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ॐ शांतिः शांतिः शांतिः

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3659
आईएसबीएन :81-288-0368-9

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मौन ही प्रारंभ है, मौन ही अंत है, और यदि तुम एक ध्यानी हो तो मौन ही मध्य है। मौन अस्तित्व का समूचा ताना बाना है... ...

Om Shanti Shanti Shanti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1
ॐ : जागतिक हृदय-स्पंदन का प्रतीक

प्यारे भगवान,
पूरबीय धर्मग्रंथ, जो ॐ शांति: शांति: शांति: से शुरु होते हैं और ॐ शांति: शांति: शांति: के साथ समाप्त होते हैं, मुझे सदा हैरत में डाल देते हैं।
क्या आप कृपा करके इस संबंध में कुछ कहेंगे ?

मनीषा, यथार्थ की दिशा में पूरब की पहुंच पश्चिम के ढंग से लगभग व्यासीय रूप से विपरीत रही है। पहले, इन शब्दों का सीधा-सरल अर्थ समझ लेना चाहिए, और फिर सारी जटिलताएं। सभी पूरबीय धर्मग्रंथ ॐ शांति: शांति: शांति: के साथ शुरू होते हैं और वे समाप्त भी उसी के साथ होते हैं।
ॐ जागतिक हृदय-स्पंदन का प्रतीक है; यह एक शब्द नहीं है। और जैसे-जैसे तुम जागतिक हृदय-स्पंदन के निकट और निकट आते जाते हो, उसकी सह-उपज है एक गहराता मौन। शांति: का अर्थ है, मौन और यह हमेशा तीन बार दुहराया गया है क्योंकि जब तक तुम चौथे पर पहुंचो तुम बचते ही नहीं-केवल मौन बचा है। तुम जगत से अलग सत्ता के रूप में विदा हो चुके होते हो।
पश्चिम इस अभिप्राय के साथ एक भी धर्मग्रंथ नहीं शुरू कर सका है। वह समझ में आनेवाली बात है। वे तुम्हारे हृदय और जगत् के बृहत हृदय के बीच चलनेवाले गहनतर संवाद में कभी प्रवेश नहीं किये। उन्होंने एक गलत रास्ता चुना है, संघर्ष का, जीतने का, विजयी होने का। उन्होंने बहिर्मुखी होना चुना है।

उनकी दुनिया सच है, लेकिन वे स्वयं के संबंध में कुछ भी नहीं जानते हैं। बाह्य सच है, लेकिन भीतर का कभी अन्वेषण नहीं किया गया है।
बाइबिल कहती है, ‘‘प्रारंभ में शब्द था।’’ अब, यह किसी महा अज्ञानी द्वारा ही कहा जा सकता है, क्योंकि शब्द का मतलब है : ध्वनि जिसका अर्थ होता हो। ये ध्वनियां जो शब्दों से उत्पन्न होती हैं मात्र ध्वनियां हैं। जैसे ही तुम कहते हो, ‘‘प्रारंभ में शब्द था, ‘‘अनजाने ही तुमने स्वीकार कर लिया कि कोई है जो इन्हें अर्थ प्रदान करता है; लेकिन तब शब्द प्रारंभ में न रह गया। प्रारंभ में वह है जो शब्द को अर्थ देता है।
और बाइबिल कहती है, ‘‘ईश्वर शब्द के साथ था।’’ जिस किसी ने भी इसे लिखा हो उसने बेचैनी महसूस की होगी कि जगत सिर्फ शब्द से शुरू हो। तत्क्षण उसे जरूरत लगी किसी की जो उसे अर्थ दे; इस कारण दूसरा वक्तव्य कि ईश्वर शब्द के साथ था।
यदि तुम चीजों में बहुत गहराई और निष्पक्षता से देखो तो तुम चकित होओगे कि वे कितना कुछ जाहिर करती है। तब वह यह पूछने के प्रति सचेत हुआ होगा कि पहले कौन है ? ईश्वर या शब्द ?
तब तीसरा वाक्य बीच का एक समझौते का रास्ता निकालता है। वह कहता है, ‘‘ईश्वर और शब्द एक थे।’’
पूरब के खोज जगत में कोई इससे सहमत न होगा। पूरब ने प्रारंभ का अनुभव नहीं किया है क्योंकि स्वभावतः तुम प्रारंभ को नहीं देख सकते : तुम हो ही, प्रारंभ हो ही चुका है। तुम्हारे होने में ही तुमने प्रारंभ को पूर्ववर्ती कर दिया; जो प्रारंभ को देखने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन अंत को देखने की संभावना है।

