लोगों की राय

नारी विमर्श >> भैरवी (सजिल्द)

भैरवी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3752
आईएसबीएन :9788183612883

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

387 पाठक हैं

नारी जीवन पर आधारित उपन्यास


वह तो सोच रही थी, इस सँकरी सुरंग-सी वैराग्य गुहा में, एक बार उसने एक नया जन्म ले लिया था। आत्मीय स्वजनों से दूर वह एक नये जीवन का सूत्र पकड़कर वैराग्य-सोपान पर कदम रखती निर्भय बढ़ती चली जाएगी। पर माया दीदी का आदेश स्पष्ट था। वह इस गुहा में प्रवेश पाकर भी स्थायी रूप से नहीं रह पाएगी। जो जननी, उसकी विदा के दिन रोती-कलपती, पछाड़ें खाती, उसकी डोली के पीछे, दूर तक भागती चली आई थी, वह क्या उसे अब जीवित पाकर भी छाती से लगा पाएगी? और फिर क्या माँ की ही भाँति, उमड़ते यौवन की वेगवती धारा को, संयम के बाँध से बाँधती, समाज से मोर्चा ले पाएगी? क्रमशः अंधकार में डूबती, उस एकान्त निर्जन कालकोठरी में, एक साथ तीन-चार दानवों की प्रेताकृतियाँ उसके इर्द-गिर्द घूमने लगीं। विषाक्त चुम्बनों की स्मृति रेतीले बिच्छुओं के-से डंक-सी, उसके सर्वांग की शिराओं को झनझना गई। अपने जीवन का यह अभिशप्त परिच्छेद खोतकर वह न अपने पितृकुल की महिमा धूमिल कर, सकती थी, न श्वसुरकुल की। चाहे अघोरी अखाड़ा हो या वल्लभी, अनजाने अनचाहे कंठ में पड़ गई रुद्राक्ष की माला ही, अब उसका मंगल-सूत्र थी और गुरु के हाथ की लगी चिताभस्म की भभूत ही उसके सीमान्त की सिन्दूर रेखा।

माया दीदी बड़ी देर तक नहीं लौटी, साथ में चरन को भी लेती गई थीं। चन्दन अब इस एकान्त की अभ्यस्त हो गई थी। दिवस का अवसान आसन्नप्राय था, पर अब तक दोनों नहीं लौटी थीं। अन्धकार गुहा को प्रायः निगल चुका था, पर बीच-बीच में निरन्तर जल रही धूनी के बीच स्वयं सुलगती-बुझती लुकाटी के धुएँ की एकाध कड़वी घूट, उसके कंठ-तले उतर जाती और वह अजीब घुटन से भर जाती। बल्लियों से झूल रही गैरिक पोटलियों का चन्दोबा लम्बी झालरों की भाँति हवा में मंडलाकर फहरा रहा था। खिड़की से आती, महुवा की मादक सुगन्ध और दूर के मन्दिर से उसी हवा की सुगन्ध के साथ तैरती आ रही घंटियों की रुनुकझुनुक में वह अपनी समग्र चिन्ता भूल गई। यही तो सुख है इस अनजाने वैराग्य के तहखाने में डूबने का। यहाँ कभी कोई नहीं जान पाएगा, वह कौन है? वह विवाहित है या कुमारी? वह रेलगाड़ी से क्यों कूद गई-कौन-सी ऐसी विपत्ति पड़ी थी उस पर? जैसा ही विचित्र परिवेश है यहाँ का, वैसे ही जिज्ञासाविहीन. कुतूहल-शून्य संगी-साथी। चुलबुली चरन ने एक बार भी अपना धृष्ट प्रश्न फिर नहीं दुहराया-और माया दीदी? मायाविनी! अखंड सच्चिदानन्द की विचित्र उपासिका! वह क्या लेशमात्र भावुकता को भी सह सकती थी? उसके लिए भावावेश का स्थान ही कहाँ था? वह कुछ भी जानना नहीं चाहती थी, शायद इसलिए कि वह स्वयं ही बिना किसी के कुछ बतलाए, अपनी दिव्य घ्राण-शक्ति से सबकुछ सूंघ सकती थी। यही नहीं-अपनी सन्धानी दृष्टि की हथकड़ियों में बाँधकर यह वर्षों के फरार खूनी से भी, उसका अपराध स्वीकार करा सकती थी।

“अनजाने में किया गया पाप, पाप नहीं है, भैरवी!" उसने एक बार दिवा-स्वप्न में डूबी चन्दन से कहा तो वह ऐसे चौंक पड़ी, जैसे गर्म लोहे से दाग दी गई हो।

कैसी अद्भुत दृष्टि से माया दीदी ने उसकी तस्वीर उतारकर सामने रख दी थी, “तुमने क्या जान-बूझकर पाप किया था, जो कूद गईं? मूरख हो तुम, भैरवी! ऐसा चेहरा देखकर कोई पत्थरदिल मरद भी तुम्हारे सात खून माफ कर देता-फिर वह तो तुम्हारा रूप-पिपासु पति था। तुम्हें हथेली पर बिठाकर रखता। खैर...अब तो गुरु ने चिताभस्मी टेक दी है, अब इस ललाट पर सिन्दूर का टीका कभी नहीं लगेगा।" एक लम्बी साँस खींचकर, माया दीदी चली गईं। गला न जाने क्यों अवरुद्ध-सा हो गया था।

सुना कि उसकी अचेतनावस्था में ही, गुरु उसके हिमशीतल ललाट पर चिताभस्म का टीका लगा गए थे। शिवमन्दिर में प्रतिष्ठित रुद्राक्ष की माला उसे अपने हाथों से पहनाकर, बड़ी देर तक उसे टुकुर-टुकुर देखते भी रहे थे।

'दीक्षा के बाद नाम क्या धरा, गोसाईं?' माया दीदी ने पूछा था-'भैरवी', गुरु ने कहा और माया दीदी का चेहरा एकदम बैंगनी पड़ गया। खूब मजा आया हमको।" चरन ने ही सब उससे कहा था।

"क्यों?"

“लो, पूछती हो क्यों? क्या अपना चेहरा कभी आईने में नहीं देखा? गोसाईं ने तुम्हें अपने हाथ से कंठी पहनाई-नाम दिया-भैरवी, फिर टुकर-टुकर देखते रहे, इसी से माया दीदी जल-भुन गईं। अभी भी नहीं समझी?" इस बार वह खिलखिलाकर हँस पड़ी थी। “नहीं तो चालीस बरस की उमर में घर-दुआर, भरी-पूरी गिरस्ती, तीन-तीन बेटों, और मालिक को छोड़कर, इनके पीछे मसान घाट की धूल छानती?

“कभी-कभी रात-रात-भर गुरु के पीछे मसान घाट में घूमती रहती है। कभी शिवमन्दिर में कंडलिनी जगाकर, भूखी-प्यासी पत्थर की मूरत बनी ऐसे बैठी रहती है, जैसे परान ही निकल गए हों। बीच-बीच में चिलम भरकर मुझे वहीं पहुँचानी होती है। दोनों के हाथों में चिलमें थमाती हूँ तो लगता है, अर्थी में बँधे दो मुर्दे ही खुलकर आमने-सामने बैठ गए हों। चिलम के अंगारों-सी ही लाल-लाल आँखें और तमतमाता चेहरा। कैसी बदल जाती है माया दीदी! मेरी तो देह ही थरथरा जाती है। घर लौटकर द्वार बन्द कर काँपती बैठी रहती हूँ। कभी-कभी दोनों तीसरे-चौथे दिन इस लोक में लौटते हैं।"

“यहाँ इतना डरती हो तो भाग क्यों नहीं जातीं?" एक दिन चन्दन ने उससे पूछा और वह चोट खाई सर्पिणी-सी ही उसकी ओर पलटी और स्थिर दृष्टि से चन्दन उसे देखने लगी थी, “जब तुम चलने-फिरने लगोगी तब यही प्रश्न मैं एक दिन तुमसे पूछूगी, भैरवी-दे, तुम क्या कहती हो?"-और सचमुच ही महीने-भर बाद जब चरन ने उससे एक दिन यही प्रश्न पूछा तो वह कोई उत्तर नहीं दे पाई।

अघोरी आश्रम में आए उसे दो महीने हो गए थे। उस दूसरे अखाड़े में भेजने की धमकी को शायद माया दीदी स्वयं ही भूल गई थीं। रात को माया दीदी उसे अपने ही साथ सुलाती थीं, चरन भी उनके पायताने सोती थी। कभी-कभी आँखें खुलती तो देखती, दोनों बिस्तरे से नदारद हैं। पहले दिन तो भय के मारे, उसका बोल भी नहीं फूटा था। उस अनजान खंदक-खाई सेठिया कोई शत्र ही अचानक उसे दबोच बैठा, तो वह कर ही क्या लेगी? एक बार सौभाग्य-कल्पतरु विद्युत-वहिन के आकस्मिक वज्रपात में जड़ तक झलसकर ,ठ मात्र रह गया था, इसी से अब सामान्य मेघखंडों के बीच चमकती बिजली की तड़प भी उसे थरथर कँपा देती।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai