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ओशो ध्यान योग

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3709
आईएसबीएन :81-7182-349-1

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प्रस्तुत है ओशो ध्यान योग...

Osho Dhyan Yog

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


बीज को स्वयं की सम्भावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है। ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है-क्या हो सकता है। लेकिन, बीज शायद स्वयं के भीतर झांक भी नहीं सकता। पर मनुष्य तो झांक सकता है। यह झांकना ही ध्यान है। ...क्योंकि ध्यान ही वह द्वारहीन द्वार है जो कि स्वयं को स्वयं से परिचित कराता है।

आमुख

ध्यान क्या है ? इस प्रसंग में ओशो का एक प्रसिद्ध वचन है-क्या तुम ध्यान करना चाहते हो ? तो ध्यान रखना ! ध्यान में न तो सामने कुछ हो और न तुम्हारे पीछे ही कुछ हो। अतीत को मिट जाने दो और भविष्य को भी। स्मृति और कल्पना दोनों को शून्य हो जाने दो। फिर न तो समय होगा और न आकाश ही होगा। और जिस क्षण कुछ भी नहीं होता है, तभी जानना कि तुम ध्यान में हो। महामृत्यु का यह क्षण ही नित्य-जीवन का क्षण भी है।’

लेकिन, अपने को अतीत और भविष्य से, स्मृति और कल्पना से शून्य कैसे करना ? समय और आकाश का लीन होना तो ध्यान की चरम अवस्था है। वही तो निर्विचार और मौन है, समाधि और मोक्ष और निर्वाण है। ध्यान का आरंभ तो वह हो सकता है, जो ओशो द्वारा बताई गई अनेक ध्यान-विधियों का पहला या दूसरा चरण कहाता है। मिसाल के लिए ‘सक्रिय-ध्यान’ में तीव्रतम सांस लेना, हाथ-पाँव उछालकर, चीख-चिल्लाकर शरीर और मन का रेचन करना आरंभ हो सकता है। जहाँ हम हैं, वहीं से तो हमें आरंभ करना है।

ध्यान चेतना की अंतर्यात्रा है, जिसमें चेतना बोधपूर्वक, बाहर से भीतर की ओर, परिधि से केंद्र की ओर, पर से स्वयं की ओर, अथवा दृश्य से द्रष्टा की ओर प्रतिक्रमण करती है। दूसरे शब्दों में, अस्तित्व का जो एक ही जीवंत क्षण है, जो अभी और यहीं है और जिसमें समस्त जीवन समाया है, उससे संबद्ध और संपृक्त होना, उसमें ही होना ध्यान है।
इस ध्यान को साधने से चेतना निर्बंध और निर्ग्रंथि, अखंड और अडोल, असंग और असीम अवस्था को उपलब्ध होती है। थोड़े शब्दों में-ध्यान, समाधि और अंततः आत्मबोध का, परमात्मा का द्वार बनता है।

ओशो का यह भी कहना है कि यद्यपि मनुष्य और उसकी आध्यात्मिक समस्या बुनियादी रूप से समान है तो भी समय और स्थान बहुत भेद पैदा करते हैं। फिर प्रत्येक आदमी इतना अनूठा है, इतना अद्वितीय है कि उसे अपना ही अनूठा मार्ग भी चुनना होता है। इसलिए प्रत्येक युग में गुरु शिष्य को नींद से जागरण में, मृत्यु से अमृत में ले जाने के लिए नई-नई विधियाँ और उपाय आविष्कृत करते हैं। क्योंकि पुरानी विधियाँ, पुराने उपाय काम नहीं देते; और एक ही विधि भी सबके काम नहीं आ सकती। यही कारण है कि ओशो ने बहुत-सी नवीन विधियाँ और उपाय खोजे हैं और वे चाहते हैं कि साधक प्रयोग और भूल की प्रक्रिया से गुज़रकर अपनी अपनी-अपनी विधि का चुनाव करें। इस संदर्भ में ओशो के ये वचन ध्यान में धर लेने योग्य हैं-

‘बुद्ध और महावीर जिनको समझा रहे थे, वे बड़े सरल लोग थे। उनका कुछ दबा हुआ नहीं था, इसलिए उन्हें ध्यान में सीधे ले जाया जा सकता था। आप सीधे ध्यान में नहीं ले जाए जा सकते, आप बहुत जटिल हैं। आप उलझन हैं। एक पहले तो आपकी उलझन को सुलझाना पड़ेगा और आपकी जटिलता कम करनी पड़ेगी और आपके रोगों से थोड़ा छुटकारा करना पड़ेगा। टेंपरेरी ही सही। चाहे अस्थायी ही हो, लेकिन थोड़ी देर के लिए आपकी भाप को अलग कर देना जरूरी है-जो आपको उलझाए हुए है-तो आप ध्यान की तरफ मुड़ सकते हैं; अन्यथा आप नहीं मुड़ सकते।

‘इसलिए दुनिया की सारी पुरानी पद्धतियाँ ध्यान की, आपके कारण व्यर्थ हो गई हैं। आज उनसे कोई काम नहीं हो रहा। आपमें सौ में से कभी एकाध आदमी मुश्किल से होता है, जिसको पुरानी पद्धति पुराने ही ढंग से काम कर पाए। निन्यानबे आदमियों के लिए कोई पुरानी पद्धति काम नहीं कर पाती। उसका कारण यही नहीं कि पुरानी पद्धतियाँ गलत हैं; उसका कुल कारण इतना है कि आदमी नया है और पद्धतियाँ जिन आदमियों के लिए विकसित की गई थीं, वे पृथ्वी से खो गए। आदमी दूसरा है। यह जो इलाज है, वह आपके लिए विकसित नहीं हुआ था। आपने इस बीच नई बीमारियाँ इकट्ठी कर ली हैं।

‘तीन हजार, चार हजार, पाँच हजार साल पहले ध्यान के जो प्रयोग विकसित हुए थे, वे उस आदमी के लिए थे, जो मौजूद था। वह आदमी अब नहीं है। उस आदमी का जमीन पर कहीं कोई निशान नहीं रह गया है। अगर कहीं दूर जंगलों में थोड़े-से लोग मिल जाते हैं, तो हम उनको जल्दी से शिक्षित करके सभ्य बनाने की पूरी कोशिश में लगे हैं और हम सोचते हैं, हम बड़ी कृपा कर रहे हैं, उनकी सेवा करके।

‘आदमी जैसा आज है, ऐसा आदमी जमीन पर कभी भी नहीं था। यह बड़ी नई घटना है। और इस नई घटना को सोचकर ध्यान की सारी पद्धतियों में रेचन, कैथार्सिस का प्रयोग जोड़ना अनिवार्य हो गया है। इसके पहले कि आप ध्यान में उतरें, आपका रेचन हो जाना जरूरी है, आपकी धूल हट जानी जरूरी है।’
प्रस्तुत ‘ओशो ध्यान योग’ में ओशो के पूरे साहित्य से ध्यान-विधियों तथा ध्यान-साधना-सामग्री का संचयन किया गया है। इस पुस्तक से एक बड़ी जरूरत की पूर्ति हो रही है।

-स्वामी आनंद मैत्रेय


एक


ध्यान : एक वैज्ञानिक दृष्टि


मेरे प्रिय आत्मन् !
सुना है मैंने, कोई नाव उलट गई थी। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा लगा। दिन, दो दिन, चार दिन, सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की, कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था, वहाँ से कोई उसे बचाने आ जाएगा। फिर महीने भी बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। फिर किसी को आते न देखकर वह धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल गया। पाँच वर्षों के बाद कोई जहाज वहाँ से गुजरा, उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज के लोगों को उतारा, और जब उन लोगों ने उस खो गए आदमी को वापिस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया।

उन लोगों ने कहा, ‘क्या विचार कर रहे हैं, चलना है या नहीं ?’ तो उस आदमी ने कहा, ‘अगर तुम्हारे साथ जहाज पर कुछ अखबार हों जो तुम्हारी दुनिया की खबर लाए हों, तो मैं पिछले दिनों के कुछ अखबार देख लेना चाहता हूँ।’ अखबार देखकर उसने कहा, ‘तुम अपनी दुनिया सम्हालो और अखबार भी, और मैं जाने से इंकार करता हूँ।’

