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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3736
आईएसबीएन :9788183616621

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


किन्तु इधर न चाहने पर भी उसे उस विलासी परिवार की झाँकियाँ देखने को मिलती रहतीं। प्रायः ही वह देखती, फिएट गाड़ी को हवा के वेग से भगाते, बड़े राजा के दोनों सुदर्शन बेटे, अपने मित्रों की टोली को लेकर आते और बड़ी रात तक, उसी के कमरे से सटे कमरे में सारी रात धमाचौकड़ी मचाते। बरामदे में ही वाशबेसिन लगा था, वहीं राजकमल सिंह के बड़े भाई शिवकमलसिंह, अपनी हीलचेयर की घर-घर से उसे तड़के ही उठा देते। वर्षों पूर्व मचान से गिरकर उनकी रीढ़ की हड्डी में जो चोट आई थी वह उन्हें जीवन-भर के लिए पंगु बना गई थी। उनकी प्रातःक्रिया का भयावह रूप देखकर, वह पहले दिन तो सहम ही गई थी, खाक-खाक खर्र-खरी सुनकर लगता, जीभ को ही जड़ से उखाड़कर बाहर फेंक रहे हैं। पक्षाघात के दो झटकों ने उनकी वाणी को भी अस्पष्ट बना दिया था। गोंगिया कर न जाने किन-किन नौकरों के नाम ले-लेकर पूरे घर को सिर पर उठा लेते थे। एक दिन वह लॉन में अकेली टहल रही थी, इतने तड़के हवेली में कोई उठता नहीं था, इसी से उस क्षणिक एकान्त का सुअवसर पाकर ही वह टहलने निकली थी। जब से लखनऊ छोड़ा था, खुले आकाश के नीचे पल-भर साँस लेने को वह तरस-तरस गई थी। सहसा कोलाहल सुनकर उसने चौंककर देखा, एक पल को वह विमूढ़ खड़ी देखती रह गई थी, एकदम दिगम्बर बने बड़े राजा निर्वस्त्र अपनी कुर्सी पर बैठे थे। उनकी गौर नग्न देह खून से तर थी, दो-तीन नौकर उसी रक्त को उनके सर्वांग में बार-बार पोतते जा रहे थे और छज्जे पर दिखी वही स्थूलांगी महिला, अपने मर्दाने कंठ से उन्हें आदेश दे रही थी-- “पुढे पर मलो, अब जाँघ पर, जोर-जोर से..." निरीह गोंगिया रहे शिवकमल सिंह न जाने क्या कहने की चेष्टा कर रहे थे। सहसा उनकी दृष्टि नीचे खड़ी कुमुद पर पड़ी, वहीं से चीखकर उन्होंने अपने विकृत स्वर का ऐसा चाबुक मारा कि वह तिलमिला गई-"भाग, भाग..." जैसे सड़क के कुत्ते को दुतकार रहे हों।

“कौन है?" स्थूलांगी महिला अपनी विराट् कटि परिधि पर हाथ टिकाए आगे बढ़ी-"वही है छुटके राजा की रखैल!"

अपमान से कुमुद के दोनों कान झनझना उठे, वह तेजी से कमरे में चली आई। छिः छिः, कैसे ओछे लोग थे वे! इस मर्यादाहीन प्रतिवेशी परिवार से वह आखिर कब तक बच पाएगी! आज बरामदे में खड़ी होकर स्थूलांगी ने जो निर्लज्ज घोषणा की थी, उसे वहाँ खड़े नौकरों ने भी तो सुना होगा! वह उस आकस्मिक धक्के से ऐसी स्तब्ध हो गई थी कि नहाना भी भूल गई। रामपियारी जब एकदम ही उसके पास आकर खड़ी हो गई, तब वह चौंकी।

"काहे, मिस साहब, बहुत डराय गईं? हम सब सुनत रहे, अरे बुढ्ढा सठियाव गवा है, जब से फालिज गिरी है, हर अतवार-मंगल, जंगली कबूतर केर खून की मालिश करात है बुढ़वा, मादरजात नंगा बैठा रहा, तुमका देख लिहिस तो बौरा गवा...इहाँ का मानुस रहत हैं? सब बनमानुस हैं, मिस साहब, बनमानुस!"

ठीक ही कहा था उसने। बड़े राजा के बड़े बेटे ने किसी मेम से विवाह किया था और वह अपनी पत्नी को लेकर अपनी चीनी मिल के अहाते में, अपनी नवनिर्मित कोठी में रहने चला गया था।

"बड़ा गोश्त खाती है मेमवा, खनसामा बतात रहा हमें, बिना गाय के गोश्त के गस्सा नहीं तोड़ती ससुरी, अउर सास है भैंसिया कि एक दिन हम से छुय गई तो चट्ट से नहाई डारिन!"

कभी-कभी वह अपने पुत्र-पत्नी सहित हवेली में आता तो उसके पुत्र को बाबा गाड़ी में घुमाती आया, प्रायः ही कुमुद को दिख जाती। एक दिन बीड़ी सुलगाने में उसने गाड़ी को छोड़ दिया और ढलान में ढलकती गाड़ी ठीक उसी की खिड़की के नीचे रुक गई थी। सहमकर वह पीछे हट गई। कैसी विचित्र बनावट थी निर्विकार चेहरे की! भावशून्य आँखों की पुतलियाँ एकदम स्थिर, मुँह से टपकती लार और असहाय विवशता में इधर-उधर लुढ़कती गर्दन! चमड़े की पेटियों से उस मंगोल बालक को बड़ी निर्ममता से कसकर, गाड़ी से बाँध दिया गया था। ठीक ही कह रही थी रामपियारी, यह . अभिशप्त हवेली, मानुस नहीं बनमानुसों का ही डेरा थी। मँझले राजा कृष्णकमल सिंह का एक हाथ ही कभी किसी शिकार-पार्टी में स्वयं अपनी ही राइफल से कुहनी से विलग हो गया था। रेशमी कुर्ते की बाँह से झूलता वह निर्जीव हाथ भी वह देख चुकी थी। चेहरा बहुत कुछ अपने छोटे भाई से मिलता था, वैसी ही बड़ी-बड़ी आँखें, वही रंग, ऊँची काठी, किन्तु एक ही बार उन कुटिल आँखों के चाबुक की मार उस पर पड़ी थी और वह काँप उठी थी। वह बालों को अँगुलियों से सुलझा रही थी कि उसने देखा उद्यान में लगे संगमरमरी फौवारे के पास खड़े कृष्णकमल सिंह उसे बड़ी निर्लज्जता से घूरे जा रहे हैं। अचकचाकर वह पीछे हटने ही को थी कि वह बड़ी कुटिल अन्तरंगता से मुसकराए! तब ही उसने, उस रेशमी कुरते से झूलती निर्जीव बाँह को देख लिया था। तो यही थे उस साँवली चुलबुली प्रौढ़ा के पति, मँझले राजा। दो भाइयों के चेहरे थे, किन्तु राजकमल सिंह की विनम्र सौम्यता के गाम्भीर्य और इस भाले की जहरीली नोंक-सी दृष्टि में कितना अन्तर था!

दूसरे ही दिन उसने रामपियारी से कहा था-"साहब से कहना, मैं उसी कमरे में रहूँगी, जहाँ पहली मिस साहब रहती थीं।"

"हाय दैया, दहल जइयो बिटिया, बड़ा मनहूस कमरा है..."

उस कमरे के चारों ओर सटे अनेक कमरों से घिरी रहने पर उस कुटिल व्यक्ति को देखने का भय तो नहीं रहेगा। शायद, उस एकान्त कमरे के बदनाम अतीत से उसके त्रस्त होने की संभावना ने ही रामपियारी के वात्सल्य को सहसा उकसा दिया-"चलो, हमहूँ इहाँ खटिया डार लेब बिटिया...'

"नहीं पियारी मैं नहीं डरती", उसने हँसकर पियारी के उदार प्रस्ताव की अवमाना तो कर दी पर रात को जब दस ही बजे से खिड़की से सटे अश्वत्थ की घनी छालों से उल्लू की मनहूस आवाज आने लगी और सड़क के कुत्तों के समवेत स्वर के बीच किसी एक भयत्रस्त कुत्ते का 'हू हू' का विलाप स्वर, रात्रि की निस्तब्धता को भंग कर उठा तो वह बत्ती जलाकर बड़ी देर तक बैठी रही।

सिर के ऊपर पंखा चल रहा था, वही पंखा, जिससे एक वर्ष पूर्व केरल की मरियम की निर्जीव देह झूली होगी। फिर कब उसकी आँखें लग गईं, वह जान भी नहीं पाई। जब जगी तो देखा, काशी चाय की ट्रे लिये द्वार पर खड़ी है।

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