पूरब के ध्यानियों ने अपनी अंतरात्मा में प्रवेश करते ही पाया कि प्रथमत: वे एक अतिशय सुंदर और संगीतपूर्व ध्वनि से घिरे हुए हैं। यह किसी संगीत पर बजायी हुई ध्वनि नहीं है, यह बस जगत का हृदय स्पंदन है। और एक बार वे जगत के हृदय-स्पंदन के साथ एकलयता में होते हैं कि एक मौन उतर आता है। वे उस मौन के संबंध में नाचना और दुनिया को घोषित करना चाहेंगे, लेकिन वे केवल तीन ही बार कह पाते हैं-शांतिः...शांतिः...शांतिः...कि वे पिघलने और विलय होने लगते हैं। मौन के संबंध में उनकी घोषणा ऊंची होने के बजाय एक फुसफुसाहट में बदलती जाती है और अंततः वे स्वयं नहीं बचते-लेकिन उन्होंने अंत देख लिया। अब यह एक तार्किक निष्पत्ति है कि अंत और प्रारंभ भिन्न नहीं हो सकते।
बीज एक वृक्ष बनता है, फूल खिलते हैं, फल लगते हैं और फिर से बीज आ जाता है। ठीक जैसे कि अस्तित्व में हर चीज गोलाई में घूमती है-पृथ्वी चांद सूरज, करोड़ों सुदूरवर्ती सितारे, सब एक गोलाई में घूमते हैं जो एक बिंदु पर मिल जाती है-अंत और प्रारंभ एक ही है।

यही कारण है कि पूरबीय धर्मग्रंथ ॐ के उद्घोष से प्रारंभ होते हैं, जो ध्वनिरहित की ध्वनि है, जगत के हृदय का एकमात्र संगीत। और जैसे-जैसे वे गहरे जाते हैं; मौन ही एकमात्र वास्तविकता बन जाती है। वे दुनिया को वह शांति उद्घोषित करना चाहते हैं, लेकिन कोई भी तीसरे से आगे नहीं बढ़ सका है क्योंकि हर बार उनके शांति: कहने में यह फुसफुसाहट बनता जाता है।
मुझे याद आता है, मेरे एक डाक्टर मित्र थे जो शायद उस इलाके के सबसे प्रसिद्ध डाक्टर थे। मैंने उनसे कहा, ‘‘मैं कुछ ऐसी चीज का अनुभव करना चाहूंगा जिसके लिए कोई कारण नहीं दिये जा सकते। मैं धीरे-धीरे बेहोशी में जाना चाहता हूं।’

उन्होंने कहा, ‘यह चिकित्सकीय व्यवहार के खिलाफ है। तुम्हारे पास कोई कारण नहीं है और मैं बिना किसी कारण के किसी चीज का उपयोग तुम्हें बेहोश करने के लिए नहीं कर सकता।
लेकिन मैंने उन्हें फुसला लिया। मैंने कहा, कोई कारण खोज लो और मैं किसी को कहने नहीं जा रहा हूं।’....यद्यपि, अब मैंने इसे सारी दुनिया को बता दिया है।
उन्होंने मुझे टेबल पर लिटाया, सब नौकरों और नर्सों को बाहर भेज दिया-क्योंकि वह कुछ ऐसा करने जा रहे थे जो चिकित्सकीय नियमों के खिलाफ है। उन्होंने मुझसे कहा कि जब कि वे मेरे चेहरे को एक कपड़े से ढंकने जा रहे हैं ताकि मैं ताजी हवा या अन्य कुछ भी सांस के साथ न ले सकूं, ‘एक काम करो। जब तुम बेहोशी में प्रवेश कर रहे हो, एक...दो...तीन...चार...पांच गिनते जाओ, जब तक संभव हो सके।’
अजीब था कि मैं तीन से आगे न जा सका। मैंने सख्त प्रयास किया। मुझे इस तथ्य का बोध था कि मैं तीन तक ही आ पाया हूं और चार बाहर नहीं आ रहा है। बाद में मैंने उन्हें बताया कि क्या मेरा कारण था बेहोशी में जाने के लिए। मैं जानना चाहता था कि क्यों हर धर्मग्रंथ तीन पर ही रुक जाता है। और मैंने उन्हें यह बताने के लिए कहा कि किस ढंग से मैं एक...दो तीन कह रहा था।