बहुत हैरान हुए वे लोग। उनकी हैरानी स्वाभाविक थी। पर वह आदमी कहने लगा, ‘इन पाँच वर्षों में मैंने जिस शांति, जिस मौन और जिस आनंद का अनुभव किया है, वह मैंने पूरे जीवन के पचास वर्षों में भी तुम्हारी उस बड़ी दुनिया में कभी अनुभव नहीं किया था। और सौभाग्य और परमात्मा की अनुकंपा कि उस दिन तूफान में नाव उलट गई और मैं इस द्वीप पर आ लगा। यदि मैं अभी इस द्वीप पर न लगा होता, तो शायद मुझे पता भी न चलता कि ‘मैं किस बड़े पागलखाने में पचास वर्षों से जी रहा था।’

हम उस बड़े पागलखाने के हिस्से हैं, उसमें ही पैदा होते हैं, उसमें ही बड़े होते हैं, उसमें ही जीते हैं-और इसलिए कभी पता भी नहीं चल पाता कि जीवन में जो भी पाने योग्य है, वह सभी हमारे हाथ से चूक गया है। और जिसे हम सुख कहते हैं और जिसे हम शांति कहते हैं, उसका न तो सुख में कोई संबंध है और न शांति से कोई संबंध है। और जिसे हम जीवन कहते हैं, शायद वह मौत से किसी भी हालत में बेहतर नहीं है।

लेकिन परिचय कठिन है। चारों ओर शोरगुल की दुनिया है। चारों ओर शब्दों का, शोरगुल का उपद्रवग्रस्त वातावरण है। उस सारे वातावरण में हम वे रास्ते भूल जाते हैं, जो भीतर मौन और शांति में ले जा सकते हैं।
इस देश में-और इस देश के बाहर भी-कुछ लोगों ने अपने भीतर भी एकांत द्वीप की खोज कर ली है। न तो यह संभव है कि सभी की नावें डूब जाएँ, न यह संभव है कि इतने तूफान उठें, और न यह संभव है कि इतने निर्जन द्वीप मिल जाएँ, जहाँ सारे लोग शांति और मौन का अनुभव कर सकें। लेकिन, फिर भी यह संभव है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर ही उस निर्जन द्वीप को खोज ले।

ध्यान अपने ही भीतर उस निर्जन द्वीप की खोज का मार्ग है। यह भी समझ लेने जैसा है कि दुनिया के सारे धर्मों में बहुत विवाद हैं-सिर्फ एक बात के संबंध में विवाद नहीं है-और वह बात ध्यान है। मुसलमान कुछ और सोचते; हिंदू कुछ और, ईसाई कुछ और, पारसी कुछ और, जैन, बौद्ध और। उनके सिद्धांत सबके बहुत भिन्न हैं। लेकिन एक बात के संबंध में इस पृथ्वी पर कोई भी भेद नहीं है, और वह यह कि जीवन के आनंद का मार्ग ध्यान से होकर जाता है। और परमात्मा तक अगर कोई भी कभी पहुँचा है, तो ध्यान की सीढ़ी के अतिरिक्त और किसी सीढ़ी से नहीं। वह चाहे, जीसस, और फिर चाहे बुद्ध, और चाहे मुहम्मद, और चाहे महावीर-कोई भी, जिसने जीवन की परम धन्यता को अनुभव किया है, उसने अपने ही भीतर में डूब के उस निर्जन द्वीप की खोज कर ली।

इस ध्यान के विज्ञान के संबंध में दो-तीन बातें आपसे कहना चाहूँगा। पहली बात तो यह कि साधारणतः जब हम बोलते हैं, तभी हमें पता चलता है कि हमारे भीतर कौन-कौन विचार चलते हैं। ध्यान का विज्ञान इस स्थिति को अत्यंत ऊपरी अवस्था मानता है। अगर एक आदमी न बोले, तो हम पहचान भी न पाएँ कि वह कौन है, क्या है ?

