लोगों की राय

नारी विमर्श >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3745
आईएसबीएन :81-216-0178-9

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

426 पाठक हैं

शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण


ऐसा नहीं है कि आज ऐसी प्रतिमा का नितान्त अभाव है, किन्तु अगाध लोकप्रियता, वैसी ही भारी पारिश्रमिक की धनराशि, अनावश्यक चाटुकारिता ने कुछ अंशों में हमारे कलाकारों की उच्च नासिका को बढ़ा ही दिया है। इसी से हमें बेगम अख्तर जैसी संगीत साधिका के जीवन से शिक्षा लेनी चाहिए। मैंने कई बार देखा था कि वह अपनी असंख्य शिष्याओं में से अनेक को अपने साथ मंच पर बिठा, अपने गाने की एक आध पंक्ति गाने का भी सुअवसर देती थीं उनमें से प्रत्येक प्रतिभाशालिनी सुकंठी गायिका हो, ऐसी बात नहीं थी। मैंने एक बार कहा भी, तो बोलीं, 'देखो, इससे उनका हौसला बढ़ता है, तो हर्ज़ ही क्या है?'

वर्षों पूर्व, उन पर एक लेख लिख रही थी। उनकी एक शर्त थी, लेख छपने से पहले उन्हें सुनाना होगा, कोई भी पंक्ति उन्हें नहीं रुची तो उसे काटना पड़ेगा। उनके पति अब्बासी साहब से भी मेरा परिचय उतना ही प्रगाढ़ था। ऐसे आनन्दी प्रकृति के शिष्ट स्नेही व्यक्ति बहुत कम ही होते हैं। 'आकाशवाणी' के ऑडिशन बोर्ड में उनके साथ लम्बे अर्से तक रही थी। ईद के दिन मेरी परिक्रमा उन्हीं की कोठी से प्रारम्भ होती थी। छोटे कमरे में आलमारी में ठसी पुस्तकें, लम्बी बारादरी में लगा झूला, तख्त पर बिछी चाँदनी, उस पर पानदान सामने धर, राजमहिषी-सी विराज रही होती अम्मी (बेगम अख्तर)।

एक दिन मैं कुछ देर से पहुंची तो बोलीं, 'अख्खाह, अब लगा ईद आई....' फिर मुझे छेड़ने मेरी ओर सिगरेट केस बढ़ा हँस पड़ीं। जिस दिन मेरा लेख पूरा हुआ, दोनों ने एकसाथ सुना। उनकी आँखें छलछला आईं, बोलीं, 'अल्लाह जानता है, हम पै बहुत लिखा गया है, पर इत्ता उमदा किसी ने नहीं लिखा।'

वही लेख 'कोयलिया मत कर पुकार' 'नवनीत' में छपा। मैं एक कॉपी लेकर गई, तो उन्होंने मुझे जो पुरस्कार दिया, वह आज तक मेरी अँगुली से विलग नहीं हुआ।

वह दिलकश आवाज़, स्नेह से छलकती वे रससिक्त आँखें और वह स्वरभंग होती हँसी मेरे जीवन की संचित बहुमूल्य धरोहर हैं।

सौभाग्य से, अपने इस दीर्घजीवन में अनेक स्वनामधन्या सुरसाधिकाओं को सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, मंगूबाई करडीकर, जद्दनबाई, दुलारी, कज्जन, राधारानी, असग़री, सिद्धेश्वरी देवी और भले ही मेरी वह कच्ची वयस, उन कंठों की सिद्ध बाजीगरी आँकने की क्षमता न रखती हो, उनके शिष्ट सुघड़ सलीक़ेदार मंचीय शिष्टाचार को तो समझ ही सकी थी। ऐसे ही एक अद्भुत कंठ की महिमा मैं आज तक नहीं भूल पाई हूँ। प्रचार-प्रसार से बहुत दूर अपनी संगीत की दुनिया में स्वयं तिरोहित हो गए महाराज ओरछा के ए.डी.सी. राम नज़रबख्श सिंह। देखने में काले, ऊँचे रोबदार आकृति के स्वामी, किन्तु गाने लगते तो अमृत बरसता। भैरवी में स्वयं निबद्ध की गई उनकी ‘ये न थी हमारी क़िस्मत जो विसाले यार होता' की तड़प सुननेवालों को सचमुच तड़पा देती।

वे स्वयं अवध के प्रसिद्ध ताल्लुकेदार के परिवार में जन्मे थे। न जाने कैसे ओरछा आकर महाराज बीरसिंहजू देव के ए.डी.सी. बन गए। उनके पास ऐसी-ऐसी बंदिशों का भंडार था, जो उनके साथ ही विलुप्त हो गया। उन्हें लोग बी.एन.आर. नाम से ही पुकारते थे। मेरे भाई के मित्र थे, जो स्वयं भी संगीत प्रेमी थे और यही कारण था कि दोनों की मैत्री और प्रगाढ़ हो गई। हमारे यहाँ आते तो घंटों संगीत की महफ़िल जमती। बी.एन.आर. भैया में एक ऐब था। ऐसा धाकड़ पीनेवाला शायद ही रियासत में कोई और हो! पर पीने पर ही वे अपने असली रंग में आते। बेगम अख्तर से उनका परिचय तब का था, जब वह गाने के लिए हैदराबाद गई थीं और निज़ाम ने उनकी प्रत्येक फ़रमाइश पूरी की थी।

वह ही सुनाते थे कि 'उस रसपगी महफ़िल में मैं भी था। क्या गाया था अख्तरी ने! वैसी गायकी फिर कभी नहीं सुनी। एक के बाद एक तोहफ़े आते रहे। अन्त में निज़ाम ने पूछा, और कुछ?'

