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पाँच आँगनों वाला घर

गोविन्द मिश्र

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3760
आईएसबीएन :9788183612548

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करीब पचास वर्षों में फैली पाँच आँगनों वाला घर के सरकने की कहानी दरअसल तीन पीढ़ियों की कहानी है...

Panch Aangnon Wala Ghar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘राजन को अजीब-सा लगा-मनुष्यों की तरह घर भी बीतते हैं वे भी चलते हैं, समय के साथ सरकते हैं...अलबत्ता धीरे-धीरे। कुछ समय बाद घर का कोई टुकड़ा कहीं का कहीं पहुँचा दिखता है, कहीं से टूटा, कहीं जा मिला। घरों की शक्लें बदल जाती हैं...कभी-कभी इतनी कि पहचान में नहीं आतीं। हम घरों को अपनी हदों में घेरने को बेचैन रहते हैं पर उनकी स्वाभाविक धीमी-चाल उस दिशा की ओर होती है जहाँ वे घरों को तोड़ बाहर जमीन के खुले विस्तार से जा मिलें। इसलिए हर घर धीरे-धीरे खंडहर की तरह सरकता होता है।’’

 

इसी उपन्यास से


करीब पचास वर्षों में फैली पाँच आँगनों वाला घर के सरकने की कहानी दरअसल तीन पीढ़ियों की कहानी है-एक वह जिसने 1942 के आदर्शों की साफ़ हवा अपने फेफड़ों में भरी, दूसरी वह जिसने उन आदर्शों को धीरे-धीरे अपनी हथेली से झरते देखा और तीसरी वह जो उन आदर्शों को सिर्फ पाठ्य-पुस्तकों में पढ़ सकी। परिवार कैसे उखड़कर सिमटता हुआ करीब-करीब नदारद होता जा रहा है...व्यक्ति को उसकी वैयक्तिकता के सहारे अकेला छोड़कर। गोविंद मिश्र के इस सातवें उपन्यास को पढ़ना अकेले होते जा रहे आदमी की उसी पीड़ा से गुज़रना है।


1

 

 

सन्नी के कमरे में सारंगी पर अहीर-भैरव के सुर उठ रहे थे, जैसे अँधेरे को तरतीब में बाँध कर पौ फटने की उजास की ओर ले जाने की कोशिश कर रहे हों। राजन तक जब वे स्वर पहुँचते तो और कोमल हो जाते। सहलाते हुए सुर। उन्हीं के बीच कहीं सुरों से लिपटी हुई ही आई अम्मा की स्नेह-भरी मुलायम-मुलायम आवाज उठो..ए...राजन !
सुबह की आवाजें शुरू हो गयी थीं। तरह-तरह की छोटी-छोटी घंटियों की तरह चिलकती आवाजें,...चिक् चिक्, चिख-चिख टिक टूँ..तिक-तिडिंग...चिचि-चिया, चिचि-चि...। कोई गले से सीधे ठुनकदार छोटे-छोटे गोले बाहर फेंकता हुआ, और कोई कुटोक..कुटोक-फिर चुप। खूबसूरत आवाजों को बेसुरा करती काँव...काँव..। विराम चिह्न की तरह एकाएक उठ खड़ी होती—कुकड़ूँ-कूँ। कुलबुलाहट बेचैनी प्रतीक्षा कब सुबह हो और वे पेड़ की कैद से निकलें-आसमान के प्रांगण में चिलकते दौड़ते फिरें।

राजन जाग तो गया था पर उठा नहीं। कितनी देर कंबल में सिमटा, अधसोया-अधजगा सन्नी चाचा की सारंगी में तिरता रहा। भैरव और अहीर-भैरव....वह नहीं जानता था, मोटा-मोटा इतना मालूम था कि कोई प्रात:कालीन राग है। सारंगी के सुर और पक्षियों की चहचहाहट उसे कंबल के भीतर चारपाई में इधर-उधर कलपाते रहे। सन्नी चाचा और पक्षी..जैसे दोनों मिलकर सुबह को खोल रहे थे...राजन के लिए।
सुर थमे तो आस-पास ध्यान गया। बगल की चारपाई पर अम्मा और उधर वाली चारपाई पर बाबूजी अब भी सोये हुए थे। राजन चुपचाप उठा, दबे पाँव दरवाजे तक आया। सधे हुए हाथों से कुंडी खोली कि तनिक भी आवाज न हो और बाहर खुलक गया।

राजन..मुंशी राधेलाल एडवोकेट और श्रीमती शान्तिदेवी का दूसरे नम्बर का लड़का। राजन के दो भाई और एक बहन। उस लम्बे-चौडे घर में राजन के चचेरे भाई-बहन और उनके परिवार भी रहते थे। खेलकूद के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं होती थी, घर में ही इतनी भीड़-भाड़ थी। जहाँ हर समय खेलकूद का माहौल हो, वहाँ बचपन जैसे समाप्ति को ही न आता, युवावस्था में काफी दूर तक खिंचा चला जाता था। राजन अपने भाई-बहनों में सबसे ज्यादा चंचल था, हर चीज जानने को उत्सुक, हर एक के साथ सटकर बैठने-उठने वाला, बड़े मन का...जैसे सबको अपने वृत्त में ले आने को आतुर हो।
सुबह का उजाला अब भी दूर था, लेकिन बड़ी अम्मा-राजन की दादी जोगेश्वरी-के कमरे में रोशनी थी। वे कार्तिक स्नान के लिए जाने की तैयारी कर रही थीं। राजन ने उनके कमरे के पास पहुंचकर हल्के से आवाज दी-‘‘बड़ी अम्मा !’’ जोगेश्वरी थोड़ा चौंकी दरवाजा खोला और राजन को देख मुस्कुरा पड़ीं-‘‘सारी दुनिया पाँव पसारे सोवत हउवै, पै हमरे राजन खाँ नींद नाहीं। जाने कौन किसिम का लड़का है यह।’’

‘‘बडी अम्मा, मैं भी चलूँ गंगाजी ?’’
‘‘जब गंगाजी तोहे जगा दिहलीं तो हम रोके वाले कउन। चला, पर पहिले जाके टट्टी-दतुअन खतम करि आवा।’’
बनारस में कार्तिक का अपना अलग आलम था। रात तीन बजे से ही गंगा-स्नान के लिए औरतों के जत्थे इधर-उधर गलियों से निकल कर छोटी-बड़ी धाराओं में गंगा की तरफ जाते होते। अधेड़ औरतें, नई बहुएँ, लड़कियाँ टोलियों में गाती हुई जातीं-मैया तोरे दुआरे मैं आई...मैया तोरे दुआरे...सुरीले और पैने स्वर गलियों में तैरते होते, टोलियाँ आगे निकल गयीं होती तब भी। उगते उजाले के साथ औरतें नहाकर लौटतीं तो लगता उन्हें छूते हुए गीला-गीला उजाला बस्ती में प्रवेश कर रहा है। दिन भर आदमी औरतों की साधारण दिनचर्या पर शाम को घरों के ऊपर आकाशदीप टिमटिमाते..जैसे सवेरे के स्वर रंगों में साकार हो झूल रहे हों।

