ओशो साहित्य >> मैं मृत्यु सिखाता हूँ मैं मृत्यु सिखाता हूँओशो
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जीवन ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन ज्ञात नहीं होता, तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मुझे कहा गया है कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में बोलूं। यह असंभव है
बात। प्रश्न तो है सिर्फ जीवन का और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन
ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन ज्ञात नहीं होता,
तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है।
मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनु्ष्य अमृत है। समस्त जीवन अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आंख ही नहीं उठाते। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं। इसलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का।
मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनु्ष्य अमृत है। समस्त जीवन अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आंख ही नहीं उठाते। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं। इसलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का।
भूमिका
मैं आज ओशों के विचारों से उतना ही अभिभूत अनुभव करता हूं जितना पहली बार
हुआ था। नया-नया ‘धर्मयुग’ में सहायक संपादक हुआ था। उन दिनों
भारती जी (डा. धर्मवीर भारती, पूर्व संपादक ‘धर्मयुग’) के
निजी सचिवालय में कमलाकांत पाठक हिंदी के एक ऐसे स्टेनो-टाइपिस्ट थे जो
अपनी रफ्तार और शुद्धता दोनों के लिए बंबई में मशहूर थे। उन्हें उनके खाली
समय में ओशो के व्याख्यान ज्यों के त्यों, बोले रूप में टाइप करने के लिए
बुलाया जाता था।
उन व्याख्यानों का टाइप रूप पढ़ने का सुयोग सबसे पहले मुझे मिलता था। यह ही कड़ी थी जिसने मुझे ओशो का मुरीद बनाया। उनकी भाषा में व्यवहारिक-रचाव, विचारों में क्रांति का क्रमिक उद्घोष और शैली में अनूठापन मुझे इतना प्रिय लगा कि मैं उनका एक दक्ष संपादक बन गया। उनकी पुस्तक ‘महावीर वाणी’ को संपादित करने, उसके प्रवाह को अक्षुण्ण रखकर छोटे-छोटे रोचक शीर्षकों-उपशीर्षकों में बांधने का जिम्मा लेने का प्रलोभन मैं इसीलिए संवरण नहीं कर सका था क्योंकि उनका विचार मुझे जीवन से जोड़ता था। उनकी उन्मुक्तता मुझे अपनी जीवन-शैली में स्वतंत्रता के जयघोष का संबल महसूस होती थी। सड़ी-गली परंपरा से लड़ने और नये समाज के निर्माण के लिए वह एक ऐसी गली में ले जाती थी जिसकी अंधेरी गुफा के पार मुझे रोशनी का समंदर नजर आता था। उस समंदर में जीवन अपनी उन्मुक्त ठांठें भरता दिखता था।
बाद में जब मैं बंबई से दिल्ली आ गया तो दिनकर जी (स्व. रामधारी सिंह दिनकर) से कुछ वैचारिक क्रांतियों पर चर्चा के दौरान पता चला कि वे ओशों की ‘संभोग से समाधि की ओर’ कई बार इसलिए पढ़ चुके हैं कि वह दार्शनिक उन्हें नवीनता का बोध कराते हुए भी परंपरा से जोड़ता है और उदात्त बनाने की दिशा में प्रेरित कर देता है।
यह उदात्तता पारलौकिक नहीं, सर्वथा इसी लोक में उदात्त जीवन जी सकने की कुंजी थी, है और रहेगी, ऐसा मेरा मानना है।
जो लोग उनके उन्मुक्त जीवन जीने के उपदेश को यौन उच्छृंखलता सिखाने का पर्याय मानते रहे हैं वे देह के पुल पर खड़े रह जाने वाले लोग हैं। उनका कहना था, अगर देह बाधक है, जीवन की यात्रा में आपको अटकाती है, अवरोध बनकर प्रवाह को ठहराती है तो उस देह को पुल बनाओ और निस्संकोच उससे होकर देह के पार जाओ। जीवन को ठहराओ नहीं, नैसर्गिक रूप से बहाओ। पानी को ठहरने दोगे तो सड़ेगा, बदबू मारेगा। इसीलिए वे कहते थे : जीवन को सुगंध बनाओ। बिखेरो ठहराओ मत। क्योंकि ठहरना ही मृत्यु है।
तो क्या वे मृत्यु से विमुख थे ?
मात्र जीवन की आराधना करने वाले मृत्यु को जीवन का दुश्मन समझकर उसके विपरीक बोलते हैं। कमाल के थे ‘ओशो’। वे कहते हैं : ‘मैं मृत्यु सिखाता हूं। लेकिन इसका मतलब नहीं कि मैं जीवन का विरोधी हूं।’ उनके लिए जीवन और मृत्यु सिर्फ दो पलड़े हैं। मृत्यु के भय से त्रस्त लोगों ने भाग-भागकर जीवन के पलड़े में घुसना और उसी में सवार हो जाना अपना लक्ष्य बना लिया। नतीजा यह हुआ कि जीवन का पलड़ा भारी हो गया, संतुलन बिगड़ गया।
फिर निसर्ग को उस संतुलन को ठीक करने के लिए आगे आना होता है। इससे आपको मृत्यु और अधिक भयकारी लगने लगती है। मृत्यु रहस्यमयी हो जाती है।
मृत्यु के इसी रहस्य को यदि मनुष्य समझ ले तो जीवन सहज हो जाए। जीवन के मोह से चिपटना कम हो जाए तो अपराध कम हों। मृत्यु से बचने के लिए मनुष्य ने क्या-क्या अपराध नहीं किए, इसे अगर जान लिया जाए तो जीवन और मृत्यु का पलड़ा बराबर लगने लगे। इसलिए जीवन को जानने के बजाय यदि मृत्यु को जान लें तो फिर आप उसी अवस्था में होंगे जहां सिद्ध लोग होते हैं। ‘दुर्गाशप्तसती’ का पाठ करते हुए आस्थावान हिंदू ‘भयभ्यस्राहि नो देवि, दुर्गे देवि नमोस्तुते’ का महामंत्र जपते हैं। मृत्यु भय से मुक्ति जीवन का सुख देती है। इसलिए जब ओशो कहते हैं कि ‘मैं मृत्यु सिखाता हूं’ तो मुझे लगता है जीवन का सच्चा दर्शन तो इस व्यक्ति ने पकड़ रखा है, उसी के नजदीक, उसी के विचारों के करीब आपको यह पुस्तक ले जाती है।
जीवन को सहज, आनंद, मुक्ति और स्वच्छंदता के साथ जीना है तो इसके लिए आपको मृत्यु को जानकर, उसके रहस्य को समझकर ही चलना होगा। मृत्यु को जानना ही जीवन का मर्म पाना है। मृत्यु के घर में से होकर ही आप सदैव जीवित रहते हैं। उसका आलिंगन जीवन का चरम लक्ष्य बना लेने पर मृत्यु हार जाती है। इसी दृष्टि से ओशो की यह पुस्तक अर्थवान है।
उन व्याख्यानों का टाइप रूप पढ़ने का सुयोग सबसे पहले मुझे मिलता था। यह ही कड़ी थी जिसने मुझे ओशो का मुरीद बनाया। उनकी भाषा में व्यवहारिक-रचाव, विचारों में क्रांति का क्रमिक उद्घोष और शैली में अनूठापन मुझे इतना प्रिय लगा कि मैं उनका एक दक्ष संपादक बन गया। उनकी पुस्तक ‘महावीर वाणी’ को संपादित करने, उसके प्रवाह को अक्षुण्ण रखकर छोटे-छोटे रोचक शीर्षकों-उपशीर्षकों में बांधने का जिम्मा लेने का प्रलोभन मैं इसीलिए संवरण नहीं कर सका था क्योंकि उनका विचार मुझे जीवन से जोड़ता था। उनकी उन्मुक्तता मुझे अपनी जीवन-शैली में स्वतंत्रता के जयघोष का संबल महसूस होती थी। सड़ी-गली परंपरा से लड़ने और नये समाज के निर्माण के लिए वह एक ऐसी गली में ले जाती थी जिसकी अंधेरी गुफा के पार मुझे रोशनी का समंदर नजर आता था। उस समंदर में जीवन अपनी उन्मुक्त ठांठें भरता दिखता था।
बाद में जब मैं बंबई से दिल्ली आ गया तो दिनकर जी (स्व. रामधारी सिंह दिनकर) से कुछ वैचारिक क्रांतियों पर चर्चा के दौरान पता चला कि वे ओशों की ‘संभोग से समाधि की ओर’ कई बार इसलिए पढ़ चुके हैं कि वह दार्शनिक उन्हें नवीनता का बोध कराते हुए भी परंपरा से जोड़ता है और उदात्त बनाने की दिशा में प्रेरित कर देता है।
यह उदात्तता पारलौकिक नहीं, सर्वथा इसी लोक में उदात्त जीवन जी सकने की कुंजी थी, है और रहेगी, ऐसा मेरा मानना है।
जो लोग उनके उन्मुक्त जीवन जीने के उपदेश को यौन उच्छृंखलता सिखाने का पर्याय मानते रहे हैं वे देह के पुल पर खड़े रह जाने वाले लोग हैं। उनका कहना था, अगर देह बाधक है, जीवन की यात्रा में आपको अटकाती है, अवरोध बनकर प्रवाह को ठहराती है तो उस देह को पुल बनाओ और निस्संकोच उससे होकर देह के पार जाओ। जीवन को ठहराओ नहीं, नैसर्गिक रूप से बहाओ। पानी को ठहरने दोगे तो सड़ेगा, बदबू मारेगा। इसीलिए वे कहते थे : जीवन को सुगंध बनाओ। बिखेरो ठहराओ मत। क्योंकि ठहरना ही मृत्यु है।
तो क्या वे मृत्यु से विमुख थे ?
