा’ ऋषि की सेवा में उपस्थित हुए। शिष्टाचार पूर्वक अभिन्नदन कर दोनों ऋषि के पास बैठ गए। राजा ने ऋषि से कहा—जिस विषय में हम दोनों को दोष दिखता है, उसकी ओर भी ममतावश हमारा मन जाता है। हे मुनिवर, यह क्या बात है कि ज्ञानी पुरुषों को भी मोह होता है।

    महर्षि उन्हें मोह का कारण बताते हुए कहने लगे—इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि ज्ञानियों को भी मोह होता है, क्योंकि महामाया भगवती अर्थात भगवान विष्णु की योग निद्रा (तमोगुण प्रधान शक्ति) ज्ञानी (बुद्धिमान) पुरुषों के चित्त को भी बलपूर्वक खींचकर मोह युक्त कर देती है, वही भक्तों को वर प्रदान करती है और ‘परमा’ अर्थात् ब्रह्म ज्ञान स्वरूपा है।

    राजा सुरथ ने भगवती की ऐसी महिमा सुनकर, मेधा ऋषि से कहा ‘हे द्विज ! हे ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ ! मेरे तीन प्रश्न हैं—
(अ)    वह महामाया देवी कौन है ?
(ब) वह कैसे उत्पन्न हुई ?
(स) उसका काम तथा प्रभाव क्या है ?
मुनी ने उत्तर दिया—

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिंद जगत्।

वह भगवती सदा विद्यमान रहने वाली है। यह जगत उसी का रूप है। उसी ने इसे बनाया है।

प्रथम चरित्र की कथा,


    जब प्रलयोपरान्त भगवान् विष्णु शेष-शय्या पर योग निद्रा में निमग्न हुए, जब उनके कानो के मैल से मधु और कैटभ नामक दो असुर उत्पन्न होकर हरि-नाभि-कमल स्थित ब्रह्माजी को नष्ट करने चल पड़े। तब ब्रह्माजी भगवान की योग निद्रा को षट् तुरीया शक्ति के रूप में सुन्दर सरस स्तुति (रात्रि-सूक्त) प्रेमपूर्वक करने लगे और उसमें उन्होंने ये तीन प्रार्थनाए की-(१) भगवान विष्णु को जगा दीजिए (२) उन्हें दोनों असुर के संहारार्थ मारने के लिए उद्दत कीजिए और (३) असुरों को विरोहित करके भगवान द्वारा उनका नाश कराइए। श्री भगवती ने स्तुती से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी को दर्शन दिया। उस (योग निद्रा) से मुक्त होकर श्री भगवान् उठे और असुरों को ब्रह्माजी को ग्रसने के लिए उद्यत देख उनसे युद्ध करने लगे। तदुपरान्त दोनों असुर योग निद्रा से मोहित हो गए और उन्होंने श्री भगवान से वर मांगने को कहा। अन्त में उसी वरदान के अनुसार वे भगवान् के हाथों मारे गये।

    इस कथा से श्री ब्रह्मा जी ने यह उपदेश दिया है कि जो भगवती की उपासना करते हुए एवं कर्तव्य के अभिमान तथा सुकृत-दुष्कृत रूपी कर्मफल को त्यागकर अपने विहित कर्म में प्रवृत्त रहते हैं उनका जीवन शान्तिपूर्वक निर्विघ्न होता है। यही ब्राह्मी स्थिति है, जिसे पाकर मनुष्य मोहग्रस्त नहीं होता। महर्षि ‘मेधा’, सुरथ राजा तथा समाधि नाम वैश्य दोनों जिज्ञासुओं के निराकरण हेतु कर्म के उच्चतम सिद्धान्त करके उपासना एवं ज्ञानयोग के तत्त्व को भगवती के अन्यान्य प्रभावों द्वारा वर्णन करने लगे।

मध्यम चरित्र


    मध्यम चरित्र की कथा का सारांश इस चरित्र में ऋषि ने राजा सुरथ तथा समाधि नामक वैश्य के प्रति मोहजनित सकामोपासना द्वारा अर्जित फलोपभोग के निराकरण के लिए निष्कामोपसना का उपदेश किया है। चरित्र कथा सार यों है—

    प्राचीन काल में महर्षि नामक एक अति बलवान असुर उत्पन्न हुआ। वह अपनी शक्ति से इन्द्र, सूर्य, चंद्र, यम, वरुण, अग्नि, वायु व अन्य देवताओं को हटाकर स्वयं इन्द्र बन गया और उसके समस्त देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। अपने स्वर्ग-सुख भोगैश्वर्य से वंचित होकर दुखी देवतागण साधारण मनुष्यों की भांति मर्त्यलोक में भटकने लगे। अन्त में व्याकुल होकर वे लोग ब्रह्मा जी के साथ विष्णु और शिवजी के पास गए और उनके शरणागत होकर अपनी व्यथा कही।
    देवो की करुण कहानी सुन लेने पर विष्णु और शिव के मुख से महा तेज प्रकट हुआ। इसके पश्चात ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, चंद्र, यमादि देवताओं के शरीर से भी तेज निकला। यह सब एक होकर तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाली एक दिव्य देवी के रूप में परिवर्तित हो गया।

    ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य प्रमुख सुरों (देवताओं) ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्रों से दिव्य प्रकाश मयी उस तेजो मूर्ति को अमोघ अस्त्र-शस्त्र दिए। तब श्री भगवती अट्टहास करने लगी। उनके उस शब्द से समस्त लोक कम्पायमान हो गये।
    तब असुर राज महिष ‘आः यह क्या है ? ऐसा करता हुआ सम्पूर्ण असुरों को साथ लेकर उस शब्द की ओर दौड़ा। वहां पहुंचकर उसने उस महाशक्ति देवी को देखा, जिसकी कान्ति त्रैलोक्य में फैली है और जो अपनी सहस्र भुजाओं से दिशाओं के चारों चरफ फैलकर स्थित है। इसके पश्चात् असुर देवी से युद्ध करने लगा।

    श्री भगवती और उनके वाहन सिंह ने कई करोड़ असुर सैन्य का नाश किया। तत्पश्चात भगवती के द्वारा चिक्षुर, चामर, उदग्र, कराल, वाल्कल, ताम्र, अन्धक, अतिलोम, उगाम्य, उग्रवीर्य, महाहनु, विड़ालास्य, महासुर, दुर्धर, और दुर्मुख चौदह असुर सेनापति मारे गए। अन्त में महिषासुर, भैसा, हाथी, मनुष्यादि के रूप धारण करके श्री भगवती से युद्ध करने लगा और मारा गया।

    अपने समग्र शत्रुओं के मारे जाने पर देवगणों ने प्रसन्न होकर आद्या शक्ति की स्तुति की और वर मांगा।
    जब-जब हम लोग विपदा में हो तब-तब आप हमें आपदाओं से विमुक्त करें और जो मनुष्य आपके इस पवित्र चरित्र को प्रेमपूर्वक पढ़े या सुने वे सम्पूर्ण सुख और एश्वर्यों से सम्पन्न हों।
    श्री भगवती देवताओं को ईप्सित वरदान देकर अन्तर्धान हो गई। इस चरित्र में मेधा ऋषि ने इन्द्रादि देवगण के राज्याधिकार का अपहरण, आत्मा-शक्ति द्वारा उनके दुःखों का निराकरण तथा पुनः स्वराज्य-प्राप्ति का वर्णन करके सुरथ राजा के शोक-मोह के निवारण के लिए उसी आत्म-शक्ति की भक्ति का उपदेश दिया है।

उत्तम चरित्र


    मध्यम चरित्र में मोह का कारण कर्मफलासक्त देवों द्वारा दिखाया जाकर उत्तम चरित्र में परानिष्ठा ज्ञान के बाधक आत्म-मोहन अहंकारादि के निराकरण का वर्णन किया गया है।
उत्तम चरित्र की कथा का सारांश

    पूर्व काल में शंभु और निशंभु दो महापराक्रमी असुर हुए। उन्होंने इन्द्र का त्रैलोक्य का राज्य और यज्ञों का भाग छीन लिया। वे दोनों ही सूर्य, चंद्र, कुबेर, यम, वरुण, पवन, और अग्नि के अधिकारों के अधिपति बन बैठे और उन्होंने सुर-समाज को स्वर्ग से निकालकर बाहर किया। तब बड़े ही दुखी होकर सशोक देवतागण मृत्युलोक में आए। देवताओं को बार-बार का यह क्लेश अत्यन्त असहनीय हुआ और वे सदा के लिए इससे छुटकारा पाने का उपाय सोचने लगे। अन्त में वे हिमाद्रि पर्वत पर जाकर दयार्द्र हृदय श्री दुर्गा देवी के चरण कमलों की दिव्य ज्ञानमयी वन्दना करने लगे। श्री भगवती पार्वती अपने वचनानुसार हिमालय पर्वत पर गंगा के किनारे प्रकट हुई और उन्होंने सुरों से पूछा-‘तुम किसकी स्तुति कर रहे हो ?’ उनके इतना कहते ही उनके से शरीर शिवा निकल कर कहने लगीं-‘ये शंभु-निशंभु से लड़ाई में हारे हुए, स्थानच्युत किए हुए सब देवगण एकत्र होकर मेरी स्तुती कर रहे हैं।’

