नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
"क्यों, क्या उड़कर जाएँगे यहाँ से?" उसने झल्लाकर कहा- “जाना तो पैदल ही है
न, चल जल्दी"
"मेरे तो पैर ही नहीं उठ रहे हैं-अभी तक काँप रही हूँ। देखो, कैसा जोर-जोर से
कलेजा धड़का जा रहा है!" उसने चट से कालिंदी का हाथ पकड़, अपनी छाती पर धर
लिया।
“अच्छा, अच्छा! बकवास मत कर, चल जल्दी।" कालिंदी फिर हाथ पकड़कर ही उसे अपने
साथ खींच ले गई थी। लग रहा था, मार्ग अनन्त बन गया है, शहर की बिजली भी शायद
चली गई थी, सँकरी सड़क पर तेजी से आ रही एक जीप से बचने ही दोनों ने दीवाल पर
पीठ सटा ली।
चालक ने उन्हें उस निर्जन मार्ग पर देख कर जीप रोक दी।
"इतने अन्धेरे में आप लोग कहाँ जा रही हैं?"
"हम चितई मन्दिर के दर्शन को गई थीं, लौटने में देर हो गई!" कालिंदी ने
निर्भीक स्वर में कहा।
“कहाँ जाना है? चलिए, मैं आपको छोड़ दूं-इतनी देर में आपका इस सड़क पर पैदल
जाना ठीक नहीं। आजकल अल्मोड़ा में सरेआम लूटपाट हो रही है-चलिए, बैठिए।” उसने
अपने पार्श्व का द्वार खोल दिया। कालिंदी ही पहले बैठी, काँपती सरोज बाहर ही
खड़ी रही।
"बैठती क्यों नहीं!" झुंझलाकर कालिंदी ने उसे हाथ पकड़कर खींच लिया।
दोनों एक ही सीट पर बैठी थीं, घेर-घुमावदार मार्ग बार-बार कालिंदी की देह को
उस अपरिचित चालक की देह से सटाए दे रहा था।
अँधेरे में वह चालक का चेहरा नहीं देख पा रही थी, कभी-कभी अस्पष्ट आलोक में
उसकी घनी पुष्ट काली मूंछों की झलक ही उसे दिख रही थी-मार्ग अभी आधा भी नहीं
कटा था, यह उदार चालक घर तक तो पहुँचा ही देगा।
मार्ग-भर डरपोक सरोज उसका हाथ कसकर पकड़े थी, पता नहीं कौन था, कहाँ ले
जाएगा, दीदी तो एक बार उसके कहने पर ही टुप से जीप में बैठ गईं। अभी कुछ ही
दिन पहले तो गुंडे ऐसे ही प्राइमरी स्कूल की टीचर रम्भा को जीप में उठाकर ले
गए तो चौथे दिन ही बेचारी की नुची-खंची लाश मिली थी। किन्तु, कालिंदी सतर,
निःशंक, निर्भीक मुद्रा में सतर्क तनी, चालक को पथ-निर्देश दे रही थी। उनके
घर तक जीप नहीं जा सकती थी, आश्चर्य था कि बिना पूछे ही उस चालक ने ठीक जगह
पर आकर जीप रोक दी। यहाँ से तो सीधी पगडंडी कालिंदी के घर तक पहुँचती थी और
बगल में ही था सरोज का घर।
"उतरिए!" चालक ने फिर हँसकर सिर पर बँधा मफलर उतार दिया। कालिंदी ने फिर उस
मफलरविहीन हँसमुख सुदर्शन चेहरे को एक पल में पहचान लिया।
“अरे बिरजू, तू? पर कितना बदल गया है तू! ये तलवार छाप मूंछे कब से रख लीं?"
उसने फिर बड़े स्नेह से चालक की पुष्ट भुजा थाम ली।
"मैंने तो तुझे देखते ही पहचान लिया था चड़ी!" अँधेरे में उसकी उज्ज्वल
दन्तपंक्ति, विद्युतवाहिनी-सी चमकी, “पर मैं इस डर से चुप रहा कि तेरी सहेली
ने पहचान लिया तो कहीं चलती जीप से न कूद पड़े।"
"चल न बिरजू, चाय पीकर जाना। अम्मा तुझे देखकर बहुत खुश होंगी।" उसने बड़े
अधिकार से उसके कन्धे पर हाथ धरकर कहा।
“नहीं कालिंदी, तेरी अम्मा क्या, अल्मोड़े में किसी की अम्मा भी अपनी बेटियों
के साथ मुझे देखकर खुश नहीं होगी-अच्छा, चलूँ!" और वह एक बार फिर सतरंगी
चौड़े मफलर में कच्छप-सी मुंडी छिपा, तेजी से जीप चलाता, अँधेरे में विलीन हो
गया।
“हाय राम, दीदी, तेरे खुट पइँ” (तेरे पैर प.), किसी से मत कहना कि हम बिरजुआ
की जीप में बैठकर रात घर लौटे! बाबू मुझे काट डालेंगे।"
"क्यों ?"
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