मात्र जीवन की आराधना करने वाले मृत्यु को जीवन का दुश्मन समझकर उसके विपरीक बोलते हैं। कमाल के थे ‘ओशो’। वे कहते हैं : ‘मैं मृत्यु सिखाता हूं। लेकिन इसका मतलब नहीं कि मैं जीवन का विरोधी हूं।’ उनके लिए जीवन और मृत्यु सिर्फ दो पलड़े हैं। मृत्यु के भय से त्रस्त लोगों ने भाग-भागकर जीवन के पलड़े में घुसना और उसी में सवार हो जाना अपना लक्ष्य बना लिया। नतीजा यह हुआ कि जीवन का पलड़ा भारी हो गया, संतुलन बिगड़ गया।
फिर निसर्ग को उस संतुलन को ठीक करने के लिए आगे आना होता है। इससे आपको मृत्यु और अधिक भयकारी लगने लगती है। मृत्यु रहस्यमयी हो जाती है।
मृत्यु के इसी रहस्य को यदि मनुष्य समझ ले तो जीवन सहज हो जाए। जीवन के मोह से चिपटना कम हो जाए तो अपराध कम हों। मृत्यु से बचने के लिए मनुष्य ने क्या-क्या अपराध नहीं किए, इसे अगर जान लिया जाए तो जीवन और मृत्यु का पलड़ा बराबर लगने लगे। इसलिए जीवन को जानने के बजाय यदि मृत्यु को जान लें तो फिर आप उसी अवस्था में होंगे जहां सिद्ध लोग होते हैं। ‘दुर्गाशप्तसती’ का पाठ करते हुए आस्थावान हिंदू ‘भयभ्यस्राहि नो देवि, दुर्गे देवि नमोस्तुते’ का महामंत्र जपते हैं। मृत्यु भय से मुक्ति जीवन का सुख देती है। इसलिए जब ओशो कहते हैं कि ‘मैं मृत्यु सिखाता हूं’ तो मुझे लगता है जीवन का सच्चा दर्शन तो इस व्यक्ति ने पकड़ रखा है, उसी के नजदीक, उसी के विचारों के करीब आपको यह पुस्तक ले जाती है।
जीवन को सहज, आनंद, मुक्ति और स्वच्छंदता के साथ जीना है तो इसके लिए आपको मृत्यु को जानकर, उसके रहस्य को समझकर ही चलना होगा। मृत्यु को जानना ही जीवन का मर्म पाना है। मृत्यु के घर में से होकर ही आप सदैव जीवित रहते हैं। उसका आलिंगन जीवन का चरम लक्ष्य बना लेने पर मृत्यु हार जाती है। इसी दृष्टि से ओशो की यह पुस्तक अर्थवान है।
कन्हैयालाल नन्दन
(हिन्दी जगत में श्री कन्हैयालाल नंनद एक जाना-माना स्वर हैं। बच्चों की
पत्रिका ‘पराग’ से लेकर जन-लोकप्रिय
‘धर्मयुग’ और
‘दिनमान’ आदि स्तरीय पत्रिकाओं के संपादन से श्री
नंदन
देश-विदेश में समान रूप से लोकप्रिय रहे हैं। अमेरिका, यूरोप, सोवियत
यूनियन आदि विश्व के अधिकांश देशों में विभिन्न सांस्कृतिक-साहित्यिक
संगोष्ठियों में भाग लेने के साथ ही साथ श्री नंदन एक उच्चकोटि के पत्रकार
भी हैं और उन्होंने पिछले तीन दशकों में विश्व के लगभग सभी अग्रणीय
व्यक्तियों के साक्षात्कार लिए हैं। आपने एक दर्जन से भी अधिक पुस्तकें
लिखी हैं जिनमें काव्य-संग्रह, निबंध-संग्रह, यात्रा-संस्मरण एवं रंगमंचीय
समालोचनाएं सम्मिलित हैं। विख्यात चित्रकार स्व. अमृतेश्वर गिल पर आपकी
लिखी जीवनी पर उ.प्र. सरकार ने अज्ञेय पुरस्कार प्रदान किया है। अन्य
पुरस्कारों में मीडिया इंडिया अवार्ड, भारतेंदु अवार्ड और मैन आफ दि डिकेड
अवार्ड सम्मिलित हैं। सम्प्रति श्री नंदन ‘संडे मेल’
साप्ताहिक समाचारपत्र एवं ‘समाचार मेल’ दैनिक पत्र के
प्रधान
संपादक हैं।’)
पहला प्रवचन
आयोजित मृत्यु अर्थात ध्यान
और समाधि के प्रायोगिक रहस्य
मेरे प्रिय आत्मन !
जीवन क्या है, मनुष्य इसे भी नहीं जानता है। और जीवन को हम न जान सकें, तो मृत्यु को जानने की तो कोई संभावना ही शेष नहीं रह जाती। जीवन ही अपरिचित और अज्ञात हो, तो मृत्यु परिचित और ज्ञात नहीं हो सकती सच तो यह है कि चूंकि हमें जीवन का पता नहीं, इसलिए ही मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन जानते हैं, उनके लिए मृत्यु एक असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है। जगत में कुछ शब्द बिलकुल झूठे हैं, उन शब्दों में कुछ भी सत्य नहीं है। उन्हीं शब्दों में मृत्यु भी एक शब्द है, जो नितांत असत्य है। मृत्यु जैसी घटना कहीं भी नहीं घटती। लेकिन हम लोग तो रोज मरते देखते हैं, चारों तरफ रोज मृत्यु घटती हुई मालूम होती है। गांव-गांव में मरघट हैं। और ठीक से हम समझें तो ज्ञात होता है कि जहां-जहां हम खड़े हैं, वहां-वहां न मालूम कितने मनुष्यों की अर्थी जल चुकी है। जहां हम निवास बनाए हुए हैं, उस भूमि के सभी स्थल मरघट रह चुके हैं। करोड़ों-करोड़ों लोग मरे हैं, रोज मर रहे हैं, अगर मैं कहूं कि मृत्यु जैसा झूठा शब्द नहीं है मनुष्य की भाषा में, तो आश्चर्य होगा।
एक फकीर तिब्बत में मारपा। उस फकीर के पास कोई गया और उसने कहा, अगर जीवन के संबंध में पूछना हो, तो जरूर पूछो, क्योंकि जीवन का मुझे पता है। रही मृत्यु, तो मृत्यु से आज तक कोई मिलना नहीं हुआ, मेरी कोई पहचान नहीं है। मृत्यु के संबंध में पूछना हो, तो उनसे पूछो जो मरे हुए हैं या मर चुके हैं। मैं तो जीवन हूं, मैं जीवन के संबंध में बोल सकता हूं, बता सकता हूं। मृत्यु से मेरा कोई परिचय नहीं।
यह बात वैसी ही है जैसी आपने सुनी होगी कि एक बार अंधकार ने भगवान से जाकर प्रार्थना की थी कि यह सूरज तुम्हारा, मेरे पीछे बहुत बुरी तरह से पड़ा हुआ है। मैं बहुत थक गया हूं। सुबह से मेरा पीछा होता है और सांझ मुश्किल से मुझे छोड़ा जाता है। मेरा कसूर क्या है ? कैसी दुश्मनी है यह ? यह सूरज क्यों मुझे सताने के लिए मेरे पीछे दिन-रात दौड़ता रहता है ? और रात भर में मैं दिनभर की थकान से विश्राम नहीं कर पाता हूं कि फिर सुबह सूरज द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है। फिर भागो ! फिर बचो। यह अनंत काल से चल रहा है। अब मेरे धैर्य की सीमा आ गई और मैं प्रार्थना करता हूं, इस सूरज को समझा दें।
सुनते ही भगवान ने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम अंधेरे के पीछे क्यों पड़े रहते हो ? क्या बिगाड़ा है अंधेरे ने तुम्हारा ? क्या है शत्रुता ? क्या है शिकायत ? सूरज कहने लगा, अंधेरा ! अनंत काल हो गया मुझे विश्व का परिभ्रमण करते हुए, लेकिन अब तक अंधेरे से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई। अंधेरे को मैं जानता ही नहीं। कहां है अंधेरा ? आप उसे मेरे सामने बुला दें, तो मैं क्षमा भी मांग लूं और आगे के लिए पहचान लूं कि वह कौन है ताकि उसके प्रति कोई भूल न हो सके।
इस बात को हुए भी अनंत काल हो गए। भगवान की फाइल में यह बात वहीं की वहीं पड़ी है। अब तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं बुला सके हैं। नहीं बुला सकेंगे। यह मामला हल नहीं होने का है। सूरज के सामने अंधकार कैसे बुलाया जा सकता है ? अंधकार की कोई सत्ता ही नहीं है, कोई एग्झिस्टेंस नहीं है। अंधकार की कोई पॉजिटिव, कोई विधायक स्थिति नहीं है। अंधकार तो सिर्फ प्रकाश के अभाव का नाम है। वह तो प्रकाश की गैर मौजूदगी है। वह तो एबसेंस है, वह तो अनुपस्थिति है। तो सूरज के सामने ही सूरज की अनुपस्थित को कैसे बुलाया जा सकता है ?