'जी' बेगम अख्तर ने सोचा ऐसी चीज माँगें, जो उस शाही दरबार में तत्काल पेश न की जा सके, ‘आँवले का मुरब्बा' उन्होंने कहा और पलक झपकते ही बड़ी-बड़ी बेहंगियों में अमृतबान लटकाए पेशेदारों ने तत्काल मनचाही फ़रमाइश पूरी करके दिखा दी। ऐसे न जाने कितने किस्से उनके पास संचित थे। मुझे उन्होंने ऐसे कितने ही दुर्लभ दादरे सिखाए। उनकी एक प्रिय रचना राजा महमूदाबाद रचित विहाग में उन्होंने स्वयं निबद्ध की थी। हमने यह एक बार अख्तरी को सुनाई, तो वह रो पड़ी थीं।

जब वह आँखें बन्द कर, भावविभोर हो हमें ही रचना सुनाते तो लगता, सचमुच ही जेठ के द्विप्रहर में भी सावनी घटा लहराने लगी है-

जब घटा आती है
सावन में रुला जाती है
आदमीयत से गुज़र जाता है
इंसा बिल्कुल
जब तबीयत किसी
माशूक पे आ जाती है।

ईसुरी की फागें गाने में उन्हें कमाल हासिल था। महाराज ओरछा को उनकी गाई एक चीज बेहद पसन्द थी-

आए सावन के महीना

गोरिया गोदना गोदाएले गोरिया

ऐसे ही मियाँ मल्हार में गाया उनका 'बरसे जा बरजे जा', जो उन्होंने विद्याधरी से सीखकर कंठ में सेंत लिया था, किन्तु वह विलक्षण प्रतिभा असमय ही नष्ट होकर अरण्यपुष्प-सी अनाघ्रात ही धरा में मिल गई। अत्यधिक मदिरा सेवन यकृत पहले ही चौपट कर चुका था। उन्हीं की प्रिय पंक्ति उनके अन्त को साकार कर गई-

न कहीं जनाज़ा उठता

न कहीं मज़ार होता

उस युग में गायिकाओं एवं गायकों की गायन के प्रति कैसी निष्ठा थी, इसका वर्णन श्री अमृतलाल नागर ही ने अपने रिपोर्ताज 'ये कोठे वालियाँ' में एक रोचक संस्मरण में किया है। यह घटना उन्हें, मुनीरजान ने सुनाई थी-

एक बार सुप्रसिद्ध गायिका गौहर एवं दरभंगा राज दरबार की गायिका रूपसी बेनज़ीर का गायन एक साथ एक ही मंच पर आयोजित हुआ। एक और दबंग, आत्मविश्वासी गायिका गौहरजान, जिसने कभी कलकत्ते में लाटसाहब की गर्वोन्नत ग्रीवा भी झुका दी थी, दूसरी ओर अनमोल हीरे-जवाहरात में जगमगाती, अनिंद्य सुन्दरी बेनज़ीर! जब बेनज़ीर रियाज़ कर रही थी, तो गौहर ने एक ही आलाप में भाँप लिया था कि प्रतिद्वन्द्विनी कितने गहरे पानी में है। हँसकर बोलीं, 'बेनज़ीर, तुम्हारे ये हीरे तो सेज पर ही चमकेंगे, महफ़िल में तो हुनर चमकता है।'

बेनज़ीर भी एक ही थी। सारे गहने उतार पोटली में बाँधे और सीधी पहुँची पूना अब्दुल करीम ख़ाँ के वालिद के पास। पोटली उनके पैरों पर रखी और बोली- 'उस्ताद, इस नाचीज को इस क़ाबिल बना दीजिए कि गौहरजान को जवाब दे सकूँ।'

उस्ताद ने कहा, 'उठा लो अपनी पोटली। जिस लगन से तुम मेरे पास सीखने आई हो, उसी लगन से मैं तुम्हें सिखाऊँगा...'

दस वर्ष पश्चात गुरु की विद्या ग्रहण कर फिर बेनज़ीर गौहर के पास पहुँची। एक घंटे तक केवल ऋषभ की बढ़त सुनाई। प्रसन्न होकर गौहर बोलीं, 'सुब्हान अल्लाह, बेनज़ीर तुम्हारा हीरा अब चमका है।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai