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धर्म एवं दर्शन >> सुख सागर

सुख सागर

भवान सिंह राणा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3712
आईएसबीएन :81-7182-313-0

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धार्मिक ग्रन्थ श्रीमद्भागवत पर आधारित पुस्तक सुख सागर....

Sukh Sagar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

श्रीमद्भागवत अथवा सुखसागर सनातन मतावलम्बियों का एक विशिष्ट धार्मिक ग्रन्थ है। इसमें मुख्य रूप से भक्ति की प्रधानता है। अतः यत्र-तत्र भगवान श्रीकृष्ण को परमब्रह्म सिद्ध करते हुए उनकी भक्ति को ही परम लक्ष्य तथा मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन माना गया है।

इस प्रसंग में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन ही इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। भक्ति के साथ ही इसमें कर्म, ज्ञान, योग्य, सांख्य आदि का भी यथास्थान वर्णन हुआ है। यही नहीं इसमें प्रसंगवश अनेक आख्यानों राजवंशों, सृष्टि, प्रलय आदि विषयों का भी समुचित वर्णन हुआ है।

योगेश्वर भगवन श्री कृष्ण हमारे राष्ट्र पुरुष हैं, किन्तु यदा-कदा कुछ आलोचक राधा-कृष्ण प्रेम, चीरहरण आदि प्रसंगों में उनके चरित्र को लौकिकता की कसौटी पर परखने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे आलोचकों से हमारा विनम्र निवेदन है कि वे कृष्ण के प्रति अपनी इस उपेक्षापूर्ण भावना में परिवर्तन लाएँ, क्योंकि सर्वप्रथम राधा एक ऐसी पात्र है, जिसका श्रीमद्भागवत में कहीं कोई अस्तित्व नहीं है दूसरी बात, भगवान कृष्ण अपनी किशोर अवस्था से पूर्व प्रायः दस-ग्यारह वर्ष की अवस्था तक ही ब्रज में रहे, अतः यदि इन घटनाओं को लौकिक परिप्रेक्ष्य में देखें भी तो कृष्ण द्वारा नहाती हुई गोपियों के वस्त्र लेकर वृक्ष पर चढ़ जाने आदि की घटनाएँ केवल एक बालक की चंचलता या नटखटपन ही कही जाएंगी।

 अतः इसमें किसी प्रकार की विकृति भावना के लिए स्थान ही कहाँ रह जाता है। दशम स्कन्ध के छब्बीसवें अध्याय में इन बातों का स्पष्टीकरण है। भगवान कृष्ण ने सात वर्ष की अवस्था में ही गोवर्धन पर्वत धारण किया था और ये सभी लीलाएं अपने बाल्याकाल में ही की थीं। प्रसंगवश एक अन्य तथ्य की ओर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है कि कंस वध के बाद ही कृष्ण का यज्ञोपवीत और विद्यार्थी जीवन (ब्रह्मचर्य आश्रम) प्रारम्भ हुआ था (दशम स्कन्ध, अध्याय पैंतालीस) प्राख्यात राजनीतिज्ञ और संस्कृतविद स्वर्गीय श्री प्रकाशवीर शास्त्री ने आज से लगभग अठारह वर्ष पूर्व मथुरा से प्रकाशित होने वाले ‘श्रीकृष्ण सन्देश’ में अपने एक लेख में प्रबल प्रमाणों से यह सिद्ध किया था कि गोकुल से मथुरा प्रस्थान के समय श्रीकृष्ण की अवस्था दस-ग्यारह वर्ष से अधिक नहीं थी।

इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ से हमारे अधिकाधिक हिन्दी भाषी पाठक लाभान्वित हो सकें, इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखकर सुखसागर का यह संक्षिप्त हिन्दी रूपान्तर तैयार किया गया है।


डॉ. भवान सिंह राणा


श्रीमद्भागवत माहात्म्य
अध्याय एक : श्री नारद भक्ति संवाद



एक बार नैमिषराण्य में शौनक आदि अट्ठासी हजार ऋषियों ने व्यास के शिष्य सूत से पूछा—‘‘इस कलियुग में मनुष्य अज्ञान में डूबकर सुख-शान्ति से वंचित हो गया है। अतः इसके कल्याण के लिए भगवान कोई उत्तम कथा सुनाएँ।’’ सूत बोले -‘‘हे ऋषियों ! कलियुग में जीवों के उद्धार के लिए श्रीमद्भागवत ही एकमात्र उपाय है। इसे ध्यान से सुनो। इसी से राजा परीक्षित को मोक्ष मिला। अनेक जन्मों के पुण्य से ही इस कथा को सुनने का सौभाग्य मिलता है। एक बार शुकदेव राजा परीक्षित को यह कथा सुनाना चाहते थे, तभी अमृतकलश लेकर देवता उनके पास आए और प्रणाम करने के बाद बोले-‘‘आप इस अमृत को ले लीजिए तथा हमें भागवत की कथा का अमृत पिलाएं।’’ शुकदेव बोले-‘‘देवताओं ! भागवत कथा का अमृत इस अमृत से श्रेष्ठ है। भागवत का अमृत समस्त दुःखों को नष्ट कर देता है। राजा परीक्षित की प्यास इसी अमृत से बुझेगी।’’ शुकदेव ने देवताओं को कथा नहीं सुनाई। इस कथा से परीक्षित को मोक्ष मिला देख ब्रह्माजी को आश्चर्य हुआ उन्होंने तराजू के एक पलड़े में श्रीमद्भागवत तथा दूसरे में दान, तप व्रत आदि रखे। भागवत वाला पलड़ा भारी था। इससे वहाँ उपस्थित सभी ऋषियों को आश्चर्य हुआ।’’

सूत आगे बोले- ‘‘एक बार ब्रह्मा के पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार बदरिकाश्रम पहुँचे। वहाँ उन्होंने नारद को भागवत की कथा सुनाई।’’ शौनक बोले-‘‘नारद तो दो घड़ी से अधिक कहीं ठहरते ही नहीं तब उन्होंने सात दिन तक यह कथा कैसे सुनी ?’’ सूत बोले-‘‘चारों ऋषियों के बदरिकाश्रम पहुँचने पर नारद ने उन्हें प्रणाम किया। नारद को दुखी देख उन्होंने इसका कारण पूछा। नारद बोले-मैं पृथ्वी पर सभी तीर्थों में घूमा। सभी जगह अज्ञान और अधर्म का बोलबाला है। घरों में स्त्री ही की आज्ञा चलती है। ससुर-साले ही परामर्श देते हैं। लोभ से लोग अपनी कन्याओं को बेच देते हैं। ब्राह्मण-क्षत्रिय सभी अपने कर्मों से ही हीन हो गए हैं। अंततः मैं वृन्दावन पहुँचा वहां मैंने एक विचित्र बात देखी। यमुना तट पर एक युवती बैठी रो रही थी। उसके पास, दो युवक वृद्ध अचेत पड़े कराह रहे थे चारों ओर से अनेक स्त्रियाँ उस युवती को समझा रही थीं। मुझे देखकर वह युवती बोली-‘‘महाराज ! आपके दर्शन बड़े सौभाग्य से होते हैं। आप मेरा दुख दूर करें।’’ मैंने उस स्त्री से पूछा-‘‘तुम कौन हो ? ये दो वृद्ध तथा स्त्रियाँ कौन हैं ? तुम्हें क्या दुख है ? मुझे विस्तार से बताओ।’’

वह स्त्री बोली- ‘‘मैं भक्ति हूं, ये दो वृद्ध मेरे पुत्र हैं ज्ञान और वैराग्य हैं। स्त्रियाँ गंगा आदि नदियाँ हैं। मेरा जन्म द्रविड़ देश में हुआ। कर्णाटक में युवती हुई गुजरात में वृद्धा बनी। इस वृन्दावन में आने पर मैं फिर युवती हो गयी। परन्तु मेरे ये दोनों पुत्र कलियुग के प्रभाव से युवा न हो पाए। मैं दूसरे स्थान पर जाना चाहती हूँ मेरे दुख का कारण यही है कि मैं तो युवती हो गयी हूँ किंतु मेरे पुत्र वृद्ध ही रह गए हैं और अचेत पड़े हैं।’’

नारद बोले-‘‘दुःखी मत होओ। मैं अपनी ज्ञान दृष्टि से इसके कारण का पता लगाता हूँ। भगवान अवश्य तेरा कल्याण करेंगे।’’ फिर ध्यान से इसका कारण जानकर वह बताने लगे-‘‘सावधान होकर सुनो। कलियुग के प्रभाव से तप सदाचार आदि छिप गये हैं। पाप आदि बढ़ गये हैं। महात्मा दुखी हैं और दुष्ट  सुख भोग रहे हैं। यही कारण है तुम्हारे पुत्र दुखी हैं। इस वृन्दावन में कृष्ण भक्ति-सदा नाचती है। इसलिए तुम युवती हो यहाँ वैराग्य को चाहने वाला कोई नहीं है इसलिए तुम्हारे पुत्र युवा न हो सके।’’

यह सुनकर भक्ति बोली-‘‘महामुनि ! राजा  परीक्षित ने दुष्ट कलियुग को कैसे स्थापित किया ? अच्छाइयाँ कहाँ चली गयीं ? इस अधर्म को भगवान कैसे सहन करेंगे ?’’ नारद बोले-‘‘भगवान कृष्ण के अपने धाम को चले जाने पर कलियुग प्रारम्भ हो गया। राजा परीक्षित धनुष लेकर उसे मारने चल पड़े। वह परीक्षित के चरणों में गिर पड़ा। राजा को उस पर दया आ गयी। कलियुग की एक अच्छाई भी है। अन्य युगों में जो चीज कठोर तप किए भी प्राप्त नहीं होती थी, वह कलियुग में केवल भगवान के कीर्तन करने से ही प्राप्त हो जाती है।’’

नारद के शब्दों को सुनकर भक्ति बोली-‘‘सज्जनों की संगति सौभाग्य से ही होती है। आपने भक्ति को लोकों में फैलाया है। मैं आपको नमस्कार करती हूँ।’’


अध्याय दो : सुप्त ज्ञान-वैराग्य का सचेत होना



नारद बोले-‘‘देवी ! शोक न करो। भगवान कृष्ण का स्मरण करो, इसी से तुम्हारा दुःख मिटेगा। भगवान ने द्रौपदी की लाज रखी। अनेक दुष्ट राक्षसों का संहार किया। ग्राह से गज की रक्षा की। तुम पर उनकी विशेष कृपा है। जहाँ तुम रहती हो, वहाँ प्रेत, पिशाच आदि का भय नहीं रहता। इस कलियुग में भक्ति से ही जीवों का उद्धार होता है। भगवान तुमसे बड़े प्रसन्न होते हैं।’’ तब भक्ति बोली-‘‘भगवन्, मेरा अज्ञान तो नष्ट हो गया है। मेरे इन दोनों पुत्रों-ज्ञान-वैराग्य के मोह को भी दूर कीजिए।’’ भक्ति की प्रार्थना सुनकर नारद ने अपना हाथ ज्ञान-वैराग्य पर फेरा, किंतु उन्हें चेतना नहीं आयी। फिर वह उनके कानों में कहने लगे-‘‘उठो, जागो’’ परंतु इसका भी कोई प्रभाव नहीं हुआ। वेद आदि का पाठ करने पर भी वे सचेत नहीं हुए। अतः नारद भगवान का ध्यान करने लगे। तब आकाशवाणी हुई—‘‘नारद ! सत्कर्म करो, तभी ये सचेत होंगे।’’ नारद सोच में पड़ गए कि कौन-सा सत्कर्म करना चाहिए क्योंकि आकाशवाणी ने भी स्पष्ट बात नहीं बताई थी। वह अनेक तीर्थों में गए। उन्होंने अनेक महात्माओं से पूछा कि सत्कर्म क्या है ? किंतु कोई भी इसका संतोषजनक उत्तर न दे सका। अंत में वे बदरिकाआश्रम गए वहां सनक आदि चारों भाइयों से भी पूछा और कहा कि ‘‘ज्ञान एवं वैराग्य की वृद्धावस्था कैसे दूर होगी।’’

तब सनत्कुमार बोले-‘‘हे देवर्षि ! आप चिंता न करें। इसका उपाय अत्यंत सरल है। भक्ति का प्रचार-प्रसार करना आप जैसे श्रेष्ठ हरिभक्तों का स्वाभाविक कार्य है। आकाशवाणी ने आप से सत्कर्म करने को कहा है। ध्यान से सुनिए। द्रव्य यज्ञ, ज्ञान यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ, स्वाध्याय आदि से बैकुण्ठ लोक मिलता है। महान ज्ञानियों ने कहा है कि सत्कर्म अर्थात् श्रीमद्भागवत को सुनने से ज्ञान और वैराग्य पुनः युवा हो जाते हैं। भक्ति नृत्य करने लगती है। इससे कलियुग के सभी प्रभाव नष्ट हो जाते हैं।’’ नारद बोले-‘‘मैंने ज्ञान एवं वैराग्य को वेद आदि सुनाए, किंतु वे सचेत न हुए। तब वे भागवत-कथा से कैसे सचेत होंगे ?’’ सनत्कुमार बोले-‘‘वेद आदि से ही भागवत-कथा उपजी है। यह उत्तम फल देती है।’’ एवं वैराग्य को सुख देने वाली कथा सुनकर परम आनंद में डूब गये।