नहीं ! अंधकार को सूरज के सामने नहीं लाया जा सकता है। सूरज तो बहुत बड़ा है, एक छोटे से दीये के सामने भी अंधकार को लाना मुश्किल है। दीये के प्रकाश के घेरे में अंधकार का प्रवेश मुश्किल है। दीये के सामने मुठभेड़ मुश्किल है। प्रकाश है जहां, वहां अंधकार कैसे आ सकता है ! जीवन है जहां, वहां मृत्यु कैसे आ सकती है ! या तो जीवन है ही नहीं, और या फिर मृत्यु नहीं है। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।
हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश ! उस समय जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा-सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा। लेकिन उस प्रकाश को हम जानते नहीं है जो हम हैं, और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं जो हम नहीं है। उस प्रकाश से परिचित नहीं हो पाते जो हमारा प्राण है, जो हमारा जीवन है जो हमारी सत्ता है; और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं, जो हम नहीं हैं।
मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनुष्य अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आंख नहीं उठाते है। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते हैं। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं। इसीलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का।
मुझे कहा गया है कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में बोलूं। यह असंम्भव है बात। प्रश्न तो है सिर्फ जीवन का और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन ज्ञात नहीं होता, तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है। जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ कभी भी समस्या की तरह खड़े नहीं होते। यह तो हमें पता ही है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु नहीं है। और या हमें पता नहीं है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु ही है, जीवन नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ मौजूद नहीं होती हैं, नहीं हो सकती हैं। लेकिन हम सारे लोग मृत्यु से भयभीत हैं। मृत्यु का भय बताता है कि हम जीवन से अपरिचित हैं। मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है—जीवन से अपरिचय। और जीवन हमारे भीतर प्रतिपल प्रवाहित हो रहा है—श्वास-श्वास में, कण-कण में, चारों ओर, भीतर-बाहर सब तरफ जीवन है और उससे ही हम अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी नींद में है। नींद में ही हो सकती है यह संभावना कि जो हम हैं, उससे भी अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी मूर्च्छा में है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी के प्राणों की पूरी शक्ति सचेतन नहीं है अचेतन है, अनकांशस है, बेहोश है।
एक आदमी सोया हो तो उसे फिर कुछ भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से हूं ? नींद के अंधकार में सब डूब जाता है और उसे कुछ पता नहीं रह जाता है कि मैं हूं भी या नहीं हूं ? नींद का पता भी उसे तब चलता है, जब वह जागता है। तब उसे पता चलता है कि मैं सोया था, नींद में तो इसका पता ही नहीं चलता कि मैं सोया हूं। जब नहीं सोया था, तब पता चलता था कि मैं सोने जा रहा हूं। जब तक जागा हुआ था, तब तक पता था कि मैं अभी जागा हुआ हूं, सोया हुआ नहीं हूं। जैसे ही सो गया। उसे यह पता नहीं चलता कि मैं सो गया हूं। क्योंकि अगर पता चलता रहे कि मैं सो गया हूं, तो उसका यह अर्थ है कि आदमी जागा हुआ है। सोया हुआ नहीं है। नींद चली जाती है तब पता चलता है कि मैं सोया था। लेकिन नींद में पता नहीं चलता कि मैं हूं भी या नहीं हूं। जरूर मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता कि मैं हूं या नहीं हूं, या क्या हूं।
इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि कोई बहुत गहरी आध्यात्मिक नींद, कोई स्प्रिचुअल हिप्नोटिक स्लीप, कोई आध्यात्मिक सम्मोहन की तंद्रा मनुष्य को घेरे हुए है। इसीलिए उसे जीवन का पता नहीं चलता कि जीवन क्या है।
नहीं, लेकिन हम इनकार करेंगे। हम कहेंगे, कैसी आप बात करते हैं ? हमें पूरी तरह पता है कि जीवन क्या है। हम जीते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, सोते हैं।