    पार्वती के शरीर से अंबिका उत्पन्न हुई, और भगवती पार्वती के शरीर से शिवा के निकल जाने से उसका वर्ण काला हो गया। अतएव ये कालिका के नाम से ख्यात होकर हिमालय पर रहने लगी, तत्पश्चात् परम सुन्दरी अंबिका को शंभु-निशंभु के भृत्य चण्ड-मुण्ड ने देखा। और उन दोनों ने शम्भु से जाकर उसके अतुल सौंदर्य की प्रशंसा की। उसने अपने भृत्यों की बात सुनकर सुग्रीव नामक असुर को अंबिका को ले आने के लिए भेजा।

    सुग्रीव ने भगवती के पास पहुंचकर शंभु-निशंभु के एश्वर्य की बड़ी प्रशंसा की, और उससे परिग्रह की बात कही।
    भगवती ने गंभीरता भाव से मुस्कराते हुए कहा-‘तूने जो कुछ कहा वह सब सत्य है परन्तु इस विषय में मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसे सुन, वह प्रतिज्ञा यह है-

    जो लड़ाई में मुझे जीत लेगा, जो मेरे घमण्ड, दर्प को दूर कर देगा, जो सारे संसार में मेरे प्रतिबल अर्थात बराबर ताकत वाला होगा, वही मेरा स्वामी होगा।’ इसलिए महाअसुर शम्भु, निशम्भु यहां आएं और मुझे जीतकर जल्दी ही विवाह कर ले।
    दूत ने कहा-‘हे देवी ! तुम्हें घमण्ड हो गया है। मेरे सामने ऐसी बात मत कह। तीनों लोकों में ऐसा कौन प्राणी है जो शंभु-निशंभु के समक्ष टिक सके। सुन, लड़ाई में राक्षसों के सामने सब देवता भी नहीं ठहर सके। तब हे देवी ! तू अकेली स्त्री कैसे ठहर सकती है ? इसलिए तू मेरे कहने से शंभु-निशंभु के पास चली चल, नहीं तो बाल पकड़कर घसीटकर ले जाई-जाएगी। देवी ने कहा-‘जो तूने कहा, वह सब सच है; शंभु ऐसा ही बलवान है और निशंभु भी बड़ा वीर्यवान है, पर क्या करूं, मंदबुद्धि होने के कारण मैंने ऐसी प्रतिज्ञा करते समय पहले नहीं सोचा, अब लाचार हूँ। अब तू जाकर जो कुछ मैंने कहा है, वह राक्षसों के राजा शंभु को समझा कर कहना। वह जो उचित समझे वैसा करे।’

    सुग्रीव ने शंभु-निशंभु के पास जाकर भगवती अंबिका की प्रतिज्ञा विस्तार पूर्वक कह सुनाई। शंभु-निशंभु ने कुपित होकर धूम्रलोचन नामक असुर को भेजा। भगवती ने धूम्रलोचन को हुंकार मात्र से भस्म कर दिया। और भगवती ने तथा उनके वाहन सिंह ने असुर सेना का विनाश कर दिया। तदुपरान्त असुर राजा शंभु ने चण्ड-मुण्ड दोनों को बहुत बड़ी सेना का साथ भगवती कौशिकी को पकड़ लाने या मार डालने के लिए भेजा। वे सब हिमालय पर जाकर भगवती को पकड़ने का यत्न करने लगे। तब अंबिका ने शत्रुओं पर अत्यन्त कोप किया और उनके ललाट से एक भयानक काली देवी प्रकट हुई। उसने असुर सेना के विनाश किया, और चण्ड-मुण्ड का सिर काटकर अंबिका के पास ले गई, इसी कारण उसका नाम चामुण्डा हुआ।




































 

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