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मनुस्मृति

भारतीय संस्कृति संवर्धन परिषद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3667
आईएसबीएन :81-288-0594-0

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भारतीय वेदों पर आधारित पुस्तक....

Alka

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘मनुस्मृति’ वह धर्मशास्त्र है जिसकी मान्यता जगविख्यात है। न केवल देश में अपितु विदेश में भी इसके प्रमाणों के आधार पर निर्णय होते रहे हैं और आज भी होते हैं। अतः धर्मशास्त्र के रूप में मनुस्मृति को विश्व की अमूल्य निधि माना जाता है।
भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव है यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है। क्योंकि मनु की समस्त मान्यताएँ सत्य होने के साथ-साथ देश, काल तथा जाति बन्धनों से रहित हैं।

भूमिका

‘मनुस्मृति’ भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसकी गणना विश्व के ऐसे ग्रन्थों में की जाती है, जिनसे मानव ने वैयक्तिक आचरण और समाज रचना के लिए प्रेरणा प्राप्त की है। इसमें प्रश्न केवल धार्मिक आस्था या विश्वास का नहीं है। मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति, किसी भी प्रकार आपसी सहयोग तथा सुरुचिपूर्ण ढंग से हो सके, यह अपेक्षा और आकांक्षा प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति में होती है। विदेशों में इस विषय पर पर्याप्त खोज हुई है, तुलनात्मक अध्ययन हुआ है, और समालोचनाएँ भी हुई हैं। हिन्दु समाज में तो इसका स्थान वेदत्रयी के उपरांत हैं। मनुस्मृति के बहुत से संस्करण उपलब्ध हैं। कालान्तर में बहुत से प्रक्षेप भी स्वाभाविक हैं। साधारण व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह बाद में सम्मिलित हुए अंशों की पहचान कर सके। कोई अधिकारी विद्वान ही तुलनात्मक अध्ययन के उपरान्त ऐसा कर सकता है। ‘मनुस्मृति’ के इस संस्करण में भी ऐसा ही प्रयत्न किया गया है। विद्वान अनुवादक ने सुगम और बोधगम्य भाषा में ‘मनुस्मृति’ के मूल तत्त्वों को संक्षिप्त में प्रस्तुत किया है। ग्रन्थ की आत्मा और दिशा का भी पूरा संरक्षण हुआ है, ऐसा मेरा विचार है।

वस्तुतः ‘मनुस्मृति’ मानव धर्म का पूर्ण समाजशास्त्र है। ‘मनुस्मृति’ का यह संस्करण ने केवल जनसाधारण के लिए ही उपयोगी होगा वरन राजनीति और समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए भी लाभकारी होगा, विशेषकर उनके लिए, जिनको संस्कृत भाषा का पर्याप्त ज्ञान नहीं है। मैं तो ऐसा भी मानता हूँ कि यह संस्करण ‘मनुस्मृति’ के विवेचनात्मक अध्ययन के लिए भी प्रेरणा प्रदान करेगा।

त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी

प्रथम अध्याय
सृष्टि तथा धर्म उत्पत्ति

एक बार सब महर्षि मिलकर मनु महाराज के पास गए और उनका यथोचित सत्कार करके बोले-"हे भगवान ! आप सब वर्णों तथा जो अन्य जाति के मनुष्य हैं उन सबके धर्म और कर्तव्यों को ठीक-ठीक रूप से बतलाने में समर्थ हैं। क्योंकि आप अविज्ञ जगत के तत्त्व को जानने वाले हैं और आप ही जो विधान रूप वेद हैं, जिनका कि चिन्तन से पार नहीं पाया जा सकता, जो अपरिमित सत्य विद्याओं का विधान है उनके अर्थों को जानने वाले भी केवल आप ही हैं।"
उन महात्माओं के इस प्रकार कहने पर मनु महाराज ने भी उनका उसी प्रकार आदर सत्कार किया और फिर उनसे कहा, "सुनिए। यह सब जगत सृष्टि से पहले प्रलय में, अन्धकार में आवृत्त था। उस समय न किसी के जानने, न तर्क और न प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त इंन्द्रियों से जानने योग्य था, वह सब जगत खोये हुए के समान ही था।

सब अपने कार्य में स्वयं समर्थ अर्थात् स्वयं भूत और स्थूल में प्रकट न होनेवाला अर्थात् अव्यक्त इस महाभूत आकाशादि को प्रकाशित करने वाला परमात्मा इस संसार को प्रकटावस्था में लाते हुए प्रकट हुआ। और फिर उस परमात्मा ने अपने आश्रम से ही महत नामक तत्त्व को और महतत्त्व से "मैं हूं" ऐसा अभिमान करने वाले सामर्थ्यशाली अहंकार नामक तत्त्व को और फिर उनसे सब त्रिगुणात्मक पंचतन्मात्राओं तथा आत्मोपकारक मन इन्द्रिय को और विषयों को ग्रहण करने वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों को यथाक्रम से उत्पन्न कर प्रकट किया।

ये जो ऊपर वर्णन किये गये हैं, उन तत्त्वों में से अनन्त शक्ति वाले छहों तत्त्वों के सूक्ष्म अवयवों को उनके आत्मभूत तत्त्वों के कारणों में मिलाकर सारे पाँच महाभूतों की सृष्टि की।
उस परमात्मा के सब पदार्थों के नाम, जैसे ‘गौ’, ‘अश्व’ आदि और उनके भिन्न-भिन्न कर्म जैसे ब्राह्मण का वेद पढ़ना, क्षत्रिय का रक्षा करना आदि-आदि कार्य निर्धारित किए तथा पृथक-पृथक विभाग या व्यवस्थायें सृष्टि के आरम्भ में वेद के शब्दों के आधार पर ही बनाए। इस प्रकार उस परमात्मा ने कर्मात्मना सूर्य, अग्नि, वायु आदि देवों, मनुष्य पशु पक्षी आदि सामान्य प्राणियों के और साधक कोटि के विशेष विद्वानों के समुदायों को तथा सृष्टिकाल से प्रलय काल तक निरन्तर चले आ रहे सूक्ष्म संसार को रचा।

उस परमात्मा ने जगत के सब रूपों के ज्ञान के लिए अग्नि, वायु और रवि से ऋक् यजुः साम रूप त्रिविध ज्ञान वाले नित्य वेदों को दुहकर प्रकट किया। फिर काल और मास, ऋतु अयन आदि काल विभागों को कृत्तिका आदि नक्षत्रों, सूर्य आदि ग्रहों को और नदी समुद्र पर्वत तथा ऊंचे नीचे स्थानों को बनाया। फिर इन प्रजाओं की सृष्टि के इच्छायुक्त उस ब्रह्मा ने तपों को, वाणी को, रति को, इच्छा को, क्रोध को रचा। और फिर कर्मों के विवेचन के लिए धर्म अधर्म का विभाजन किया। इन प्रजाओं को सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से जोड़ा।

समाज की समृद्धि के लिए मुख बाहु जंघा और पैर की तुलना के अनुसार क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रवर्ण को निर्मित किया। फिर उस विराट् पुरुष ने तप करके इस जगत की सृष्टि करने वाले मुझको उत्पन्न किया और फिर मैंने प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा से कठिन तप करके पहले दश प्रजापति महर्षियों को उत्पन्न किया। इन दश महर्षियों ने मेरी आज्ञा से बड़ा तप किया और फिर जिसका जैसा कर्म है, तदनुरूप देव, मनुष्य तथा पशु-पक्षी आदि योनियों को उत्पन्न किया।
इस संसार में जिन मनुष्यों का जैसा कर्म वेदों में कहा गया है उसे वैसे ही और उत्पन्न होने में जीवों का जो एक निश्चित प्रकार रहता है उसे मैं आप लोगों को बताता हूं।

पशु, मृग, व्याघ्र, दोनों ओर दाँत वाले राक्षस, पिशाच और मनुष्य, ये सब जरायुज अर्थात् झिल्ली से उत्पन्न होने वाले हैं। पक्षी, सांप, मगर, मछली तथा कछुए और अन्य जो इस प्रकार के स्थल में उत्पन्न होने वाले और जल में उत्पन्न होने वाले जीव हैं, वे अण्डज अर्थात् अण्डे में से उत्पन्न होते हैं। मच्छर, जुं, मक्खी, खटमल और जो भी इस प्रकार के कोई जीव हों जैसे भुनगे आदि वे सब सीलन और गर्मी से उत्पन्न होते हैं, उनको ‘स्वेदज’ अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले कहा जाता है। बीज के बोने तथा डालियों के लगाने से उत्पन्न होने वाले सब स्थावर जीव वृक्ष आदि अद्भिज भूमि को फाड़कर उगने वाले कहलाते हैं। इनमें फलों के पकने पर सूख जाने वाले और जिन पर बहुत फल फूल लगते हैं। ‘औषधि’ कहलाते हैं। जिन पर बिना फूल आये ही फल लगते हैं वे बड़, पीपल आदि वनस्पति कहलाते हैं और फूल तथा उसके बाद फल लगने वाले जीव ‘वृक्ष’ कहलाते हैं।

अनेक प्रकार के जड़ से ही गुच्छे के रूप में बनने वाले झाड़ आदि, एक जड़ से अनेक भागों में फूटने वालों ईख आदि तथा उसी प्रकार घास की सब जातियां बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले उगकर फैलने वाले ‘दूब’ आदि और बेलें से सब भी ‘उद्भिज’ ही कहलाते हैं। पुनर्जन्मों के कारण बहुत प्रकार के तमोगुण से आवेष्टित ये स्थावर जीवन जब वह परमात्मा जागकर सृष्टि उत्पत्ति आदि की इच्छा करता है तब यह समस्त संसार चेष्टायुक्त होता है और जब यह शान्त आत्मावाला सभी कार्यों से शान्त होकर सोता है, अर्थात् इच्छारहित होता है, तब यह समस्त संसार प्रलय को प्राप्त होता है। सृष्टि से निवृत्त हुए उस परमात्मा के सोने पर, श्वास प्रश्वास चलना फिरना आदि को करने का जिनका स्वभाव है, वे देहधारी जीवन अपने-अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं और सब इंद्रियों समेत मन भी ग्लानि की अवस्था को प्राप्त करता है।
उस सर्वव्यापक परमात्मा के आश्रम में जब एक साथ ही सब प्राणी चेष्टाहीन होकर लीन हो जाते हैं तब यह सब प्राणियों का आश्रय स्थान परमात्मा की सृष्टि संचालन के कार्यों से निवृत्त हुआ सुखपूर्वक सोता है। इस प्रकार वह अविनाशी परमात्मा जागने और सोने की अवस्थाओं द्वारा इस जड़ और चेतन रूप जगत को निरन्तर जिलाता और मारता है।

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