एक शराबी भी चलता है, उठता है, बैठता है, श्वास लेता है, आंख खोलता है, बात करता है। एक पागल भी उठता है, बैठता है, सोता है, श्वास लेता है, बात करता है, जीता है। लेकिन न तो शराबी होश में कहा जा सकता है और न पागल सचेतन है, यह कहा जा सकता है।
एक सम्राट की सवारी निकलती थी एक रास्ते पर। एक आदमी चौराहे पर खड़ा होकर पत्थर फेंकने लगा और अपशब्द बोलने लगा और गालियां बकने लगा। सम्राट की बड़ी शोभायात्रा थी उस आदमी को तत्काल सैनिकों ने पकड़ लिया और कारागृह में डाल दिया। लेकिन जब वह गालियां बकता था और अपशब्द बोलता था, तो सम्राट हंस रहा था। उसके सैनिक हैरान हुए, उसके वजीरों ने कहा, आप हंसते क्यों हैं ? उस सम्राट ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, उस आदमी को पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी नशे में है। खैर, कल सुबह उसे मेरे समाने ले आएं। कल सुबह वह आदमी सम्राट के सामने लाकर खड़ा कर दिया गया। सम्राट उससे पूछने लगा, कल तुम मुझे गालियां देते थे, अपशब्द बोलते थे, क्या था कारण उसका ? उस आदमी ने कहा, मैं ! मैं और अपशब्द बोलता था ! नहीं महाराज, मैं नहीं रहा होऊंगा इसलिए अपशब्द बोले गए होंगे। मैं शराब में था, मैं बेहोश था, मुझे कुछ पता नहीं कि मैंने क्या बोला, मैं नहीं था।
हम भी नहीं हैं। नींद में हम चल रहे हैं, बात कर रहे हैं, प्रेम कर रहे है, घृणा कर रहे हैं, युद्ध कर रहे हैं। अगर कोई दूर के तारे से देख मनुष्य जाति को तो वह यह समझेगा कि सारी मनुष्य-जाति इस भांति व्यवहार कर रही है जिस तरह नींद में, बेहोशी में कोई व्यवहार करता हो।
तीन हजार वर्षों में मनुष्य-जाति ने पंद्रह हजार युद्ध किए हैं। यह जागे हुए मनुष्य का लक्षण नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी कथा, चिंता की, दुख की, पीड़ा की कथा है। आनंद का एक क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। आनंद का एक कण भी नहीं मिलता है जीवन में। खबर भी नहीं मिलती कि आनंद क्या है। जीवन बीत जाता है और आनंद की झलक भी नहीं मिलती। यह आदमी होश में नहीं कहा जा सकता है। दुख, चिंता, पीड़ा, उदासी और पागलपन—सारे जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा है।
लेकिन शायद हमें पता ही नहीं, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी हमारे जैसे सोए हुए लोग हैं। और कभी अगर एकाध जागा हुआ आदमी पैदा हो जाता है, तो हम सोए हुए लोगों को इतना क्रोध आता है उस जागे हुए आदमी पर कि हम बहुत जल्दी ही उस आदमी की हत्या भी कर देते हैं। हम ज्यादा देर उसे बर्दाश्त नहीं करते।<
जीवन क्या है, मनुष्य इसे भी नहीं जानता है। और जीवन को हम न जान सकें, तो मृत्यु को जानने की तो कोई संभावना ही शेष नहीं रह जाती। जीवन ही अपरिचित और अज्ञात हो, तो मृत्यु परिचित और ज्ञात नहीं हो सकती सच तो यह है कि चूंकि हमें जीवन का पता नहीं, इसलिए ही मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन जानते हैं, उनके लिए मृत्यु एक असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है। जगत में कुछ शब्द बिलकुल झूठे हैं, उन शब्दों में कुछ भी सत्य नहीं है। उन्हीं शब्दों में मृत्यु भी एक शब्द है, जो नितांत असत्य है। मृत्यु जैसी घटना कहीं भी नहीं घटती। लेकिन हम लोग तो रोज मरते देखते हैं, चारों तरफ रोज मृत्यु घटती हुई मालूम होती है। गांव-गांव में मरघट हैं। और ठीक से हम समझें तो ज्ञात होता है कि जहां-जहां हम खड़े हैं, वहां-वहां न मालूम कितने मनुष्यों की अर्थी जल चुकी है। जहां हम निवास बनाए हुए हैं, उस भूमि के सभी स्थल मरघट रह चुके हैं। करोड़ों-करोड़ों लोग मरे हैं, रोज मर रहे हैं, अगर मैं कहूं कि मृत्यु जैसा झूठा शब्द नहीं है मनुष्य की भाषा में, तो आश्चर्य होगा।
एक फकीर तिब्बत में मारपा। उस फकीर के पास कोई गया और उसने कहा, अगर जीवन के संबंध में पूछना हो, तो जरूर पूछो, क्योंकि जीवन का मुझे पता है। रही मृत्यु, तो मृत्यु से आज तक कोई मिलना नहीं हुआ, मेरी कोई पहचान नहीं है। मृत्यु के संबंध में पूछना हो, तो उनसे पूछो जो मरे हुए हैं या मर चुके हैं। मैं तो जीवन हूं, मैं जीवन के संबंध में बोल सकता हूं, बता सकता हूं। मृत्यु से मेरा कोई परिचय नहीं।
