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कहानी संग्रह >> मैं हार गई

मैं हार गई

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3785
आईएसबीएन :9788183612500

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मानवीय अनुभूति के धरातल पर आधारित कहानियां.....

Main har gai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस संग्रह की कहानियाँ मानवीय अनुभूति के धरातल पर रची गई ऐसी रचनाएँ हैं जिनके पात्र वायवीय दुनिया से परे, संवेदनाओं और अनुभव की ठोस तथा प्रामाणिक भूमि पर अपने सपने रचते हैं और ये सपने परिस्थितियों परिवेश और अन्याय की परम्पराओं के दबाव के सामने कभी-कभी थकते और निराश होते भले ही दिखते हों लेकिन टूटते कभी नहीं पुनःपुनः जी उठते हैं।

इस संग्रह में सम्मिलित कहानियों में कुछ प्रमुख हैं-ईसा के घर इनसान, गीत का चुम्बन, एक कमजोर लड़की की कहानी, सयानी बुआ, दो कलाकार और मैं हार गई। ये सभी कहानियाँ मन्नूजी की गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़, मध्यवर्गीय विरोधाभासों के तलस्पर्शी अवगाहन, विश्लेषण और समाज की स्थापित, आक्रान्ता नैतिक जड़ताओं के प्रति प्रश्नाकुलता आदि तमाम लेखकीय विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनके लिए मन्नूजी को हिन्दी की आधुनिक कहानी-धारा में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
जिन्होंने मेरी किसी भी इच्छा पर कभी अंकुश नहीं लगाया पिताजी को

 

ईसा के घर इंसान

 

फाटक के ठीक सामने जेल था।
बरामदे में लेटी मिसेज़ शुक्ला की शून्य नज़रे जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकी थीं। मैंने हाथ की किताबें कुर्सी पर पटकते हुए कहा- ‘‘कहिए, कैसी तबीयत रही आज ?’’
एक धीमी-सी मुस्कराहट उनके शुष्क अधरों पर फैल गई। बोलीं- ‘‘ठीक ही रही ! सरीन नहीं आई ?’’

‘‘मेरे दोनों पीरियड्स खाली थे सो मैं चली आई, सरीन यह पीरियड लेकर आएगी।’’ दोनों कोहनियों पर जोर देकर उन्होंने उठने का प्रयत्न किया, मैंने सहारा देकर उन्हें तकिए के सहारे बिठा दिया। एक क्षण को उनके ज़र्द चेहरे पर व्यथा की लकीरें उभर आईं। अपने-आपको आरामदेह स्थिति में करते हुए उन्होंने पूछा- ‘‘कैसा लग रहा है कॉलेज ? मन लग जायगा ना ?’’
‘‘हाँऽ.....मन तो लग ही जाएगा। मुझे तो यह जगह ही बहुत पसन्द है। पहाड़ियों से घिरा हुआ यह शहर और एकान्त में बसा यह कॉलेज। जिधर नज़र दौड़ाओं हरा-भरा ही दिखाई देता है।’’ तभी मेरी नज़र सामने के जेल की दीवारों से टिक गई। मैंने पूछा- ‘‘पर एक बात समझ में नहीं आई। यह कॉलेज जेल के सामने क्यों बनाया ? फाटक से निकलते ही जेल के दर्शन होते हैं तो लगता है, सवेरे-सवेरे मानो खाली घड़ा देख लिया हो; मन जाने कैसा-कैसा हो उठता है।’

रूखे केशों की लटों को अपने शिथिल हाथों से पीछे करते हुए मिसेज़ शुक्ला की कान्तिहीन आँखें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकीं। बोलीं- ‘‘सरीन जब आई थी तो उसने भी यही बात पूछी थी। पता नहीं क्यों कॉलेज के लिए यह जगह चुनी गई।’’ फिर उनकी खोई-खोई दृष्टि दीवारों में जाने क्या खोजने लगी। पैरों को कुछ फैलाकर उन्होंने एक बार फिर अपनी स्थिति को ठीक दिया, और बोलीं- ‘‘तुम लोग जब कॉलेज चली जाती हो तो मैं लेटी-लेटी इन दीवारों को ही देखा करती हूँ, तब मन में लालसा उठती है कि काश ! ये दीवारें किसी तरह हट जातीं या पारदर्शक ही हो जातीं और मैं देख पाती कि उस पार क्या है !

