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भारत में बंधुआ मजदूर

महाश्वेता देवी, निर्मल घोष

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3770
आईएसबीएन :81-7119-483-4

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उत्पीड़ित-उपेक्षित बंधुआ मजदूरों पर आधारित पुस्तक

Bharat Main Bandhua Majdoor a hindi book by Mahasweta Devi, Nirmal Ghosh - भारत में बंधुआ मजदूर - महाश्वेता देवी, निर्मल घोष

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

देश की जिन गंभीर समस्याओं पर मुख्यधारा का मीडिया खामोश रहता है और सरकार उदासीन, उनमें बंधुआ मज़दूरों की समस्या भी एक है। सरकारी घोषणाओं में यह समस्या खत्म हो चुकी है और मीडिया के लिए इसमें सनसनी नहीं रही। लेकिन समस्या अभी जहाँ की तहाँ है। 1975 में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के जरिए औपचारिक तौर पर बंधुआ मज़दूरी पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन देश के लगभग सभी राज्यों में आज भी यह प्रथा बिना किसी रोक-टोक के जारी है। बीच-बीच में सरकारें बंधुआ तौर पर काम कर रहे मज़दूरों की मुक्ति और पुनर्वास का स्वांग भी रचती हैं, लेकिन मुक्त कराए गये मज़दूरों को पुनः एक नए तरह की बंधुआ मज़दूरी का शिकार होना पड़ा है। न तो उनकी जीविका के लिए पर्याप्त साधन मुहैया कराए गए और न ही शक्तिशाली भूमिपतियों से उनकी हिफाजत का कोई विश्वसनीय इंतजाम हो पाया।
‘भारत में बंधुआ मज़दूर’ इस समस्या का सर्वांग अध्ययन प्रस्तुत करती है। प्रख्यात बंगला लेखिका महाश्वेता देवी यहाँ पूर्णतया एक शोधकर्मी के तौर पर प्रकट हुई हैं जाहिर हैं उत्पीड़ितों, उपेक्षितों के लिए अपनी सर्वज्ञात संवेदना के साथ। शोधकर्म की निर्मम असंलग्नता से बचते हुए विषय के साथ नितांत मानवीय लगाव के साथ यह शोध किया गया है।’

बंधुआ मज़दूर का मामला आज भी एकदम जीवंत और सशक्त है। आज भी बेतहाशा प्रचार और धूमधाम के साथ देश में जब किसी परियोजना का उद्घाटन किया जा रहा होता है-किसी जंगल में देश की किसी मुलायम या कठोर धरती के हिस्से पर कोई अभागा परिवार चुपचाप गुलामी की ज़ंजीरों में कसता जा रहा होता है। यह रोग काफ़ी पुराना है और आज भी काफ़ी मज़बूत रोग है।
किसी भी क़ानून अथवा अध्यादेश ने बंधुआ मज़दूरों की मदद नहीं की। राष्ट्रीय श्रम संस्थान ने यह साबित कर दिया है कि देश में लगभग 23 लाख बंधुआ मज़दूर हैं। जब तक बंधुआ मज़दूरों में चेतना पैदा नहीं होती और वे एकजुट होकर खड़े नहीं हो जाते, कोई भी उन्हें आज़ाद ज़िंदगी बिताने का हक़ नहीं देगा।

प्रस्तावना


बंधुआ मज़दूर प्रथा भारत की ज्वलंत समस्याओं में से एक है। इस अर्द्ध-औपनिवेशिक एवं अर्द्ध-सामंती देश के खेतिहर ग़रीबों के नंगे शोषण और बर्बर दमन की झलक और अभिव्यक्ति इस प्रथा में दिखाई देती है। 1975 में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के ज़रिए बंधुआ मज़दूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया, लेकिन यह आज भी बिना किसी रोक-टोक के और भी तेज़ी से जारी है। कुछ राज्य इस बात से इंकार करते हैं कि उनके यहाँ बंधुआ मज़दूर प्रथा अभी भी जारी है।
भारत सरकार के 30 अक्तूबर 1980 के बयान में ऐलान किया गया था कि अब तक 1,20,500 बंधुआ मज़दूरों को आज़ाद किया जा चुका है। लेकिन उनको महज आज़ाद करा देने से ही केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती। अपने पुरखों की तरह उन अभागों को भी अपने गाँव छोड़ने पड़ेंगे, क्योंकि ज़मीन के मालिक किसी आज़ाद बंधुआ मज़दूर को काम नहीं देंगे। इन्हें ठेका-मज़दूरों के रूप में नए सिरे से बंधुआ बनने के लिए दूसरे राज्यों में जाना ही होगा। आज तक आज़ाद किए गए बंधुआ मज़दूरों का इतिहास यही रहा है।

