नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द) चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
उन्होंने अपना कुशासन उसकी ओर बढ़ा दिया और स्वयं मृगचर्म पर बैठ गए।
"मैं आपसे एक राय लेने आई थी..." उसका कंठ सहसा भर्रा गया। इस सन्त के सम्मुख
वह कैसे कह पाएगी कि वह अकारण ही बिना किसी अपराध के अपराधिनी बना दी गई है।
“पूछो बेटी, क्या पूछोगी..."
कुमुद की निर्भीक दृष्टि उस तेजस्वी चेहरे की ओर उठी, नवजात शिशु की-सी चिकनी
त्वचा, वही निष्पाप भोली चावनी, दन्तहीन निर्दोष हँसी, परमहंस क्या ऐसे ही
सन्तों को कहते होंगे? उसी दिव्य उपस्थिति ने उसकी वाणी को सहसा मुखर बना
दिया, उसने उनसे कुछ भी नहीं छिपाया, एक-एक बात कह गई, लालू की आवारागर्दी,
उमा का निर्लज्ज आचरण, धर्मभीरू सरला जननी की व्यथा और स्वयं अपनी विवशता,
उन्मादिनी स्वामिनी का अत्याचार, उदार गृहस्वामी का सहयोग और अन्त में नियति
का वह छलनामय प्रहार।
“अब आप ही बताइए, मैं क्या करूँ...मैं चली गई और मेरे जाने के बाद राजा साहब
को कुछ हो गया तो जीवन भर मैं अपनी प्रवंचना को क्षमा नहीं कर पाऊँगी, इतनी
बड़ी हवेली में उनकी ठीक से देखभाल करनेवाला न कोई स्वामिभक्त सेवक है, न
सेविका। पत्नी उन्मादिनी है, दोनों भाई उनकी जान के दुश्मन हैं, पियरी बता
रही थी, मध्यप्रदेश से किसी ऐसे सिद्ध औघड़ को बुलाकर तन्त्र-मन्त्र चला रहे
हैं, जैसे देश के वरिष्ठ नेता एक-दूसरे पर मूठ चलवाते हैं। यहाँ रहती हूँ तो
सबकी दृष्टि में मैं दुराचारिणी हूँ--राजा साहब की रखैल..." घर पर लौटने पर
कुमुद स्वयं अपनी जिह्वा के अस्वाभाविक निर्लज्ज आचरण से रसातल में फँस गई
थी। छिः-छिः कैसे वह उस सस्ते बाजारू शब्द को जिहाग्र पर ला सकी थी. वह भी उस
देवतल्य सन्त के सम्मुख!
बड़ी देर तक आँखें मूंदे कविराज निःशब्द बैठे रहे, घन श्वास-निःश्वास में
उनके गौर उदर की गोलाकार परिधि, रह-रहकर उठ-गिर रही थी। ठीक जैसे उस दिन
आँखें बन्द कर दीर्घ समय तक राजा साहब की नाड़ी थामे, शरीर में छिपी कुटिल
व्याधि का सूत्र पकड़ रहे थे। अन्तर यही था कि आज मन की अदृश्य नाड़ी उनके
हाथ में थी, अब उनसे कुमुद कुछ भी नहीं छिपा पाएगी, कुमुद भी समझ गई कि उसके
सम्मुख बैठा यह सरल, अर्द्धनग्न धन्वन्तरि, तन ही का नहीं, मन का भी
धन्वन्तरि है।
"मैं जो कहूँगा, उसे मानोगी?" कविराज की आँखें खुलीं और उनकी ओर एक बार देखकर
ही कुमुद ने आँखें झुका लीं। उसे लगा उस तीव्र रेडियम लगी दृष्टि का तेज वह
सह नहीं पाएगी-दहकती लौह शलाका-सी वह दृष्टि उसके अन्तर तक धंसती चली गई-
"जी हाँ।"
"तब तुम जितनी जल्दी हो सके, यहाँ से चली जाओ बेटी-तत्काल यह हवेली छोड़ दो,
हो सके तो अभी इसी क्षण!"
"लेकिन" कुमुद को शत-शत संशयों ने बींध दिया, न राजासाहब का बुखार उतरा था, न
डाक्टर चक्रवर्ती से ही अभी कुछ कह पाई थी, फिर वह कर्जा जो उसे उठते-बैठते
डंक मार रहा था, उसे कर्ज देनेवाला होश में आए।
"तुमने मुझसे अपनी मानस-व्याधि का निदान ही करने को कहा था न बेटी! जाओ,
ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें..." और वह फिर उसकी ओर पीठ कर ध्यानावस्थित हो
गए।
कुमुद ने वहीं घुटने टेककर उन्हें प्रणाम किया और चुपचाप बाहर निकल गई।
कविराज के पास बैठकर, एकाएक उसका चित्त स्वयं चिन्तामग्न हो उठा था। ठीक ही
कहा था उन्होंने, उसे तत्काल हवेली छोड़नी होगी। किन्तु कहकर जाना उसके लिए
फिर सहज नहीं होगा, एक पत्र लिखकर मेज पर धर जाएगी और रात की गाड़ी से चली
जाएगी।
रात की गाड़ी से जाना इतना कठिन होगा, यह वह तब नहीं जान पाई थी। अपनी ड्यूटी
पर गई, तो देखा डाक्टर चक्रवर्ती गम्भीर मुखमुद्रा बनाए रोगी के सिरहाने बैठे
हैं-
"मिस जोशी," उसे देखते ही वह उसकी ओर बढ़ आए-"यह कल क्या चलकर अपनी पत्नी के
कमरे तक गए थे?"
“जी।"
"कैसे चल पाए वहाँ तक? कुछ उत्तेजित हो गए थे क्या? पल्स बेहद फास्ट चल रही
है।"
“जी हाँ, कल वह एकाएक वायलेंट हो गई थीं, मेरा गला दबोच दिया, मैं चीख पड़ी
और शायद मेरी चीख सुनकर घबराकर वहाँ आ गए..."
“ओह आई सी-देखिए मिस जोशी, थोड़े दिन आप काशी से कहिए, उन्हें देखे। आप
इन्हें एक पल को भी न छोड़ें, कभी ऐसे ही बाहर निकल गए तो न्यूमोनिया हो सकता
है! समझ में नहीं आता जो करवट बदलने में भी कराह रहे थे, वह उस कमरे तक चलकर
कैसे पहुँचे!"
किन्तु कुमुद को आश्चर्य नहीं हुआ था, बहुत पहले उसके चाचा सन्निपात में ऐसे
ही बहककर निशातगंज के पुल से गोमती में कूद गए थे, दूसरे दिन उनकी लाश ही
किनारे लगी थी। यदि उसके जाने के बाद ऐसा ही उल्टा-सीधा कुछ कर बैठे, तो वह
क्या कभी अपने को क्षमा कर पाएगी? किन्तु कविराज के शब्द रात भर उसके कानों
में गूंजते रहे और वह करवटें बदलती रही।
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