जोगेश्वरी स्नान के लिए किसी जत्थे के साथ नहीं जाती थीं। अपनी उम्र में खूब किया वह। अब इत्मीनान से तैयार होकर निकलना, धीरे-धीरे गंगा की ओर जाना, सुबह की ओर सरकते अँधेरे के हर झोंके के मार्फत ईश्वर को अपने भीतर उतारते चलना- यह भाता था। इसलिए अकेली ही जाती थीं...अब यह रज्जनवा पीछे लग लिया तो कैसे मना करें। उसके भीतर से पता नहीं कौन बोल रहा है, वरना लरिकाई में कोई यों उठकर बुजुर्ग-बूढ़ों के साथ गंगा-स्नान को जाता है...और वह भी बचवा !
बड़ी अम्मा होंठों पर कुछ दोहराते हुए आगे-आगे चली जा रही थीं। पीछे-पीछे राजन...थैले में नहाने का सामान लिये हुए ऊपरी हिस्से में उसका हाफपैंट, कमीज और एक लाल गमछा। राजन कभी दोनों तरफ सोये हुए मकानों, कभी ऊपर चिलकते सितारों और कभी पास से गुजरते कार्तिकी औरतों के जत्थों में खो जाता। तब सड़क के किनारे से जाती बड़ी अम्मा और उसके बीच का फासला थोड़ा बढ़ जाता, फासले का अहसास कुछ ज्यादा ही होता था। राजन देखता-अँधेरे में एक छाया आगे-आगे चली जा रही है, चाल न तेज न धीमी लेकिन छाया बराबर उसके आगे। कोशिश करके वह बराबरी पर आ भी जाये तो अगले क्षण से ही फिर आगे सरकती हुई...

जोगेश्वरी साँवले रंग, छरहरे बदन और मध्यम कद की महिला थीं। नाक-नक्श कभी पैने रहे होंगे...पैनापन अब चेहरे के फैलते मांस में दब गया था। झुर्रियाँ होने पर भी उनके चेहरे पर एक अजीब सी कांति उतराती रहती, जैसे चेहरे पर जो सौंदर्य जवानी में था उसे झुर्रियों ने अपने सीखचों के भीतर कैद कर रखा हो। आत्मविश्वास से भरा चेहरा, जैसे सब कुछ उनके हाथ में है, कुछ भी सँभालने की कूवत उनकी है। इतने बड़े घर को नंगे पाँवों इस छोर से उस छोर नापती रहतीं। गृहस्थी को सँभालने के साथ-साथ धार्मिक पुस्तकें पढ़ने का भी शौक था। पढ़ी-लिखी नहीं थीं पर उत्सुकता थी-भूगोल जैसे विषय की किताबें भी वे ध्यान से पढ़ती। दिन में तीन-चार तम्बाकू वाले पान खा लेतीं। पति का देहान्त कब का हो चुका था, उस हिसाब से जोगेश्वरी को सिर्फ सफेद कपड़े पहनना चाहिए था। वे यह करती भी थीं-ज्यादातर किनारीदार सफेद साड़ी, मलमल की छींट का जम्फर लेकिन रंगीन कपड़े भी कभी-कभार पहन लेतीं। कपड़ों के रंग न बहुत उजले होते थे, न बहुत उदास। आम विधवा की तरह हमेशा मुँह लटकाये घूमना उनकी फितरत नहीं थी। वे आस-पड़ोस बहू-बच्चों सभी से हँसी-ठट्ठा करतीं, लेकिन यह भी नहीं कि उसी में खोयी रहें। उनकी अपनी अलग दिनचर्या थी जैसे कार्तिक में गंगा नहाकर वहीं पूजा पाठ करना, कुछ खास मंदिरों की परिक्रमा करना और घर आकर फिर पूजा करना। कार्तिक का महीना न हो तो भी सबेरे स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ के बाद ही वे अपने कमरे के बाहर निकलतीं। पूजा-पाठ में ‘सुखसागर’ का नियमित स्वाध्याय शामिल था।

बडे़ घर की लड़की थीं जोगेश्वरी। जिसे कहते हैं बड़ा घर-परिवार-पैसे में भी बड़ा और सदस्यों की संख्या में भी। वे अपने से छोटे घर में ब्याही गयी थीं, पर उसको लेकर बात-बात में मुँह ठुनका बैठना...इसकी जगह उन्होंने गंभीरता को अपनाया। कोशिश यह कि धीरे-धीरे करके इस घर को भी अपने मायके जैसा बना लिया जाए। आकार में लम्बा-चौड़ा आदमी-औरतों व बच्चों से भरा-पूरा घर बना भी लिया। एक पैसे के मामले में जरूर वे ससुराल को मायके के बराबर नहीं ला पायीं, इसलिए कि वह तो आदमियों का क्षेत्र था। पति को कितना खचोरा/घसीटा दुनियादारी की तरफ, लेकिन वे हाथ न आये। पति को दो खास शौक थे-एक गाँजा, दूसरा दान। दोनों ही फूँकने वाले। इसलिए न उनकी उम्र ही जम पायी, न कमायी ही। चिकने पहलवान की तरह वे जोगेश्वरी के हाथ से फिसल-फिसल जायें तो जोगेश्वरी ने करीबियों को अपने पास समेटना शुरू किया-सब थोड़ा-थोड़ा कमायें और साथ रहें। यों धीरे-धीरे करके बड़ा परिवार हुआ। अपने बड़े लड़के राधेलाल को पढ़ा-लिखा कर वकालत में जमाकर वे थोडी़ निश्चिंत हुई थीं कि तभी पति संसार से चले गये। जोगेश्वरी की अपनी कहानी खत्म, अब उनके लड़के मुंशी राधेलाल वकील की कहानी थी जो चलनी थी। राधेलाल घर-गृहस्थी के मामले में अपनी माँ की तरह चुस्त और मुस्तैद थे। इसलिए पति के न होने से कोई बड़ी कमी नहीं हुई घर में। पति के उठ जाने को जोगेश्वरी ने स्वाभाविक ढंग से लिया-आखिर काल है ! अब पति नहीं तो उनके लड़के की चलेगी-लड़के के माध्यम से उनकी चलेगी। जोगेश्वरी ने अपने को पूजा-पाठ में भी डालना शुरू किया, पर सच बात यह कि मन उनका गृहस्थी में ही रमता था।

पंचगंगा घाट। राजन देख रहा है-शान्त बहती गंगा अँधेरे में भी बराबर दिखायी देती हुई, अपने बहाव का अहसास कराती हुई। माधवराव ने धरहरे, भिसारें के अँधेरे में जैसे दो लम्बे-चौड़े दैत्य इधर को घूरते खड़े हों। राजन पूरी कोशिश करता है कि उस तरफ न देखे, पर बीच-बीच में नजर उधर चली ही जाती है...तब डर की सुरसुरी भीतर तक उतरती जाती है। डर से उबरने के लिए वह घाट पर नहाने की तैयारी में लगे लोगों की तरफ देखने लगता है। एक बार बड़ी अम्मा ने डर भगाने का एक आसान तरीका बनाया था...यह सोचो कि वे दैत्य नहीं शिवजी के गण हैं, काशी की रक्षा के लिए तुम्हारी-हमारी रक्षा के लिए। फिर भी डर न जाये तो गंगा मैया की तरफ देखो।

घाटों पर बिखरी भीड़। कार्तिक स्नान के लिए आयी औरतें, बारहों, महीने स्नान करने वाले गमछाधारी गृहस्थ बनारसी, गंगा-किनारे पड़े रहने वाले जोगी-रोगी, साधु-सन्यासी भिखारी और डंड पेलते पट्ठे जो सवेरे गंगा-किनारे डंड-बैठक और स्नान करने के बाद मूँछों पर ताव देते हुए ही नगर में प्रवेश करते हैं। दिन शुरु..बाबा विश्वनाथ के दर्शन और कचौड़ी वाली गली में जलेबी और कचौड़ी के नाश्ता के साथ।
उगती सुबह के अँधियारे-उजियारे में बतियाने, नहाने और पूजने की मिली-जुली आवाजों में पंचगंगा घाट जैसे चहक रहा है। कहीं स्तुति के स्वर उठ रहे हैं.-‘देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे’...या ‘जय जय भगीरथ नन्दिनि’.. तो कहीं ‘चलो मन गंगा-जमुना तीर’ की तान है, कहीं ‘नमो शिवाय’ का जप और कहीं कुछ नहीं तो होंठों की अस्पष्ट पर अनवरत बुदबुदाहट ही है।

