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घर फूँक तमाशा

जयनन्दन

प्रकाशक : ज्ञानभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3797
आईएसबीएन :81-85478-86-4

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रोचक कहानियों का संग्रह

Ghart Phoonk Tamasha

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण, सूचना प्रौद्योगिकी का विस्फोट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के विभिन्न चैनलों पर चौबीस घंटे ज्यादातर अपसंस्कृति भरे मैराथन कार्यक्रमों की रेस...देखते ही देखते दुनिया तेजी से बदलने लगी है और उस बदलाव से सामंजस्य बिठाने की कसरत में परिवार, समाज और देश का सारा गणित, सारी संहिता उलट-पुलट और आशा अपेक्षा से एकदम बेपकड़-बेकाबू हो गयी हैं। साहित्य के लिए यह चुनौती एक नया विषय बन कर उभरी है।

जयनंद ने इस चुनौती के हर पहलू की पर्त दर पर्त व्याख्या एवं पोस्टमार्टम को अपनी कहानियों में दर्ज करने का अद्भुत कला-कौशल दिखाया है। कहा जा सकता है की तनी हुई रस्सियों पर चलने की जोखिम उठाने वाली इस आत्मघाती नीतियों और नीयतों के सभी परिप्रेक्ष्यों को लेखक ने पूरे विवेक के साथ खंगाला है। इस विषय पर उनकी सात साल पहले लिखी गयी एक कहानी ‘विश्व बाजार का ऊंट’ बाजारवाद की मरुभूमि का आरंभ बिंदु कहानी साबित हुई है।

जयनंद की रचनाएं भाषित को और अधिकस्पष्ट और मुखर करती हैं। वे उनकी दुरभिसंधियों में फसने से आगाह करती हैं जिनमें शकुनियों, विभीषणों, जयचंदों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और मशीनवाद के प्रपंच छिपे हैं।

इस संग्रह की प्रायः कहानियाँ विषय की ताजगी, शिल्प की रवानगी और स्थितियों की पड़ताल की दृष्टि से जहां कहानी की नयी जमीन से परिचित करती हैं, वहीं जमीन की नयी कहानी की परितृप्ति भी देती हैं। वक्त में झांकना हो, उसे आइने के रूप में देखना हो, दस्तावेज के रूप में महसूसना हो, एक मुकम्मल कथाकृति के रूप में सामने पा कर मुग्ध होना हो, तार्किकता, संवेदना और आस्वादन को एक नया तेवर देना हो, कायल होना हो, चमत्कृत होना हो तो जयनंद के इस संग्रह की कहानियां एकमुश्त समाधान हैं।

घर फूंक तमाशा


रात्रि के दो बज गये। यों ही टीवी ऑन कर बैठा था टेकलाल। पर्दे पर क्या दृश्य उभर रहे हैं, वह देखकर भी कुछ देख नहीं रहा था। जब चित्त अशांत हो, तो चेहरे की आँखें एक कठपुतली की आँख भर हो कर रह जाती हैं। घर के सभी लोग अब तक सो चुके थे-दोनों बेटे, दोनों बेटियां। पत्नी कई बार सो जाने के लिए आवाज़ लगा चुकी थी। वह जाकर बिस्तर पर लेट गया। नींद नहीं थी उसकी आंखों में। उसकी मुकम्मल नींदें पिछले डेढ़ साल से हर महीने थोड़ा थोड़ा करके क़िस्तों में उससे छिनती रही थीं। कल सोफ़ा बिक गया, तो उसके साथ नींद की एक और क़िस्त भी चली गयी।

सोफ़ा बनवाना उसका एक सपना था, जिसे कई सालों में वह पूरा कर पाया था। विभिन्न मैन्युअलों में देखकर और कई फर्नीचर दुकानों में जा जाकर उसने एक मनोनुकूल डिजाइन का चयन किया था। मिस्त्री को इसे समझाने और दिखाने में कई हफ्ते लग गये थे। उससे लकड़ी का विवरण लेकर आरा मशीन में उसने सागवान की लकड़ी चिरवायी थी। इसे आकार देने के लिए मिस्त्री बुलवाने की स्थिति दो साल बाद आयी थी। मिस्त्री ने उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा था, ‘टेकलाल जी, इस सोफ़े को क्या आप पंचवर्षीय योजना की तरह पूरा करेंगे ?’’

टेकलाल ने कोई जवाब नहीं दिया था। वह जानता था कि पांच साल लग जाना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं है और सचमुच पांच साल लग ही गये। ढांचा बन गया, तब काफ़ी दिनों बाद पालिश करवायी, फिर काफ़ी दिनों बाद उसने फोम ख़रीद कर कुशन बनवाया। बैक पिलो और कवर आदि से लैस हो कर जब सोफ़े ने घर में अपनी जगह ली, तो यह देखने लायक़ एक आलीशान हाऊस होल्ड के कलेवर में ढल गया था। जो भी घर आता, सोफ़े को मुग्धभाव से देखता रह जाता-टेकसाल जैसे मामूली आदमी के घर में ऐसा भव्य सोफ़ा ! उसने अपने घर में बताया था कि उसके ख़ानदान के लिए यह पहला अवसर है, जब किसी ने सोफ़ा बनवाया कल वही सोफ़ा बिक गया।
टेकलाल हर आधे घंटे में उठ उठ कर पानी पीता और पेशाब करता। पत्नी ताड़ रही थी। सोयी वह भी नहीं थी। लेकिन मटिया कर वह यह दिखाना चाहती थी कि सो गयी।

अचानक कमरे की बत्ती जल उठी। बड़ा लड़का विशेष सामने खड़ा था।
‘‘पापा, मैंने देख लिया आप अब तक जाग रहे हैं। मां भी सिर्फ़ सोने का दिखावा कर रही है...आख़िर कब तक आप लोग जागते रहेंगे ?’
‘‘अरे भाई, मैं तो सोया ही हुआ था, अभी अभी तो पानी पीने के लिए उठा हूं।’
‘आज आपकी झूठ मैंने पकड़ ली, पापा। जिस सोफ़े को आपने बेंच दिया, उसके आकार लेने की कहानी, मेरे मन में कल से ही आगे-पीछे हो रही है। नींद मुझे भी आज नहीं आयी। पापा, आख़िर ऐसा क्यों हैं कि हमारी क़िस्मत दूसरों की मर्ज़ी पर डिपैंड हो जाती है। दूसरों के किये की सजा हमें भोगनी पड़ती है। चंद लोग मूर्खता और नालायक़ी करते हैं और उससे त्रस्त पूरा देश हो जाता है। आख़िर ये कारख़ाने बंद क्यों हो रहे हैं ? इस घर फूंक तमासे का कौन ज़िम्मेदार है...आपने तो कुछ नहीं बिगाड़ा ?’

कोई जवाब नहीं था टेकलाल के पास। उसने कहा, ‘‘इसका जवाब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और अमेरिका के सिवा शायद इस देश में किसी के पास नहीं है, बेटे ! हमने तो देख ही लिया है कि भिन्न विचारों वाली कई सरकारें आयीं-गयीं किसी से यह घर फूंक तमाशा रोकना संभव नहीं हुआ। खैर, इस मुद्दे पर मुझे अकेले शोक करने दो और तुम अपने लिए कोई युक्ति निकालो। मुझे उम्मीद है कि तुम कोई नौकरी जरूर ढूंढ़ लोगे।’’
‘‘मुझे तो इसकी कोई उम्मीद नहीं दिखती। एक नौकरी के लिए जहां एक एक हजार उम्मीदवार हों, वहां ऐसी उम्मीद महज एक ख़ुशफ़हमी है, पापा। नये की छोड़िए, जब पुराने नौकरीशुदा लोग नौकरी से हर जगह सरप्लस बता कर हटाये जा रहे हैं, जब हज़ारों संस्थान बंद हो रहे हैं, कंप्यूटर और रोबोट आदमियों की जगह ले रहे हैं, तो नयी युक्ति के फिर स्कोप ही कहां बचते हैं ?’’

‘‘विशेष ! माँ ने हस्तक्षेप किया, ‘‘दुनिया फिर भी चलेगी, बेटे...कोई रास्ता तो निकलेगा ही। तुम्हें अभी से ज़रा सा भी निराश नहीं होना चाहिए। हमारे आगे जीने का आधार तो तुम्हें ही बनना है। चलो, अभी हम सो जायें।’’
टेकलाल जानता है कि कहना आसान है, लेकिन ख़ुद को भी समझाना इतना आसान नहीं होता। वह अपनी हालत ज़रा सा भी सामान्य कहां कर पा रहा है।
समय काटे नहीं कटता, जैसे दिन-रात की मियाद बरस भर लंबी हो गयी हो। टेकलाल को लगता है कि इसी गति से वह बूढ़ा होने लगा है, अर्थात् एक दिन-रात में उसकी आयु एक बरस जितनी कम होने लगी है।
एक आयु की ढलान ही है कि बहुत तेज़ी से बढ़ रही है, बाक़ी तो सब कुछ रुक ही गया है..बच्चों का पढ़ना, बीमारी का इलाज, ब्याह-शादी, जिंदगी की हंसी-ख़ुशी और शौक़-लुत्फ़। बल्कि यह सब कुछ रुक गया है, इसीलिए आयु और भी ते़ज़ी से हाथ से फिसल रही है...और यह सारा कुछ इसीलिए रुक गया है, क्योंकि उसका कारख़ाना रुक गया।

यह कारख़ाना स्टील वायर प्रोडक्ट लि. जो अब तक अरबों कील-कांटी बना चुका होगा और उन कील कांटियों पर अब भी कितना कुछ टिका होगा, कितना कुछ टंगा होगा...लेकिन आज यह कारख़ाना ख़ुद ही बेकील हो गया। नट-बोल्ट और वायर-रड भी इसके मुख्य उत्पाद थे। इसके बनाये नट-बोल्टों और वायर-रडों पर न जाने कितने स्ट्रक्चर खडे होंगे, कितने मोटर साइकिल के पहिये घूम रहे होंगे, कितनी छतरियाँ तनी होंगी, कितने ऊंचे ऊंचे वाटर टावर क़ायम होंगे, कितनी रेल पटरियाँ फिक्स होंगी, कितनी छतें टिकी होंगी..मगर आज उन मूलभूत उत्पादों का निर्माता ख़ुद ही टिका न रह सका..दूसरों को थामने का जरिया उपलब्ध कराने वाला ख़ुद ही थमे रहने के लिए जरिये का मोहताज़ हो गया। यह कैसी विडंबना है ?
बताया गया कि करोड़ों रुपये का बिजली बिल बकाया हो गया था। लाइन काट दी गयी। प्रबंधन की ओर से कहा गया कि माल बिक नहीं रहा। विदेशी माल से देशी बाज़ार अटा पड़ा है। इनके सामने माल बिकता भी है तो बहुत घाटे के सौदे पऱ। घाटा बढ़ कर अब एकदम बेकाबू हो गया है। कारख़ाना चलाने से ज़्यादा फायदेमंद है इसका न चलाना।
सभी मज़दूर और यूनियन के लोग हैरान हैं। पहले तो यही कारख़ाना ख़ूब बम बम चल रहा था...ख़ूब प्रॉफिट कर रहा था। मज़दूरों को एकदम समय पर वेतन और बोनस दिये जा रहे थे। सबकी गुज़र-बसर ठीक-ठाक हो रही थी। माल का न बिकना तो कोई मुद्दा ही नहीं था। ओवरटाइम करवा कर प्रोडक्शन करवाया जाता था, ग्राहकों की मांगें फिर भी पूरी नहीं होती थीं।

यूनियन किसी चीज़ को ले कर एक दिन की भी हड़ताल की धमकी देती थी, तो प्रबंधन में अफरा-तफरी मच जाती थी कि सारा संतुलन बिगड़ जायेगा।
आज कैसा वक्त आ गया है कि मालिक स्वयं कारख़ाना बंद कर देने में अपना भला समझ रहा है, जबकि यूनियन चाहती है कि यह किसी भी शर्त पर चलता रहे। लेकिन यूनियन का कुछ भी नहीं चल रहा। इस समय सबसे नकारा और अस्त्रहीन कोई संगठन बन गया है तो वह है यूनियन। न इसे सरकार का समर्थन है, न अदालतों का। बंद को अब मालिक ने अपना अस्त्र बना लिया है और वह इसके उपयोग के लिए एकदम आज़ाद है।
टेकलाल रोज किसी न किसी फैक्टरी के बंद होने की ख़बर अख़बार में पढ़ लेता है। अब तक देश की अच्छी भली चलने वाली हजारों फैक्टरियां बंद हो गयीं और लाखों कामगार बेरोज़गार हो गये। क्या सबकी हालत टेकलाल जैसी ही नहीं हो गयी होगी ?

