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नारी विमर्श >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3745
आईएसबीएन :81-216-0178-9

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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण


नथुनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीना!
जब मैं हो गई पन्द्रह बरस की,
गोदी में मोहे धर लीना
नथनिया ने हाय राम....

तीन वर्षों में ही, यौवन ने उसके कैशोर्य को असमय ही पीछे धकेल उसे कितना सुन्दर बना दिया था! नाक की नथुनी की जगह थी, हीरे की बड़ी-सी लौंग, हाथ भर चूड़ियों की छनक-छनक के साथ उसने दुपट्टा सिर पर डाला और मीठे उलाहने से मुझे बींधकर कहा, “बिनू, तुम तो हमें भूल ही गईं, कभी ख़त भी नहीं डाला।"

“और तुमने?” मैंने कहा।

"हम कौन पढ़े-लिखे हैं जो ख़त लिखते, फिर उर्दू में ही लिख पाते, वह तुम पढ़ नहीं सकतीं-जरूर किसी से पढ़वातीं और हम नहीं चाहते थे कि हमारी-तुम्हारी बात, कोई निगोड़ी तीसरी ख़त पढ़नेवाली पढ़े...।"

“कौन-सी ऐसी बात थी नसीम? और तुमने नथनी क्यों उतार दी, कितनी सुन्दर लगती थी!”

आज, अपना मूर्ख प्रश्न, स्वयं ही चित्त खिन्न कर जाता है...

उसकी उदास झुकी आँखें डबडबा आई थीं। धीरे-धीरे किसी तीसरी ख़त पढ़नेवाली की अनुपस्थिति के आतंक से मुक्त हो, उस एकान्त में मुझे वह अपने प्रथम प्रेम का रहस्य बताती, बीरबहूटी-सी लाल पड़ गई थी। अपने प्रथम समृद्ध ग्राहक से ही प्रेम करने की मूर्खता कर बैठी थी अभागी, किन्तु अनजान प्रेमी पर कैसा अगाध विश्वास था उसका।

“कहते हैं, जल्दी ही तुम्हें दुल्हन का लाल जोड़ा पहनाकर मुरादाबाद ले चलेंगे-फलाँ नवाब साहब के नवासे हैं-रंग है एकदम फिरंगी का, अभी नवाबजादोंवाले अंग्रेज़ी मदरसे में पढ़ रहे हैं, इधर-उधर देख, उसने रेशमी कुर्ते के अन्तराल से, एक खुशबूदार लिफ़ाफा निकाल, मुझे उस अद्भुत प्रणयी की तस्वीर भी दिखाई थी। सुकुमार चेहरे पर आभिजात्य की स्पष्ट छाप थी, हाथ में थी हॉकी, दुरंगी कमीज़ और हॉफ पैंट में एकदम ही स्कूली छोकरे से उस प्रणयी को देख, मैंने हँसकर कहा, “सम्हलकर रहना नसीम, लगता है कभी भी इसकी अम्मा, कान पकड़कर तमाचा धर देगी।"

सुनते ही उसने तुनककर फन उठा लिया था, “अजी अम्मा-वम्मा से डरनेवाले नहीं हैं-ऐसा रौब है कि लेटे-लेटे ही हमसे जूता खुलवाते हैं।"

बड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं, मेरे लिए वह लखनऊ से लाए छोटे-मोटे उपहारों की थैली थमाकर बोलीं, “इसमें हम तुम्हारे लिए लाख की चूड़ियाँ लाये हैं और सुरमादानी। एक सतरंगी दुपट्टा भी है। बिन्नू, हमने रँगरेज से कहा था, रंग में शमातुलम्बर मिलाकर रँगे, जब तब खुशबू रहेगी, हमें याद रक्खोगी।"

लेकिन हाय रे नसीम! संसार में कौन-सी ऐसी ख़ुशबू है जो उड़ नहीं जाती? कहाँ गया वह दुपट्टा, कहाँ गई वह शमातुलम्बरी खुशबू और कहाँ गई नसीम! केवल, उसकी एक उदास चिट्ठी आज भी मेरे पास सुरक्षित हैउर्दू में लिखे उस पत्र को, मैंने कभी अपनी ड्योढ़ी के चौकीदार चाँद खाँ से पढ़वाया था।

“तुम्हें हमारे सिर की क़सम बिन्नू, फौरन से पेश्तर ख़त डालना-हम क्या लिखें बिन्नू, अब लिखने को कुछ रह नहीं गया। हम बिहार जा रहे हैं। हमारी आरावाली मँझली ख़ाला ने बुलवाया है, अब वहीं अपनी दुकान खोलेंगे...”

