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मन लागो यार फकीरी में

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3699
आईएसबीएन :81-7182-368-8

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ओशो द्वारा कबीर वाणी पर दिये गये दस अमृत प्रवचनों का संकलन...

man lago yaar phakiri mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मन लागो यार फकीरी में

कबीर का वचन सुनो !

 मन लागो मेरा यार फ़क़ीरी में।

मन तो लगता ही नहीं फकीरी में। जब मन फकीरी में लग जाता है, तो मन-मन नहीं रह जाता। बात समझ लेना।
मन तो अमीरी में लगता है। मन का अर्थ ही हैः और ज्यादा, और ज्यादा की आकाक्षां। मन का अर्थ है, जो है, वह काफी नहीं है; और चाहिए। और मन कभी भी ऐसा नहीं मानता कि काफी हो गया-कभी नहीं मानता उसकी और’ की दौड़ विक्षिप्त है। वह जारी रहती है। हजार रुपये है, तो दस हजार चाहिए-मांगता चला जाता है। मन की कल्पना की कोई सीमा नहीं है। ज्ञान है तो और ज्ञान चाहिए। त्याग है तो और त्याग चाहिए। ध्यान है तो और ध्यान चाहिए। मगर चाहिए और !
मन यानी और। और की वासना का नाम मन है।
यह कबीर का सूत्र बड़ा अदभुद है;

मन लागो मेरा यार फकीरी में।

जिस दिन मन फकीरी में लग गया, उसका मतलब क्या हुआः मन अब मन न रहा अ-मन हुआ। मन अब और की मांग नहीं कर रहा है; जो है उससे समग्ररूपेण तृप्त है, जैसा है, उसमें रत्ती भर शिकायत नहीं है। फकीरी का यह मतलब होता है।

प्रश्न-सार


कबीर के इन दो विरोधाभासी वचनों पर आपका क्या कहना हैः
1.    राम ही मुक्ति के दाता हैं, सदगुरू तो केवल प्रभु-स्मरण जगाते हैं।
2.    हरि सुमिरै सो वार है, गुरू सुमिरै सो पार।
2. मैं अपने दुःखभरे अतीत को क्यों नहीं भूल
पाता हूँ ?
3. क्या ममता और मेरेपन के भाव के बिना प्रेम  संभंव है ?
4. संतों ने जीवन को दुःख की भाँति क्यों निरूपित किया है ? क्या यह दुःखवाद उचित है
5. आप आश्रम दूसरी जगह ले जा रहे हैं, तो पूना छोड़ आपके साथ चलूं या यहां रुककर काम करूं ?

पहला प्रश्न कबीर साहब का एक पद इस प्रकार था-

‘मेरो संगी दोई जन, एक वैष्णों एक राम ।
यो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम।।  

लेकिन शब्दकोष उलटते हुए मुझे एक दूसरी साखी मिली, जो कुछ और बात कहती है

‘हरि सुमिरै सो वार है गुरू सुमिरै सो पार।’

आप क्या कहते हैं ?
स्मरण–स्मरण में फर्क है। एक तो स्मरण है, जो किया जाता है; और एक स्मरण है जो होता है। उस भेद को समझा तो इन दोनों सूत्रों का विरोधाभास  समाप्त हो जाएगा।
साधक जब शुरू करता है, तो प्रयास से शुरू करता है
 जप करता है। न करे तो जप नहीं होगा। जप  कृत्य होता है। चेष्ठा करनी पड़ती है, स्मरण रखना पड़ता है, तो होता है।
फिर धीरे-धीरे जब भीतर के तार मिल जाते हैं, तो साधक को जप करना नहीं पड़ता। नानक ने उस अवस्था को अजपा-जाप कहा है। फिर जाप अपने से होता है। साधक तब साक्षी हो जाता है-सिर्फ देखता है। मस्त होता है, डोलता है। बीन अब खुद नहीं बजाता है। बीन अब बजती है इसलिए उस नाद को अनाहत-नाद कहा है। अपने से होता है। न कोई वीणा है वहां, न कोई मृदंग है न कोई बजाने वाला है वहाँ, लेकिन, नाद है। अपरंपार नाद है। जिसका पारावार नहीं-ऐसा नाद है।