उन्होंने कहा, एक स्पष्ट था, दो उतना स्पष्ट नहीं था, तीन लगभग एक फुसफुसाहट थी, और उसके आगे तो तुम कुछ भी बोले ही नहीं।
यह मेरा ढंग था एक वैज्ञानिक प्रयोग के माध्यम से पता करने का कि क्यों सारे धर्मग्रंथ तीन पर ही रुक जाते हैं। उसी से वे प्रारंभ करते हैं उसी से वे अंत करते हैं।
प्रारंभ हम जान नहीं सकते : हम यहां मौजूद ही हैं, प्रारंभ पहले ही हो चुका है।
लेकिन अंत हम जान सकते हैं-परम मौन में विलयन। लेकिन यदि हमें अंत पता हो, हम सर्वथा सुनिश्चित रूप से निष्कर्ष ले सकते हैं कि यही है जिस प्रकार प्रारंभ प्रारंभ हुआ होगा : मौन में से, शब्द में से नहीं।
मौन ही प्रारंभ है, मौन ही अंत है, और यदि तुम एक ध्यानी हो तो मौन ही मध्य है।
मौन अस्तित्व का समूचा ताना बाना है।
मनीषा, यह एक परिकल्पना नहीं है, न ही यह एक दार्शनिक विचार है, यह उन हजारों रहस्यदर्शियों की अनुभूति है जिन्होंने अपनी अंतरात्मा में प्रवेश किया। पहले उन्होंने ॐ सुना है, और जैसे ही ॐ पूर्णत: अभिभूत करनेवाला हो उठता है, मौन उत्तर आता है।

हम ध्वनि और मौन से बने हैं।
ध्वनि हमारा मन है, मौन हमारी अंतरात्मा है।
ध्वनि हमारी मुसीबत है, मौन हमारा मोक्ष है।
पहले यह आंतरिक के किसी अज्ञात अन्वेषक द्वारा पाया गया, फिर हजारों लोगों को वैसा ही हुआ। लेकिन तुम्हें इसे दोहराना नहीं है। यहीं पर सर्वसामान्य लोग चूक गये। वे सोचते हैं कि ॐ शांति: शांति: शांति: दोहराने में वे कोई आध्यात्मिक ध्यानपूर्ण कृत्य कर रहे हैं।
पूरब में हर मंदिर में तुम धातु का एक तवा लटकता हुआ पाओगे और मंदिर में प्रवेश करनेवाला हर व्यक्ति लोहे के एक दंड से उस पर चोट करता है। पूरा मंदिर ध्वनि से भर जाता है और फिर धीरे-धीरे ध्वनि भी विलुप्त हो जाती है।
तिब्बत में उन्होंने बहुत ही विशिष्ट चीज बना ली है-धातु का एक छोटा सा कटोरा एक दंड के साथ। बड़े हिसाब-किताब से वह बनाया गया है। जब मैंने पहली बार उसे देखा तो मुझे यकीन न आया कि ऐसा संभव था, लेकिन वह मेरे सामने था।

पटना के मेरे एक मित्र सब प्रकार की चीजों के निराले संग्रहकर्ता थे। और जब भी मैं पटना में होता वे मुझे लगातार कहते रहते कि मेरे संग्रहालय में आइए। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति सभी उनके संग्रहालय को देख चुके थे। वह एक बहुत धनी व्यक्ति थे और उन्होंने दूसरे-दूसरे देशों से भी अजीब-अजीब प्रकार की चीजें संग्रहीत की थीं। लेकिन जब उन्होंने कहा कि अभी हाल ही उन्हें एक पात्र मिला है जो ॐ शांति: शांति: शांति: की आवाज करता है तो मैं स्वयं को रोक न सका।

पटना एक अजीब शहर है। यह सभी दिशाओं में फैला हुआ नहीं है, उसकी एक ही प्रमुख सड़क है जो गंगा के किनारे-किनारे चली जाती है-क्योंकि गंगा इतनी सुंदर है कि हर कोई उसके समीप ही रहना चाहता है। तो पटना एक लम्बा शहर है, शायद कोई बीस मील लम्बा। और वह मेरे स्थान से कोई तेरह मील दूर रहते थे लेकिन मैं पात्र देखने गया। सचमुच वह एक सुंदर अनुभव था। पात्र कई धातुओं से बना होता है, और तुम दंड को पात्र के भीतर ही एक निश्चित दफे गोल-गोल घुमाओ और फिर रुक जाओ। और अचानक पात्र से ध्वनि आनी शुरू हो जाती है: ॐ शांति: शांति: शांति:....।
ये चीजें सुंदर और सृजनात्मक हो सकती हैं लेकिन ये किसी भी प्रकार से धार्मिक नहीं हैं। हर हिंदू मंदिर ध्वनि से गूंज रहा है, हर व्यक्ति प्रार्थना कर रहा है, लेकिन उन्होंने पूरी बात को ही गलत ले लिया है। यह तुम्हारा ॐ का जप नहीं है जो तुम्हें सत्य तक पहुंचाएगा, यह तुम्हारा नितांत मौन हो जाना है और तब तुम्हारे प्राणों से ही ॐ की ध्वनि उठने लगती है। तब तुम उसके केवल साक्षी हो, तुम उसके कर्ता नहीं हो।

और जैसे-जैसे ध्वनि थिर होती है, तुम शांति: शांति: शांति: महसूस करते हो... और तब फिर सब कुछ विदा हो जाता है, केवल एक जागृतिक सत्य उपस्थित रह जाता है जिसके कि तुम हिस्से हो। ठीक जैसे महासागर में एक ओसकण तिरोहित हो जाए वैसे तुम अस्तित्व के महासागर में तिरोहित हो जाते हो।
पूरब के देखे यही एकमात्र आध्यात्मिक अनुभव है। न तो ईश्वर, न पवित्र धर्मग्रंथ, न मसीहा-वे सब के सब कल्पनाएं निर्मित करना है। तुम्हारी प्रार्थनाएं भी नहीं, क्योंकि वे भी तुम्हारी कामनाओं के अलावा अन्य कुछ नहीं हैं। कुछ भी जो सचमुच अर्थपूर्ण है वह है, शांत होना; अपने ही जीवन स्रोत में, अपनी ही अंतरात्मा में संकेद्रित होना, मूलस्थ होना।

ॐ शांति: शांति: शांति: का यह सूत्र सुना गया है जब कोई अपने ही केंद्र पर अवस्थित होता है। यह तुम्हारा इसको जपना नहीं है जो तुम्हें इसके अनुभव तक पहुंचाएगा। वे सर्वथा एक जैसे भी नहीं हैं। हमने इसका अविष्कार किया है...लगभग वही..सिर्फ यह संवादित करने के लिए कि क्या घटा है। कुछ इसके जैसा ही लेकिन कहीं अधिक गहन; कुछ इसके जैसा ही लेकिन कहीं अधिक सुकोमल; कुछ इसके जैसा ही लेकिन यही नहीं।
रहस्यदर्शियों के लेखन ठीक उसी प्रकार प्रारंभ होते हैं जैसे जगत का प्रारंभ हुआ है, और वे ठीक उसी प्रकार समाप्त होते हैं जैसे जगत अंततः विश्राम में जाता है।

इस सूत्र से संगति रखनेवाला गौतम बुद्ध का एक वक्तव्य है। वह बहुत अर्थपूर्ण है। वह कहते हैं, जगत का प्रारंभ कैसे हुआ इस संबंध में उस प्रकार से सोचना जैसे सारे धर्मविज्ञानी सोचते हैं, अतिशय मूढ़तापूर्ण है।
मैं इस वक्तव्य की अर्थवत्ता देख सकता हूं कि तुम कभी भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते कि कैसे जगत का प्रारंभ हुआ, क्योंकि तुम वहां थे नहीं। जगत के प्रारंभ से पहले तुम कैसे हो सकते हो ? तुम जगत के अंग हो। तो भी तुम प्रारंभ के संबंध में कहोगे वह सब केवल कल्पना होगी, एक परिकल्पना एक अनुमान।

बुद्ध कहते हैं, रहस्यदर्शी का रस इसमें नहीं है कि जगत का प्रारंभ कैसे हुआ। उसका रस इसमें है कि इसका अंत कैसे होता है-क्योंकि उस अंत में ही तुम्हें प्रारंभ भी मिलेगा। लेकिन बिना अंत को जाने, प्रारंभ के संबंध में तुम केवल अनुमान लगा सकते हो, वाद प्रतिवाद कर सकते हो और उस संबंध में लड़ सकते हो-और वह सबका सब व्यर्थ है।
दार्शनिकों का कार्य बिलकुल बकवास है। रहस्यदर्शी के पांव जमीन पर हैं, वह अतिशय व्यावहारिक है, अतिशय यथार्थवादी। बुद्ध कहते हैं, पहले यह पता कर लो कि इसका अंत कैसे होता है-और तुम्हारे भीतर ही पता चलने वाला है। तुम पूरे जगत का अंत होने की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। उस तरह इसका अंत कभी होता ही नहीं। यह सदा है-आदिरहित, अंतरहित। लेकिन तुम्हारे भीतर कैसे जगत का प्रारंभ हुआ ? और तुम्हारे भीतर कैसे जगत का अंत होता है ?
जो लोग जगत से चिपके रहे जाते हैं वे ही भौतिकवादी हैं। जो लोग भीतर देखना शुरू कर देते हैं और जानने का प्रयास करते हैं कि कैसे हर चीज का अंत होता है और तब भी तुम होते हो, लेकिन बस एक शुद्ध चेतना की तरह, एक शुद्ध जागरण की तरह। फूल विदा हो जाता है, केवल सुगंध रह जाती है।

मैं राजी हूं गौतम बुद्ध से कि यदि तुमने अपने भीतर सुगंध खोज ली है तो तुम सारे अस्तित्व का रहस्य जानते हो, क्योंकि हर व्यक्ति एक लघु जगत है। पूरे जगत में जो एक विशाल पैमाने पर घट रहा है, वही तुम्हारे भीतर एक अति लघु पैमाने पर घट रहा है। यदि तुमने एक जरा सी ओस की बूंद का स्वाद ले लिया है तो तुमने जगत के समस्त महासागरों का, समस्त नदियों का और जल की समस्त संभावनाओं का स्वाद ले लिया है। और तुम ही वह ओस की बूंद हो। बजाय यहां-वहां दौड़ने के, स्वयं का स्वाद लो।

पूरब सर्वथा भिन्न ढंग से सत्य के पास गया है। निश्चित ही क्योंकि वह एक अलग ढंग से पहुंचा है, उसने एक अलग ही प्रकार के बुद्धपुरुष पैदा किये हैं।

पश्चिम ने पोप पैदा किये हैं-और बुरे से बुरा परिणाम है एक पोलक पोप। और अब, नोबल पुरस्कार समिति उनके नाम का चयन नोबल पुरस्कार के लिए कर रही है। एक पोलक और नोबल पुरस्कार ? इस प्रकार से पोलक को सम्मान नहीं मिल रहा है, इस प्रकार तो नोबल पुरस्कार ही अपनी सारी महिमा, सारा सम्मान खो रहा है।
और पोप का अनुभव क्या है ? उसका बल क्या है ? वह जीसस क्राइस्ट का प्रतिनिधित्व करता है।
जीसस क्राइस्ट स्वयं एक प्रबुद्ध पुरुष नहीं प्रतीत होते। क्योंकि एक प्रबुद्ध पुरुष यह कहने की परवाह नहीं करता कि ईश्वर मेरा पिता है, मैं ईश्वर से उत्पन्न उसका एकमात्र पुत्र हूं। कौन परवा करता है ! पूरब में हमने हजारों प्रबुद्ध पुरुष देखे हैं; उनमें से एक ने भी यह दावा नहीं किया है कि वह ईश्वर से उत्पन्न एकमात्र पुत्र है। शताब्दियों तक लोग उस पर हंसते रहेंगे : वह व्यक्ति पागल हो गया है !

तो प्रथमतः तो वे जीसस क्राइस्ट का प्रतिनिधित्व करते हैं-जो स्वयं एक चांदमारा लगता है। या तो उसके दिमाग के कल पुर्जे कुछ ढीले हैं या कुछ ज्यादा ही कसे हुए हैं। वह एक गौतम बुद्ध की गरिमा नहीं प्रदर्शित करते। न ही उनसे एक मीरा का नृत्य अथवा एक महावीर का प्रसाद प्रगट होता है।

जिस संबंध में वह बात किये चले जाते हैं वह उन्होंने समाज से इकट्ठा किया था-क्योंकि वह अनपढ़ थे। और पोपगण, इन दो हजार वर्षों में सैकड़ों पोपों ने उनका प्रतिनिधित्व किया है। यह एक पदानुक्रम है: पोप, जीसस, ईश्वर। तुम पहुंच नहीं सकते जब तक कि सही माध्यम से न जाओ। और मुझे हमेशा आश्चर्य होता है कि पश्चिम में बुद्धिमान लोग भी कभी विचार नहीं करते कि इन पोपों का योगदान क्या है ? एक व्यक्ति जो ईश्वर का प्रतिनिधि है, उससे कुछ तो झलकना चाहिए। कुछ संवेदनाशीलता, कुछ प्रसाद, कुछ आनंदमयता; कुछ सुगंध उसके आसपास होनी चाहिए।
लेकिन पोप का चुनाव होता है।
यह इतना हास्यास्पद है कि लोग मतदान करें कि कोई व्यक्ति प्रबुद्ध है। बुद्धत्व कोई मतदान अभियान नहीं है कि बहुत से उम्मीदवार खड़े हों और कहें कि मैं प्रबुद्ध हूं।
बुद्धत्व गुलाब की भीतर ही भीतर खिलावट है। जो लोग सत्य की खोज में हैं, बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति की ओर वे तत्क्षण खिंचे चले आते हैं। यह किसी द्वारा चुने जाने पर अथवा नामांकित किये जाने पर निर्भर नहीं है। यह ईश्वर अथवा किसी का प्रतिनिधित्व भी नहीं करता। यह तो बस केवल अपने हृदय का उद्घोष करता है और किसी को भी आमंत्रण एवम स्वागत देता है। कोई भी यात्री जो इस रस को, ॐ के इस शाश्वत संगीत को बांट लेना चाहता हो; वह जो एक जीते-जागते मौन और नृत्य करते मौन की तलाश में है।

इस सूत्र में सर्व समाहित है-आदि भी और अंत भी। लेकिन यह अंत से शुरू करता है और प्रारंभ तक पहुंचता है। बुद्ध का वक्तव्य यह था : ‘अज्ञान का आदि नहीं है और बुद्धत्व का अंत नहीं है और दोनों मिलकर एक वृत्त बनाते हैं।’ तुम जानते हो कि तुम स्वयं के प्रति कितने गहन अज्ञान में थे, क्योंकि अब तुम इतने सजग हो, इतने हर्षोल्लास से भरपूर हो, इतना कुछ तुम्हारे रोम-रोम में, कोश-कोश में नृत्य कर रहा है ! अब यह एक अनूभूति है, कोई परिकल्पना न रही।
और इस पर कभी कोई वाद-विवाद नहीं रहा है।

