लोगों की राय

जीवन कथाएँ >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 3746
आईएसबीएन :81-216-0667-5

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

156 पाठक हैं

शिवानी की जिन्दगी पर आधारित संस्मरण...


तब न आमिष भोजन का प्रचलन था, न पीने-पिलाने का। लड़की विदा कर पुनः नित्य की दिनचर्या में प्रत्यावर्तन कम-से-कम महीने-भर ले लेता। देनदारी चुकाने में सीधी की गई कमर, एक बार फिर से टूट जाती। पहाड़ में एक कहावत है कि 'काज है काजैकि पीठ भारि' अर्थात् शुभकार्य से अधिक पीड़ादायक शुभकार्य की पीठ होती है, यानी सबका हिसाब चुकता करना, नेग बाँटना, बिजली, तम्बू, कनात आदि का हिसाब निबटाना। आज यही कार्य कितना सरल हो गया है। विवाह सम्पन्न हुआ और किसी होटल में एक तगड़ा रिसेशन दे दिया, बसं चट से गंगा नहा ली। ठीक लग्नानुसार कन्यादान करने पर कोई बन्दिश नहीं, न निर्जल व्रत करने की अनिवार्यता। अब कट्टर पहाड़ी संस्कारी गृहों में भी विवाह वन डे क्रिकेट मैच बनकर सबका काम बहुत सरल बना गए हैं। सुबह बारात गई, रात को नई दुल्हन लेकर आ गई। पहले पौ फटने से पूर्व नवदम्पति को शुक्रतारा दिखाया जाता था कि वैसा ही तारे-सा स्थैर्य उनके नवजीवन को धन्य करता रहे, पर कभी-कभी लगता है आधुनिक विवाहों में अब कोई ऐसी परम्परा नहीं रही, शायद इसी से वैवाहिक जीवन में स्थैर्य भी नहीं रह गया है-आज विवाह और कल विच्छेद !


फिर तो जैसे-जैसे समय बीतता गया, सुनते गए कि कैसे पहाड़ की ही एक जननी के पुत्र ने अंतर-प्रदेशीय प्रेम-विवाह किया तो, उनकी समधिन ने उनके लिए हीरे के कर्णफूल भेजे, जिससे पुत्र की अबाध्यता का प्रतिशोध, सास उनकी बेटी से न ले पाए। संक्षेप में कहें, तो अब पर्वत-कन्याएँ भी वैसी दब्बू कन्याएँ नहीं रहीं, जो कहें कि-

हम तो रे बाबुल
तोरे खूटे की गैया
जित चाहो बँध जाएँ।

पर तब भी सभी लड़कियाँ गायें नहीं होती थीं, जो खूटे से बँधने को गर्दन प्रस्तुत कर देतीं। कभी अपनी माँ से एक रोचक घटना के विषय में सुना था। उनके एक चचेरे भाई को मेरे नाना-नानी ने ही पाला, पढ़ाया-लिखाया था। डॉक्टर बने तो दनादन रिश्ते आने लगे। एक तो हमारे मामा का कुलगोत्र सबकुछ, चौबीस कैरेट सोने-सा खरा था, उस पर स्वयं मेरे नाना की भी सिविल सर्जन के रूप में विशेष ख्याति थी। संदीला, दौलतपुर, बलरामपुर, विजयानगरम के गृह-चिकित्सक थे। देख-सुनकर सन्दरी कन्या का चयन किया गया, विवाह हुआ, दुल्हन भी आ गई। साँझ हुई तो मेरी माँ से बोली. "बीबीजी, हमारा पानदान ले आइए, बिना पान खाए हमारा सिर दुखने लगता है।" टोकरी ले आई गई। खस के ठंडे जलसिक्त कलेवर में लिपटे मगही पान, साथ में चाँदी का पानदान-सरौता सबकुछ करीने से धरा था। गनीमत थी कि हमारी ताम्बूलप्रिया मामीजी की बारात, तखनऊ उतरी थी, पहाड़ में नहीं। पान खाकर मामीजी ने दूसरी फरमाइश की, "बीबीजी, कुछ लिखास-सी लग रही है, कागज-क़लम ले आओ, तो जरा हम एक कविता लिख डालें।" और फिर उन्होंने जो कविता लिखी, वह आज भी नारी के अंतरतम में छिपी आकांक्षा को साकार कर देती है-

सास गले की फाँस
मुझे नहीं सुहाती है
नंद जबरजंड मुझे नहीं

सुहाती है
सैंया, डालूँ गलबैंया
मुझे तुम्हीं सुहाते हो।

अपनी भावना वे उस कविता में व्यक्त कर ही चुकी थीं, अपना अलग घर बसाने में फिर उन्होंने विलम्ब नहीं किया।

मेरे यह मामा, कालान्तर में एक सोना उगलते साम्राज्य के एकछत्र सम्राट बने।

जब वे अपनी ख्याति के उत्तुंग शिखर पर आसीन थे, तब ही वर्षों बाद मेरे पिता उनसे मिलने गए। तब वे रामपुर नवाब के गृहमंत्री थे। नवाब के मंत्रियों को एक विशेष प्रकार की काली मखमली टोपी लगानी होती थी। काली अचकन, पंप शू और रौबदार व्यक्तित्व के सर्वथा नवीन कलेवर में छिपे, अपने साले को मामा नहीं पहचान पाए। मेरे पिता सामान स्टेशन पर ही छोड़, एक ताँगे पर बैठकर उनकी आलीशान कोठी में पहुँचे, तो मामा लॉन में ही बैठे सिगार का कश खींच रहे थे। यह किस्सा मुझे स्वयं मामा ने सुनाया था। 'कहिए' उन्होंने बड़ी बेरुखी से पूछा। मेरे पिता समझ गए कि बहनोई ने उन्हें पहचाना नहीं है।

“जी, एक मरीज को स्टेशन पर छोड़ आया हूँ, अचानक उनकी तबीयत खराब हो गई, आपका नाम सुन आपको लिवाने आया हूँ।"

मामा ने सिर से पैर तक देखा, सोचा होगा, मुर्गा तो तगड़ा है, "हमारी रात की फीस चौंसठ रुपया है, जानते हो?"

"जी-जी।" मेरे पिता ने चट से बटुआ खोल सौ का नोट मेज पर धर दिया।

“सवारी लाए हो?" "जी, यहाँ तो मुसाफिर बनकर आया हूँ, ताँगा है।" मामा ने कहा, "चलो!"

ताँगा चला तो मेरे पिता ने नवाब रामपुर का मोनोग्राम लगा सोने का सिगरेट-केस खोलकर उनके सामने धर दिया।

मामा के रूखे स्वर ने एकदम पैंतरा बदल दिया, बड़ी विनम्रता से पूछा, "क्या पेशा करते हैं आप?"

"हुजूर!" मेरे पिता ने कहा, "आपकी बहन को रखने का पेशा करता हूँ।"

अब मामा उछल पड़े। गौर से देखा और कहा, "अरे, अश्विनी तुम? देख रहा हूँ, तुम्हारी आदत गई नहीं।"

आज ऐसा मजाक करनेवाले प्रत्युत्पन्नमति के न लोग रह गए हैं, न ऐसे मजाक पचानेवाले।
<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai