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रामायण

प्रियदर्शी प्रकाश

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3681
आईएसबीएन :81-7182-450-1

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सन्त तुलसीदास के रामचरित मानस पर आधारित पुस्तक...

Ramayana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम आदर्श पुरुष थे। उनमें सभी मानवीय गुण थे। श्रीराम आज्ञाकारी पुत्र थे, स्नेहिल भ्राता थे, पूज्यनीय पति थे, प्रिय मित्र थे और भक्तजनों के परम् हितैषी थे। उनका जीवन मानव मात्र के लिए अनुकरणीय और प्रेरक है। उन्होंने कभी भी अधर्म का सहारा नहीं लिया। सत्य, न्याय और धर्म में परम आस्था थी। उन्होंने हमेशा दीन-दुखियों की सहायता की, अत्याचारी का दमन किया और झूठ व अन्याय का आजीवन प्रतिरोध किया। तभी तो उनके राज्य में सुख-शान्ति थी और आज भी ‘राम-राज्य’ स्थापित करने के लिए प्रत्येक देश की जनता लालायित है।
सच तो यह है कि उनका जीवन हमारे लिए प्रेरणास्त्रोत है। यहां प्रस्तुत है, उन्हीं युगपुरुष मानवता-प्रेमी श्रीराम की अनुपम गाथा-रोचक औपन्यासिक शैली में।

दो शब्द


मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम आदर्श पुरुष थे। उनमें सभी मानवीय गुण थे। वे मर्यादित जीवन व्यतीत करते थे। तभी तो उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के नाम से जाना जाता है।
उनका जीवन मानव मात्र के लिए अनुकरणीय है, आदर्श है। उन्होंने कभी अधर्म का सहारा नहीं लिया। सत्य, न्याय और धर्म में उनकी परम आस्था थी। उन्होंने हमेशा दीन-दुखियों की सहायता की, अत्याचारी का दमन किया और झूठ व अन्याय का सख्ती से विरोध किया। तभी तो उनके राज्य में सुख और शान्ति थी और आज भी ‘राम राज्य’ स्थापित करने के लिए प्रत्येक देश की जनता लालयित है।

श्रीराम आज्ञाकारी पुत्र थे, स्नेहिल भ्राता थे, पूजनीय पति थे, प्रिय मित्र थे और भक्त जनों के परम हितैषी थे। उन्होंने माता-पिता के वचन की लाज रखने के हेतु राज सुख को त्याग दिया और वन जाना स्वीकार कर लिया। पढ़ने में यह बात सहज लग सकती है, मगर यथार्थ में राजलोभ का त्याग बहुत ही कठिन है। जरा नजर घुमाकर देखिए, आज की राजनीति में कोई है ऐसा राजपुरुष, जो हाथ में आयी सत्ता को ठुकरा दे ?
सच तो यह है कि उनका जीवन हमारे लिए प्रेरणा-स्रोत है। उनके जीवन के प्रेरक प्रसंग हमें नित्य प्रेम, सत्य, न्याय और कष्ट सहन करते हुए भी अपने धर्म के प्रति जागरूक रखते हैं।

भारतीय जन मानस में राम-कथा का बड़ा प्रभाव है। राम-कथा भारत के अनेक मनीषी लेखकों ने लिपिबद्ध की है। प्रस्तुत राम-कथा वाल्मीकि-कृत रामायण के अतिरिक्त गोस्वामी तुलसीदास, भानुभक्त, महात्मा कंबन व चण्डीदास आदि की राम-कथाओं पर आधारित है लेखक का प्रयास यह रहा है कि विभिन्न राम-कथाओं के महत् प्रसंगों का प्रस्तुत राम-कथा में समावेश हो सके।