हिंदू रहस्यदर्शी हुए हैं, बौद्ध रहस्यदर्शी हुए हैं, जैन रहस्यदर्शी हुए हैं, लेकिन जहां तक इस सूत्र का संबंध है इसके बारे में उनमें कभी कोई झगड़ा नहीं रहा है, कभी कोई वाद-प्रतिवाद नहीं रहा है। यह बस स्वीकृत रहा है, क्योंकि यह अनुभव है, यह कोई सैद्धांतिक अनुमान का कृत्य नहीं है। यह दर्शनशास्त्र नहीं है, यह दर्शन है, देखा जाना। इसे उन्होंने अपने ही भीतर, अपनी ही अंतरात्मा में देखा है और कोई उपाय नहीं है उनसे राजी न होने का जिन औरों ने भी अपने भीतर उसे देखा है।
लेकिन इसको जपने में कोई भी अपनी मूढ़ता का ही परिचय दे रहा होगा है।
व्यक्ति को उस आंतरिक अवकाश पर पहुंचना होता है जहां स्वतः इसका विस्फोट होता है और तुम उसके साक्षी भर होते हो। तब यह तुम्हारे प्राणों को रूपांतरित कर देता है, उसे सौंदर्य और गरिमा दे देता है, उसे निष्ठा और सत्य दे देता है।


2
महाप्रकाश स्वयं से आता है



प्यारे भगवान,
पहली बार जब मैं आपके सम्मुख बैठा था मैंने आपको मुझसे कहते सुना, ‘अचेतन में प्रकाश लाओ !’ तब से आठ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और मैं पहले कभी से अधिक शांत और प्रेमपूर्ण महसूस करता हूं और फिर भी आभास होता है कि अभी बहुत होने को है।
प्रकाश जो अचेतन में प्रवेश करता है, क्या वह प्रयास और संकल्प से आता है, अथवा वह अस्तित्व का एक प्रसाद है जिसके लिए धैर्य, खुलेपन और सुग्राहकता की जरूरत रहती है ? क्या आप इस पर कुछ बोलेंगे कि अचेतन में प्रकाश लाने का क्या अर्थ होता है ?

रेमंड मार्ग पर लिया गया हर कदम याद दिलाता है भाषा की दरिद्रता की। हो सकता है तुमसे मैंने कहा हो, ‘अचेतन में प्रकाश लाओ,’ क्योंकि उस क्षण में तुम उसे न समझ पाते जो तुम अब समझ सकते हो।
तुम केवल आधार तैयार कर सकते हो, प्रकाश स्वयं से आता है।

और इन आठ वर्षों में वही होता रहा है तुम्हारे और-और शांत और प्रेमपूर्ण होते जाने में। लेकिन तुम एक ठिठकता बोध महसूस करते हो कि अभी बहुत कुछ आगे है। बहुत कुछ है। अब मैं तुमसे कह सकता हूं कि तुम अपने मौन में विश्रांत होओ ताकि वह और गहरा सके, और अपने प्रेम में विश्रांत होओ ताकि यह एक ठोस वस्तु न रह जाए बल्कि और तरल बने-सब दिशाओं में बहता हुआ।

संक्षेप में स्वयं को पूरी तरह छोड़ देने की कला सीखो। प्रकाश तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुकूल अथवा किसी प्रयास से नहीं आएगा, बल्कि हर प्रयास एक बड़ी बाधा बनेगा और हर अपेक्षा तुम्हारे और प्रकाश के बीच दूरी निर्मित करेगी।
दरअसल, प्रकाश के संबंध में तुम भूल ही जाओ...! बस वर्षा की ध्वनि को सुनो हवाओं के संगीत को सुनो और इस तीव्रता से उनका आनंद लो कि तुम खो ही जाओ। धीरे-धीरे, एक दिन तुम पाओगे कि तुम नहीं हो। यह व्यक्ति के जीवन में महानतम क्षण है, क्योंकि जिस क्षण तुम पाते हो कि तुम नहीं हो, प्रकाश भीतर आ जाता है। यह प्रतीक्षा करता है जब तक तुम अपने अंतरतम प्राणों में स्थान खाली नहीं कर देते। तुम अपने से ही बहुत ज्यादा भरे हुए हो; उस महाप्रकाश के तुम्हारे भीतर अवतरण के लिए स्थान नहीं है।

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