अध्याय तीनः भक्ति की कष्ट से मुक्ति



नारद बोले -‘‘मुनियों ! शुकदेव के मुख से निकली इस कथा को मैं अवश्य पूरा करूँगा। इससे ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि की स्थापना होगी। कृपया बताएं, यह कथा कहां की जाए ? इसे कौन कहे ? तथा यह कितने दिन की होती है ?’’ सनत्कुमार ने कहा--‘‘हरिद्वार के समीप गंगा के तट पर आनंदवन नामक परम पवित्र रमणीय स्थान है। वहां ऋषि मुनि एकत्र होते हैं। वहीं यह कथा करें। यह सात दिन तक होगी। हम भी आपके साथ वहाँ चलेंगे।’’ उन चारों के साथ नारद आनंदवन पहुँचे। यह समाचार स्वर्ग तथा ब्रह्मलोक में भी पहुंच गया। हजारों भक्त तथा सभी पुराण, शास्त्र, नदियाँ, सरोवर, दिशाएँ, पर्वत, देवता, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, नाग आदि वहाँ आकर अपने-अपने आसनों पर बैठ गये। सनक, चारों ऋषियों ने भागवत का ध्यान किया और नारद से दीक्षा लेकर कथा कहने के लिए आसन पर विराजमान हो गये। चारों ओर से ‘जय-जय’ शब्द होने लगा। खील और फूलों की वर्षा होने लगी। विमानों पर बैठकर देवगण आकाश से कल्पवृक्ष से फूल बरसाने लगे। सभी सनत्कुमार से कथा सुनने के लिए उत्सुक थे। सनत्कुमार श्रीमद्भागवत का माहात्म्य बताते हुए कहने लगे-यह कथा भगवान का ही रूप है इसे सदा पढ़ना या सुनना चाहिए। इसे अठारह हजार श्लोक और बारह स्कंध हैं। इसे शुकदेव ने परिक्षित को सुनाया था। मनुष्य जब तक इसे नहीं सुनता, उसकी मुक्ति नहीं होती।

हजार अश्वमेध तथा सौ बाजपेय यज्ञ श्रीमद्भागवत के सोलहवें भाग के बराबर नहीं है। इसका एक आधा श्लोक भी निरन्तर पढ़ते रहने से पपरमपद मिलता है। जो अपने जीवन में एक बार भी इस कथा को नहीं सुनता, उसका जीवन व्यर्थ है। ऐसे मनुष्य को घोर नरक में जाना पड़ता है। कलियुग में मनुष्य संयमी नहीं होता तथा उसकी आयु भी कम होती है। इसीलिए श्री शुकदेव ने इसकी कथा एक सप्ताह की रखी है। इससे जप, तप, योग आदि सभी का फल मिल जाता है। भगवान कृष्ण के बैकुंड लोक जाते समय उद्धव बोले—‘‘भगवान ! आप अपने धाम को जा रहे हैं। अब कलियुग आने वाला है। पृथ्वी पर अधर्म फैल जाएगा। तब पृथ्वी किसकी शरण में जाएगी ?’’ कृष्ण ने कहा—‘‘मेरा तेज भागवत में स्थित है। यह मेरा ही स्वरूप है। इसके दर्शन, अध्ययन या सुनने से सभी पाप दूर हो जाते हैं। कलियुग में यही कथा, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देगी।’’ इतना कहकर भगवान अपने लोक में चले गए।

सूत बोले—भगवान के मुँह से यह सुनकर उद्धव को बड़ी प्रसन्नता हुई। इसके बाद भगवान का जय-जयकार होने लगा। लोगों ने देखा कि भक्ति अपने पुत्रों ज्ञान-वैराग्य के साथ वहाँ पहुँची। उसके दोनों पुत्र फिर युवा हो गए थे। वह नृत्य करने लगी। सनत्कुमार ने कहा—‘‘ज्ञान-वैराग्य इस कथा के प्रभाव से युवक हो गए हैं। इस कथा से सभी दुख दूर हो जाते हैं। कलियुग का कोई भी प्रभाव दुःखी नहीं करता।’’   


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