नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
अन्नपूर्णा थालियों में खाना परस वहीं ले आई थी।
"यहाँ?" आश्चर्य से कालिंदी ने पूछा, "मामा, क्या आप अपने सब अदब-कायदे दिल्ली में ही छोड़ आए?"
"और क्या बेटी, जो मजा यहाँ हीटर के पास बैठकर खाने में है, वह मेज कहाँ-बल्कि मैं तो अक्सर चौके ही में पटला डालकर बैठ जाता हूँ। तेरी भाभी गर्म-गर्म रोटी तवे से निकाल, सीधे मेरी थाली में उछाल देती है-कहीं कोई बिचौलिया नहीं-राइट फ्राम दी फ्राइंग पैन।"
कालिंदी उस दिन एक के बाद एक, न जाने कितनी रोटियाँ खा गई थी-बाप रे, कैसी भूख लगती है यहाँ! खाकर अम्मा के बगल में लेटी तो ऐसी नींद आई कि सूरज उगने पर भी सोती ही रही।
दूसरे दिन भी वह सोई ही रही, और मामा अपने मित्र बसन्त मामा की बीमार पत्नी को देखने निकल गए-लौटे तो दिन चढ़ आया था।
“क्यों, आप इतनी सुबह कहाँ चले गए थे मामा? कुहरा भी नहीं छंटा था..."
"बसन्त मामा की पत्नी बहुत बीमार है कालिंदी, लकुआ पड़ गया है, उठ-बैठ भी नहीं सकती।"
"हाय, वह तो एक दम मोटी-तगड़ी थीं, और कितनी सुन्दर थीं अम्मा!"
"अब कहाँ रह गई है वैसी, तू भी कल मामा के संग देख आना। पहचानती तो अभी भी है-बस, बोल नहीं सकती, तुझे देखकर खुश हो जाएगी। कितना प्यार करती थी तुझे! 'चड़ी' नाम तेरा उसी ने तो धरा था।"
दूसरे ही दिन वह मामा के साथ लाल मामी को देखने पहुंच गई थी। कभी मामी के रंग के कारण ही उनका यह नाम पड़ गया था। किसी की लाल मामी थी, किसी की लाल चाची और किसी की लाल भाभी!
लाल मामी आँगन में ही एक झूले-सी पलंग पर पड़ी थी। हड्डियों का ढाँचा, दोनों ओर से बहुत भीतर घुस गई कनपटियाँ, सूखे ओठों पर पपड़ियाँ और चीकट से तकिए पर लटकी उनकी बेजान बटेर-सी गर्दन!
छिः-छिः, इतने वर्षों से विदेश में प्रवासी पुत्र, माँ की इस दुरवस्था में भी उसे देखने नहीं आ सका? वहाँ की प्रथानुसार तो वह नित्य ही लगभग नई-नई चादरें ट्रैशकैन में फेंक देता होगा, यहाँ उसकी माँ जीर्ण-शीर्ण बिस्तर पर पड़ी, असहाय रिक्त दृष्टि से, क्या अपने उसी खोए पुत्र को शून्याकाश में ढूँढ़ रही थी? लग रहा था, बेटे ही के लिए हड्डियों के उस ढाँचे में कहीं उनके प्राण अटककर रह गए हैं।
"मामी, ओ लाल मामी, पहचाना मुझे?” फिर बिस्तर से उठ रहे दुर्गंध के भभके को बरबस ठेलती वह उस कंकाल पर झुक गई थी।
“लाल मामी, बता तो मैं कौन हूँ?" उसने बड़ी ललक से पूछा।
"वह क्या बोल सकती है चेली, बोल पाती तो तुझे देखते ही पुकारती, 'चड़ी, चड़ी' पर तुझे पहचान लिया है, देख...” कह अवरुद्ध अश्रुजड़ित कंठ से बसन्त मामा ने अवश पड़ी पत्नी की आँखों की ओर अँगुली दिखाईआँखों की कोर पर, विवश अश्रुबिन्दु, धंसे कपोलों पर टपकने को तत्पर थे। उसने मामी का हाथ थाम लिया-बरसों तक काम करते-करते घिस गई काँच की चूड़ियों में सामान्य-सा स्पन्दन हुआ-यह क्या पहचान की खनक थी?
इन्हीं अँगुलियों ने, बचपन में कैसी-कैसी केशसज्जाओं में उसकी मोटी चोटी को सँवारा है। चोटी गूंथना लाल मामी की हॉबी थी। मुहल्ले-भर की बहू-बेटियों को इकट्ठा कर, वह छपछप तेल ठोंकती फिर उनकी चोटियाँ गूँथती-कभी ढीली, कभी कसी, कभी गढ़वाली और कभी नेपाली।
"तू तो अब डॉक्टरनी बन गई है चड़ी, एक दिन अब अपनी मामी की जाँच कर डाल..." बसन्त मामा देवेन्द्र मामा से वयस में छोटे होने पर भी एकदम बूढ़े लगने लगे थे, खल्वाट के बीच चमकती उनकी दूधिया चमड़ी और पोपला मुँह।
"क्यों नहीं मामा, आप मत घबड़ाइए, एकदम ठीक हो जाएगी मामी।"
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