यह बात वैसी ही है जैसी आपने सुनी होगी कि एक बार अंधकार ने भगवान से जाकर प्रार्थना की थी कि यह सूरज तुम्हारा, मेरे पीछे बहुत बुरी तरह से पड़ा हुआ है। मैं बहुत थक गया हूं। सुबह से मेरा पीछा होता है और सांझ मुश्किल से मुझे छोड़ा जाता है। मेरा कसूर क्या है ? कैसी दुश्मनी है यह ? यह सूरज क्यों मुझे सताने के लिए मेरे पीछे दिन-रात दौड़ता रहता है ? और रात भर में मैं दिनभर की थकान से विश्राम नहीं कर पाता हूं कि फिर सुबह सूरज द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है। फिर भागो ! फिर बचो। यह अनंत काल से चल रहा है। अब मेरे धैर्य की सीमा आ गई और मैं प्रार्थना करता हूं, इस सूरज को समझा दें।
सुनते ही भगवान ने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम अंधेरे के पीछे क्यों पड़े रहते हो ? क्या बिगाड़ा है अंधेरे ने तुम्हारा ? क्या है शत्रुता ? क्या है शिकायत ? सूरज कहने लगा, अंधेरा ! अनंत काल हो गया मुझे विश्व का परिभ्रमण करते हुए, लेकिन अब तक अंधेरे से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई। अंधेरे को मैं जानता ही नहीं। कहां है अंधेरा ? आप उसे मेरे सामने बुला दें, तो मैं क्षमा भी मांग लूं और आगे के लिए पहचान लूं कि वह कौन है ताकि उसके प्रति कोई भूल न हो सके।
इस बात को हुए भी अनंत काल हो गए। भगवान की फाइल में यह बात वहीं की वहीं पड़ी है। अब तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं बुला सके हैं। नहीं बुला सकेंगे। यह मामला हल नहीं होने का है। सूरज के सामने अंधकार कैसे बुलाया जा सकता है ? अंधकार की कोई सत्ता ही नहीं है, कोई एग्झिस्टेंस नहीं है। अंधकार की कोई पॉजिटिव, कोई विधायक स्थिति नहीं है। अंधकार तो सिर्फ प्रकाश के अभाव का नाम है। वह तो प्रकाश की गैर मौजूदगी है। वह तो एबसेंस है, वह तो अनुपस्थिति है। तो सूरज के सामने ही सूरज की अनुपस्थित को कैसे बुलाया जा सकता है ?
नहीं ! अंधकार को सूरज के सामने नहीं लाया जा सकता है। सूरज तो बहुत बड़ा है, एक छोटे से दीये के सामने भी अंधकार को लाना मुश्किल है। दीये के प्रकाश के घेरे में अंधकार का प्रवेश मुश्किल है। दीये के सामने मुठभेड़ मुश्किल है। प्रकाश है जहां, वहां अंधकार कैसे आ सकता है ! जीवन है जहां, वहां मृत्यु कैसे आ सकती है ! या तो जीवन है ही नहीं, और या फिर मृत्यु नहीं है। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।
हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश ! उस समय जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा-सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा। लेकिन उस प्रकाश को हम जानते नहीं है जो हम हैं, और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं जो हम नहीं है। उस प्रकाश से परिचित नहीं हो पाते जो हमारा प्राण है, जो हमारा जीवन है जो हमारी सत्ता है; और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं, जो हम नहीं हैं।
मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनुष्य अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आंख नहीं उठाते है। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते हैं। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं। इसीलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का।
मुझे कहा गया है कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में बोलूं। यह असंम्भव है बात। प्रश्न तो है सिर्फ जीवन का और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन ज्ञात नहीं होता, तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है। जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ कभी भी समस्या की तरह खड़े नहीं होते। यह तो हमें पता ही है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु नहीं है। और या हमें पता नहीं है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु ही है, जीवन नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ मौजूद नहीं होती हैं, नहीं हो सकती हैं। लेकिन हम सारे लोग मृत्यु से भयभीत हैं। मृत्यु का भय बताता है कि हम जीवन से अपरिचित हैं। मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है—जीवन से अपरिचय। और जीवन हमारे भीतर प्रतिपल प्रवाहित हो रहा है—श्वास-श्वास में, कण-कण में, चारों ओर, भीतर-बाहर सब तरफ जीवन है और उससे ही हम अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी नींद में है। नींद में ही हो सकती है यह संभावना कि जो हम हैं, उससे भी अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी मूर्च्छा में है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी के प्राणों की पूरी शक्ति सचेतन नहीं है अचेतन है, अनकांशस है, बेहोश है।
