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मंत्र-विद्ध और कुलटा

राजेन्द्र यादव

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3782
आईएसबीएन :8171192936

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प्रस्तुत है दो लघु उपन्यास....

Mantra viddh aur kulta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

इस पुस्तक में प्रख्यात कथाकार राजेन्द्र यादव के एक साथ दो लघु उपन्यास-‘मन्त्रविद्ध’ और ‘कुलटा’ संकलित हैं।
‘मन्त्रविद्ध’ प्यार की खुरदुरी कहानी है-आज की मूर्तिकला की तरह...तारक और सुरजीत कौर के बीच एक तीसरा ‘व्यक्ति’ और है, और वह है प्यार तारक अपने को समझाते हुए दूसरे आदमी की निगाह से सारी स्थिति को देखता है और स्वयं आतंकित रहता है कि क्या सचमुच वीरता का वह क्षण उसी ने धारण किया था, क्षण, अथवा आवेश-भरे दबाव का शायद एक ऐसा विस्फोट, जिसका अनुभव केवल कायर ही कर सकता है यानी परम वीरता के काम पक्के कायर के सिवा कोई दूसरा नहीं कर सकता।...

‘कुलटा’ प्यार के एक दूसरे धरातल की व्यथा-कथा है। मिसेज तेजपाल, जैसे अकेले पहाड़ी झरने के एकान्त किनारों और घाटियों की हरियल सलवटों की अँगड़ाई लेती भूलभुलैया...मखमली बाँहें और रेशमी बाल...एक अप-टू-डेट अभिजात सौन्दर्यमयी नारी...
लेकिन उसने तो अपने पवित्र प्यार की ही राह चुनी थी यह स्त्री के अपने चुनाव की कहानी है जिसको हमारा आधुनिक समाज कोई मान्यता नहीं देता। यदि वह अपनी राह स्वयं चुनती है तो उसके लिए कोई क्षमा नहीं है। इसे ही वह चुनौती देती है...मिसेज तेजपाल पागल और कुलटा नहीं तो क्या है ?

 

मुक्ति का चुनाव

 

मंत्र-विद्ध और कुलटा मेरे दो लघु उपन्यास हैं। इन्हें एक ही जिल्द में देने का तर्क यही है कि दोनों बहुत छोटे हैं—लगभग लम्बी कहानियों जैसे। पहले दोनों स्वतन्त्र रूप से पुस्तकाकार आए थे। फिर इन्हें मिला दिया गया—किसी तर्क से नहीं, सुविधा की दृष्टि से। दो-तीन संस्करण भी हुए।

इस बार एक साथ नये संस्करण के लिए देते हुए लगा दोनों के बीच एक अन्तर्सूत्र है, हालाँकि लिखे जाने के बीच लगभग दस वर्षों का अंतराल है। ‘कुलट’ का प्रथम प्रकाशन हुआ 1957 में कमलेश्वर के ‘मसिजीवी’ प्रकाशन से और मंत्र-विद्ध’ आया 1967 में अक्षर से। कर्नल तेजपाल के अनुशासनबद्ध अभिजात में संवेदनशील पत्नी का दम घुटता है, यौन-संबंधों के असंतुलन और सैनिक-जकड़बंदी के बीच वह संगीत में अपनी मुक्ति तलाश करती है और फिर निहायत फटीचर वॉयलनिस्ट के साथ एक अनिश्चत भविष्य का चुनाव कर लेती है। ऐसे ही अनिश्चित भविष्य का चुनाव किया है ‘मंत्र-विद्ध’ की सुरजीत ने और सामंती घुटन से मुक्ति के लिए तारक के साथ जिंदगी के रूपाकार गढ़ने के संघर्षों को नाम दिया है प्यार...

