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विविध उपन्यास >> धूमकेतु एक श्रुति

धूमकेतु एक श्रुति

श्रीनरेश मेहता

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3801
आईएसबीएन :81-214-0221-2

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नरेश मेहता का एक बहुचर्चित उपन्यास

Doomketu Ek Shruti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हमारा मन दर्पण नहीं, प्रिज़्म है। कोई भी प्रभात की किरण केवल प्रतिछायित नहीं होती बल्कि हममें नया रूप, आकार एवं रंग ग्रहण कर लेती है, इसीलिए प्रिज़्म सृष्टि है तथा दर्पण अनुकृति। हम प्रायः जिन्हें साधारण घटनाएं मानते हैं वे किन गहरे संस्कारों को जन्म देती हैं, इसकी अभिव्यक्ति एवं अनुभव ही विशिष्टता है। आकाश में दिखने वाले धूमकेतु की भी यही वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर हममें घटती है। यद्यपि दोनों ही जटिल प्रक्रियाएं हैं।

यह धूमकेतूत्व या विशिष्टता सबमें होती है लेकिन वातावरण के प्रसार वायु-वेग को झेल कर जो सुलग उठते हैं, उन्हें ही इस वैशिष्ट्य की प्रतीति होती है। इसी लिए मात्र वैशिष्ट्य ही नहीं उसकी प्रतीति महत्त्वपूर्ण होती है।
कथानायक उदयन इसी प्रतीति को या धूमकेतूत्व को यहां मात्र प्रस्तुत भर कर सकता है। आप इस ‘श्रुति-विस्तार’ के साथ एक महायात्रा आरंभ करते हैं। अतएव एक महायात्री का सा धैर्य, गांभीर्य एवं विराट् रागबोध भी अपेक्षित है क्योंकि संभव है अनजाने ही आप अपनी ही जीवन-गाथा के साथ कहीं न कहीं चल रहे हों।
इस उपन्यास का शिल्प, रागबोध तथा संवेदन हिंदी उपन्यास के लिए अभिनव है तथा लेखक श्री नरेश मेहता का नितांत अपना है।

इस उपन्यास की नियोजना, एक संपूर्ण बृहत गाथा की है। इस नियोजना का विभाजन भी संगीत के आधार पर ही किया गया है। राग का समारंभ ‘विस्तार’ कहलाता है। उपरांत ‘आलाप’, ‘सम’ और ‘समापन’ (या विलयन) होता है। इसी अर्थ एवं उपक्रम में यह गाथा प्रस्तुत होनी है। यह ‘श्रुति विस्तार’ है। अस्तु—

इस उपन्यास का शिल्प किंचित् अप्रचलित है अतएव थोड़ा स्पष्टीकरण आवश्यक है। एक तो यह कि प्रथम-पुरुष शैली प्रयुक्त हुई है। जीवनी का भ्रम हो सकता है लेकिन यह उपन्यास है। ‘मैं’ व्यक्ति है लेखक नहीं। भावनाओं की तीव्रता के लिए यह शैली अपनायी गयी है। मुझे विश्वास है इससे आपके भी राग-बोध में निजता का ही अनुभव होगा। बाधा तो नहीं ही।
दूसरे, इसमें खंडचित्र हैं। इसका कारण यह है कि शिशु संपूर्ण नहीं ग्रहणता वरन् वह खंडों में ही देखता है। स्थितियों, व्यक्तियों और संबंधों को सूत्रित करना बहुत बाद में सीखता है। इसलिए इसमें कथा होते हुए भी कथात्मकता संभवतः उतनी नहीं होगी। लेकिन प्राथमिकता से ऊपर भी कला का एक स्वत्व होता है। अस्तु—

इससे अधिक इस उपन्यास के बारे में कहने की स्थिति में मैं नहीं हूं, क्योंकि अभी उदयन मुझमें बहुत है। वह संपूर्ण विदा ले ले तब संभव है कोई विवेचना हो सके। अंत में, मात्र यही निवेदन है कि जिस प्रकार मुझे उदयन की एकांत प्रतीक्षा है यदि वैसे ही आपको हुई तो मैं अपना धर्म और कर्म दोनों सार्थक समझूंगा। इति नमस्कारांते।