घाटों की आवाजें, रोशनियाँ गंगा में दूर तक जाती हैं तो उसकी हर लहर, हर उर्मि जैसे और भी जीवन्त हो उठती है। किनारे-किनारे जैसे जल नहीं सोना पिघल कर बहा जा रहा है। इस बीच एकाएक पौ फटती है...आवाज नहीं होती पर शंख फूँकना-सा दिखाई देता है, जैसे प्रकृति ने सहसा अपनी बन्द मुट्ठी खोल दी हो जिससे उजास निकलकर बाहर बहने लगी हो। पृथ्वी आलोकित हो उठती है, जैसे किसी प्राणी का जन्म हुआ हो।
एक पंडा का लड़का राजन को सीढ़ियों पर डुबकी लगवाकर बाहर निकाल देता है। जब तक बड़ी अम्मा नहाती रहती है, नहाने के बाद कपड़े बदलती हैं, तब तक राजन फटाक-फटाक तैयार हो, पंडे की छतरी के नीचे जंगलगे छोटे शीशे में देख लाल-पीला चंदन भी अपने माथे पर सजा लेता है।
बड़ी अम्मा चलने से पहले गंगा मैया को प्रणाम करती हैं। राजन, कभी उन्हें कभी गंगा को देखता है-उसी घाट की ओर से आती, पुल के नीचे से दूर तक बहती चली जाती गंगा...
बड़ी अम्मा का नाम गंगा भी हो सकता था। जो संसार में गंगा वह घर में बड़ी अम्मा।



2

 

 

राजन के घर के सामने एक प्राचीन, विशालकाय बरगद का पेड़ था। ऊपर आकाश जैसा तना हुआ शीतल छायादार। खूब मोटा तना। जड़ें कहाँ-कहाँ तक फैली हुई थीं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। मोहल्ले के कई घर उन जड़ों के ऊपर होंगे, राजन का तो था ही। मोटी-मोटी जड़ें कहीं-कहीं जमीन से ऊपर दिखाई भी देती थीं। ऊपर पत्तों वाली असंख्य डगालों के अलावा कई पतली-मोटी डगालें लटकती थीं। डगालों के निचले छोर पर रोयेंदार नयी-नयी जड़ों के गुच्छे। नीचे की ओर झूलती ये डगालें-जैसे पेड़ ने अपने कई हाथ, सैकड़ों उँगलियाँ नीचे फैला दी हों-चाहो तो पकड़कर आ जाओ मेरी ऊँचाई तक !

बरगद का वह पेड़ राजन के घर के बाहर था, उसके परिवार का नहीं-सारी बस्ती का था...फिर भी बड़ बाबा राजन के परिवार के सबसे बड़े सदस्य थे-बुजुर्ग बूढ़ों से भी बढ़े। घर में कोई भी बड़ा काम हो, सबसे पहले उनकी पूजा होती थी। नयी बहू आये, नया बच्चा हो...सबसे पहले बड़ बाबा का आशीर्वाद लेना। पेड़ पर चढ़ने की सख्त मनाही थी। बच्चों के मन में डर बैठा दिया जाता-ऊपर चढ़े तो बाबा नीचे पटक देंगे, या ऊपर ही पकड़ लेंगे और अपने में कहीं छिपा लेंगे। गर्मी की दोपहरों के सन्नाटे में लड़कों-बच्चों की जमात जड़ों वाली डालों को पकड़कर झूलने का खेल खेलती थी। तब उन्हें ऐसा लगता जैसे बूढ़े बाबा की दाढ़ी में जहाँ-तहाँ चिपके हुए हैं, बाबा मुँह हिला देते हैं तो दाढ़ी गड़ जाती है।