सवेरे-शाम इन दीवारों को बेधकर आती हुई क़ैदियों के पैरों की बेड़ियों की झनकार मेरे मन को मथती रहती है और अनायास ही मन उन क़ैदियों के जीवन की विचित्र-विचित्र कल्पनाओं से भर जाया करता है। इस अनन्त आकाश के नीचे और विशाल भूमि के ऊपर रहकर भी कितना सीमित, कितना घुटा-घुटा रहता होगा उनका जीवन ! चाँद और सितारों से सजी इस निहायतकी खूबसूरत दुनिया का सौन्दर्य, परिवारवालों का स्नेह और प्यार, जिन्दगी में मस्ती और बहारों के अरमान क्या इन्हीं दीवारों से टकराकर चूर-चूर न हो जाया करते होंगे ? इन सबसे वंचित कितना उबा देनेवाला होता होगा इनका जीवन-न आनन्द, न उल्लास, न रस।’’ और एक गहरी नि:श्वास छोड़कर फिर बोलीं- ‘‘जाने क्या अपराध किये होंगे इन बेचारों ने, और न जाने किन परिस्थितियों में वे अपराध किए होंगे कि यों सब सुखों से वंचित जेल की सीलन-भरी अंधेरी कोठरियों में जीवित रहने का नाटक करना पड़ रहा है....’’

तभी दूधवाली के कर्कश स्वर ने मिसेज़ शुक्ला के भावना-स्रोत्र को रोक दिया। मैं उठी और दूध का बर्तन लाकर दूध लिया। मिसेज़ शुक्ला बोली- ‘‘अब चाय का पानी भी रख ही दो, सरीन आएगी तब तक उबल जाएगा।’’ मैं पानी चढ़ाकर फिर अपनी कुर्सी पर आ बैठी। बोली- ‘‘मदर ने आपको पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है। आपकी जगह जिन्हें रखा गया है, वे कल से काम पर आने लगेंगी। आज शाम को शायद मदर खुद आपको देखने आएँ।’’

‘‘मदर यहाँ की बहुत अच्छी हैं रत्ना ! जब मैं यहाँ आई थी तब जानती हो, सारा स्टाफ नन्स का ही था। मेरे लिए तो यही समस्या थी कि इन नन्स के बीच में रहूँगी कैसे। पर मदर के स्वभाव ने आगा-पीछा सोचने का अवसर ही नहीं दिया, बस यहाँ बाँधकर ही रख लिया। फिर तो सरीन और मिश्रा भी आ गईं थीं। मिश्रा गई तो तुम आ गईं।’’
‘‘मुझे तो सिस्टर ऐनी और सिस्टर जेन भी बड़ी अच्छी लगीं। हमेशा हँसती रहती हैं। कुछ भी पूछों तो इतने प्यार से समझाती हैं कि बस ! बड़ी अफ़ेक्शनेट हैं। हाँ, ये लूसी और मेरी जाने कैसी हैं ? जब देखों चेहरे पर मुर्दनी छाई रहती है, न किसी से बोलती है, न हँसती हैं।’’

मिसेज़ शुक्ला ने पीछे से एक तकिया निकालकर गोद में रखा लिया और दोनों कोहनियाँ उस पर गड़ाकर बोलीं- ‘‘ऐनी और जेन तो अपनी इच्छा से ही सब कुछ छोड़-छाड़कर नन बनी थीं, पर इन बेचारियों ने ज़िन्दगी में चर्च और कॉलेज के सिवाय कुछ देखा ही नहीं। कॉलेज के पीछेवाले चर्च में रहती हैं और कॉलेज में काम करती हैं, बस यही है इनका जीवन ! अब तुम्हीं बताओं, कहाँ से आए मस्ती और शोखी।’’
‘‘वाह, यह भी कोई बात हुई। सिस्टर जूली को ही लीजिए, वह भी उम्र में इनके ही बराबर होगी, पर चहकती रहती है। बातें करेंगी तो ऐसी लच्छेदार कि तबीयत भड़क उठे। हँसेगी तो ऐसे की सारा स्टाफ़-रूम गूँज जाए, उसका तो अंग-अंग जैसे थिरकता रहता है।’’

‘‘वह अभी नई-नई आई है यहाँ, थोड़े दिन रह लेने दो, फिर देखना, वह भी लूसी और मेरी जैसी ही हो जाएगी।’ और एक गहरी साँस छोड़कर उन्होंने आँखे मूँद लीं। तभी सरीन हड़बड़ाती-सी आई और बोली- ‘‘ग़जब हो गया शुक्ला आज तो ! अब जूली का पता नहीं क्या होगा ?’’
‘‘क्यों, क्या हुआ ?’’ सरीन की घबराहट से एकदम चौंककर शुक्ला ने पूछा।
‘‘जूली फ़ोर्थ इयर का क्लास ले रही थी। कीट्स की कोई कविता समझाते-समझाते जाने क्या हुआ कि उसने एक लड़की को बाँहों में भरकर चूम लिया। सारी क्लास में हल्ला मच गया और पाँच मिनट बीतते-न-बीतते बात सारे कॉलेज में फैल गई। मदर बड़ी नाराज़ भी हुईं और चिन्तित भी। जूली को उसी समय चर्च में भेज दिया और वे सीधी फ़ादर के पास गईं।’’ और फिर बड़े ही रहस्यात्मक ढंग से उन्होंने शुक्ला की ओर देखा।