दिये हुए परिवेश से मुक्ति का चुनाव और परिणाम भोगने का संकल्प दोनों नारियों में इतना समान है कि अलग-अलग नामों से एक ही कहानी का विस्तार होने का भ्रम देती हैं।
शायद ये दोनों रचनाओं को एक साथ देने का जस्टीफिकेशन भी रहा हो।

 

-राजेन्द्र यादव

 

मंत्र-विद्ध

 

 

नथुनों की उस तरह की बनावट और उनके फड़कने को देखकर अक्सर लोगों को कछुए का ध्यान आता है; मुझे जाने क्यों साँप का ध्यान आया। माइनस के छल्लेदार काँचों पर खिड़की की जालियाँ तो साफ थीं; लेकिन यह तय करना मेरे लिए मुश्किल था कि रोशनी की झलक भीतर से कौंधती है या बाहर की परछाईं के कारण ऐसे लगता है। बार-बार सरक आते चश्में को नाक पर जड़ तारक कुछ ऐसे अन्दाज से उँगली से छूता था जैसे कुछ लोग रौब में आकर सलाम करते हैं। मैंने सोचा, सड़क पर उसके इस तरीके से चश्मा ठीक करने को लोग ज़रूर सलाम करने के अर्थ में लेकर ठिठक जाते होंगे। बहुत लोगों को इस बात का क्या बिल्कुल ख्याल नहीं होता कि उनके चश्मे के गंदे काँच सामनेवाले को कितना बेचैन कर देते हैं और रह-रहकर रुमल से उन शीशों को पोंछ देने की इच्छा दबाये वह कैसे बातों में व्यस्त रहने की कोशिश करता रहता है।

इस बेचैनी के बावजूद मैं अपने को खुश बनाये हुए था।
खाने की मेज़ पर तारक बैठा था और साथ बैठी थी उसकी नवविवाहिता पत्नी सुरजीत कौर। प्यालों की चाय जाने कब की समाप्त हो चुकी थी, लेकिन हम लोग बातें किये जा रहे थे। प्याले के तले में बचा पत्तियोंवाला मटमैला पानी जाने क्यों मन में हमेशा एक घिनौनी-सी बेचैनी पैदा करता रहता है। मन होता है, या तो मुझे उठ जाना चाहिए या ये उठा लिये जाने चाहिए...मगर अब प्याले ऐश-ट्रे का भी काम दे रहे थे। वे हटा लिये जाते तो हम लोग फ़र्श और मेज़ गंदी करते....राखीले पानी में सिगरेट के टोंटे फूलकर बेडौल हो गये थे और मुझे रह-रहकर भरे कमोड का ध्यान हो आता था और मैं सुरजीत के खूबसूरत चेहरे को देखते हुए अपनी निगाहें प्यालों पर जाने से रोके रखता था।

कलकत्ता आने से पहले मैं तारक से बँगला पढ़ा था, केवल दस दिन। बात महीने-भर पढ़ने की हुई थी, लेकिन शीघ्र ही हम लोग दोस्त बन गये और पढ़ने के अलावा हर चीज पर बातें करने लगे। शायद उन दिनों वह सुरजीत की ही बात किया करता। नाम तो उसने नहीं बताया था, लेकिन उसका किसी सरदार लड़की से ‘अफ़ेयर’ चल रहा है, यह उसने ज़रूर कहा था। शायद प्रारंभ की अवस्था थी, क्योंकि वह बहुत खोया-खोया रहता था और अक्स सरदार लोगों की मेहनत करने की क्षमता, खुले दिल और खिलते सौन्दर्य की चर्चा करके मेरे साथ समर्थन बटोरा करता था। मैंने जब कलकत्ता आने की बात तय की तो सोचा, वहाँ जाने से पहले कम-से-कम बँगला तो मुझे थोड़ी-सी सीख ही लेनी चाहिए। मैंने होटलवाले से पूछा कि क्या किसी बंगाली को जानता है ? होटलवाला मेरा दोस्त हो गया था, उसने बताया कि एक बंगाली प्रोफ़ेसर कभी-कभी यहाँ खाना खाने आते हैं। फिर दो-तीन दिनों बाद जिस व्यक्ति से उसने ‘प्रोफ़ेसर’ कहकर मेरा परिचय कराया उसे मैं उसी होटल में कई बार देख चुका था—पीछे से सीधी सपाट खोपड़ी, छल्ले झलकाते माइनस नम्बर के सफ़ेद काँचोंवाला चश्मा, जिसे बार-बार एक उँगली से पीछे धकेलता था। इस शक्ल से ज़रूर उसके बंगाली होने का कहीं आभास होता था, वर्ना बातचीत में वह कतई बंगाली नहीं जानता था और सारी जिन्दगी उसने मथुरा में ही बितायी थी।

