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जीवन कथाएँ >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 3746
आईएसबीएन :81-216-0667-5

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शिवानी की जिन्दगी पर आधारित संस्मरण...


जसदण के आलाखाचर उनके भाई जीवाखाचर भी राजकुमार कॉलेज में पिता के शिष्य रह चुके थे। वे प्रायः ही हमें अपने महल में बुलाते। उनकी इकलौती पुत्री लीला बा अपनी विमाता की बड़ी दुलारी थी। यद्यपि उनकी माँ, जसदण की पहली रानी, कमला बा, उसी महल में रहती थीं, पर लीला बा विमाता माधवी बा के साथ ही सोती थी। मैं तब नौ-दस वर्ष की रही हँगी। लीला बा के यहाँ गई, तो मुझे भी माधवी देवी के कमरे में सोना पड़ा। उनका शालीन व्यवहार, अंग्रेज़ी अदब-कायदे एवं रूप देखकर ही सम्भवतः जसदण के आलाखाचर रीझ गए थे। जितनी ही गम्भीर अल्पभाषिणी कमला थीं, उतनी ही मुखर प्रगल्भा थीं माधवी देवी। वे कपूरथला की राजकन्या थीं। उस रात जसदण में आधी रात को मैं जग गई थी, और अपनी माँ के पास जाने की जिद करने लगी। तब उन्होंने मुझे अपने पास सुलाया और कहा-इतनी रात तो तुम राजकोट जा' नहीं सकतीं-सुबह होते ही स्वयं मैं तुम्हें पहुँचा आऊँगी। उनके चिकने कपोलों की, उनकी देह परिमल की मेरी स्मृति अभी भी क्षीण नहीं हुई है। जब वे मुझे पहुँचाने आईं, तो मुझे हीरे की कनियों से भरा एक सुनहला बटुआ थमा गईं। वे हीरे कब और कहाँ विलुप्त हो गए, यह स्मरण भी नहीं है। मात्र स्मृति रह गई है, माधवी देवी के चिकने नवजात शिशु के-से कपोलों की।


मेरे पिता अनेक रियासतों में उच्च पद पर रहे। न जाने कितनी रानियाँ मैंने देखीं। लावण्यमयी सुन्दरी भी, कदर्य और कुत्सित भी। राजपीपला, लिम्बड़ी, जूनागढ़, नाभा, जोधपुर, उदयपुर! सब रियासतों के वे रंगीन प्रासाद भी देखे, जिनमें दीवारों पर टँगी, राजघराने के दबंग पूर्वपुरुषों की तस्वीरों के आगे हाथ बाँधे खड़ी रहती दासियाँ, रानियों के प्रत्येक राजसी-पदचाप के साथ 'खम्मा खम्मा' करती चकरघिन्नी-सी घूमतीं। फिर याद आता है राजसी अटाले का भारी भरकम नाश्ता--सोने-चाँदी की गंगा-जमनी कटोरियाँ, उनमें परिवेशित रसीली सेवइयाँ, पंखे की हवा में फर्र-फर्र उड़ता कटोरियों पर लगा चाँदी का वर्क। ऐसे नाश्ते के बाद आरम्भ होता राजकीय भ्रमण पर्व। पर्दे लगी कारों के रुकते ही, चोबदार का स्वर गरजता 'महाल होई जाय'। फिर चारों तरफ पर्दे की ओट से रानियाँ उतरतीं। राजकुमारियों के गोरे पैरों में छनकती सोने की पायजेब, उस पर बड़ौदा बॉर्डर की उनकी वह चमकती असली जरी। बागों में बहार रहती। कहीं झूला लगा है, दरी बिछाकर दासियाँ झूला गा रही हैं। क्षण-भर को मिले उन्मुक्त आकाश के चँदोवे तले चिड़ियों-सी चहकती थीं वे राजकन्याएँ और उनकी सखियाँ रमणीक बा, जस्सू बा, ठाकुर दुहिता, बिल्ली। आनन्द के वे क्षण विवाह के पश्चात् उस जीवन से गाँठ छूटी, तो स्वयं ही कहीं विलीन हो गए। स्मृति शेष है।

रंगारंग सामन्ती वैभव और परिहासरसिक बातून परिजनों से मंडित मैके के विपरीत, मेरी सनातनी ससुराल में बड़ा कठिन अनुशासन था। चचिया सास, जिठानी के वे व्यंग्य-बाण, जो विवाहोपरान्त मेरे मातृकुल के वैभव को लेकर हठात् झेलने पड़े, कभी-कभी चेतना ही हर लेते। हमारी एक रिश्ते की तइया सास थीं, विधवा, सन्तानहीना। दोनों दाँत भयावह रूप से बाहर निकले रहते। उनका वह वराहदंती रूप मुझे और भी भयावह लगता जब वे मुझे मेरी उच्च शिक्षा और समृद्ध मायके को लेकर व्यर्थ ताने देने लगतीं-ठीक ही तो कहा था मेरे देवर ने। जब तेरा रिश्ता आया था तो उसने कहा था कि एक रुपये में हाथी बिक रहा हो तो क्या कोई बुद्धिमान उसे खरीद ही लेता है?

उनके पति थानेदार थे, साफे का लाल झब्बा ही शायद आरम्भ से ताई को घर भीतर सतत कुण्ठित बना गया था। और यही कुंठा स्त्रियों के बीच उनकी जिहा को छुरी बना देती। सिर से पैर तक वे सोने से लदी रहतीं, कंठ में नाभिस्पर्श करती दुहरी मोहनमाला-ऐसे मूंग के दाने, जो अब देखने को भी नहीं मिलते, गले में गुलूबन्द, हाथों में कई सोने की चूड़ियाँ, कानों में तोला-भर के मुनड़े। थानेदार साहब, बेचारे तो ऊपर गए समय से पहले, किन्तु तब तक पत्नी को वे पूर्णरूप से आभूषण-मंडिता कर गए थे। पूरा जीवन तो उन्होंने पति की थानेदारी के साये में, काँपती गाय की भाँति बिताया था, पर उनकी मृत्यु के पश्चात् अपनी समस्त कुंठित भावनाओं को जड़ से उखाड़ पति से भी अधिक उग्र बन उठी थीं। कोई भी सुन्दर चेहरा देखतीं, तो उनके वराहदंती दंतद्वय, पुरानी सिलाई मशीन के शटल से चालू हो जाते-पैर के पंजे देखे ? चौड़े बदसूरत, पति को खानेवाले पैर...

किसी का गुलगोथना शिशु देख लेती तो उसी क्षण कोसने लगतीं-क्या करेगी इसकी माँ यह मनहूस चेहरा देखकर? जन्मते ही बाप को खा गया अब न जाने किस-किसको खाएगा, मूल नक्षत्र में जन्मा है अभागा।

पति की मृत्यु के पश्चात् वे मायके में भाई के पास ही रहीं। भाई ने भतीजे ने, उन्हें खूब दुहा, और उनका अन्त भी दुर्वह ही रहा। प्राण कंठागत थे पर निकल ही नहीं रहे थे। स्वर्ग-नर्क सब यहीं है, व्यर्थ नहीं कहते। कभी चीखतीं-वह आ गए हैं जमदूत, काले भुजंग, चार कुत्ते भी लाए हैं-कह रहे हैं बुढ़िया चल अब, नाटक मत कर, अभी तो तुझे रक्त, मवाद को वैतरिणी पार करनी है-जीवन-भर तूने न जाने कितनों का दिल दुखाया है, अब भोग-हाय लोगो मुझे क्षमा कर दो। उनके वे दोनों ड्रैकुला-से दाँत माफी माँगते अन्त तक सुना और भी नीचे लटक आए थे। उनके प्राणों को मुक्त करने के लिए सब पहाड़ी टोटके आजमाए जा चुके थे। उनकी छाती पर परात धर, पिंड के लिए आटा तक गूंधा गया। गीता पाठ तो किया ही जा रहा था, पर जिद्दी प्राणराम थे कि निकल नहीं रहे थे। मैंने तो उनका अन्त नहीं देखा, पर सुना जरूर था कि दो दिन तक यमदूत उन्हें डराते रहे। तीसरे दिन प्राण छूटे तो लोगों ने चैन की साँस ली। अन्त समय की कठिन घड़ी में, मनुष्य को अपने अन्याय का मूल्य, किसी-न-किसी रूप में चुकाना ही पड़ता है। विधाता, हृदयहीन महाजन की भाँति अपनी चुंगी वसूल कर ही लेता है।

पहाड़ में एक कहावत है-

मैं जाँणे मैत,

भै जाँणे दैज

अर्थात् माँ तक ही मायके का अस्तित्व है और भाई तक दहेज का।
माँ की मृत्यु के पश्चात् मैं एक ही बार मायके गई और चित्त वहाँ जाकर ऐसा अशान्त हो रहा कि न फिर मायके जाने का साहस हुआ, न इच्छा ही शेष रही।

उस यात्रा पर लिखने को बहुत कुछ है, किन्तु अप्रिय चर्चा मैं नहीं करूँगी। सुना यही है कि कोई विवेकी शल्यचिकित्सक, कभी अपने किसी निकट आत्मीय पर छुरी नहीं चलाता और शायद एक विवेकशील लेखक के लिए भी यही उचित है। पर मेरा मानना है कि कभी-कभी ऐसी शल्य-चिकित्सा मरीज के हित में ही नहीं औरों के लिए भी हितकर होती है। ऐसे जीवनानुभव जो आपके जीवन के अन्तरंग क्षणों से जुड़े हैं, यदि हम ईमानदारी से तमाम प्रियाप्रिय ब्यौरों सहित पाठकों में भी बाँटें, तो शायद उनके सम्मुख भी, जीवन के नये आयाम खुल सकें। किन्तु सभी परिजन इतने विवेकी कहाँ होते हैं? क्षमाशील तो एकदम नहीं। इत्यलम्।

अपने सुधी पाठकों के साथ अपनी माँ की स्मृति मैं एक पवित्र प्रसाद की तरह बाँटना चाहती हूँ। वह माँ जिसने मेरी लेखनी को गतिशील बनाया, मेरी कल्पना को जन्मघुट्टी पिलाई, विपत्ति के कठिन क्षणों में 'अस्मिन महामोहमये कटाहे' जैसी एकमात्र पंक्ति का कौरेमीन पिला नया जीवन दिया, पचासी वर्ष की अवस्था में भी जिसकी विलक्षण स्मरण-शक्ति देख हम दंग रह जाते थे, अपनी मृत्यु से चार दिन पूर्व, जिसने कमरे में अँगीठी धर, मेरी फरमाइश के साबुत आलू बनाकर खिलाए, उसकी स्मृति भला कैसे धुंधली पड़ सकती है? वह मृत्युपर्यंत मेरा पाथेय तो है ही, मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरी अम्मा का एक विलक्षण परिहास-रसिकता से मंडित, अनूठा व्यक्तित्व चौंका भले दे, किन्तु अपरिचित होने पर भी मेरे पाठकों को नीरस नहीं लगेगा।
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