‘‘लगता है, आज जूली के भी दिन पूरे हुए !’’ बहुत ही निर्जीव स्वर में शुक्ला बोलीं। मुझे सारी बात ही बड़ी विचित्र लग रही थी। लड़की-लड़की को किस कर ले ! जूली के दिन पूरे हो गए-कैसे दिन ? दोनों के चेहरों की रहस्यमयी मुद्रा...मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी। पूछा-

‘‘फ़ादर क्या करेंगे, कुछ सज़ा देंगे ?’’ मेरा मन जूली के भविष्य की आशंका से जाने कैसा-कैसा हो उठा।
‘‘अभी-अभी तो रत्ना, जूली की ही बात कर रही थी और अभी तुम यह खबर ले आईं। सुनते हैं, जूली पहले जिस मिशनरी में थी, वहाँ भी इसने ऐसा ही कुछ किया था, तभी तो उसे यहाँ भेजा गया कि फिर कभी कोई ऐसी-वैसी हरकत करे तो फ़ादर का जादू का डंडा घुमवा दिया जाए।’’ और शुक्ला के पपड़ी जमे शुष्क अधरों पर फीकी-सी मुस्कराहट फैल गई।
‘‘जादू का डंडा ? बताइए न क्या बात है ? आप लोग तो जैसे पहेलियाँ बुझा रही हैं।’’ बेताब होकर मैंने पूछा।
‘‘अरे, क्यों इतनी उत्सुक हो रही हो ? थोड़े दिन यहाँ रहोंगी तो सब समझ जाओगी। यहाँ के फ़ादर एक अलौकिक पुरुष हैं, एकदम दिव्य ! कोई कैसी भी पतित हो या किसी का मन ज़रा भी विकारग्रस्त हो, इनके सम्पर्क में आने से ही उसकी आत्मा की शुद्धि हो जाती है। दूर-दूर तक बड़ा नाम है इन फ़ादर का। बाहर की मिशनरीज़ से कितने ही लोग आते हैं फ़ादर के पास शुद्धि के लिए।’’

‘‘चलिए, मैं नहीं मानती। मन के विकार भी कोई ठोस चीज़ हैं कि फ़ादर ने निकाल दिए और आत्मा-शुद्धि हो गई।’’ मैंने अविश्वास से कहा। कमरे में चाय के प्याले बनाकर लाती हुई सरीन से शुक्ला बोलीं-
‘‘लो, इन्हें फ़ादर की अलौकिक शक्ति पर विश्वास नहीं हो रहा है।’’
‘‘इसमें अविश्वास की क्या बात है ? हमारे देश में तो एक-से-एक पहुँचे हुए महात्मा हैं, तुमने कभी नहीं सुना ऐसी महान आत्माओं के बारे में ?’’

‘‘सुनने को तो बहुत कुछ है पर मैंने कभी विश्वास नहीं किया।’’
‘‘अच्छा, अब जूली को देख लेना, अपने आप विश्वास हो जाएगा। लूसी, जो आज इतना मनहूस लगती है, यहाँ आई थी तब क्या जूली से कम चपल थी ? फिर देखो ! फ़ादर ने तीन दिन में ही उसका कायापलट कर दिया या नहीं ?’’ शुक्ला ने सरीन की ओर देखते हुए जैसे चुनौती के स्वर में पूछा।
तभी डॉक्टर साहब आए। मिसेज़ शुक्ला ने इंजेक्शन लगाया और पूछताछ करने लगे। सरीन मुझे गरम पानी की थैली का पानी बदल देने का आदेश देकर नहाने चली गई। इंजेक्शन लगाने के बाद करीब घंटे-भर तक शुक्ला की हालत बहुत खराब रहती थी, मैंने उन्हें गर्म पानी की थैली देकर आराम से लिटा दिया। उनके चेहरे पर पसीने की बूँदे झलक आई थीं, उन्हें पोंछ दिया। वे आँखें बन्द करके चुपचाप लेट गईं।

मन में अनेकानेक प्रश्न चक्कर काट काट रहे थे और रह-रहकर जूली का हँसता चेहरा आँखों के सामने घूम रहा था। फ़ादर उसके साथ क्या करेंगे ? यह प्रश्न मेरे दिमाग को बुरी तरह मथ रहा था।

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