बरगद के पेड़ की तरफ ही घर का मुख्य दरवाजा था। वहाँ से पिछवाड़े तक फैला लम्बा-चौड़ा घर, पाँच आँगनों वाला। कमरों की तो गिनती ही नहीं थी। मुख्य दरवाजे से सटा बैठक खाना था-राजन के पिता का कमरा..वकालत का दफ्तर और उनकी बैठकबाजी के लिए भी। बैठकखाने के पीछे घर का सबसे बड़ा आँगन था जिसे गणेशजी वाला आंगन कहते थे। यहां मर्दों वाले कार्यक्रम होते-मुशायरा, कवि-सम्मेलन मुजरा वगैरह। छोटी बैठकी हुई थी तो बैठकखाने में ही हो जाती। दूसरे नंबर पर बेल वाला आँगन था। वह नाम शायद इसलिए पड़ गया कि वहाँ बेल के कई पेड़ थे। इसके बाद कालीजी वाला आंगन-यह मुख्यत: बहू-बेटियों का आँगन था, जिसे धार्मिक कार्यों और शादी-ब्याह के लिए भी इस्तेमाल किया जाता। इन मौकों पर वहाँ बड़ी-बड़ी भट्टियाँ खुदतीं। कालीजी वाले आँगन के एक तरफ सदरी दरवाजा था जिसके ऊपर था नौबतकाना। खुशी के मौकों पर शहनाई यहीं से बजती थी। दूसरी तरफ हनुमानजी वाला आँगन था। यहाँ रामलीला भाँड़ों के नाच वगैरह होते। इसी आँगन में सन्नी बच्चों के साथ खेलते और खेल-खेल में उन्हें हनुमान-चालीसा भी रटाते चले जाते-‘‘भूत-पिशाच निकट नहिं, आवै महावीर जब नाम सुनावै..।’’ सबसे पीछे फाटक के पास जो आँगन था, उसे फटकवा वाला आँगन कहते थे। इस आँगन के एक हिस्से में बग्घी, टमटम, इक्का ढिले रहते। पास में ही छोटी-सी घुड़साल थी। राजन और दूसरे बच्चे खेलते-खेलते जब एक आंगन से दूसरे में आ जाते तो लगता एक मोहल्ला से दूसरे में आ गये हों। कोई पतंग कटकर इस घर के पास आई नहीं तो फिर घर का पार नहीं मिलता था उसे, किसी-न-किसी आँगन या छत में गिरेगी,.....बहुत बचेगी तो नौबतस्ता में जा फँसेगी या बड़ बाबा पकड़ लेंगे।

एक घर में फैला पूरे का पूरा संसार। जोगेश्वरी के चारों लड़के उसी घर में रहते थे। सबसे बड़े मुंशी राधेलाल वकील, जिनके राजन समेत तीन लड़के और एक लड़की थी। दूसरे नंबर पर घनश्याम जिनकी पत्नी घर में रामनगर वाली कहाती थी। तीसरे बाँके जिनकी पत्नी शिवपुर वाली। चौथे सन्नी अविवाहित। शिवपुर वाली अपने जमाने में नई आई थीं इसलिए उन्हें बाकी उन्हें नइकी भी कहते थे, बच्चों के लिए नइकी चाची। जब ब्याह कर आयी थीं तो ये लंबा घूँघट डालती थीं। उनका मुँह देखने के कोशिश में बच्चे अपने सिर के बालों से शुरू करके कंधों तक उनके घूँघट में घुस जाते। फिर दिखता गोल-गोल चेहरा, गोरा- रंग बड़ी-बड़ी आँखें और नाक में मोटी कील। बच्चों को उन्हें देखने में कम उनके घूँघट में घुसने में ज्यादा मजा आता था। बच्चों की इस शरारत में नइकी भी शरीक हो गई थीं। उधर बच्चे फिर मुँह देखने को मचलें, इधर नइकी और लम्बा घूँघट खींच लें... या घूँघट में पहले तो किसी को घुसने न दें, जो घुस आये उसे घूँघट में कैद कर लें। पहला बच्चा होने तक नइकी का यह खेल चलता रहा था। कब उनका घूँघट ऊपर आ गया, किसी को पता ही न चला।
हनुमानजी वाले आँगन में एक तरफ राधेलाल के दो चचेरे भाई और उनके परिवार भी रहते थे। हर परिवार की तरह उनके लिए भी अलग दो या तीन कमरे, साथ में एक बरामद था। पूरे घर का चूल्हा एक था जिसमें कोई सौ लोगों का तो खाना रोज बनता ही था। बेलने और सेंकने के लिए दो-दो औरतों की पारी बँधी थी। दूसरे कामों के लिए भी ड्यूटी बँधी हुई थी। कामों के कम-बढ़ होने को लेकर औरतों के थोड़े-बहुत तनाव चलते रहते थे, लेकिन वे बहुत तूल नहीं पकड़ पाते थे। इसलिए भी कि जोगेश्वरी एक कुशल बैंक मैनेजर की तरह औरतों की ड्यूटियाँ बदलती रहतीं-जो एक हफ्ते रोटी सेंकने के काम पर तो अगले हफ्ते सब्जी काटने पर।