 बातों में पता चला कि ‘प्रोफ़ेसर’ साहब करौलबाग़ की ही एक प्राइवेट टीचिंग-शॉप में अंग्रेजी और इतिहास दोनों पढ़ाते हैं और दो –ढाई सौ का हिसाब बैठा लेते हैं। कभी-कभी उस ढाबे में खाना-खाने चले आते हैं। मुझे याद है, उन दिनों भी उसने बताया कि जिस लड़की से उसे प्यार है उसका बाप निहायत ही खूँखार और उजड्ड सरदार है। अगर उसे हवा भी लग गई तो कृपाण से अन्तणियाँ खींच लेता...तारकनाथ दत्त भले ही तीन पीढ़ियों से उत्तर प्रदेश में रहता रहा हो, और उसे माणछ-भात की अपेक्षा सब्ज़ी-फुल्का ज़्यादा अच्छा लगता हो, मगर सरदार तो सरदार ही है...उसका क्या भरोसा ! उस समय की उसकी बातों से मुझे कतई विश्वास नहीं था कि एक दिन सुरजीत को उसकी पत्नी के रूप में देखूँगा। कुछ दिनों के शग़ल के रूप में ही मैंने इसे तब लिया था।

‘‘याद है तुम्हें तारक,’’ मैंने अचानक याद करके कहा, ‘‘हम लोगों ने तय किया था कि बंकिम-ग्रंथावली से शुरू करेंगे। ‘राजसिंह’ से पढ़ाई शुरू हुई थी।’’ अब मैं सुरजीत सिंह को पुराने दिनों की बातें बतायीं, ‘‘लेकिन राजसिंह के एक पन्ने से आगे पढ़ाई चली ही नहीं। एक तो तब मुझे पता चला कि तारक बंगाली भले ही हों, बंगला हम दोनों के लिए समान रूप से विदेशी भाषा है।’’

तारक मुँह से सिगरेट निकालकर मुस्कराया, स्वीकृति में सिर हिलाकर, ‘‘यहाँ आकर तो रहा-सहा सारा भ्रम ही टूट गया। वहाँ हम लोग अपने को बंगाली मानकर खुश होते रहते थे और कहते थे कि अपना देश तो कोलिकाता है; यहाँ हमें कोई बंगाली ही नहीं मानता। बात करो तो लोग हमारी बोली पर हँसते हैं। खाना हमें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता इनका, पता नहीं कैसा-कैसा स्वाद होता है, हर चीज में सरसों का तेल। हम लोग तो अक्सर पंजाबी होटल में जाकर खाना खाते हैं।’’
मैं उन दिनों में खोया, हँसता रहा, ‘‘मैं इन्हें बंगाली गुरु मानकर तारकदा कहता और ये मुझे अपने से बड़ा समझकर मोहनदा कहते...लेकिन उन दिनों तो इनका मन ही नहीं लगता था, बेहद अनमने और उदास-उदास रहा करते थे। हमेशा ऐसा लगता जैसे कहीं जाना है।’’

तारक ने सामने की डिब्बी से दूसरी सिगरेट निकालकर  पहली बची हुई से उसे जलाया फिर जली हुई सिगरेट को धीरे-धीरे कप के पानी से छुलाते हुए छन-छन की पृष्ठभूमि में कहा, ‘‘मन कहाँ से लगता ? उन दिनों हमारे मन में ये भरी हुई थीं। नयी-नयी घनिष्ठता हुई थी सो सबकी आँख बचाकर पीछे से इन्हें बस –स्टैण्ड पर आकर मिलना पड़ता था, कॉपियों में चिट्ठियाँ देनी और लेनी पड़ती थीं। डब्ल्यू.ई.ए. और नाई वाला की पतली-पतली गलियों में, मकानों के सहारे छाँह में खड़े होकर बातें करते-करते सैकण्ड-सैकण्ड पर इधर-उधर देखना पड़ता था कि कहीं सरदारजी न चले आ रहे हों। सो उन दिनों दिमाग एकदम सही नहीं था...।’’

‘‘झूठ !’’ इस बार सुरजीत ने प्रतिवाद किया। वह चम्मच से यों ही प्याले को बार-बार छू रही थी, ‘‘आज तो अपनी सारी आगे-पीछे की गलतियाँ मेरे ही सिर मढोंगे....’’

‘‘मढोंगे ?’’ तारक मेरी ओर शिकायत से देखकर बोला, ‘‘हम सच कहते हैं मोहनदा, पिछले दिनों जाने कौन-सा मंत्र फूँक दिया था कि हमें लगता ही नहीं था जैसे हम इस दुनिया में रहते हैं। जैसे सोते में आदमी खाता चलता है। वही कुछ हालत हमारी हो गयी थी। न उस कॉलेज में मन लगे न घर पर। किसी से बात करो तो समझ में ही न आये कि क्या बात की जाये। खाना-सोना सब गोल हो गया था। एक बार ये गर्मियों-भर नहीं मिलीं, पता नहीं अपने अब्बाजान के साथ कहाँ शिमला-मसूरी चली गयीं, अब आप विश्वास कीजिए मोहनदा हम तो एकदम पागल ही हो गये।

अपने-आपको समझाते, गालियाँ देते कि यह कैसा प्यार है। दो महीने बाद किसी तरह मिलीं तो कहती हैं कि डैडी ने जालंधर के किसी कॉलेज में नाम लिखा दिया है, यहाँ नहीं रखेंगे। हम लोगों को लेकर किसी ने उनसे कुछ कह दिया है। यह समझिए कि हमारी तो किसी ने बस जान ही निकाल ली। इसके बाद तीन दिनों को फिर गायब हो गयीं। फिर मिलीं तो बीमार उदास। बोली, ‘डैडी ने बहुत मारा। बहुत मारा। दो दिन तो बिना खाना-पानी दिये कमरे में बन्द रखा। बड़ी मुश्किल से भागकर आयी हूँ और अब बिल्कुल भी नहीं जाऊँगी।’’ हमने भी कह दिया—एकदम मत जाओ। बस, मोहनदा, ये जैसी आयीं थीं, वैसे ही हम लोग आर्यसमाज गये, होटलवाले से मैंने तब आपका पता भी पूछा था तो उसने बताया कि वो तो कलकत्ता में हैं। बस, उसके दो दिन बाद हम लोग भी कलकत्ते की गाड़ी में बैठे थे..आप यों समझो कि हम तो ऐसे सारा कुछ कर रहे थे जैसे मंत्र से बँधा हुआ आदमी काम करता है...ट्रेन में जब मुगलसराय निकल गया तो होश आया, ये हमने क्या कर डाला है...।’’

सिर झुकाए सुरजीत जैसे भीतर की खुशी को ज़बर्दस्ती रोके रखकर गंभीर बने रहने की कोशिश कर रही थी। तारक का अपने-आपको इस प्रकार उसके लिए समर्पित कर देना, ख़तरे में डाल देना शायद कहीं उसे बहुत अच्छा लग रहा था।


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