यहां तक सबकी हालत कमोबेश एक जैसी ही है। हमेशा हंसने और मज़ाक़ करने वाले चेहरे को भी मानो काठ मार गया है। उसके सात काम करने वाला मिल ऑपरेटर सोनाराम के होंठों पर सुनाने के लिए हमेशा कई नये चुटकुले धरे होते थे और कुछ साथियों से वह हरदम घिरा होता था। आजकल बंद मिल के सामने बोरा और पेपर आदि बिछाकर मायूस और बदहवास से लोग बैठे रहते हैं, उनमें सोनाराम भी होता है। लेकिन चुटकुले की जगह लगता है उसके होंठों से एक विलाप रिस रहा हो। लगभग पांच सौ मीटर लंबी विशाल मिल की शिथिल और निष्प्राण काया को लोग यों निहारते रहते हैं, जैसे अपने सबसे घनिष्ठ और खास शुभचिंतक के शव देख रहे हों। मिल चलती थी तो फर्नेस से गरम बिलेट (इस्पात पिंड) रोलर से रोल हो कर गुजरता था और तार बन कर इतनी तेज़ी से ऑटोमेटिकली क्वॉयल में बदल जाता था, जैसे एक मिसाइल छूटने का दृश्य उपस्थित हो गया और इससे ध्वंस का नहीं, निर्माण का एक अजस्र संगीत फूटने लगा हो। टेकलाल सोचता रहता था कि इस मिल में लगभग 100 करोड़ की लगी पूंजी क्या यों ही व्यर्थ हो जायेगी ? बेचारी यह मिल तो अब भी पूरी तरह तैयार है। ज़रा सी बिजली दौड़ा दी जाये, तो तुरंत प्रोडक्कशन चालू हो जायेगा और निर्माण के संगीत शुरू हो जायेंगे। देश भर में न जाने ऐसी कितनी पूंजी बंद मिलों के रूप में जंग खा जाएगी। क्या राष्ट्रीय धर्म पर प्रवचन करने वालों को इस राष्ट्रीय पाप का एहसास नहीं होना चाहिए।

दस माह बंद रहने के बाद आठ माह पहले पता नहीं किस अस्थायी मक़सद को ले कर यह कारख़ाना चालू किया गया था। सभी थके हारे मजदूरों में एक नयी जान आ गयी थी। पूरे तन-मन से वे अपने काम में भिड़ गये थे। टेकलाल मिल का चीफ़ ऑपरेटर था। उसने अपने अधीनस्थ सभी साथियों से कहा कि हमें मात्रा, गुणवत्ता और लागत के मामले में इतना अच्छा प्रदर्शन कर देना है कि कम दाम में भी माल बेच कर मालिक को नुकसान न उठाना पड़े और बंद करने की नौबत ही ख़त्म हो जाये। ऐसा किया भी सबने मिल कर। मज़दूरों की यह एक अभूतपूर्व संलग्नता थी कि वे घर तक जाना भूल जाते थे। टेकलाल तो घर में भी होता था, तो ध्यान कारख़ाने पर ही लगा रहता । जी नहीं मानता तो बीच बीच में क्वार्टर से आ कर घंटे-दो घंटे के लिए फिर काम में भिड़ जाता।

इस दौरान मजदूरों की क़ॉलोनी में फिर से चहल-पहल बहाल हो गयी। बच्चों के जो मैदान और पार्क सन्नाटे में घिर गये थे, उनमें फिर से किलकारियाँ गूंजने लगीं। सहम-दुबक जाने वाली महिलाओं की बैठकबाजियां फिर से जमने लगी। युवाओं-युवतियों के ठहाके और अनावश्यक भाग—दौड़ फिर चालू हो गयी। प्रेम करने वाले जोड़ों के ठहरे हुए संवाद आगे चल पड़े। क्वार्टरों और फ्लैटों के रसोईघरों से तेल-मसाले की तेज़ ख़ुशबुएं फिर से हवा में तैरने लगीं। मतलब, एक कारख़ाने के चालू ताल पर सारा कुछ सुरीला और लयात्मक हो गया। काश कि यह ताल स्थायी हो जाता।
तीन महीने बाद कारख़ाना फिर बंद कर दिया गया। बिजली कट गयी और मालिक ने मज़दूरों से कहा, ‘‘हम कोशिश में हैं कि नये उपाय करके इसे फिर चालू कर सकें। तब तक आधी पगार हम आपको देते रहेंगे।’’
कॉलोनी ने मैदानों, पार्को, सड़कों, क्लबों आदि को जैसे फिर किसी शोक ने डंस लिया।

पूरी पगार जब मिलती थी, तब भी काट कपट कर ही जीवन चलता था, अब तो आधी में जैसे तैसे सिर्फ़ पेट ही भरा जाना संभव था। विशेष भुवनेश्वर में रह कर बी.एस.सी.कर रहा था। चूंकि बिहार में दो साल की पढ़ाई चार-पांच साल से पहले पूरी नहीं होती थी। जब उसे यह जानकारी मिली कि कारख़ाना तीन महीने चल कर फिर बंद हो गया, वह पढ़ाई छोड़ कर टाटा आ गया। जानता था कि पिता वापस नहीं बुलायेंगे और घर में जब तक बेचने के लिए सामान होंगे, वे बेचते रहेंगे और जितना ज़्यादा संभव हो सकता है, उसे पैसे भेजते रहेंगे और अपनी दो जून की रोटी की भी परवाह नहीं करेंगे। परिवार के साथ रह कर आधी पगार में कम से कम सबको रूखा-सूखा खाना तो मिल जायेगा।