वास्तविकता से कटे विशुद्ध शोध के स्तर पर ही बंधुआ मज़दूर प्रथा का अस्तित्व अब कहीं नहीं है। हमारी धारणा है कि समस्या का समाधान उन्हीं लोगों के हाथ में है जो इस प्रथा के शिकार हैं और इसीलिए हम मानते हैं कि इस विषय को इसकी समग्रता में लिखा जाना बहुत जरूरी है। हम बुद्धिजीवियों द्वारा अपनाये जाने वाले आडम्बरपूर्ण जटिल तरीके को नामंजूर करते हैं और हमारा मकसद इस समस्या को इसके लिए उपयुक्त गंभीरता के साथ सहज और सीधे शब्दों में पेश करना है।
इसलिए हमने जो तरीक़ा अपनाया है वह अब तक के तरीक़ों से भिन्न है। इस पुस्तक को लिखने के पीछे हमारा उद्देश्य एक सहज सत्य को बिना किसी लाग-लपेट के सीधे-सीधे शब्दों में पाठकों तक पहुँचाना है। हमने इस पुस्तक को टिप्पणियों और संदर्भों से बोझिल नहीं बनाया है। हम उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं जिनकी पुस्तकों और लेखों से हमने मदद ली।


महाश्वेता देवी
निर्मल घोष


भूमिका



अंग्रेज़ों द्वारा लागू की गयी भूमि बन्दोबस्त प्रथा ने भारत में बंधुआ मज़दूर प्रणाली के लिए आधार प्रदान किया।
इससे पहले तक ज़मीन को जोतने वाला ज़मीन का मालिक भी था। ज़मीन की मिल्कियत पर राजाओं और उनके जागीरदारों का कोई दावा नहीं था। उन्हें वही मिलता था जो उनका वाजिब हक़ बनता था और यह कुल उपज का एक प्रतिशत होता था। हिन्दू राजाओं के शासन-काल में यह हिस्सा कुल पैदावार हिस्सा बढ़कर एक तिहाई तक हो गया।

शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के लड़खड़ाते दिनों में शाही शुल्क वसूलने के लिए ज़िम्मेदार अधिकारी अर्थात् तहसीलदार लोग और भी ज़्यादा आक्रामक हो गये। ये लोग एक ऐसी अर्द्ध-सामंती व्यवस्था चाहते थे जिसमें इनके पास एक जागीरदार अथवा गवर्नर की शक्ति और अधिकार हो और जो शहंशाह की प्रति बहुत मामूली ढंग से उत्तरदायी हो। उन तथाकथित राजाओं या गवर्नरों ने अपने नये अधिकारों को पूरी तरह अमल में लाते हुए करों की दर बढ़ा दी और इसे फ़सल का आधा भाग कर दिया। यह कमरतोड़ भार और भी ज़्यादा हो गया जब इतिहास के महत्वपूर्ण संक्रमण काल में भारत के रंगमंच पर अंग्रेज़ों ने प्रवेश किया।

करों की वसूली के लिए जो तरीकें अपनाये गये वे बेहद अमानवीय थे।
फिर भी सदियों पुराना ग्रामीण समाज तथा आदमी और ज़मीन के बीच का परम्परागत रिश्ता क़ायम रहा। अभी भी करों का मुगतान नकद के रूप में बहुत कम होता था-यह फ़सल के रूप में ही होता था। कर के रूप में फ़सल की कितनी मात्रा ली जाये, इसे एकत्रित फ़सल के आधार पर तय किया जाता था।

अंग्रेज़ों ने इस स्थापित परम्परा को अपनी ख़ुद की प्रणाली से कैसे बदला ? कैसे उन्होंने ज़मीन को आसानी से बेचने लायक़ माल का दर्जा दे दिया और स्वतंत्र मज़दूरों से खेतिहर मज़दूरों और बंधुआ मज़दूरों को जन्म दिया। इस प्रक्रिया को समझने के लिए भारत में ब्रिटिश शासन काल से पूर्व के समाज और भूमि-प्रणाली का अध्ययन किया जाना चाहिए।

अंग्रेज़ों के आगमन से पूर्व भारत के गाँव एक-दूसरे से काफ़ी दूरी पर फैले हुए थे। प्रत्येक गाँव आत्मनिर्भर था। ज़मीन और हस्तकला से उत्पादित चीज़ो का गाँव की जनता ही पूरी तरह इस्तेमाल करती थी। गाँव का अपने समाज पर शासन था। न्याय दिलाने, ज़मीन सम्बन्धी विवादों तथा सामाजिक संघर्षों को हल करने की व्यवस्था गाँव करता था। यह विभिन्न व्यवसायों में लोगों को लगाता था तथा उत्पादन के समान वितरण की व्यवस्था भी करता था। वस्तुतः किसी तरह के बाहरी हस्तक्षेप या मध्यस्थता की कोई जरूरत ही नहीं थी।

उनका रहन-सहन का स्तर साधारण था। वे केवल खेती करना जानते थे। खेती से सम्बन्धित चढ़ाव उतारा के साथ ही वे डूबते-उबरते थे। यदि फ़सल नहीं हुई तो उनका रहन-सहन का स्तर फौरन गिर जाता था। अकाल बाढ़ सूखा तथा अन्य विपदाओं में दुख उठाना तो हर आदमी को बदा था। लौहार, बढ़ई, कुम्हार आदि कारीगरों की स्थिति, एक हद तक कुछ बेहतर थी, क्योंकि संकट के समय वे गाँव छोड़कर रोज़ी कमाने कहीं बाहर जा सकते थे।
इसलिए यह कहना सही होगा कि निम्नाकिंत बातें भारत के ग्रामीण समाज का आधार थीं : ज़मीन तथा लोगों का उसे जोतने का अधिकार और कृषि तथा हस्तशिल्प का संयोग। उन दिनों के हमारे गाँवों में श्रम का यह वितरण एक अकाट्य नियम था।

इससे पहले ही बताया है कि किसान ही ज़मीन के स्वामी थे। अनेक संहिताओं में लिखा गया है कि ज़मीन का असली स्वामी राजा था। फिर भी एक बार जोतने के लिए तैयार कर लेने के बाद वह मिल्कियत किसान के हाथ में चली गयी। राजा के आधिराज्य और किसान के स्वामित्व के बीच कोई विवाद नहीं था। युद्ध क्षेत्र में हुए फैसलों के अनुसार राजा और राजत्व में परिवर्तन होता रहा, लेकिन किसानों की मिल्कियत कभी भी प्रभावित नहीं हुई। सिर्फ कर किसी दूसरे की तिजोरी में जाने लगा। राजा और किसान के बीच कोई बिचौलिया भी नहीं था। भूमि प्रशासन ठीक से चलाने के लिए राजा गाँवों में मुखिया नियुक्त करता था। इन मुखियाओं के इस्तेमाल के लिए अनाज तथा ईंधन की व्यवस्था रैयत करती थी।

कौटिल्य के अर्थाशास्त्र में कहा गया है कि भूमि पर समस्त अधिकार राजा में निहित है। जिस ज़मीन को वह जोतने के लिए तैयार करता है उसे कृष्य भूमि कहते हैं। इस ग्रन्थ में उस ज़मीन की उपज से रैयत को आजन्म लाभ उठाने का अधिकार है जिस पर वह खेती करता है। इसमें यह भी माना गया है कि खेती के अयोग्य सभी भूमि पर रैयत का पुश्तैनी हक़ है। अगर खेती न की जा रही हो, उसी हालत में राजा खेती के योग्य और अयोग्य सभी भूमि को वापस ले सकता है और रैयत को बेदखल कर सकता है। यह एक सुविचारित धारणा है कि बंगाल में एक पुश्त से दूसरी पुश्त तक व्यक्तिगत आधार पर ज़मीन की मिल्कियत की प्रथा का प्रचलन था। अन्य प्रांतों में भूमि सम्बन्धी अधिकार समग्र रूप से परिवार की इकाई में निहित थे। वंशानुक्रम सम्बन्धी अपने विख्यात सिद्धांत में विज्ञानेश्वर ने इसका उल्लेख किया था। जो भी हो, ये दोनों प्रथाएँ प्राचीन थीं।






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