शब्द हमारे बाहर प्रकट होता है, तभी हमें पता चलता है-‘हमारे भीतर क्या था’। ध्यान का विज्ञान कहता है, यह अवस्था, सबसे ऊपरी अवस्था है चित की; सरफेस है, ऊपर की पर्त है। हम नहीं बोले होते हैं तब भी पहले उसके विचार भीतर चलता है, अन्यथा हम बोलेंगे कैसे ? अगर मैं कहता हूँ ओम् तो इसके पहले कि मैंने कहा-मेरे भीतर, ओठों के पार, मेरे हृदय के किसी कोने में ‘ओम्’, का निर्माण हो जाता है। ध्यान कहता है, यह दूसरी पर्त है, व्यक्ति की गहराई की।

साधारणतः आदमी ऊपर की पर्त पर ही जीता है, उसे दूसरी पर्त का भी पता नहीं होता। उसके बोलने की दुनिया के नीचे भी एक सोचने का जगत् है, उसका भी उसे कुछ पता नहीं होता। काश, हमें हमारे सोचने के जगत् का पता चल जाए, तो हम बहुत हैरान हो जाएँ। जितना हम सोचते हैं, उसका बहुत थोड़ा-सा हिस्सा वाणी में प्रकट होता है। ठीक ऐसे ही जैसे एक बर्फ के टुकड़े को हम पानी में डाल दें, तो एक हिस्सा ऊपर हो और नौ    हिस्सा नीचे डूब जाए। हमारा भी नौ हिस्सा जीवन का, विचार का तल नीचे डूबा रहता है, एक हिस्सा ऊपर दिखाई पड़ता है।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि आप क्रोध कर चुकते हैं, तब आप कहते हैं कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने क्रोध किया। एक आदमी एक आदमी की हत्या कर देता है, फिर पछताता है कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने हत्या की। ‘इनस्पाइट ऑफ मी’...वह कहता है, ‘मेरे बावजूद यह हो गया, मैंने तो कभी ऐसा करना ही नहीं चाहा था।’ उसे पता नहीं कि हत्या आकस्मिक नहीं है, पहले भीतर निर्मित होती है। लेकिन वह तल गहरा है, और उस तल से हमारा कोई संबंध नहीं रहा गया।

ध्यान कहता है, पहले तल का नाम ‘बैखरी’ है, दूसरे तल का नाम ‘मध्यमा’ है। और उसके नीचे भी एक तल है, जिसे ध्यान का विज्ञान ‘पश्यंति कहता है। इसके पहले कि भीतर, ओठों के पार, हृदय के कोने में शब्द निर्मित हो, उससे भी पहले, शब्द का निर्माण होता है। लेकिन उस तीसरे तल का तो हमें साधारणतः कोई भी पता नहीं होता, उससे हमारा कोई संबंध नहीं होता। दूसरे तक हम कभी-कभी झाँक पाते हैं, तीसरे तक हम कभी नहीं झाँक पाते।

ध्यान का विज्ञान कहता है कि पहला तल ‘बोलने’ का है, दूसरा तल ‘सोचने’ का है, तीसरा तल ‘दर्शन’ का है। पश्चयंति का अर्थ है ‘देखना’, जहाँ शब्द देखे जाते हैं। मुहम्मद कहते हैं-मैंने कुरान देखी-सुनी नहीं। वेद के ऋषि कहते हैं-हमनें ज्ञान देखा-सुना नहीं। मूसा कहते हैं-मेरे सामने टेन कमांडमेंट्स प्रकट हुए, दिखाई पड़े, मैंने सुने नहीं। यह तीसरे तल की बात है, जहाँ विचार दिखाई पड़ते हैं-सुनाई नहीं पड़ते हैं।

तीसरा तल भी ध्यान के हिसाब से मन का आखिरी तल नहीं है। चौथा एक तल है, जिसे ध्यान का विज्ञान ‘परा’ कहता है। वहाँ विचार दिखाई भी नहीं पड़ते, सुनाई भी नहीं पड़ते। और जब कोई व्यक्ति देखने और सुनने से नीचे उतर जाता है, तब उसे चौथे तल का पता चलता है। और उस चौथे तल के पार जो जगत् है, वह ध्यान का जगत् है।