प्रियदर्शी प्रकाश


बालकांड


एक


त्रेता युग की बात है।
सरयू नदी के तट पर एक राज्य था-कोशल, जो वैभवशाली और अत्यन्त सम्पन्न था। यहां की राजधानी का नाम था अयोध्या। वह सभ्यता, संस्कृति और सम्पन्नता में अनुपम थी।
कोशल में सूर्यवंशी नरेश चक्रवर्ती राजा दशरथ का राज था। राजा दशरथ अत्यन्त पराक्रमी और कुशल नरेश थे। स्वर्ग लोक तक में उनकी धूम थी, और जब-जब देवों ने उनसे सहायता की याचना की, वे तुरन्त उनकी मदद को पहुंच जाते थे। तीनों लोकों में राजा दशरथ का आदर था। उनके राज्य में प्रजा सुखी और समृद्ध थी। राज्य में कोई ऐसा नहीं था, जिसमें कोई अवगुण हो। सभी सच्चरित्र सत्यवान् व श्रमशील थे।
राजा दशरथ की तीन रानियां थीं। पटरानी का नाम था-कौशल्या, बीच वाली रानी का सुमित्रा तथा छोटी रानी का कैकेयी।
राजा दशरथ को और तो सभी सुख प्राप्त थे, किन्तु सन्तान का सुख नहीं था। सन्तान प्राप्ति के लिए उन्होंने बहुत पूजा- अनुष्ठान किये, लेकिन उनकी मनोकामना अभी तक पूरी नहीं हुई थी। उम्र बढ़ने के साथ उनकी निराशा भी बढ़ती जा रही थी।

एक दिन।
सन्ध्या का समय था।
राजा दशरथ अपने प्रकोष्ठ में विराजमान थे। एकाएक उनकी नजर दर्पण की ओर उठ गयी। अपने सफेद केश और दाढ़ी देखकर निराश हो गये। उन्हें अपनी वृद्धावस्था अथवा आसन्न मृत्यु का इतना दुख नहीं था, जितना इस बात का, कि वे निःसन्तान ही मर जाएंगे और सूर्यवंश को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं रहेगा। भला सन्तान के बिना भी जिन्दगी कोई जिन्दगी है ! यह राज्य, सुख-सम्पन्नता और सुनाम किस काम का। सन्तान नहीं, तो इनका भी कोई मूल्य नहीं।
घनीभूत निराशा के इन्हीं क्षणों में अपने कुलगुरु वशिष्ठ की याद आ गयी। गुरु वशिष्ठ ने उन्हें कठिन अवसरों पर हमेशा उचित परामर्श दिया था। गुरु वशिष्ठ ने अपने आश्रम में स्वयं आये, राजा दशरथ को घोर चिन्ता में देखकर पूछा-
‘‘राजन् ! आज चेहरा इतना मलिन क्यों है ?’’

‘‘गुरुदेव, आप तो जानते हैं, मुझे एक ही दुःख है-सन्तान विहीनता का। आयु की सान्ध्यवेला में लगता है, अब सूर्यवंश का अन्त निश्चित है। आप ही बताइए मैं क्या करूं ?’’
‘‘हूँ।’’ गुरु वशिष्ठ बोले-‘‘राजन्, मेरा विचार है, पुत्रकाम यज्ञ का अनुष्ठान उपयुक्त रहेगा।’’
‘‘तो फिर देर कैसी ? मैं पुत्रकाम यज्ञ करने को प्रस्तुत हूँ।’’
फिर क्या था ! अयोध्या में पुत्रकाम यज्ञ की तैयारियां आरम्भ हो गईं। सरयू नदी के तट पर विशाल यज्ञ वेदी का निर्माण किया गया। ऋषि श्रृंगी को यज्ञ के लिए अयोध्या बुलवाया गया।
जिस समय अयोध्या में यज्ञ की तैयारियां चल रही थीं, उस समय देव लोक में एक अलग ही समस्या प्रस्तुत थी। देव गण रावण के अत्याचारों से अत्यन्त कष्ट में थे।

रावण को ब्रह्मा से अभयदान मिला हुआ था, सो वह निडर होकर देवताओं को सता रहा था, उनका अपमान करने का कोई मौका नहीं गंवाता था। सच तो यह था कि देवताओं के पास रावण को पराजित करने अथवा उसे दबाने का कोई कारगर उपाय नहीं था, मारने की तो बात ही दूर थी। रावण के हौसले इतने बुलन्द थे कि उससे अरुण, वरुण और पवन जैसे देवता भी भयभीत थे और वह इन्द्र को राज्य-च्युत करके स्वयं स्वर्गलोक पर आधिपत्य जमाना चाहता था। रावण का बढ़ता अत्याचार और अहंकार अब बदार्श्त से बाहर था। सो सभी देव मिलकर ब्रह्मा के पास गये और उन्हें रावण के कोप से बचाने का अनुरोध किया। देव बोले-‘‘रावण को यह अमरत्व आपने ही प्रदान किया है, भगवान् अब आप ही उसका नाश भी कर सकते हैं।’’

ब्रह्मा मुस्कराकर बोले-‘‘निःसन्देह। दरअसल रावण ने अपनी तपस्या से मुझे प्रसन्न करके वर मांगा था कि उसे देव, राक्षस अथवा गन्धर्व कोई न मार सके, मैंने उसकी यह मनोकामना पूर्ण कर दी थी। सो उसे देव, राक्षस अथवा गन्धर्व भले ही न मार सकें, किन्तु मानव के हाथ से वह नहीं बच सकता।’’
‘‘पर पृथ्वी पर ऐसा मानव है कौन ?’’
‘‘इसका उपाय विष्णु करेंगे।’’
अतएव देवगण जा पहुंचे विष्णु के पास। बोले-‘‘भगवान्, रावण के अत्याचार से हम सभी पीड़ित हैं। उसका नाश हमारे वश में नहीं है, न ही गन्धर्वों अथवा राक्षसों के वश में। हां, उसे मानव अवश्य खत्म कर सकता है। अगर आप चाहें तो रावण की हस्ती मिट सकती हैं।’’
‘‘वह कैसे ?’’

‘‘अगर आप ही मानव के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हों, तो रावण की मृत्यु अवश्यम्भावी है।’’
‘‘ठीक है।’’ विष्णु बोले-‘‘ऐसा ही होगा। पृथ्वी पर सूर्यवंशी नरेश राजादशरथ सन्तान प्राप्ति के लिए महान यज्ञ कर रहा है। मैं उसी के यहां पुत्र, के रूप में जन्म लूंगा और कालान्तर में रावण का वध करके तीनों लोकों को रावण के अत्याचार से मुक्त कर दूंगा।’’

उधर यज्ञ-समाप्ति के पश्चात ऋषि श्रृंगी ने अग्नि कुण्ड में घृताहुति दी। अग्नि-कुण्ड से भारी लपटों के साथ स्वर्ण-कलश निकला। ऋषि श्रृंगी ने स्वर्णकलश राजा दशरथ को देते हुए कहा-‘‘महाराज ! इसमें खीर है, जो देवताओं ने तुम्हारे यज्ञ से प्रसन्न होकर भेजी है। यह खीर अपनी रानियों को खिला दो, उन्हें अवश्य सन्तानोत्पत्ति होगी।’’
राजा दशरथ की खुशी का तो कोई ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने यज्ञ के अवसर पर पधारे तमाम ऋषियों को ढेर सारा धन-धान्य, गौएं आदि दान दीं और खीर का कलश लेकर रानियों के पास जा पहुंचे। बोले-‘‘लो रानियों, यह खीर पियो। भगवान् की कृपा से हमारे आंगन में शिशुओं का स्वर गूंजेगा।’’