शाम को सोनाराम टेकलाल के घर आ जाता या फिर टेकलाल सोनाराम के पास चला जाता। मुसीबतों के दो सहयात्री नये नये उपजे अपने दुखों की गुत्थियों को सुलझाने की नाकाम कोशिश करते और अपनी उदासी पहले से कुछ और बढ़ा लेते। एक दिन सोनाराम ने बताया, ‘‘मेरी बिन ब्याही ब़डी बेटी गर्भ से रह गयी थी और कल वह यह कह कर घर से चली गयी कि मैं जा रही हूं बाऊजी। यहां आपकी कई मुसीबतों के ऊपर एक बड़ी मुसीबत बन कर मैं रहना नहीं चाहती। मेरा ब्याह करना आपके वश में नहीं रहा..यह जानती हूँ। इसलिए जोख़िम उठा कर जा रही हूँ...जो होगा अच्छा ही होगा। अच्छा नहीं भी होगा, तो इससे बुरा भी क्या होगा कि मैं कुंवारी माँ बन जाऊंगी और लोग आपकी हँसी उड़ायेंगे।’’
वह कहां गयी..किसके साथ गयी ? टेकलाल सोनाराम से पूछना चाहता था, लेकिन यह सोच कर नहीं पूछा कि हो सकता है इसका जवाब इसके पास भी न हो।

सोनाराम ने आगे ख़ुद ही कहा था, ‘‘मैं ही इसका ज़िम्मेदार हूँ, टेकलाल भाई ! इस लड़की के ब्याह को सोचकर मैंने एल.आई.सी. में एक स्कीम ले रखी थी। कारख़ाना बंद हो गया तो स्कीम भी बंद हो गयी। और पिछले साल इसके पैसे निकाल कर पत्नी की बीमारी में लगा दिए। शादी में देने के लिए कई सामान ख़रीद कर रखे थे...कुछ गहनें कुछ घरेलू सामान, पलंग,टी.वी., अलमारी, डाइनिंग सेट, किचन सेट। एक एक करके वे भी बिक गये। बेटी की उम्मीद दम तोड़ती चली गयी। मैं सचमुच उसका ब्याह करने लायक़ कहां रह गया था। पहले तो दो-एक लड़के वाले लड़की देखने और बात चलाने में दिलचस्पी भी ले रहे थे, अब कोई दिलचस्पी नहीं लेता। बंद कारख़ाने के लेबर से लेन-देन की अपेक्षा नहीं रखी जा सकती न !’’

टेकलाल का ध्यान अपनी बेटियों पर चला गया। बड़ी वाली अब वयस्क हो रही है। दसवीं में पढ़ती है...लेकिन अब शायद ही आगे पढ़ सके। कहती है मन नहीं करता। नवीं तक तो कक्षा में पाँच अव्वलों में शामिल रहा करती थी। दसवीं में फेल हो गयी। पटरी पर कुछ रह ही नहीं गया, तो यह कैसे रहती। इस लड़की का कुसूर क्या है।
छोटी लड़की को उसने बड़े शौक से अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवाया था। सात साल पढ़ी वहां। इस साल हटा कर सरकारी स्कूल में डालना पड़ा। बहुत कुंठित और हीन भावना से ग्रस्त रहती है।
छोटा लड़का अशेष उच्च प्रथम श्रेणी से इंटर पास करके इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की कोचिंग लेने लगा था, कहा था, ‘‘आप मुझे चांस दीजिए, पापा। मैं आपको इंजीनियर बनकर दिखा दूंगा।’’

बेटे के आत्मविश्वास को देखते हुए टेकलाल अपने खयालों में यह पुलाव पकाने लगा था कि उसका यह होनहार और मेधावी बेटा लगता है उसकी मज़दूर क्लास हैसियत को ऊपर उठा कर रहेगा..। वह जानता था कि यों ऐसा कम ही होता है कि मज़दूर का लगा ठप्पा मिट जाये...फिर भी इस कम की पंक्ति में उसे शामिल होना है।
टेकलाल अब समझ गया कि आसान नहीं है वर्गांतरण। अशेष को कोचिंग छोड़नी पड़ी। अगर प्रवेश परीक्षा पास भी कर जाता है। तो इंजीनियरिंग की ऊंची फीस कहां से आती। इंजीनियरिंग की ऊंची फीस अपने आप में एक तल्ख़ सच्चाई है कि गरीब के बेटे के लिए नहीं है यह पढ़ाई ! यह पढ़ाई उसके लिए है जो सिर्फ मेधावी ही नहीं, सुखी संपन्न भी हो।
अशेष ने कहा, ‘‘अब मैं कोई नौकरी नहीं करूँगा पापा। अब इस समाज के झाड़ झंखा़ड़ को साफ़ करने की मुहिम में मैं शामिल हो रहा हूँ। मैं एक पार्टी ज्वाइन कर रहा हूं, अब मैं उसका होलटाइमर सदस्य हूंगा। आप लोग अब मुझे भूल जाइए।