समझोः सदियों की खोज से यह अनुभव में आया है कि वह नाद कुछ-कुछ ऐसा होता है, जैसा-ओम्। लेकिन यह तो हमारी व्याख्या है कि ऐसा होता है। यह ऐसे ही है, जैसे कोई सूरज को उगते देखे और कागज पर एक तस्वीर बना ले। सूरज उग रहा है कागज पर और लाकर कागज तुम्हें दे दे और कहे कि सुबह बड़ी सुंदर थी और मैंने सोचा कि तस्वीर बना दूँ, ताकि तुम्हें भी समझ में आ जाए-कैसी थी।
 वह जो कागज पर तस्वीर है, इसमें न तो सूरज है; न सूरज की किरणें है; न सूरज का सौंदर्य है। उससे न तो हिमालय की शांति है, न हिमालय का सन्नाटा है, न हिमालय के उत्तुंग शिखर हैं, न उत्तुंग शिखरों पर जमी हुई कुंवारी बरफ है। कुछ भी नहीं है। नक्शा है। लेकिन नक्शा प्रतीक है।  

ऐसे ही ओम् प्रतीकमात्र है। कागज पर बनाया गया नक्शा है, उस अजपा-जाप का, जो भीतर कभी प्रकट होता है। वह ध्वनि, जो भीतर अपने-आप-फूटती है। जिसको कबीर ‘शब्द’ कहते हैं।
तुम जब शुरू करोगे, तब तो तुम ओम्, ओम्, ओम् के जाप से शुरू करोगे। यह जाप तुम्हारा होगा। इस जाप को अगर करते गए और गहरा होता गया यह जाप....। गहरे का मतलब है; पहले ओठ से होगा; फिर वाणी से होगा, लेकिन ओठ पर नहीं आएगा; कंठ में ही गूँजेगा। फिर घड़ी आएगी, जब मन में भी नहीं गूँजेगा, कंठ में भी नहीं होगा। तुम अपने भीतर ही उसे किसी गहन तल से उठता हुआ पाओगे।

तो एक तो जाप था। जो तुमने किया और एक जाप है, जिसे एक दिन तुम साक्षी की तरह देखोगे। ये दो सुमिरण हैं। इन्हीं दो सुमिरणों के कारण इन दो वचनों में भेद मालूम पड़ता है।
पहला वचन है; ‘मेरो संगी दोई जन, एक वैष्णो एक राम।’ कबीर कहते हैं-मेरे दो साथी हैं, दो मित्र हैं। एक तो राम-और एक राम का भक्त। एक को राम की तरफ ले जाने वाला सदगुरू। एक तो राम-और राम से भरा हुआ-आपूर, आकंठ भरा हुआ व्यक्ति।
 विष्णु से जो भरा है।–वह वैष्णव। विष्णु जिसके रोएं-रोएं में गूँज रहा है-वह वैष्णव तो एक तो विष्णु; राम यानी विष्णु का एक रूप। और एक वैष्णवजन- ये दो मेरे मित्र है।
‘यों है दाता मुक्ति का...’ राम तो है दाता-मुक्ति का मोक्ष का। उससे तो परम प्रसाद मिलेगा। ‘वो सुमिरावै नाम’ और वह जो वैष्णवजन है, जिसके भीतर सुमिरण आ गई है, उसके संग-साथ बैठकर, उसकी संगति में उठ-बैठकर, उसके भीतर उठी हुई तरंगें धीरे-धीरे तुम्हें भी तरंगित कर देती हैं। उसके भीतर बजती वीणा धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर की कोई वीणा को भी जगा देती है। उसका स्वर आघात करता है और तुम्हारे भीतर सोया हुआ आनंद धीरे-धीरे जागने लगता है।
तो राम तो है मुक्ति का दाता और गुरू है राम की सुरति दिलाने वाला।

बिना गुरू के राम नहीं मिलेगा, क्योंकि याद ही कोई न दिलाएगा, कोई इशारा ही न करेगा-अज्ञात की ओर; कोई तुम्हारा हाथ न पकड़ेगा, अनजान में न ले चलेगा तो राम नहीं मिलेगा। यद्यपि गुरु मुक्ति नहीं देता है। गुरु तो केवल राम की याद दिला देता है। फिर राम की याद करते-करते एक दिन राम अवतरित होता है; तुम्हारे भीतर जागता है और रोशन हो जाते हो, तुम प्रकाशित हो जाते हो मुक्ति फलती है।
तो गुरू तो राम की याद दिलाता है; राम मुक्ति देता है। यह तो पहले वचन का अर्थ। दूसरे वचन का अर्थ विपरीत मालूम पड़ता है दूसरे वचन में कहा है,’हरि सुमिरै सो वार है’- वार यानी यात्रा का प्रारंभ पहला कदम
‘हरि सुमिरै सो वार है’, गुरू सुमिरै सो पार, और जो  गुरू का स्मरण कर ले, वह पार ही हो जाता है। और हरि को याद करो, तो वह केवल यात्रा का प्रारंभ है।  गुरू को याद करने से यात्रा का अंत हो जाता है। यह बात उलटी लगती है- स्वभावतः।

पहले वचन में गुरू तो केवल राम को याद दिलाता है; राम मुक्ति देता है। दूसरे वचन में राम की याद तो केवल शुरूआत है, और गुरू की याद यात्रा का अंत। पहले में लगता है, गुरू-प्रारंभः राम पूर्णतया दूसरे में लगता है, राम-प्रारंभ। गुरू-पूर्णता। यह सुमिरण सुमिरण के भेद का कारण फर्क पड़ रहा है।
कोई पूछे की अंडा पहले की मुरगी पहले ? तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। तय करना संभव नहीं होता। अंडा कहो पहले, तो अड़चन आती है-कि बिना मुरगी के अंडा रखा किसने होगा !
मुरगी कहो पहले, तो अड़चन आती है कि मुरगी बिना अंडे के हुई कैसे होगी ? मुरगी के पहले अंडा है; अंडे के पहले मुरगी। असल में दोनों का दो करके देखने में ही उपद्रव हो गया है।

मुरगी और अंडा दो नहीं हैं। अंडा मुरगी की एक स्थिति है और मुरगी अंडे की एक स्थिति है। जैसे तुम्हारा बचपन और तुम्हारी जवानी दो चीजें नहीं है। एक ही दो स्थितियां है। ऐसे ही मुरगी या अंडा, एक ही जीवन-यात्रा के दो चरण है। तो पहले तो तुम गुरू ही क्यों खोजोगे, अगर राम का स्मरण न हो ! अगर परमात्मा नहीं खोजता है, तो गुरू किसलिए खोजना है ? आदमी बीमार होता है, स्वास्थ्य खोजता है तो डॉक्टर के पास जाता है। जब आदमी को ईश्वर का अभाव खलने लगता है जीवन में, कि उसके बिना सब अंधेरा है, सब खाली-खाली है-रिक्त; उसके बिना सब बेस्वाद, तिक्त, कडुवा; उसके बिना जीवन में कोई नृत्य पैदा नहीं होता; जीवन एक बोझ मालूम पड़ता है, तो परमात्मा की याद आनी शुरू हो जाती है। तो आदमी पूछता हैः जीवन का अर्थ क्या है ? किसने बनाया ? क्यों बनाया है ? हम किस तरफ जा रहे हैं ? यह जीवन का कारवाँ आखिर कहाँ पूरा होगा ? कौन-सी मंजिल है ? कहां मुकाम है ‍? ऐसी जिज्ञासा उठती है तो तुम गुरू की तलाश करते हो।

गुरू की तलाश के पहले तुम परमात्मा का स्मरण करते हो। वह स्मरण नाम मात्र का स्मरण है, जिसे हमने जाना हो; जिसे हमने प्यार किया हो; जिससे हमारी कुछ; स्मृति जुड़ी हो; जिससे हमारा कोई अनुभव का संबंन्ध बना हो उसकी ही याद करोगे। अभी परमात्मा का तो पता ही नहीं याद कैसे करोगे ?
तो यह तो परमात्मा की याद है। इतना ही पता रहा है कि जो जीवन है हमारा, व्यर्थ है। सार्थकता की खोज कर रहे हैं।
जैसा जीवन अभी तक जिया है, उसमें सार मालूम पड़ता। तो कोई और जीवन की शैली मिल जाए, इसकी खोज में निकले हैं। है भी ऐसी जीवन की शैली या नहीं, इसका कुछ पक्का नहीं  है।

 

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