रानियों को जैसे सारे जमाने की खुशियाँ एक साथ ही मिल गयीं। तीनों रानियों ने खीर का पान किया।
समय आने पर तीनों रानियां गर्भवती हुई। अन्त:पुर और राज महल में ही नहीं, वरन सम्पूर्ण अयोध्या में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। राजा दशरथ की प्रसन्नता का तो कहना ही क्या ! जीवन के अन्तिम भाग में ही सही, अब वे अपनी सन्तान का मुख जरूर देख सकेंगे, उनका सूर्यवंश रहती दुनिया तक कायम रहेगा।
चैत्र शुक्ला नवमी तिथि में कर्क लग्न में कौशल्या ने राम को जन्म दिया। सुमित्रा को दो पुत्र रत्न प्राप्त हुए-लक्ष्मण और शत्रुघ्न। छोटी रानी केकयी ने भरत को जन्म दिया।

कौशल्या ने जिस बालक को जन्म दिया था, वह वस्तुतः साक्षात् भगवान् का ही अवतार था। भगवान् ने ही धर्म की रक्षा के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था।
महाराजा दशरथ चार-चार पुत्रों को पाकर फूले नहीं समाये।
पुत्रों के कुछ बड़ा होने पर उनकी शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबन्ध किया गया। छः वर्ष की आयु में चारों राजकुमारों का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। राजा दशरथ ने उन्हें महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा अर्जन के लिए भेज दिया। महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में गरीब-अमीर सभी समान भाव से पढ़ते थे। आश्रम का जीवन बहुत कठोर था। राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुध्न ने आश्रम नियम पूर्वक रहकर विद्यार्जन किया। गुरु की सेवा करना, आश्रम की सफाई करना एवं एक ही समय भोजन करना चारों भाइयों का नित्य का नियम था।
महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में चारों राजकुमारों ने समयानुसार सभी विद्याएं सफलतापूर्वक प्राप्त कर लीं। वेद, पुराण, इतिहास, शास्त्र आदि के अलावा वे सम्पूर्ण कलाओं में भी पारंगत हो गये थे। शिक्षा समाप्ति के पश्चात् महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें राजमहल लौट जाने की आज्ञा दे दी। चारों राजकुमार गुरुदेव को नियमानुसार गुरु दक्षिण देकर राजमहल चले गये।
राजा दशरथ अपने पुत्रों की योग्यता व शिक्षा-दीक्षा से परम संतुष्ट थे। राजकुमार गुणों में अद्वितीय थे। उनका यश अल्पायु में ही चारों ओर फैलने लगा था।


दो



एक दिन राजा दशरथ दरबार में सिंहासन पर विराजमान थे। उनके चारों ओर मन्त्री गण और सभासद बैठे हुए थे।
राजा दशरथ ने राजगुरु वशिष्ठ से कहा-‘‘हे गुरुदेव। राजकुमार बड़े हो गये हैं। अब मेरा समय पूरा हो चला है। बस यही इच्छा है कि राजकुमारों का विवाह समारोह देख लूं। आपका क्या विचार है ?’’
‘‘राजन्, मेरी भी यही सम्मति है।’’ गुरुदेव ने उत्तर दिया।

‘‘तो फिर देर किस बात की। जल्दी ही राजकुमारों के लिए सर्वगुण सम्पन्न कन्याओं की खोज कराइए।’’
राजकुमारों के विवाह के बारे में विचार-विमर्श चल ही रहा था कि तभी द्वारपाल ने दरबार में प्रवेश किया एवं सिर झुकाकर राजा दशरथ से निवेदन किया, ‘‘महाराज ! महामुनि विश्वामित्र आपसे मिलने आये हैं। वे द्वार पर आपकी प्रतीक्षा में खड़े हैं।’’
विश्मामित्र !
राजा दशरथ सहित सभी चौंक पड़े। भला ऋषि विश्वमित्र को कौन नहीं जानता था। राजा दशरथ तत्काल अपने आसन से उठे और स्वयं द्वार पर जाकर महर्षि विश्वामित्र का विधिपूर्वक स्वागत किया।

 

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