बच्चों की छोटी-मोटी भीड़ एक आँगन से दूसरे आँगन दौड़ती रहती। माँ-बाप को अपने बच्चे जरूर मालूम थे लेकिन बच्चों को बड़े होने तक यह पता न चलता कि उनके माँ-बाप कौन हैं। रामनगर वाली का लड़का राजन की अम्मा का लाड़ला था और नइकी का लड़का छोटे राजन के पिता का मुँह लगा था। छोटे अपने माँ-बाप की पहली संतान था लेकिन भाइयों की संतानों में वह सबसे छोटा था...इसलिए छोटे नाम पड़ गया। छोटे बैठकखाने में जब चाहे मुंशी राधेलाल की गोद में जा बैठता-वे चाहे जितना व्यस्त हों, चाहे जिन लोगों से घिरे हो। मुंशी राधेलाल काम करते जाते और छोटे के बालों में प्यार से हाथ ही घुमाते रहते। उनसे जो जिद छोटे कर सकता था, वह राजन भी नहीं। बच्चों के खाने-पीने पहनने-ओढ़ने, खेलकूद में भेदभाव एकदम नहीं थे। सवेरे उन्हें रामधुन काका का इंतजार रहता। रामधुन मोहल्ले की एक मिठाई की दुकान में काम करते थे। जो सवेरे खोमचा लिये बस्ती के एक हिस्से में घर-घर नापते दिखाई देते वे ही दिन को दुकान में चाशनी तैयार करते दिखते, या दोनों मुट्ठियों से लड्डू बनाते हुए। दुकान में वे भले ही एक मामूली नौकर हों, मुंशी राधेलाल के बच्चों में वे रामधुन काका के नाम से ही जाने जाते। जैसे ही उनका खोमचा बड़ के पेड़ के नीचे आता, बच्चे चारों तरफ से उन्हें घेर लेते..और वे हर बच्चे को पकड़ाते- चले जाते, एक–एक दोना नाश्ते का-दोनों में एक जलेबी या पेड़ा मिठाई में और एक कचौड़ी या समोसा नमकीन में। राधेलालजी की हिदायत थी कि उस समय न केवल घर के बच्चो, बाहर के भी जो हुए, उनको भी नाश्ता उसी तरह दिया जाये जैसे घर के बच्चों को।

जोगेश्वरी की सास सब बच्चों की दादी अम्मा थीं, जोगेश्वरी स्वयं बड़ी अम्मा। राजन के बाबूजी सब बच्चों के बाबूजी और उसकी अम्मा सब बच्चों की अम्मा। छोटे उन्हें ही अपनी माँ के रूप में जानता था, जो उसकी असली मां थीं उन्हें सब बच्चों की तरह नइकी चाची कहता। रहने के लिए सबके अलग-अलग हिस्से थे, लेकिन कुछ कमरे ऐसे थे जो पूरे परिवार के इस्तेमाल में आते। रसोईघर तो था ही, एक कोठरी मुस्तकिल तौर पर सौर घर थी-इतने पड़े परिवार में किसी-न-किसी के बच्चा होता ही रहता था। इसी तरह फटकवा वाले आँगन की तरफ एक ऐसी कोठरी थी जो जेठ की तपती दोपहरियों में भी ठंडी रहती, यह नवविवाहितों के लिए थी-सुहागराती कोठरी।


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