एक आदमी सोया हो तो उसे फिर कुछ भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से हूं ? नींद के अंधकार में सब डूब जाता है और उसे कुछ पता नहीं रह जाता है कि मैं हूं भी या नहीं हूं ? नींद का पता भी उसे तब चलता है, जब वह जागता है। तब उसे पता चलता है कि मैं सोया था, नींद में तो इसका पता ही नहीं चलता कि मैं सोया हूं। जब नहीं सोया था, तब पता चलता था कि मैं सोने जा रहा हूं। जब तक जागा हुआ था, तब तक पता था कि मैं अभी जागा हुआ हूं, सोया हुआ नहीं हूं। जैसे ही सो गया। उसे यह पता नहीं चलता कि मैं सो गया हूं। क्योंकि अगर पता चलता रहे कि मैं सो गया हूं, तो उसका यह अर्थ है कि आदमी जागा हुआ है। सोया हुआ नहीं है। नींद चली जाती है तब पता चलता है कि मैं सोया था। लेकिन नींद में पता नहीं चलता कि मैं हूं भी या नहीं हूं। जरूर मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता कि मैं हूं या नहीं हूं, या क्या हूं।
इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि कोई बहुत गहरी आध्यात्मिक नींद, कोई स्प्रिचुअल हिप्नोटिक स्लीप, कोई आध्यात्मिक सम्मोहन की तंद्रा मनुष्य को घेरे हुए है। इसीलिए उसे जीवन का पता नहीं चलता कि जीवन क्या है।
नहीं, लेकिन हम इनकार करेंगे। हम कहेंगे, कैसी आप बात करते हैं ? हमें पूरी तरह पता है कि जीवन क्या है। हम जीते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, सोते हैं।
एक शराबी भी चलता है, उठता है, बैठता है, श्वास लेता है, आंख खोलता है, बात करता है। एक पागल भी उठता है, बैठता है, सोता है, श्वास लेता है, बात करता है, जीता है। लेकिन न तो शराबी होश में कहा जा सकता है और न पागल सचेतन है, यह कहा जा सकता है।
एक सम्राट की सवारी निकलती थी एक रास्ते पर। एक आदमी चौराहे पर खड़ा होकर पत्थर फेंकने लगा और अपशब्द बोलने लगा और गालियां बकने लगा। सम्राट की बड़ी शोभायात्रा थी उस आदमी को तत्काल सैनिकों ने पकड़ लिया और कारागृह में डाल दिया। लेकिन जब वह गालियां बकता था और अपशब्द बोलता था, तो सम्राट हंस रहा था। उसके सैनिक हैरान हुए, उसके वजीरों ने कहा, आप हंसते क्यों हैं ? उस सम्राट ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, उस आदमी को पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी नशे में है। खैर, कल सुबह उसे मेरे समाने ले आएं। कल सुबह वह आदमी सम्राट के सामने लाकर खड़ा कर दिया गया। सम्राट उससे पूछने लगा, कल तुम मुझे गालियां देते थे, अपशब्द बोलते थे, क्या था कारण उसका ? उस आदमी ने कहा, मैं ! मैं और अपशब्द बोलता था ! नहीं महाराज, मैं नहीं रहा होऊंगा इसलिए अपशब्द बोले गए होंगे। मैं शराब में था, मैं बेहोश था, मुझे कुछ पता नहीं कि मैंने क्या बोला, मैं नहीं था।
हम भी नहीं हैं। नींद में हम चल रहे हैं, बात कर रहे हैं, प्रेम कर रहे है, घृणा कर रहे हैं, युद्ध कर रहे हैं। अगर कोई दूर के तारे से देख मनुष्य जाति को तो वह यह समझेगा कि सारी मनुष्य-जाति इस भांति व्यवहार कर रही है जिस तरह नींद में, बेहोशी में कोई व्यवहार करता हो।
तीन हजार वर्षों में मनुष्य-जाति ने पंद्रह हजार युद्ध किए हैं। यह जागे हुए मनुष्य का लक्षण नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी कथा, चिंता की, दुख की, पीड़ा की कथा है। आनंद का एक क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। आनंद का एक कण भी नहीं मिलता है जीवन में। खबर भी नहीं मिलती कि आनंद क्या है। जीवन बीत जाता है और आनंद की झलक भी नहीं मिलती। यह आदमी होश में नहीं कहा जा सकता है। दुख, चिंता, पीड़ा, उदासी और पागलपन—सारे जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा है।
लेकिन शायद हमें पता ही नहीं, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी हमारे जैसे सोए हुए लोग हैं। और कभी अगर एकाध जागा हुआ आदमी पैदा हो जाता है, तो हम सोए हुए लोगों को इतना क्रोध आता है उस जागे हुए आदमी पर कि हम बहुत जल्दी ही उस आदमी की हत्या भी कर देते हैं। हम ज्यादा देर उसे बर्दाश्त नहीं करते।<
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