20 नवंबर, 1962
99 ए, लूकरगंज
इलाहाबाद

नरेश मेहता


मैं पृथीकृत हूं,
मेरे चक्र की लकीरों में
बँधी है धरा
सृष्टि
समय।

न सही आज
पर कल
पूजित त्रिपुण्ड सा
प्रत्येक मस्तक पर
वैशाखी वैश्वानर बन
दमकूँगा।

ओ पार्थिव ! दो पथ,
द्वार द्वार पहुँचे यह
रक्त-स्वेद श्लथ
देवरथ।

धूमकेतु : एक श्रुति


एक जगह पहुंच कर विगत को देखने पर लगता है जैसे दूर, नीचे कहीं टूटे खिलौनों की तरह अव्यवस्थित ढंग से विभिन्न शक्लों, रूप-रंगों तथा आकार-प्रकार में विगत अपने उन अनेक दिनों, व्यक्तियों तथा स्थानों में असंपृक्त भाव से पड़ा हुआ है जो आज भी हममें कहीं क्षीण आभास बन कर है। बरसों बाद हमारी गंभीरता तो चुनौती देते हुए हमारे कमरे में जैसे बचपन के खिलौने चल कर आ जायें तो हमें कैसे उलझन होती है न ?

विगत, कितना साधारण था उन दिनों घर, दीवारें, जिनमें लकड़ी के खंभे, जिन्हें रेंगते हुए अपने कच्चे नाख़ूनों से खुरचा करते थे और न खुरचे जाने पर रो दिया करते थे ! खंभे में लोहे के दीपदान पर रखी जलती ढिबरी की ओर मिट्टी मुंह में भरे कैसे ताकते होते थे ! ढिबरी भभकती तो हमारी पलकें भी झपकने लगतीं। छत के चंदोवे में क़तार से लगे क़ागज़ के रंगीन फूल, चारों ओर हाशिये में फ्रेमित धार्मिक चित्र, जिनके बीच शीशे पर लाल रंग की बनी बेगम तथा बेगम की वह बड़ी सी बुलाक कैसी लगती, जैसे अभी टूट कर आ गिर पड़ेगी !

पिता का वह ‘चित्र-सेवा’ वाला वैष्णवी अपरसी पूजा का भंडार, जहां से भोग के लड्डू, मिश्री कितनी ही बार चुरा कर खाये...चावल की गंध....पिता की बंगवई के कड़ों की ख़ास आवाज़...सब कितना असमाप्त होने वाला तथा देने वाला लगता था ! बड़ा ही रोज़-रोज़ का सा उदास भाव लगा करता था जैसे ये कभी नहीं बीतेंगे....केले के पत्तलों की पंगत...विभिन्न वर्णी सोले-मुकुटे में जीमते ब्राह्मण....रंगोली....अगरुगंध....ये सब कभी नहीं बीतेंगे। लेकिन तब क्या जानते थे कि व्यतीत तक व्यतीत जाता है। खुली खिड़की से वर्षा-फुहार चुनचुनाती देह को कैसे ठंडा कर जाती थी। नीम की कड़वी गंध रात-रात भर आती रहती।

दोपहर में उदासी को चीरती ‘चूड़ी बिल्लोर’ वाले की आवाज़ दूर-दूर तक आती रहती। पनचक्की का कान पकड़ देने वाली चीख़, पूरी शाम ही जैसे फोड़े सी दुखने लगती थी...और मन क्रमशः उनमें से होता हुआ अपने को पृथक करने लगता है बल्कि उन सब से निष्कृत होने के लिए कैसा व्यग्र होने लगता था। खिड़की पर झुके गली के सिर पर बड़ी सड़क से जाती हुई मोटर, उसकी धूल कैसी सगोत्री लगती कि इसमें बैठ कर यहां से दूर, जाने कितनी नदियों-नालों के पार मुक्ति है जहां न उदास दोपहर, न ये काग़ज़ के रंगीन फूल, न गोबर लिपा यह फ़र्श कुछ भी नहीं है...बल्कि कुछ अन्य ही है जिसके लिए अकुलाते हुए बच्चे से किशोर हुए हैं....और आज सचमुच ही पैरों चल कर अपने विगत के लिलीपुट से कितनी दूर, उस वांछित दूर आ पहुँचे हैं जिसके लिए हम उन दिनों आकुल थे।

स्मृतियां, बीज में निहित वृक्ष हैं। हम सब स्मृतियों के संग्रहालय हैं। जहाँ कोई भी मूर्ति या प्रतिमा अखंडित नहीं। समय, जल, धूप, कैसे हमारी इन मूर्तियों को काट जाता है, विकृत कर जाता है कि हम चौंक उठते हैं जब पिता का कबंध ही हमें दिखता है...तो, उनका सिर क्या हुआ ? हमारे पिता तो हममें सुरक्षित थे, जब यह कैसे हो गया ? उनके तंजेब के कुरते की तन्नी अभी भी हिलती हम अनुभव कर रहे होते हैं....बंगवई से नीचे लटकता झूला लेता उनका एक पैर झूले के साथ कैसे आता है, चला जाता है,. तो क्या पिता, पिता....?? किसी दिन हम स्वयं भी भावी इतिहास में ऐसे ही क्षीण, दूराभास से, अंगहीन धड़ मात्र ही रह जायेंगे ?

और कैसी घुटन होती है कि क्या यह अमूल्य जीवन एक दिन हमारी सारी चेष्टाओं को झुठला कर हममें से बीत जायेगा, खुली आंखें होने पर भी न ये आकाश, न धूप, न पुत्र, न परिवार—कुछ नहीं दीखेगा ? और हम जीवन की इस प्यास को अपने दांतों में कैसे चुपचाप कस कर थामे रहना चाहते हैं कि दांतों में दर्द होने लगता है...हम कितने सशंक मन से मां को अनुभवना चाहते हैं...और एक गोरा चूड़ियों भरा हाथ सामने आ जाता है जिस पर अभी भी गुदने की बिंदियां स्पष्ट दिख रही होती हैं....बस ? हम घबरा कर पूरी मां को गहना चाहते हैं....रान्नीघर से दीदी को फटकारती मां की आवाज़ आती है, ‘ससुराल जाओगी और परवल इस तरह बनाओगी तो सास कच्चा ही चबा जायेगी’, केवल आवाज़....मां....दूर दूर तक साड़ी में लिपटी आवाज़ बनी हमारे चारों ओर सुनायी भर पड़ती है...बस ? और हम घबरा कर दीदी को पकड़ना चाहते हैं।

सेवार से लंबे चिकने घने बाल सामने आ जाते हैं....हां, दीदी इन्हें ही धोया करती थीं। दीदी को सामने बैठाल कर इनमें ही तेल डाला करती थीं, लेकिन जब ब्याह के बाद दीदी आयी थीं तो कैसा बड़ा सा फूला फूला कनपटियों के पास लहर लेता जूड़ा बना था इनका....बालों के उस जूड़े में दीदी की बड़ी बड़ी आंखें उग आती हैं....लेकिन शेष ?....और शेष, किसी प्राचीन चित्र की आकृति सा क्षीण। जूड़ा और आंखें भी एक शोभायात्रा के समान गुज़र कर दूर होने की चेष्टा में होते हैं....और हम अपने भीतर की इस पारिवारिक भग्नता को छू लेना चाहते है लेकिन जैसे हमारा हाथ शीशेघर में रखे ताजमहल को नहीं छू पाता बल्कि टकरा जाता है कि व्यतीत छुआ नहीं जा सकता। व्यतीत जाने पर सब संबंधहीन हो जाता है।
और ये परछाइयां हममें गुंथती चली जाती हैं। कभी ढाक के जंगलों से होती हुई ये हमारे पीछे आ कर खड़ी हो जाती हैं तो कभी घोसिन के पंचरंगे हिलते घाघरे के साथ आ कर हमारे पैरों के नीचे होती हैं तो कभी अवंती पगली की भांति हंसते हुए मुंह में दांत भरे हमारे आगे आगे चलते हुए डाकती होती हैं।

हम सबके पास ऐसा संग्रहालय होता है। जो मैं सुना रहा हूं उसमें कोई विशेषता नहीं है। यह प्रश्न हो सकता है कि तब सुनाने की क्या आवश्यकता है ? वह इसलिए कि इसे संवहित करने में मेरा स्वत्व अनेक बार टूट टूट गया है। कोई अन्य इस सब पर ग्रंथ रच सकता था लेकिन मेरा प्रयोजन मात्र इतना ही है कि घटनाएं नदियों की भांति बह कर चली गयीं और मुझे डेल्टा कर गयी हैं। मैं यथातथ्य रूप में बात रख दूं, मेरी मात्र यही चेष्टा है। उन्हें कलात्मक रूप देना मेरा इष्ट नहीं, क्योंकि ऐसा करने पर कुछ मिथ्या को भी योजित करना पड़ता और मैं तब प्रयोजन-च्युत हो जाता।
एक कठिनाई यह है कि कहां से आरंभ करूँ ? यदि बीच के किसी केंद्र को लेता हूं तो कथा के बीच आप पूछेंगे कि फलां महाशय का कुल-शील क्या है ? या, वे साहब कौन हैं ? इसलिए श्रुति के प्रवाह की दृष्टि से बिलकुल शुरू से आरंभ करूं तो आप मेरे टूट टूट जाने की विवशता का अर्थ समझ सकेंगे।

एक धूप भरा सवेरा है। मास विशेष का कोई आग्रह नहीं, कारण की घटना ही ऐसी है। एक मालवी गुजराती मां, सांवली सी, बल्कि काफ़ी सांवली। जांघों तक धोती चढ़ाये एक बच्चे को जांघों पर औंधा लिटाये नहला रही है। खुले से आंगन के सिरे पर नहाने के लिए एक शिला है। सवेरे की धूप दीवारों पर तिरछी गिर रही है। पास की दीवार में बांस की अलगनी पर कुछ कपड़े सूख तथा टंग रहे हैं। बच्चा रोता जा रहा है और वह मां पीतल की गंगाल से गुनगुना पानी बच्चे पर डालते हुए पहले तो बड़बड़ाने लगती है लेकिन जब बच्चा चुप नहीं होता तो उसे ज़ोर से मारने लगती है। बच्चे की चीख़-पुकार सुनकर घर के और लोग भाग कर आते हैं। बड़े पिता, बा, धूप में हाथ जोड़े सूर्य को अर्ध्य दे रहे हैं। पड़ोसी मारवाड़ी दर्जनमां निकल आती है। ‘श्रृंगार’ के दर्शन के लिए मन्दिर जाने की तैयारी करती अड़ोस-पड़ोस की दूसरी औरतें निकल आती हैं और हाय हाय मच जाता है।

यह बच्चा मैं हूं।
मां की केवल यही अकेली स्मृति है। बहुत याद करता हूं कि मां और क्या थी ? लेकिन अपने जीवन भर की इस तरह स्मृति में मां की जांघ पर औंधे लेटे हुए नहलाती मां के हाथों की मार खाते हुए रोता हूं। इससे अधिक नहीं स्मरणता। मां, व्यक्ति होती है इसलिए उसका मुख याद करता हूं लेकिन व्यर्थ। केवल श्रुति जो कल्पना में है वह यह कि नंदन की मां को अपने गोरेपन का अत्यधिक गर्व है इसलिए गाहे-बगाहे मुझे सुनाया करती हैं और मेरी मां उलटा तवा थी लेकिन पानी था। काली मटकी के दही सी बत्तीसी थी। बेचारी जियी ही पांच बरस। ब्याह कर आयी। मैं हुआ। वह बीमार हुई। आख़िर दिनों में तो पागल भी हो गयी थी और उसके उपरांत तो चल ही बसी, लेकिन थी बड़ी सीधी ?

तीसरी पत्नी थी बेचारी.......
मैं इस श्रुति का साक्षी भर हूं, व्यक्ति का नहीं।
सांझ की बेला है धरधरी बखत।
उसी आंगन में दो आसनों पर बा (पिता के पिता) तथा मां (पिता की बुआ) संध्या कर रहे हैं। संध्या तारा उगने को है। ये दोनों वृद्ध भाई-बहन अपनी-अपनी गोमुखी में माला फेरते हुए बुदबुदा रहे हैं, ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय।’ दोनों के सामने तांबे के पंचपात्र, तरभाणा तथा आचमनी रखे हैं। पड़ोस के किसी राम-मंदिर के शंख-घड़ियाल तथा आरती के स्वर आ रहे हैं।

मुझसे सात-आठ बरस बड़ी दीदी इस समय चूल्हे के पास बाल चुचुआते, मर्दों की तरह धोती कमर से कसे, ज़रा से में थक जाने वाले नन्हे नन्हे हाथों से आटा गूंथती होती हैं। कढ़ाई में कोई भाजी सीझती हुई सुंसुआ रही होती। चूल्हे की आंच पर दीदी का मुख तांबे का हो जाता। रान्नीघर की गोबर लिपी दीवारों पर आंच का आभास भी मंद-तेज़ होता रहता। कोने में अलगनी पर चुन्नट किया हुआ रसोई का अपरस का अबूट्या टंगा हुआ रहता। सवेरे इसे पहनकर मां भोजन रांधती हैं। भोजन के बाद ही दीदी अपने चुचुआते चूलों की झारेंगी। दोनों बखत नहा कर ही भोजन बनाया जा सकता है।

घर में निर्जनी शांति है। बा या मां के खांसने की आवाज़ या फिर आटे को मांड़ते हुए पानी के लिए दीदी का बार-बार लोटे में हाथ डालने के और कोई शब्द शेष नहीं है। शेष, इस बड़े से घर के अनेक कोनों में एकांत अंधेरी सांझ-दीवार पर टंगी वंदनवार पर, अनाज की मटकियों की उतरेल पर, ऊपर, नीचे, बाहर, भीतर चुपचाप भर रही होती है।
इस लम्बे रान्नीघर के आख़िरी सिरे पर अभी देखते देखते ढेर सारा अंधेरा आया है। वहां लकड़ियां, कंड़ियां रखी जाती हैं। प्राय: उन गंजी लकड़ियों पर बिल्ली-बिल्ली या तो गुर्राते हुए झगड़ते या बच्चे जन कर बिल्ली अपने पेट से आवाज़ निकाला करती है। बिल्ली के बच्चे लकड़ियों पर झूलते हुए लुढ़का करते और बिल्ली संतुष्ट भाव से लेटी हुई उन्हें देखा करती। दीदी मुझे लकड़ियां ले आने के लिए भेजती हैं।

मैं सिहर उठता हूं। मुझे बिल्ली की वे चमकती आंखें उस अंधेरे में जड़ी रखती हैं। मैं तेज़ी से झपट कर एक लकड़ी खींच कर भागने की चेष्टा करता हूं, लेकिन वह उलझ कर रह जाती है और मैं चीख़ कर वापस भाग जाता हूं। ‘डरपोक कहीं का !’ दीदी झिड़कती हैं, लेकिन दीदी को क्या मालूम कि जिस लकड़ी को मैंने खींचा था उसे बिल्ली ने अपने पंजों से पकड़े रखा था। ‘झूठा !’

बा और मां पूजा समाप्त कर आसन बिछा, लोटा-गिलास भर कर भोजन के लिए चौके की सीमा के बाहर बैठ जाते हैं। दीदी को भोजन बनाना आये, के लिए प्राय सांझ को दीदी ही खाना बनाती हैं। मां और दीदी पीछे खाना खाती हैं। इस समय में तो बा और मैं ही खा रहे होते हैं। मां रह रह कर बताती जाती हैं। रान्नीघर की अकेली छोटी सी ढिबरी के नीचे बैठे हुए बा, मां की हिलती-डुलती छायाएं फ़र्श पर तथा दीवारों पर अनेक आकार ग्रहण कर लेती हैं। बा की नाक एक दीवार से चलकर दूसरी पर पहुंच कर कितनी अकेली, निरीह लगने लगती। बा की वह बेचारी अकेली नाक ! तभी सहसा मां का झुका सिर लंबोतरा हो जाता है। कभी कोई हाथ सांप की तरह रेंगता हुआ दीवार से फ़र्श पर उतरता होता है या फिर कांटे वाले जानवर की शक्लें बनती-मिटतीं। दीवार पर नाचती ये छायाएं मुझे रात में याद आतीं और अपने चारों ओर उनसे घिरा मैं दीदी से सट जाता रहा हूं। लगता कि प्रकाश एक थैला है जिसे बा-या मां क्यों नहीं इतना झाड़ते कि इसमें ढेर सारा प्रकाश आटे की तरह बरस पड़े और घर में दिन-ही-दिन हो जाये। ओह, प्रकाश !

खाना खा कर दीदी और मां बासन-चौका आदि करतीं। नींद के मारे मैं झुका पड़ता हूं, लेकिन इतने बड़े घर का बड़ा सा अंधेरा जैसे पास बैठे लगता। मैं दीदी और मां से सटकर बैठ जाता हूं। पीठ पीछे घिरे अंधेरे की तरफ़ देखने का साहस नहीं होता, जैसे अँधेरा धीरे-धीरे बड़े चुपके से मेरी पीठ पर कुछ लिख रहा है या नाखून चुभा रहा है। दीदी और मां जब ढिबरी ले कर दूसरे कमरे की तरफ चलती होतीं, मैं दोनों की टांगों में दुबका चल रहा होता हूं। दोनों कानों को कस कर बंद कर रखना है वरना अभी इन दीवारों को चीर कर अंधेरा ‘हूअ’ करके चौंका देगा।
और दिल धकधक करने लगता है।

रात। रात गर्मियों की रात है। ख़ूब खुला हुआ आकाश तना हुआ है। सारा मुहल्ला, सेरी ऊंघ रहे हैं। दूर यति महराज का बड़ा सा पीपल दक्षिण की ओर हरहरा रहा है। उत्तर में सेठ केसरीमल जी का विशाल नीम गंभीर आचार के साथ हिल रहा होता है। सप्तर्षि ठीक नीम के ऊपर चमक रही हैं। आकाश गंगा को बीचोबीच से काटते हुए फेन की नहर सी खिंची है। उजली रातों में सेरी, मकान सब दूध से धुल जाते हैं लेकिन कृष्ण पक्ष में अजीब नीलिमा होती है। अभी अभी गामोठ महाराज अपने चबूतरे पर टहलते हुए आधी रात तक ज़ोर ज़ोर से सस्वर जाने क्या क्या पाठ किया करते हैं। कहीं दूर पर पहरेदार ‘जागते रहो’ कहकर अंधकार जगा रहा होता है।

कैसा डर लगता है पर जब वह कहीं पास में आ कर टेरता है तो। मैं तकिये में सिर घुसा कानों में उंगली डार ‘राम-राम’ जपते हुए पहरेदार के ज़ोर से ‘जागते रहो’ पर बेंत की तरह कांप उठता हूं। नुक्कड़ वाली म्यूनिसीपाल्टी की लालटेन आधी रात होने पर रोज़ भभकती है। इस समय भी वह भभक रही है। केवल लोगों के खुर्राटे, खांसने या पानी पीने के शब्द ही बराबर मुझे सुनायी पड़ते हैं। मैं कस कर पलकों में नींद पकड़ने की चेष्टा करता हूं कि तभी कहीं से दो बिल्लियां कीसी खपरैल पर गुर्राती हुई ज़ोरों पर लड़ने लगती हैं। कोई बच्चा रोने लगता हैं।’

‘‘क्या है रे ?’
‘दीदी !’
और मेरी घिग्घी बंधी होती है।
‘क्या बात है ?’
मेरी फटी फटी आंखें देख कर दीदी अपने से सटा लेती है।
‘डर गया क्या ?’
‘नींद नहीं आती, दीदी !’


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