न बिहार की उस नई दुकान का अता-पता दिया था मूर्ख ने, न फिर कभी कोई ख़त ही लिखा। इतने वर्षों बाद, रात के साढ़े बारह बजे, जब श्मशान से बीहड़ किऊल जंक्शन के उजड़े दयार से वेटिंग रूम में बैठी थी, जीर्श-शीर्ण बुरके में वह आँधी-सी आई। दरी में लिपटा बिस्तर और एल्यूमीनियम का नाश्तादान कोने में पटक, आरामकुर्सी में लाश-सी बिछ गई। चेहरा ढंका था। पहचानती भी कैसे! वेटिंग रूम का चौकीदार, उसे देखते ही बड़बड़ाने लगा, “जिसे देखो वही साले फर्स्ट किलास में घुस आते हैं-टिकट नम्बर माँगेंगे, तो अभी बगलें झाँकेंगे।” मैंने कहा, “फर्स्ट किलास का वेटिंग रूम हैगा ये बुआ, टिकट है?"

“अरे बेटा, जरा कमर सीधी कर लेने दे, अभी चली जाऊँगी। बना रह, बना रह बेटा, अल्लाह तुझे बहुत दे।” जीर्ण बुर्के के भीतर की करुण मिनमिनाहट और आशीर्वाद की स्निग्ध झड़ी से, शायद चौकीदार का कठोर हृदय भी पिघल गया, वह बाहर चला गया। एक-एक कर सब चले गए थे और कमरे में हम दोनों रह गईं, उसने नकाब उठाकर मेरी ही ओर देखा, “क्यों बहन, क्या बजा है?"

“साढ़े बारह,” मैंने कहा और कुछ पहचाने-पहचाने से, उस चेहरे को देखते ही कंठ में कुछ अटक गया। कौन थी यह? कैसी पहचानी-सी सूरत थीरामपुर में देखा था या और कहीं?

पान-जर्दे से विवर्ण होने पर भी दाँतों में वह कुछ-कुछ उठा कोने का दाँत, स्मृति को कुरेदने लगा।

“अल्लाह तौबा,” वह हँसी, किसी भव्य उजड़ी इमारत के टूटे-फूटे झरोखों से, गालों पर धंस गए गढ़ों ने मेरी स्मृति को जैसे झकझोरकर कहा, “अब तो पहचान लो।"

“भागलपुरवाली गाड़ी कहीं छूट न गई हो, चलूँ, शायद पच्चीस डौन मिल जाए..."

रंग-उड़ी दरी का बिस्तर उठाकर, वह तीर-सी निकल गई।

"नसीम, नसीम!" मैंने भागकर उसे पुकारना चाहा, किन्तु कंठ में फिर स्मृति का गह्वर अटक गया। उसकी रंग उड़ी दरी की ही भाँति, उसके यौवन का रंग भी उड़, उसे बदरंग कर गया था। स्पष्ट था कि बत्तीस वर्ष पूर्व खोली गयी दुकान, अब उजड़ चुकी थी। नीले ख़ुशबूदार लिफ़ाफे में लिपटे, उसके किशोर प्रेमी का चेहरा भी क्या बदरंग हो गया होगा? उसे दुल्हन का लाल जोड़ा पहनाकर मुरादाबाद ले जाने के सुनहरे सपने दिखानेवाला वह फलाँ नवाब का नवासा, क्या अब भी उस जीर्ण बदरंग बुर्के के ताबूतों में बन्द होगा? कितनी स्मृतियाँ मुझे एकसाथ बींधने लगी थीं-लाल अतलस की शलवार, ऊदा अबरकी दुपट्टा और सुभग नासिका। नासिका पर घड़ी के पेंडुलम-सा हिलता लाल मोती का वह सलोना लोलक! जगमगाते झाड़फ़ानूसों के नीचे, दोनों घुटने टेक नमाज पढ़ने की-सी मुद्रा में बैठी उन्मुख विराजी राजमहिषी की भव्यता को भी तुच्छ करती नसीम-“नथुनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीना-जब मैं हो गई पन्द्रह बरस की...।” बँगला के न जाने किस कवि ने लिखा है-

मानुष मानुषेर शिकारी
नारी के कोरेछे वेश्या
पुरुषेर के कोरेछे भिखारी

मनुष्य ही मनुष्य का शिकारी है, वही नारी को वेश्या बनाता है और पुरुष को भिखारी।

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