ये चार हमारी पर्तें हैं। इन चार दीवारों के भीतर हमारी आत्मा है। हम बाहर के परकोटे की दीवार के बाहर ही जीते हैं। पूरे जीवन शब्दों की पर्त के साथ जीते हैं-और स्मरण नहीं आता कि खजाने बाहर नहीं हैं, बाहर सिर्फ रास्तों की धूल है। आनंद बाहर नहीं है, बाहर आनंद की धुन भी सुनाई पड़ जाए तो बहुत। जीवन का सब-कुछ भीतर है-जड़ों में-गहरे अँधेरे में दबा हुआ। ध्यान वहाँ तक पहुँचने का मार्ग है।

पृथ्वी पर बहुत से रास्तों से उस पाँचवीं स्थिति में पहुँचने की कोशिश की जाती रही है। और जो व्यक्ति इन चार स्थितियों को पार करके पाँचवीं गहराई में नहीं डूब पाता, उस व्यक्ति को जीवन तो मिला, लेकिन जीवन को जानने की उसने कोई कोशिश नहीं की, उस व्यक्ति को खजाने तो मिले, लेकिन खजानों से वह अपरिचित रहा और रास्तों पर भीख माँगने में उसने समय बिताया। उस व्यक्ति के पास वीणा तो थी-जिससे संगीत पैदा हो सकता था, लेकिन उसने उसे कभी छुआ नहीं, उसकी अँगुलियों का कभी कोई स्पर्श उसकी वीणा तक नहीं पहुँचा।

हम जिसे सुख कहते हैं, धर्म उसे सुख नहीं कहता। है भी नहीं, हम भली-भाँति जानते हैं। हमारा सुख करीब-करीब ऐसा है....मुझे एक छोटी-सी कहानी याद आती है-
एक आदमी अपने मित्रों के पास बैठा है-बहुत बेचैन, बहुत परेशान। और ऐसा मालूम पड़ता है उसके भीतर कोई बहुत कष्ट है; किसी पीड़ा को वह दबाए हुए है। अंततः एक मित्र उससे पूछता है-इतने परेशान हैं, बात क्या है ? सिर में दर्द है ? पेट में दर्द है ?’

उस आदमी ने कहा, ‘नहीं, न सिर में दर्द है, न पेट में दर्द है; मेरे जूते बहुत काट रहे हैं, बहुत तंग हैं जूते।’ उसके मित्र ने कहा-‘तो जूतों को निकाल दें। और अगर इतने तंग जूते हैं कि इतना परेशान कर रहे हैं, तो थोड़े ठीक जूते खरीद लें।’
उस आदमी ने कहा, ‘नहीं, यह न हो सकेगा, मैं वैसे ही बहुत मुसीबत में हूँ।’ पत्नी मेरी बीमार है, लड़की ने, नहीं चाहता था कि जिस व्यक्ति को, उससे शादी कर ली, लड़का शराबी है, जुआरी है, और मेरी हालत दीवाले के करीब है।...नहीं, मैं वैसे ही बहुत दुःख में हूँ। ‘उन मित्रों ने कहा-‘आप पागल हैं ?

वैसे ही बहुत दुःख में हैं तो इस जूते को तो बदल ही लें।’ उस आदमी ने कहा, ‘इस जूते के साथ ही मेरा एकमात्र सुख रह गया है।’ तब तो वे बहुत चकित हुए। उन्होंने कहा, ‘यह सुख किस प्रकार का है ? उस आदमी ने कहा, ‘मैं इतनी मुसीबतों में हूँ, दिनभर यह जूता मुझे काटता है, शाम जब मैं जूते को उतारता हूँ, तो मुझे बड़ी राहत मिलती है। बस एक ही सुख मेरे पास बचा है, वह यह कि साँझ जब मैं इस जूते को घर जा के उतारता हूँ, तो बड़ी रिलीफ, बड़ी राहत मिलती है। बस एक ही सुख मेरे पास है और तो दुःख ही दुःख हैं। इस जूते को मैं नहीं बदल सकता हूँ।’
जिसे हम सुख कहते हैं, वह तंग जूते से ज्यादा सुख नहीं है, रिलीफ से ज्यादा सुख नहीं है। जिसे हम सुख कहते हैं, वह थोड़ी-सी देर के लिए किसी तनाव से मुक्ति है।...नकारात्मक है, निगेटिव है।

एक आदमी थोड़ी देर के लिए शराब पी लेता है और सोचता है सुख में है। एक आदमी थोड़ी देर के लिए सैक्स में उतर जाता है और सोचता है सुख में है। एक आदमी थोड़ी देर के लिए संगीत सुन लेता है और सोचता है कि सुख में है। एक आदमी बैठ के गपशप कर लेता है, हँसी-मजाक कर लेता है, हँस लेता है, और  सोचता है कि सुख में है।
ये सारे सुख तंग जूते को साँझ उतारने से भिन्न नहीं हैं, उनका सुख से कोई संबंध नहीं है। सुख एक पॉजिटिव, एक विधायक स्थिति है-नकारात्मक नहीं। सुख छींक-जैसी चीज नहीं है-कि आपको छींक आ जाती है और पीछे थोड़ी राहत मिलती है। क्योंकि छींक परेशान कर रही थी। वह एक नकारात्मक चीज नहीं है कि एक बोझ मन से उतर जाता है और पीछे अच्छा लगता है।

सुख एक विधायक अनुभव है। लेकिन बिना ध्यान के वैसा विधायक सुख किसी को अनुभव नहीं होता। और जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हुआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हुआ है। सारी शिक्षा, सारी सभ्यता-आदमी को दूसरों से कैसे संबंधित हों, यह तो सिखा देती है, लेकिन अपने से कैसे संबंधित हो, यह नहीं सिखाती। समाज को कोई प्रयोजन भी नहीं है कि आप अपने से संबंधित हों, समाज चाहता है आप दूसरों से संबंधित हों-ठीक से, कुशलता से-बात पूरी हो जाती; आप कुशलता से काम करें, बात पूरी हो जाती है।

समाज आपको एक फंक्शन से ज्यादा नहीं मानता। अच्छे दुकानदार हों, अच्छे नौकर हों, अच्छे पति हों, अच्छी माँ हों, अच्छी पत्नी हों,-बात समाप्त हो गई, आपसे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए समाज की सारी शिक्षा उपयोगिता है, यूटिलिटि है। समाज सारी शिक्षा ऐसी देता है, जिससे कुछ पैदा होता हो। आनंद से कुछ भी पैदा होता दिखाई नहीं पड़ता। आनंद कोई कमोडिटी नहीं है जो बाजार में बिक सके।

आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे रुपये में भँजाया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे बैंक-बैलेंस में जमा किया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसकी बाजार में कोई कीमत हो सके। इसलिए समाज को आनंद से कोई प्रयोजन नहीं है। और कठिनाई यही है कि आनंद-भर एक ऐसी चीज है, जो व्यक्ति के लिए मूल्यवान है, बाकी कुछ भी मूल्यवान नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता जाता है-यूटिलिटेरियन होता है-‘सब चीजों की उपयोगिता होनी चाहिए।’
मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं ‘ध्यान से क्या मिलेगा ?’ शायद वे सोचते होंगे-रुपए मिलें, मकान मिले, कोई पद मिले।’ ध्यान से न पद मिलेगा, न रुपए मिलेंगे, न मकान मिलेगा, ध्यान की कोई उपयोगिता नहीं है।

लेकिन जो आदमी सिर्फ उपयोगी चीजों की तलाश में घूम रहा है, वह आदमी सिर्फ मौत की तलाश में घूम रहा है। जीवन की भी कोई उपयोगिता नहीं है। जीवन में जो भी महत्त्वपूर्ण है, उसकी बाजार में कोई कीमत नहीं है। प्रेम की कोई कीमत है बाजार में ? कोई कीमत नहीं है। ध्यान की, परमात्मा की ? इनकी कोई भी कीमत नहीं है। लेकिन जिस जिंदगी में अनुपयोगी, नॉन-यूटिलिटेरियन मार्ग नहीं होता, उस जिंदगी में सितारों की चमक भी खो जाती है, उस जिंदगी में फूलों की सुगंध भी खो जाती है, उस जिंदगी में पक्षियों के गीत भी खो जाते हैं, उस जिंदगी में नदियों की दौड़ती हुई गति भी खो जाती है, उस जिंदगी में कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ बाजार बचता है। उस जिंदगी में काम के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। उस जिंदगी में तनाव और परेशानी और चिंताओं के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। और जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ नहीं है। लेकिन हमारी जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ है।

ध्यान हमारी जिंदगी में उस डायमेंशन, उस आयाम की खोज है, जहाँ हम बिना प्रयोजन के-सिर्फ होने मात्र में जस्ट टू बी-होने-मात्र से आनंदित होते हैं। और जब भी हमारे जीवन में कहीं से भी सुख की कोई किरण उतरती है, तो वे वे ही क्षण होते हैं, जब हम खाली, बिना काम के-समुद्र के तट पर या किसी पर्वत की ओट में, या रात आकाश के तारों के नीचे, या सुबह उगते सूरज के साथ, या आकाश में उड़ते हुए पक्षियों के पीछे, या खिले हुए फूलों के पास-कभी जब हम बिना काम-बिल्कुल बेकाम, बिल्कुल व्यर्थ, बाजार में जिसकी कोई कीमत न होगी-ऐसे किसी क्षण में होते हैं, तभी हमारे जीवन में सुख की थोड़ी-सी ध्वनि उतरती है। लेकिन यह आकस्मिक, एक्सिडेंटल होती है। ध्यान, व्यवस्थित रूप से इस किरण की खोज है।

कभी होती है यह टयूनिंग। कभी विश्व के और हमारे बीच संगीत का सुर बँध जाता है, कभी, ठीक वैसे ही, जैसे कोई बच्चा सितार को छेड़ दे और कोई राग पैदा हो जाए-आकस्मिक। ध्यान व्यवस्थित रूप से जीवन में उस द्वार को बड़ा करने का नाम है, जहाँ से आनंद की किरण उतरनी शुरू होती है। जहाँ से हम पदार्थ से छूटते हैं और परमात्मा से जुड़ते हैं।

मेरे देखे ध्यान से ज्यादा बिना कीमत की कोई चीज नहीं है। और ध्यान से ज्यादा बहुमूल्य भी कोई चीज नहीं है। और आश्चर्य की बात यह है कि यह जो ध्यान, प्रार्थना-या हम और कोई नाम दें, यह इतनी कठिन बात नहीं है, जितना लोग सोचते हैं। जैसे हमारे घर के किनारे पर ही कोई फूल खिला हो, और हमने खिड़की न खोली हो; जैसे बाहर सूरज खड़ा हो और हमारे द्वार बंद हों, जैसे खजाना सामने पड़ा हो और हम आँख बंद किए बैठे हों, ऐसी कठिनाई है। अपने ही हाथ से अपरिचय के कारण कुछ हम खोए हुए बैठे हैं, जो हमारा किसी भी क्षण हो सकता है।

ध्यान प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता है। क्षमता ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार भी। परमात्मा जिस दिन व्यक्ति को पैदा करता है, ध्यान के साथ ही पैदा करता है। ध्यान हमारा स्वभाव है। उसे हम जन्म के साथ लेकर पैदा होते हैं।
इसलिए ध्यान से परिचित होना कठिन नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति ध्यान में प्रविष्ट हो सकता है।


ध्यान है भीतर झाँकना


बीज को स्वयं की संभावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है। ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है-क्या हो सकता है। लेकिन, बीज शायद स्वयं के भीतर झाँक भी नहीं सकता। पर मनुष्य तो झाँक सकता है। यह झाँकना ही ध्यान है। स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यहीं (हियर एंड नाउ) जानना ही ध्यान है। ध्यान में उतरे-गहरे और गहरे।

गहराई के दर्पण में संभावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है। और जो हो सकता है, वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है, उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है। बीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है, वैसे ही अंकुरित होने लगता है। शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दें। क्योंकि ध्यान ही वह द्वारहीन द्वार है, जो स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है।



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