टेकलाल उसका मुंह देखता रह गया। मुंह देखने के सिवा उसके पास और मुंह भी कहां था कि उसे रोक पाता। अशेष उसके सामने ही घर की चौखट लांघ कर बाहर हो गया। उसकी मां उमा देवी अपने रुंधे गले से उसे पुकारने की कोशिश करती रह गयी, जिसे वे बुद्ध की तरह अनसुना करके चलता चला गया।
बंदी के लगभग डेड़ साल तक हर महीने एक से दस तारीख़ के बीच आधी पगार मिल जाया करती थी। इसके बाद ऐसा होने लगा कि मिलने की तारीख़ अनिश्चित हो गयी। लोग व्यग्र प्रतीक्षा करते और तारीख़ें टलती जातीं..कभी पच्चीस, कभी उनतीस, कभी इकत्तीस।
एक दिन प्रबंधन की ओर से कहा गया कि पगार जब भी देनी होगी, हम आपको ख़बर कर देंगे। अब कारख़ाने में आ कर आठ घंटे बैठने की कोई ज़रूरत नहीं है। आप अपने घरों में रहें या अन्यत्र कोई काम करना चाहें तो करें।
मज़दूरों की तरफ़ से लोग संशय में घिर गये...कहीं यह प्रबंधन की कोई चाल तो नहीं हैं ? कुछ लोगों ने अपनी आवाज़ मुखर की, घर में आख़िर हम बैठ कर करेंगे भी क्या ? यह कारख़ाना हमारे लिए कर्मस्थल ही नहीं, पूजास्थल भी है। हमें यहां आने से न रोका जाये। बाहर हम काम भी क्या करेंगे...कहाँ करेंगे। अब इस उद्योग नगरी में जीवित उद्योग रह ही कितने गये हैं कि हमें काम मिलेगा।’’

प्रबंधन ने कहा, ‘‘ठीक है...अगर आप अंदर ही आ कर बैठना चाहते हैं, तो बैठें। हम तो इस ख़याल से कह रहे थे कि आपको आज़ादी दी जाये, ताकि आजीविका के लिए अपने मनोनुकूल जुगाड़ बैठाने में आप कोई पाबंदी महसूस न कर सकें।’’
टेकलाल ने इस निर्णय पर बहुत राहत महसूस की। घर में तीसों दिन चौबीस घंटे रहना एक बहुत बड़ी यातना तो है ही, दुनिया से बुरी तरह कट जाने की एक मर्मांतक वेदना भी है।

पहले कारख़ाने ने शिफ्ट शुरू होने वाले घंटे में अर्थात् ए शिफ्ट के लिए सुबह छह बजे, जनरल शिफ्ट के लिए सात बजे, बी शिफ्ट के लिए दोपहर दो बजे और सी शिफ्ट के लिए रात दस बजे सायरन बजा करता था। अब सायरन नहीं बजता, इससे अब लगता ही नहीं कि यह कोई औद्योगिक नगरी है। सायरन ड्यूटी की मानसिकता बनाता था और भीतर एकनयी तरंग पैदा करता था। टेकलाल सायरन के बिना भी ठीक सात बजे कारख़ाने में दाख़िल हो जाता है। रास्ते में सोनाराम को भी अपने साथ कर लेता है। सोनाराम की आदत थी वह गेट पर पान की गुमटी से एक बंडल बीड़ी रोज़ ख़रीदता था। अब उसने बीड़ी पीनी भी छोड़ दी और न भी छोड़ी होती, तो यहां से वह बीड़ी नहीं ख़रीद पाता। बीड़ी का ही क्या, चाय-पकौड़ी, भुंजा-सत्तू, खैनी-चूना आदि की यहां कई गुमटियां अवस्थित थीं, वे सब अब बंद हो गयी हैं। पान के कई घनघोर शौक़ीनों ने पान खाना छोड़ दिया। कुछ मज़दूर ऐसे थे जिन्हें पहले कोई लत नहीं थी, अब वे शराब की लत में फँस गये हैं। क़र्ज़ा ले ले कर शाम होते ही वे दारू की बोलतें ले कर बैठ जाते हैं। आबाद होने के लिए शायद कुछ आसार बचा ही नहीं बाक़ी तो बर्बाद होने की राह पर वे बढ़ गये। ऐसे आत्महंता मज़दूरों की आधी पगार को भी हड़प जाने के लिए कारख़ाने के गेट पर पठान मंडराते नज़र आ जाते या फिर उधार वसूलने वाले महाजन दुकानदार चक्कर काटते दिख जाते।
सभी जानते थे कि किसी भी समय यह आधी पगार भी रुक सकती है और यह सच हो गया, पगार रुक गयी। मज़दूर आंख फाड़े और मुंह बाये रह गये। टेकलाल सोनाराम आदि बैठे होते कभी वायर मिल के सामने, कभी रड मिल के सामने, कभी नट-बोल्ट के मशीन सेक्शन के सामने, कभी बार्बेड वायर (कंटीले या फेंसिंग तार) मिल के सामने। ऑफ़िस की ओर से कोई चपरासी, क्लर्क या ऑफ़िसर आता दिखता, तो उनकी उत्कंठा तीव्र हो जाती...कहीं वे ख़बर करने तो नहीं आ रहे है कि पगार आ गयी है।

मगर इस पगार को नहीं आना था और कई महीने हो गये वह नहीं आयी। जाहिर हैं, यहीं से पेट चलाने के लिए घर के सामान औने-पौने दाम में बिकने शुरू हो गये।

सोफ़ा के बाद टेकलाल ने टीवी बेच दिया। बैंक से छत्तीस क़िस्त में चुकता होने वाला क़र्ज़ ले कर यह कलर टीवी ख़रीदा था। बैठे ठाले वक़्त को गुज़ारने का यह सबसे बड़ा मुफ़्तख़ोर साधन था। इसे लगातार दो-तीन घंटे देखने पर दो-तीन घंटे की अधमरी नींद आ जाती थी। अब फ़ालतू में बैठना भी मुहाल हो गया और सोना भी।
जिस दिन टीवी बिका, उसी दिन बड़ा बेटा विशेष रेल किराये के नाम पर कुछ रुपये ले कर किसी दूसरे शहर के लिए चल पड़ा। कहा, ‘‘अब इस मरते हुए शहर में आप पर बोझ बन कर रहना अन्याय हैं। मैं जा रहा हूं पापा...कहां जाना है, यह मालूम नहीं...तीन-चार शहरों में ज़ोर आजमाइश करूंगा, जहां कोई काम मिल जायेगा...वहां टिक जाऊंगा और फिर आपको ख़त लिखूंगा।’’

टेकलाल के दिमाग़ में अचानक कौंधा कि पहले दूरदराज़ के शहरों या गाँवों से लोग इस औद्योगिक शहर में आते थे और इन्हें उनकी क़ाबिलियत के लायक बड़े या फिर छोटे काऱख़ाने में प्राय: काम मिल जाता था। आज इस औद्योगिक शहर से विस्थापित हो कर काम की तलाश में दूसरी गैरऔद्योगिक जगह जाना पड़ रहा है। क्या आर्थिक उदारीकरण का लक्ष्य इसी रसातल स्थिति पर पहुंचना था कि देश के तमाम मज़दूरी के अवसर और मज़दूरों की ख़ुशियों में एक साथ सेंध लग जाये ?

कई महीने गुज़र गये..आधी तनख़्वाह के फिर से शुरू होने की उम्मीद पर पानी फिरा का फिरा ही रह गया। इस बीच पता नहीं कौन सा वह स्रोत था जहां से यह ख़बर फैला दी जाती कि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी से मालिक की बात चल रही है, कारख़ाना जल्द चालू कर दिया जायेगा। स्थानीय अख़बारों में इस आशय की ख़बरें बीच बीच में छप जाया करतीं। टेकलाल को इस तरहकी ख़बर पढ़ना अच्छा लगता। एक दिन ऐसी ही एक ख़बर को पढ़ कर भाषा की भूमिका ने उसे बांध लिया और उसे लगा कि इसमें सच्चाई है। बहुत उत्साहित हो कर वह घर लौटा।

उमा देवी चौंक गयी, ‘‘क्या बात है, कोई नौकरी तो आपको नहीं मिल गयी। अर्सा बाद आप इतना ख़शु दिख रहे हैं।’’
उसने कहा, ‘‘अब इस उम्र में भला मुझे कौन नौकरी देगा। था वह कोई ज़माना जब मालिक ने मेरे स्किल को देख कर मुझे इसरार करके बुलाया था और बहाली दी थी। आज ख़ुश इसलिए हूँ कि एक अख़बार ने बहुत ज़ोर दे कर लिखा है कि कारख़ाना निश्चित रूप से जल्दी ही चालू हो जायेगा।’’
पता नहीं क्यों उमा देवी को इस पर ज़रा सा भी यकीन नहीं हुआ और किसी ख़ास मक़सद से छपवाया गया अख़बार का यह एक सफ़ेद झूठ प्रतीत हुआ। फिर भी पति के चेहरे पर अर्से बाद उभरे हर्ष के प्रतिबिंब को तिरोहित नहीं करना चाहती थी वह। अत: उसने भी कह दिया, ‘‘हाँ, मैंने भी सुना है..पड़ोस की औरतें चर्चा कर रही थीं कि अब यह कारख़ाना जल्दी ही खुल जायेगा।’’

टेकलाल हर्षावेग में चहक उठा, ‘‘तुमने भी ऐसा सुना, मतलब काफ़ी चर्चा है इसकी, तब तो इसमें ज़रूर ही सच्चाई है।’’
उसने पत्नी से खाना मांगा और बंधी खुराक से दो रोटी ज़्यादा खायीं। रोज़ उमा देवी के कई बार कहने पर वह अनमने भाव से खाने बैठा करता था। उसने खाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे सारे कपड़ों पर कई कई पैबंद चढ़ गये हैं। पहली पगार मिलते ही तुम्हारे और बच्चियों के नये कपड़े बनवा दूंगा।’’
उमा देवी ने कहा, ‘‘तुम्हारे कपड़े भी तो सारे फट गये हैं। कारख़ाने के लिए जो नीली ड्रेस मिली थी, अब तो वह भी साबुत नहीं बची है। तुमने घूमने फिरने में भी इसका ही उपयोग किया। मैं तो तुम पर तरस खा खा कर रह गयी।’’
‘‘ठीक है, मिल चालू होगी तो नयी ड्रेस भी मिल जायेगी, मेरा काम चलने लगेगा, तुम लोगों के तो सिलाने ही होंगे।’’

उस अख़बार में कारख़ाना शुरू होने के बारे में जो कुछ छपा था, छह-सात दिन बाद एक दूसरे अख़बार ने उसे पूरी तरह निरस्त कर दिया। उसने छापा कि मालिक को मिल चलाने से कोई मतलब नहीं है। वह किसी से कोई बात नहीं कर रहा। इस समय वह यहां की गर्मियों से बचने के लिए पेरिस और लंदन की सैर का मज़ा ले रहा है। अगर वह इसे बेचेगा भी तो यहां दूसरे उद्योग लगेंगे और दूसरे मज़दूर बहाल होंगे।
इस ख़बर को पढ़ते ही टेकलाल फिर से पस्त हो गया जैसे उसकी उम्र दो साल और फिसल गयी।

अब तो बेटे पर ही आस बंधी थी। चिट्ठी का उसे इंतजार था। ऐसी चिट्ठी जिसे पढ़ कर उसकी उम्र चार साल पहले वाली हो जाती। लेकिन ऐसी चिट्ठी नहीं आयी। आयी भी तो एकदम ठंडी और दयनीय सी। लिखा था, ‘‘मेरी चिंता आप लोग न करें। मैं मुंबई में हूं और ठीक ठाक हूं।’’
टेकलाल को लगा कि शायद उसे कोई काम मिल गया है। अगली बार ज़रा गर्मजोशी से लिखेगा। मगर अगली बार उसने ऐसा ही लिखा, ‘‘मैं ठीक हूं, आप लोग मेरी चिंता न करें।’’
टेकलाल झुंझला गया, ‘‘अरे भाई, ठीक हो तो क्या ठीक हो, क्या कर रहे हो...यह क्यों नहीं बताते।’’
एक दिन सोनाराम ने दबे स्वर में एक राज खोलने की तरह कहा, ‘‘टेकलाल भाई, टीवी नहीं होने के कारण आपने परसों का समाचार तो नहीं देखा होगा। मैंने सेठ की दुकान में देखा। असामाजिक तत्त्वों का एक गिरोह दिखाया जा रहा था जिसे पुलिस ने गिरफ़्तार किया हुआ था। उसमें कुछ लड़कों से सवाल पूछे जा रहे थे..मुझे तो ऐसा लगा कि उसमें एक आपका बेटा विशेष भी था।’’







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